विवेचन सारांश
सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक गुणों के अनुरूप आचरण
17.1
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य, यजन्ते श्रद्धयान्विताः|
तेषां(न्) निष्ठा तु का कृष्ण, सत्त्वमाहो रजस्तमः||17.1||
विवेचन - जन्म और मृत्यु के बीच में खड़े हुए अर्जुन का हर प्रश्न जो वह श्रीकृष्ण से पूछ रहे हैं बड़ा मौलिक व महत्वपूर्ण है। दो सेनाओं के मध्य जहाँ एक सेना जीत जाएगी एक सेना हार जाएगी, एक सेना बच जाएगी और दूसरी सेना खत्म हो जाएगी। हमारी शास्त्र स्मृतियाँ अनन्त हैं। शास्त्रों को समझने के लिए एक पूरा जन्म भी कम होगा। सारे नियम ध्यान में रखना कई बार मुश्किल ही नहीं असम्भव होता है। युद्ध भूमि में ऐसा प्रश्न मौलिक एवं महत्वपूर्ण है।
यदि शास्त्रों का संपूर्ण ज्ञान न हो तो क्या श्रद्धा से किया हुआ कार्य सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक है? क्या केवल श्रद्धा से किया हुआ कार्य स्वीकृत है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए ज्ञान को समझने के लिए व्यक्ति को अर्जुन जैसा ही बनना जरूरी है क्योंकि अर्जुन श्री कृष्ण को अपने गुरु मान चुके हैं और श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को अपना सखा जानकर उसके हर प्रश्न का प्रेम से उत्तर दिया है। गुरु और शिष्य के उस भाव को जानना भी जरूरी है। जब श्रीकृष्ण बोले तो न केवल अर्जुन ने सुना बल्कि सञ्जय और धृतराष्ट्र ने भी सुना। धृतराष्ट्र का गीता में केवल एक प्रश्न है केवल पहला प्रश्न दोबारा प्रश्न नहीं कर पाए। उसके बाद सञ्जय बोले पर धृतराष्ट्र ने कोई प्रश्न नहीं किया। शास्त्र पढ़ने के लिए भाव का होना जरूरी है।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पण्डित भया न कोई
ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पण्डित होय।।
श्रीकृष्ण के लिए प्रेम का भाव नहीं होगा तो गीता का उपदेश समझ नहीं आ सकता। गीता का उद्देश्य और कारण अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करना था जो अर्जुन हतप्रभ हो गया था व मोह और निराशा से भाग रहा था। अर्जुन तो युद्ध में मरने के लिये तैयार था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि युद्ध करना पाप नहीं है अगर वह जीते तब भी और अगर हार जाएगा तब भी स्वर्ग को प्राप्त होगा।
किसी भी राज्य में स्त्री का अपमान करने वालों का नाश करना उस राज्य की सरकार का उद्देश्य होना चाहिए। ऐसा ही क्षत्रिय धर्म है। द्रौपदी के अपमान का बदला लेना पाप नहीं है बल्कि धर्म है। भगवान श्री कृष्ण समझाते हैं कि हिंसा के मार्ग से भी ऊपर है न्याय का मार्ग, जिस पर चलकर तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। महावीर एवं महात्मा बुद्ध का मार्ग संन्यास का मार्ग है। लेकिन कृष्ण का मार्ग जीवन का मार्ग है। युद्ध तो निरन्तर है, कई बार मन में कई प्रकार के युद्ध चलते हैं। युद्ध का सामना तो करना ही पड़ेगा धर्म की राह कैसे अपनायें यह ध्यान रखना पड़ेगा। मन का युद्ध तो निरन्तर चलता ही रहता है, पर जीवन और मृत्यु के बीच में चलने वाले युद्ध में मन को शान्त करना श्रीगीता सिखाती है।
हिमालय की गुफा में तो कोई भी शान्त हो सकता है लेकिन भीड़ में शान्त रखना यह कला गीता सिखाती है। एक तपस्वी ने तीस साल हिमालय पर तपस्या की। त्रिवेणी संगम पर कुम्भ के मेले में स्नान के लिए आया। बहुत ही भीड़ थी किसी व्यक्ति का पैर उसके पैर पर आ गया। पीड़ा से व्याकुल वह क्रोधित हुआ व गाली गलौज करने लगा। आश्रम में लौटकर उसने सोचा इतने सालों की तपस्या के बाद भी जीवन के संग्राम में मैं शान्त नहीं रह पाया। सब निरर्थक हो गया।
