भगवान श्री कृष्ण की प्रार्थना एवं सुन्दर दीप प्रज्वलन के साथ आज के विवेचन सत्र का शुभारम्भ हुआ। श्री कृष्ण वन्दना के साथ गुरु चरणों में भी नमन किया गया। भगवान की अतिशय कृपा हम पर बरस रही है जिससे कि हम अपने जीवन को सार्थक करने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का मधुर रसपान कर रहे हैं। गीता गंङ्गा की अमृत धारा में गोते लगा रहे हैं और जीवन में एक अलग प्रकार के आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। हमारे इस जीवन के सुकर्म हैं या पूर्वजन्म के कोई सुकृत हैं, हमारे पूर्वजों के कुछ सुकृत हैं या इसी जन्म में किसी सन्त महात्मा की कृपा दृष्टि हम पर पड़ गई है, जिससे कि हमारा ऐसा भाग्योदय हुआ कि हम श्रीमद्भगवद्गीता के साथ जुड़ गए। इसके अतिरिक्त कुछ और कल्याणकारी नहीं हो सकता है। सन्तों ने, महापुरुषों ने बारम्बार श्रीमद्भगवद्गीता की महत्ता गायी है वैैसी और किसी ग्रन्थ की नहीं हैं। एक भजन की प्रस्तुति हुई।
भजन लिंक-
https://drive.google.com/open?id=1t6O0KbULU0T-LBtQrrO5JshFqd55EoLV&authuser=gitaparivar%40gmail....आज हम अनेक अध्यायों का विवेचन करते-करते पहले अध्याय पर पहुँचे हैं। बड़ी विचित्र-सी बात है, किसी भी ग्रन्थ का पठन करते समय अध्याय एक से शुरुआत कर हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं लेकिन यहाँ हम कह रहे हैं, कि अन्य अध्यायों का विवेचन करते-करते अब हम पहले अध्याय पर पहुँचे हैं। हमारे यहाँ शास्त्र अध्ययन और शास्त्र को समझने की अनेक परम्पराओं में सर्वोत्तम परम्परा, शास्त्र को गुरु के मार्गदर्शन के अनुसार एक क्रम में पढ़ने की परम्परा है।
सामान्य पुस्तक तो हम आरम्भ से अन्त तक, पहले पृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक पढ़ लेते हैं लेकिन शास्त्रों के अध्ययन हेतु सद्गुरु हमारी योग्यता के अनुसार क्रम बताते हैं, जिससे उस विषय में हमारी ग्राह्यता बढ़ती है। कथानक की दृष्टि से तो क्रम महत्त्वपूर्ण. होता ही है, लेकिन उपयोगिता की दृष्टि से एक क्रम का अनुसरण करना कुछ अलग बात है।
भगवद्गीता में प्रथम अध्याय में अर्जुन के विषाद की बात कही गई है, उसके बाद अचानक स्थितप्रज्ञ के लक्षणों को बताया गया है। आगे कर्मयोग, ज्ञानयोग में कुछ ऐसी भारी- भारी बातें पढ़ने में आती हैं जो शायद पहली बार गीता को स्पर्श करने वाले व्यक्ति के सिर से ऊपर निकल जाती हैं। गीताजी में उस व्यक्ति की रुचि बैठने की जगह, रुचि छूटने की आशंका बढ़ जाती है।
जब परम श्रद्धेय स्वामी जी जैसे सन्त बताते हैं कि सर्वप्रथम सबसे सुगम अध्याय बारह पढ़ा जाए और उसके बाद दिए गए क्रम अनुसार जब हम गीता को पढ़ने लगते हैं तब हमारे लिए वह भगवद्गीता सुगम हो जाती हैं, ग्राह्य हो जाती है।
अब हम महाभारत के चिन्तन द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के मूल दर्शन और चिन्तन को देखने का प्रयास करेंगे। हमारे यहाँ हिन्दू धर्म में जो साहित्य दर्शन है, उसे चार प्रकारों में बाँटा गया है:-