जीवन निरर्थक जाने न पाए
हे नाथ अब तो ऐसी दया हो
जीवन निरर्थक जाने न पाए
यह मन ना जाने क्या क्या कराए
कुछ बन ना पाया बने बनाए।।
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा, देहिनां(म्) सा स्वभावजा|
सात्त्विकी राजसी चैव, तामसी चेति तां(म्) शृणु||17.2||
विवेचन - प्रकृति के आश्रय में रहने से व्यक्ति में तीनों तरह के गुण पैदा होते हैं। तीनों गुणों में सन्तुलन होना आवश्यक है यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति में तामसिक गुण न हो। व्यक्ति को निद्रा आवश्यक है किसी भी व्यक्ति को निद्रा के बिना रहना मुश्किल है। दिमाग का संतुलन खराब होता है निद्रा तामसिक गुणों से प्राप्त होती है सात्विक होने से सन्तुलन खराब होगा छोटा बच्चा काफी लंबे समय तक सोता है फिर स्कूल जाने के दिनचर्या में सात-आठ घण्टे सोता है। चौबीस घण्टे जगने वाले लोग मानसिक सन्तुलन में नहीं रहते। प्रकृति के पुत्र हैं प्रकृति के आश्रय में रहना है तो प्रकृति के नियमों से चलना पड़ेगा। अगर रात होती हैअन्धेरा छाता है तो तम आता है अगर सत्व ही सत्व हो तो सन्तुलन खराब हो जायेगा।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य, श्रद्धा भवति भारत|
श्रद्धामयोऽयं(म्) पुरुषो, यो यच्छ्रद्धः(स्) स एव सः||17.3||
यजन्ते सात्त्विका देवान्, यक्षरक्षांसि राजसाः|
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये, यजन्ते तामसा जनाः||17.4||
अशास्त्रविहितं(ङ्) घोरं(न्), तप्यन्ते ये तपो जनाः|
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः(ख्), कामरागबलान्विताः||17.5||
कर्शयन्तः(श्) शरीरस्थं(म्), भूतग्राममचेतसः|
मां(ञ्) चैवान्तः(श्) शरीरस्थं(न्), तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्||17.6||
आहारस्त्वपि सर्वस्य, त्रिविधो भवति प्रियः|
यज्ञस्तपस्तथा दानं(न्), तेषां(म्) भेदमिमं(म्) शृणु||17.7||
आयुः(स्) सत्त्वबलारोग्य, सुखप्रीतिविवर्धनाः|
रस्याः(स्) स्निग्धाः(स्) स्थिरा हृद्या, आहाराः(स्) सात्त्विकप्रियाः||17.8||
अक्षय तृतीया के बाद आम का घरों में इस्तेमाल होना तथा इसी तरह दूसरे फलों का मौसम के साथ साथ उपयोग करना सात्त्विक आहार है। प्रत्येक वैज्ञानिक सिद्धान्त की पुष्टि के लिये उसे श्रद्धा से जोड़ दिया गया। जो सबके लिये ग्राह्य हुआ।
कट्वम्ललवणात्युष्ण, तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः|
आहारा राजसस्येष्टा, दुःखशोकामयप्रदाः||17.9||
महाराष्ट्र में रविवार को मिसल पाव खाने का ही दिन समझा जाता है विदेशी भी आए तो मिर्च का तड़का लगा हुआ मिसल पाव खिला दिया जाता है। जो चीजें पसन्द आती हैं पेट के लिए सही नहीं होती यह बहुत महत्वपूर्ण बात है जैसा भोजन करते हैं वैसा मन होता जाता है जैसा पानी वैसी वाणी। भगवान के भोग में काँच के गिलास में पानी नहीं रखा जाता, चाँदी या ताम्बे का होना चाहिए क्योंकि काँच को पानी से ही साफ कर दिया जाए तो भी साफ लगता है पर उसे अशुद्ध माना जाता है।
यातयामं(ङ्) गतरसं(म्), पूति पर्युषितं(ञ्) च यत्|
उच्छिष्टमपि चामेध्यं(म्), भोजनं(न्) तामसप्रियम्||17.10||
आज के विवेचन को यहाँ विश्राम दिया गया। इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न कर्ता - राजेन्द्र भइया
प्रश्न - कृपया श्लोक 6 का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर - जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान जो शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ”कृश करना” है।
प्रश्न कर्ता - रेनू दीदीप्रश्न - तीनों गुणों से ऊपर उठकर कार्य करने से किस पद को प्राप्त होते हैं?