१) श्रुति साहित्य- जिसे सुनकर जाना जाता है। गुरु परम्परा में गुरु अपने शिष्य को वेद कण्ठस्थ कराते थे फिर शिष्य गुरु बनने पर अपने शिष्य को वेद कण्ठस्थ कराते थे।
२) स्मृति साहित्य- जो सामान्य लोगों के स्मरण करने योग्य हैं, जैसे मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, गीता स्मृति आदि।
३) इतिहास- हमारे यहाँ दो ग्रन्थ मूलतः इतिहास माने जाते हैं। एक वाल्मीकिजी लिखित रामायण और दूसरी महर्षि वेदव्यास जी लिखित महाभारत।
४) पुराण- महर्षि वेद व्यासजी ने अट्ठारह पुराणों की रचना की। उनमें से मुख्य है- श्रीमद्भागवदपुराण।
इन चारों को जानना सनातन धर्म को जानना है। इन चारों को जो जानता और मानता है और इनमें श्रद्धा रखता है, वह सनातनी है। हमारे गुरु भी वैसे ही होने चाहिए जो इन सभी में आस्था और श्रद्धा रखते हों। तभी हमारा कल्याण है।
श्रीमद्भगवद्गीता इन चारों प्रकारों में आती है, अर्थात् वह श्रुति भी है, स्मृति भी है। बारम्बार हमारे सन्तों ने बताया है वेदों का सार उपनिषद है उपनिषदों का सार श्रीमद्भगवद्गीता है। श्रीमद्भगवद्गीता इतिहास भी है क्योंकि यह महाभारत का प्रमुख हिस्सा है। अट्ठारह पुराण के रचयिता महर्षि वेद व्यास भगवान ने ही श्रीमद्भगवद्गीता का निरूपण किया है इसलिए पुराणों से भी सम्बन्ध हो गया। महाभारत के पञ्चम खण्ड में भीष्म पर्व के पच्चीसवें अध्याय से बयालीसवें अध्याय तक श्रीमद्भगवद्गीता है। यह अलग से कोई ग्रन्थ नहीं है।
महाभारत - श्लोक संख्या (असंख्य)
महाभारत विश्व का श्रेष्ठतम ग्रन्थ माना जाता है। इसे सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य कहते हैं। हम सभी यह जानते हैं कि महाभारत में एक लाख श्लोक हैं और चौबीस हजार श्लोक वाल्मीकि रामायण में। इनके बीच और कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है, लेकिन इस जानकारी को थोड़ा समझने की जरूरत है।
महाभारत के मूल ग्रन्थ में साठ लाख श्लाेक हैं। इनमें से तीस लाख श्लोक देवलोक के लिए है जो स्वर्ग में नारद जी के द्वारा गाए जाते हैं। पंद्रह लाख श्लोक पितृ लोक को दिए गए हैं जो असित और देवल ऋषियों द्वारा प्रसारित किए जाते हैं। चौदह लाख़ श्लोक यक्ष लोक के हैं जिसे शुकदेव महामुनि द्वारा गाये जाते हैं और बचे हुए एक लाख श्लोक मनुष्य लोक में हैं जिसकी जिम्मेदारी वैशम्पायन ऋषि की है। उनमें से भी थोड़े ही उपलब्ध हैं। वैशम्पायन ऋषि भगवान वेदव्यास जी के शिष्य थे। भगवान वेदव्यास जी ने महाभारत लिखते समय पहले से लिख दिया था कि राजा जन्मेजय ऐसा प्रश्न करेंगे और वैशम्पायन ऋषि महाभारत सुनायेेंगे क्योंकि महर्षि वेदव्यास जी त्रिकालदर्शी थे।
महाभारत- वक्ता और श्रोता-
महाभारत ग्रन्थ मे वक्ता ऋषि वैशम्पायन हैं जब कि श्रोता हैं राजा जन्मेजय जो राजा परीक्षित के पुत्र हैं। हम सभी जानते है परिक्षित जी के पिता अभिमन्यु और अभिमन्यु के पिता अर्जुन थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अर्जुन के प्रपौत्र को बताया जानेवाला उनके दादाओं का इतिहास है महाभारत। मूल महाभारत के दो वक्ता और दो श्रोता रहे हैं। वैशम्पायन और सूत ये दो वक्ता और जन्मेजय तथा शौनक ये दो श्रोता।
महाभारत ग्रन्थ के रचनाकार-
महाभारत का लेखन - अट्ठारह पुराणों की रचना के बाद भगवान महर्षि वेदव्यास जी के मानस में विचार आया कि एक महाकाव्य की रचना की जाए। बहुत कम समय में यह काम करना है। वे ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने कहा आपकी प्रेरणा से एक महाकाव्य की रचना करने की मन में युक्ति आयी है। मन में शीघ्रता से आते हुए विचारों को लिखना उनके स्वयं के लिए असम्भव है। मुझे ऐसा लेखक चाहिए जो मेरे मन में तीव्र गति से आते हुए विचारों को शीघ्रता से लिख सके। ब्रह्माजी ने कहा यह प्रेरणा मेरे कारण आयी है। मैं चाहता हूँ आपके द्वारा ऐसे महाकाव्य की रचना हो। आप यथाशीघ्र गणेश जी के पास पधारें और उनसे कहें, मेरी यह प्रार्थना है। गणेश जी ने एक शर्त रखी कि मैं तभी लिखूँगा जब बिना रुके श्लोक सुनाए जाएँगे, वेदव्यास जी ने शर्त मान ली, लेकिन उन्होंने भी अपनी एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक बिना समझे न लिखा जाए। बात ऐसी है कि श्लोक रचना के दौरान कुछ समय मिल जाए इसलिए वेदव्यास जी कुछ कठिन श्लोक बीच-बीच में डाल देते थे। महाभारत में इन "कूट श्लोकों" की संख्या अट्ठासी हजार है। अब ये कूट श्लोक कौन से हैं यह तो हमें नहीं पता, लेकिन इन श्लोकों को बीच-बीच में डालने की वजह से गणेश जी के लिखने की गति कुछ कम हो जाती थी और व्यास जी को श्लोकों की रचना करने हेतु पर्याप्त समय मिल जाया करता था।
महाभारत ग्रन्थ कहाँ लिखा गया?
प्राप्त जानकारी के अनुसार बद्रीनाथ के पास एक माना गाँव है, वह आज भी है, वहाँ अलकनन्दा और सरस्वती नदियों के तट पर बैठकर व्यास जी ने इसकी रचना की और गणेश जी ने महाभारत को लिखा। सम्पूर्ण लेखन में एक निरन्तरता रही। जिसे अविरल लेखन कहा जाए। इस प्रकार का लेखन हुआ और लगातार लिखते हुए इस ग्रंन्थ का लेखन तीन वर्षों में सम्पन्न हुआ। महाभारत के रचनाकार के लिए अट्ठारह इस संख्या का बहुत महत्त्व है। महाभारत में अट्ठारह पर्व हैं, आदि पर्व से लेकर भीष्म पर्व तक। भीष्म पर्व में पच्चीसवें अध्याय से बयालीसवें अध्याय तक (पुन: अट्ठारह अध्याय) श्रीमद्भगवद्गीता कही गई है। महाभारत का मूल नाम महाभारत नहीं है। इसका नाम है जय। जो इस ग्रन्थ को पढ़ता है जीवन के हर क्षेत्र में उसको विजय मिलती है।
महाभारत मूल नाम
महाभारत ग्रन्थ का मूल नाम था जय संहिता। लेकिन बाद में उसका नाम महाभारत कैसे पड़ा, यह कथा बड़ी रोचक है। भारत शब्द का अर्थ है भारी। किसी बात में वजन होना, कोई चीज़ बढ़िया होना, उसे हम कहते हैं भारी। वेद इसी कारण से भारत कहलाते थे। जब जय संहिता लिखा गया तब उसकी तुलना वेदों से की गई। उनमें से कौन अधिक भारी है यह जानने के लिए तुला के एक पलड़े पर चार वेदों को रखा गया और दूसरे पलड़े पर रखा गया जय संहिता, वह ग्रन्थ चार वेदों से भी भारी पड़ा, इसलिए उसके लिए सभी ऋषि मुनियों ने सर्वसम्मति से "महाभारत" का नाम स्वीकार किया। एक दूसरे से तुलना नहीं हो इसके लिए बाद में महाभारत को पञ्चम वेद की संज्ञा भी दी गई।