उत्तर -किसी भी व्यक्ति को अपना लक्ष्य निर्धारित करना होता है उसके अनुसार ही कार्यरत रहना आवश्यक है, अगर क्षत्रिय भाव है आहार भी वैसा ही लेना होगा। अगर विद्यार्थी हैं तो बहुत मेहनत के लिए वैसा ही भाग लेना होगा इसलिए अपना लक्ष्य निर्धारित रखें और उसके लिए कार्यरत रहें।
प्रश्न कर्ता - वैंकेश भैया
प्रश्नः गन्धर्व एवं यक्ष में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर - जैसे आप किसी भी कार्य के लिए किसी बैंक में कार्यरत हैं तो वहाँ हर पदवी का विभाजन हुआ है और कार्य भी उसी अनुसार होता है ऐसे ही समस्त सृष्टि को चलाने के लिए कार्य का विभाजन हुआ है।
प्रश्न कर्ता - सोमन ललित भईया
प्रश्न - बासी आहार किसे कहेंगे आजकल के जीवन शैली में रेफ्रिजरेट किए हुए आहार को तामसिक कहा जाएगा?
उत्तर - आहार तो तामसिक ही हुआ लेकिन जीवनशैली बदलने से उस भोजन को अधिक सम्भाल कर बैक्टीरिया से बचाकर इस्तेमाल किया जाता है पुराने समय में यह चीजें नहीं थी तो आहार बाहर रहकर खराब होने का ज्यादा भय रहता था लेकिन बासी भोजन तामसिक ही होता है।
प्रश्न कर्ता - सॉमन्दर रॉय बेरा भैया
प्रश्न - डॉक्टर के अनुसार प्रोटीन डाइट लेना आवश्यक है क्या यह शास्त्र विरुद्ध होगा?
उत्तर - डॉक्टर के अनुसार लिया हुआ भोजन हमारे शरीर के लिए दवाई के समान है लेकिन उसे जिस भाव से खा रहे हैं वह भाव उसे तामसिक बनाता है। प्रोटीन डाइट तो सही भाव से ली जाए तो शाकाहारी भी हो सकती है।
प्रश्न कर्ता - शशि दीदी
प्रश्न - कृपया अमृत या मृत कहना है इसके बारे में स्पष्ट करें।
उत्तर - कई श्लोक में अलग-अलग तरह की सन्धि का प्रयोग होता है उसे ध्यान से समझ ले व जहाँ अमृत कहना है वहाँ अमृत ही कहें।
प्रश्नकर्ताः बालाराम दास भैया
प्रश्न - सञ्जय किस प्रकार यह सारा विवरण कर पाए वह कैसे चरित्र के और कितने विश्वास के योग्य थे?
उत्तर - जहाँ कृष्ण है वहाँ विजय ही होगी और लक्ष्मी भी आएगी ऐसा कहने वाले सञ्जय निर्भीक एवम धृतराष्ट्र के विश्वसनीय थे।
प्रश्नकर्ताः रश्मि नानेकर दीदी
प्रश्न - यदि बच्चा गलती करे और माता-पिता भगवान से प्रार्थना करें कि उसको वही मिले जो वह कर्म कर रहा है तो क्या वे बुरे माता-पिता हैं ?
उत्तर - माता-पिता को हमेशा बच्चों के लिए शुभ की प्रार्थना करते रहना चाहिए। नियति से जो निर्धारित है वह तो कर्मानुसार मिलेगा परन्तु माता-पिता को हमेशा बच्चों के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए।
प्रश्नकर्ताः रमाकांत ठहरे भैया
प्रश्न - आज के युग में देवता और यक्ष में क्या अन्तर है?
उत्तर - प्रत्येक विभाग की स्थापना और कार्य प्रणाली को चलाने के लिए कार्य का विभाजन होता है ऐसे ही समस्त ब्रह्माण्ड को चलाने के लिए अलग-अलग पद, विभाग एवं कार्य विभाजित हैं।
प्रश्नकर्ताः स्नेह लता दीदी
प्रश्न - गायत्री मंत्र में “धी” आता है उसका क्या अर्थ है?
उत्तरः "धी” का अर्थ है बुद्धि
प्रश्नकर्ता- उमा लोहिया दीदी
प्रश्न - शास्त्र-विधि क्या है?
उत्तर - शास्त्र विधि बहुत विस्तार से लिखी गई है समस्त शास्त्र विधि को जानने के लिए एक जन्म पर्याप्त नहीं है, श्रद्धा और विवेक से निर्णय करना पूजन करना व भाव का शुद्ध होना भी श्रेष्ठ है।