महाभारत - पात्र संख्या
महाभारत में पाँच हजार पात्र हैं। सज्जन-दुर्जन सभी प्रकार के पात्र। ऐसा कहा जाता है कि जिस व्यक्ति ने ठीक से महाभारत पढ़ी है उसे महाभारत में अपने जैसा कम से कम एक पात्र तो अवश्य मिल जाएगा। इसीलिए माना जाता है कि जो कुछ इस विश्व में है वह सब कुछ महाभारत में है और जो महाभारत में नहीं है वह और कहीं भी नहीं है।
महाभारत - कथावस्तु
महाभारत की कथा मूलतः कुरु वंश की कथा है। "कुरुवंश वृक्ष" महाराजा कुरु से शुरु होकर शान्तनु, देवव्रत, धृतराष्ट्र, पाण्डु, पाण्डव और उनके प्रपोत्रों तक फैला हुआ है। इस कुरु वंशवृक्ष मे उल्लिखित राजा शान्तनु की प्रथम पत्नी गंङ्गा से प्राप्त पुत्र भीष्म (देवव्रत), दूसरी पत्नी सत्यवती से प्राप्त पुत्र चित्राङ्गदा और.विचित्रवीर्य। सत्यवती के विवाह से पूर्व ऋषि पाराशर से प्राप्त पुत्र महर्षि वेद व्यास।

विचित्रवीर्य की पत्नी अम्बिका से प्राप्त पुत्र धृतराष्ट्र और दूसरी पत्नी अम्बालिका से प्राप्त पुत्र पाण्डु।
धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी से प्राप्त पुत्र दुर्योधन, दुशला, दुशासन और अन्य अट्ठानबे पुत्र। पाण्डु की पत्नी कुन्ती से प्राप्त पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन, दूसरी पत्नी माद्री से प्राप्त पुत्र नकुल और सहदेव। अर्जुन की पत्नी सुभद्रा से प्राप्त पुत्र अभिमन्यु। इन चरित्रों से जुड़ी अनेकानेक कथाएँ हम सुनते आए हैं।
महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता
गीता शब्द का अर्थ है भगवद् प्राप्ति हेतु गाया जाने वाला गान। इस अर्थ में अनेक गीताएँ हैं, लेकिन भगवद्गीता का महत्त्व अलग ही है। किसी भी अभ्यास के लिए आचार्य बनना हो तो भगवद्गीता पर भाष्य लिखना अनिवार्य था। इस तरह से शांकर भाष्य, रामानुजम भाष्य, ज्ञानेश्वरी, गीता रहस्य आदि अनेक गीताएँ लिखी गईं।
गीता पर लिखित मान्य और प्रमाणित भाष्यों की संख्या अट्ठारह सौ से अधिक है। जिस प्रकार योगानन्द द्वारा लिखी गई गीता और विनोबा जी द्वारा लिखी गीता आज के समय में प्रसिद्ध है, उसी प्रकार सर्वाधिक प्रमाणित और सबसे सहज ऐसी ही गीता है साधक संजीवनी। गीता तो सब रत्नों की खान है। इसमें ऊँच-नीच कोई नहीं। यह गीता उस गीता से अच्छी ऐसा कुछ भी नहीं, लेकिन भगवद्गीता का अध्ययन सबसे अधिक किया जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता व दिव्यदृष्टि
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रादुर्भाव महाभारत युद्ध के दसवें दिन हुआ। युद्ध के दौरान जब दसवें दिन भीष्म पितामह शर शैय्या पर आए तब यह समाचार धृतराष्ट्र को देने के लिए सञ्जय जी राजमहल में वापस आए। ऐसी बात नहीं है कि सञ्जय जी ने युद्ध भूमि पर बैठकर धृतराष्ट्र जी को गीता सुनाई हो। भीष्म जी के गिरने का समाचार लेकर जब वे राजमहल पहुँचे तब धृतराष्ट्र बहुत व्यथित हो गए और सञ्जय जी से युद्ध का सम्पूर्ण वृतांत सुनाने की बात कही। सञ्जय जी को जो दिव्य दृष्टि प्राप्त थी उसके आधार पर अपनी स्मृति में बसे हर दिन की गाथा जैसी की तैसी उन्होंने धृतराष्ट्र जी को सुनाई। बाद में त्रिकालदर्शी कहलाने वाले महर्षि वेदव्यास जी ने वह गाथा वैसी की वैसी लिखी। इसीलिए गीता को भगवान की साक्षात् वाणी कहा गया है।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता, दुग्धं गीतामृतं महत्॥
अर्थात् स्वयं गोपाल नन्दन भगवान कृष्ण दोग्धा यानी दूध निकालने वाले बने, सारे उपनिषद गायें हैं। इसका सुधी रूपी दूध अथवा रस गीता है। इसका पान करने वाला वत्स यानी बछड़ा पार्थ (अर्जुन) है। हम सब भाग्यशाली हैं कि अर्जुन के कारण यह सुधा पान कर रहे हैं।
यह सुधा केवल सुधीरों (धैर्यवान) के लिए ही है। उन्हें ही इस रस का पान करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। जिसकी मति धैर्यवान नहीं है तो वह व्यक्ति गीता के मार्ग में नहीं आ सकता। अर्जुन में धैर्य बहुत है इसलिए अर्जुन ने गीता का उपदेश सुनकर चरितार्थ भी किया।
श्रीमद्भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में अर्जुन कहते हैं-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत।
अर्जुन कहते हैं कि आपकी कृपा से मेरी सारी स्मृति वापस आ गई है और मेरा मोह नष्ट हो गया है। यह तभी नष्ट हो सकता है जब हमारी मति धैर्यवान हो। हमें थोड़ा सा पार्श्वभूमि में जाकर देखना चाहिए कि यह युद्ध हुआ क्यों?
हस्तिनापुर के राज्य के अधिपति (राजा) शान्तनु के पुत्र भीष्म हैं। राज्य पर भीष्म का अधिकार था किंतु परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि शान्तनु के कारण भीष्म को प्रतिज्ञा करनी पड़ी कि "मैं स्वयं सिंहासन पर नहीं बैठूँगा और न ही मैं विवाह करूँगा।" इतनी कठोर प्रतिज्ञा जब भीष्म ने की और उसको निभाया तो आज भी लोग कोई बड़ी कठिन प्रतिज्ञा करते हैं तो उसको भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सम्बोधित किया जाता है। भीष्म की प्रतिज्ञा का मुख्य कारण सत्यवती के विवाह की शर्त थी। सत्यवती के पिता ने राजा शान्तनु से इसी शर्त पर सत्यवती का विवाह किया था कि उससे उत्पन्न पुत्र ही सिंहासन का अधिकारी होगा। अपने पिता की होने वाली पत्नी के पुत्रों को राज्य अधिकार मिल जाए इसलिए स्वयं भीष्म ने ऐसी प्रतिज्ञा की। फिर शान्तनु का विवाह सत्यवती के साथ हुआ।
सत्यवती को दो पुत्र हुए उनमें से एक था विचित्रवीर्य जो राजा तो बने किंतु यह निपुत्र ही स्वर्गवासी हो गए, उन्हें कोई पुत्र नहीं हुआ। दूसरे पुत्र ने विवाह ही नहीं किया, सिंहासन फिर खाली हो गया। विचित्रवीर्य की दो पत्नियाँ थी। एक का नाम था अम्बिका और दूसरी अम्बालिका। ये तीन बहनें थी - अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका, जिन्हें काशी नरेश से जीतकर भीष्म हस्तिनापुर लाए थे परन्तु अम्बा शाल्व से प्रेम करती थी। भीष्म और सत्यवती ने उदारता दिखलाकर अम्बा को शाल्व के पास जाने की आज्ञा दे दी। किन्तु जब वह शाल्व के पास पहुँची तो उसने उसे ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने शाल्व को सच्चा हाल समझाने की बड़ी चेष्टा की, किंतु कुछ फल नहीं हुआ। अंत में वह बड़ी दुःखी और आहत थी। उसने एक प्रतिज्ञा कर ली कि जो भीष्म मुझे मेरी इच्छा के विपरीत यहाँ लाया है उसके वध का कारण मैं बनूँगी। उसने पुनर्जन्म लिया और शिखण्डी बनकर यह व्रत पूर्ण किया।
विचित्रवीर्य की मृत्यु के पश्चात सत्यवती के अपने विवाह से पूर्व प्राप्त पुत्र तपस्वी महर्षि वेदव्यास को बुलाया और कहा कि आप अम्बिका और अम्बालिका को अपने तपोबल से गर्भधारण करवाएँ। इस विधि के लिए जब वेदव्यास पहले अम्बिका के पास पहुँचे तो रानी ने जब उनका तेज देखा तो उसकी आँखें बंद हो गई। आँखें बंद होने से उसको जो पुत्र प्राप्त हुआ वह धृतराष्ट्र हुए जो नेत्रान्ध थे। दूसरी रानी उन्हें देखकर डर से एकदम पीली हो गई। उनसे जो पुत्र प्राप्त हुआ उसका नाम पाण्डु रखा। ऐसी गड़बड़ होने से एक बार पुन: विधान करने का तय हुआ। लेकिन रानी ने अपनी दासी को भेज दिया। वह बिना डरे सारे विधि विधान करती जा रही थी जो उन्होंने करवाए। उससे जो पुत्र प्राप्त हुआ वह विदुर हुए।
धृतराष्ट्र पाण्डु से बड़े थे लेकिन जन्म से ही नेत्रहीन होने के कारण धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राजा नहीं बनाया गया और उनसे छोटे पाण्डु को राजगद्दी पर बैठाया गया। पाण्डु निस्तेज तथा अल्पायु भी थे। उनके पश्चात धृतराष्ट्र को पाण्डु के बड़े पुत्र युधिष्ठिर को युवराज घोषित करना चाहिए था लेकिन धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह के कारण अपने सबसे बड़े पुत्र दुर्योधन को युवराज घोषित कर दिया। इसमें सबसे बड़ी भूमिका धृतराष्ट्र के शालक यानी साले गन्धार नरेश के पुत्र शकुनी की थी। शकुनी बड़ा कुटिल व्यक्ति था। द्यूत-क्रीड़ा में पाण्डवों की हार हुई और उन्होंने अपना सब कुछ उसमें खो दिया। बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास उन्हें लेना पड़ा। वे बारह वर्ष के लिए द्रौपदी के साथ वन में चले गए। धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने मध्यस्थता करने आए श्रीकृष्ण को यह कह दिया कि सुई के अग्रभाग पर जितनी भी मिट्टी बैठती है, हम इतनी मिट्टी भी पाण्डवों को बिना युद्ध नहीं देंगे। उस समय भगवान को अपना विराट रूप दिखाना पड़ा।
भगवान ने अपने विराट रूप तीन बार दिखाए हैं। सबसे पहले बचपन में अपना विराट रूप माता यशोदा को मुख में दिखाया। दूसरी बार दुर्योधन के कारण राज्यसभा में दिखाना पड़ा। तीसरी बार युद्ध के मैदान में अर्जुन को देखने को मिला।
अर्जुन ने सात अक्षौहिणी सेना और दुर्योधन ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना इस प्रकार कुल अट्ठारह अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। महाभारत के भीष्म पर्व के बीचों-बीच गीता का प्राकट्य हुआ है। गीता लोगों का संवाद है। धृतराष्ट्र, सञ्जय, तीसरा अर्जुन और चौथे हैं कृष्ण। एकमात्र श्लोक है जो धृतराष्ट्र के मुख से निकला। भगवद्गीता सुनने वालों में वास्तव में धृतराष्ट्र एक है फिर भी नहीं के बराबर हैं क्योंकि उनमें धैर्य नहीं था।
गीता माहात्म्य
भगवद्गीता के आरम्भ में ही गीता महात्म्य के सात श्लोक हैं जिनको पढ़ते हुए हम अध्याय एक की शुरुआत करेंगे
अथ गीतामाहात्म्यम्
गीताशास्त्रमिदं(म्) पुण्यं(म्) यः(फ्) पठेत्प्रयतः(फ्) पुमान्
विष्णोः(फ्) पदमवाप्नोति भयशोकादिवर्जितः॥1॥
गीता माहात्म्य- जो मनुष्य शुद्धचित होकर प्रेमपूर्वक इस पवित्र ग्रन्थ गीताशास्त्र का पाठ करते हैं, वह भय और शोक आदि से रहित होकर विष्णुधाम को प्राप्त करते हैं।
गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च।नैव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च॥2॥
जो मनुष्य सदा गीता का पाठ करने वाला है तथा प्रणायाम में तत्पर रहता है, उसके इस जन्म और पूर्वजन्म में किये हुए समस्त पाप निःसंदेह नष्ट हो जाते हैं।
मलनिर्मोचनं(म्) पुंसां(ञ्) जलस्नानं(न्) दिने दिने
सकृद्गीताम्भसि स्नानं(म्) संसारमलनाशनम्॥3॥
जल में प्रतिदिन किया हुआ स्नान मनुष्यों के केवल शारीरिक मल का नाश करता है परन्तु गीताज्ञानरूप में एक बार भी किया हुआ स्नान सान्सारिक मल को नष्ट करने वाला है।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः(श्) शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥4॥
जो साक्षात् कमलनाभ भगवान विष्णु के मुखकमल से प्रकट हुई है, उस गीता का ही भली-भाँति गान (अर्थसहित स्वाध्याय) करना चाहिये, अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन हैं ।
भारतामृतसर्वस्वं(म्) विष्णोर्वक्त्राद्विनि:सृतम्।गीतागङ्गोदकं(म्) पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥5॥
जो महाभारत का अमृतोपम सार है तथा जो भगवान श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हुआ है, उस गीतारूपी गंङ्गाजल को पी लेने पर पुनः इस सन्सार में जन्म लेना नहीं पड़ता हैं
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः(स्) सुधीर्भोक्ता दुग्धं(ङ्) गीतामृतं(म्) महत्॥6॥
सम्पूर्ण उपनिषद गौ के समान हैं, गोपालनन्दन
श्रीकृष्ण ही दुहने वाले हैं, अर्जुन बछड़ा है तथा महान गीतामृत ही उस गौ का दुग्ध है और शुद्ध बुद्धिवाला श्रेष्ठ मनुष्य ही इसका भोक्ता है।
एकं(म्) शास्त्रं(न्) देवकीपुत्रगीतमेको देवो देवकीपुत्र एव।एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं(न्) तस्य देवस्य सेवा॥7॥
देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का कहा हुआ गीता शास्त्र ही एकमात्र उत्तम शास्त्र है, भगवान देवकीनन्दन ही एकमात्र महान देवता हैं, उनके नाम ही एकमात्र मन्त्र हैं और भगवान की सेवा ही एकमात्र कर्त्तव्य कर्म है।