विवेचन सारांश
नैष्कर्म्य एवं निष्काम कर्म की तुलना
पूज्य स्वामी जी का आदेश है, कि प्रधान कर्त्तव्य को प्रधानता देनी चाहिए। श्रीगीता जी की सेवा करना हमारा प्रधान कर्त्तव्य है। तेईस से अट्ठाइस मई तक, पाञ्च दिवस राष्ट्रीय कार्यकर्ता सम्मेलन सङ्गमनेर में हुआ।
लखनऊ गीता परिवार द्वारा सङ्कलित और पुणे गीता परिवार द्वारा प्रकाशित-
*संस्कार पथ दिग्दर्शिका* पुस्तिका का विमोचन भी हुआ। वर्ष भर चलने वाले बाल कार्यक्रम इसमें शामिल हैं। सभी गीता सेवी जन इस पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं।
इसके उपरान्त आज का विवेचन सत्र आरम्भ हुआ।
2.23
नैनं(ञ्) छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं(न्) दहति पावकः।
न चैनं(ङ्) क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥2.23॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम्, अक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः(स्) सर्वगतः(स्) स्थाणु:(र्), अचलोऽयं(म्) सनातनः॥2.24॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम्, अविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं(व्ँ) विदित्वैनं(न्), नानुशोचितुमर्हसि॥2.25॥
इसे किसी भी वर्णन, किसी उदाहरण या उपमा से व्यक्त नहीं किया जा सकता। जो अव्यक्त है, वह अचिन्त्य भी है। उसका चिन्तन या कल्पना नहीं की जा सकती। मिस्त्री शब्द से हम परिचित हैं। किस्त्री शब्द से हम अपरिचित हैं। हम कुछ भी कल्पना कर लें। सही में कुछ भी नहीं होगा। यह तीसरी विशेषता है।
आत्म तत्त्व की चौथी विशेषता है- अविकारी होना।
आत्मा नित्य, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी है,
इसलिए तुम्हें इसके लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।
अथ चैनं(न्) नित्यजातं(न्), नित्यं(व्ँ) वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं(म्) महाबाहो, नैवं(म्) शोचितुमर्हसि॥2.26॥
वे कहते हैं कि यदि तुम इस आत्मा को जीने मरने वाला मानते हो, तो जो जन्मा है, वह मरेगा। जो मरा है, वह जन्म लेगा, इसे टाला नहीं जा सकता। इसलिए शोक योग्य नहीं है।
आए हैं, सो जाएँगे;
राजा रङ्क फकीर।
जो बात नियन्त्रण में है, और जो बात नियन्त्रण में नहीं है, उसमें भेद करना आना चाहिए।
Stephen R Covey की पुस्तक है -
The seven habits of highly Effective people
इसका हिन्दी अनुवाद है -
अति प्रभावकारी लोगों की सात आदतें।
चिन्तन परिधि के भीतर वे क्रिया कलाप होने चाहियें जिन पर हमारा नियन्त्रण है।
चिन्तन परिधि के बाहर-
वे क्रिया कलाप जिन पर हमारा नियन्त्रण नहीं है। उनकी चिन्ता करने से भी कुछ राहत नहीं मिल सकती। हम अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते। बेटा नहीं बदल सकते, पुत्रवधु नहीं बदल सकते, माता-पिता नहीं बदल सकते। जो हैं, जैसे हैं वही स्वीकार करना होगा। श्रीभगवान ने मृत्यु को अपरिहार्य कहा है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:(र्), ध्रुवं(ञ्) जन्म मृतस्य च।तस्मादपरिहार्येऽर्थे, न त्वं(म्) शोचितुमर्हसि॥2.27॥
इस सन्दर्भ में कबीरदास जी का बहुत सुन्दर भजन है -
https://drive.google.com/file/d/14DQ5IEa0AfY-S4CEGvQUp2-z1jzLDzvA/view?usp=drivesdk
अव्यक्तादीनि भूतानि, व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव, तत्र का परिदेवना॥2.28॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्,
आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः(श्) शृणोति,
श्रुत्वाप्येनं(व्ँ) वेद न चैव कश्चित्॥2.29॥
देही नित्यमवध्योऽयं(न्), देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि, न त्वं(म्) शोचितुमर्हसि॥2.30॥
अवध्य के दो भाव हैं-
पहला मत मारो: मारना नहीं चाहिए। गाय अवध्य है। ब्राह्मण अवध्य है। उन्हें मत मारो।
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य, न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्, क्षत्रियस्य न विद्यते॥2.31॥
क्षत्रिय के लिए युद्ध करना कर्त्तव्य है। उदाहरण के लिए अगर तुम अपने राजा की ओर से युद्ध के लिए नियुक्त हो तो अपने धर्म को भी एक तरफ रखकर आपको युद्ध करना ही होगा। अगर राष्ट्रपति जी युद्ध की घोषणा कर दें, तो कोई भारतीय सैनिक अहिंसा परमो धर्म: कहकर युद्ध से विमुख नहीं हो सकता। शत्रु सेना को मारने से, मना नहीं कर सकता। उसे इसी कार्य के लिए वेतन दिया जाता है। यही उसका कर्त्तव्य है।
एक राजा प्रातः भ्रमण पर बाग में गया। बाग के पहरेदार ने छलाँग लगाकर, राजा को भ्रमण पथ से दूर धकेल दिया। राजा ने देखा, अचानक पीछे से एक हाथी बेकाबू होकर भ्रमण पथ पर दौड़ पड़ा। दूर गिर पड़ने से, राजा की जान बच गई थी। राजा ने जान बचाने पर पहरेदार को बहुमूल्य आभूषण दिए और पूछा - तुम्हें कैसे पता कि हाथी बेकाबू होकर दौड़ पड़ेगा? पहरेदार ने कहा कि रात स्वप्न में मैंने ऐसी घटना देखी थी। राजा ने उसे सेवा मुक्त होने का आदेश दिया। उस पहरेदार द्वारा इसका कारण पूछे जाने पर राजा ने कहा, "तुम्हारा कर्त्तव्य जागकर पहरेदारी करना है, तुमने पहरेदारी के कर्त्तव्य का पालन निष्ठा से नहीं किया। रात को सोते हो, इसलिए तुम्हें सेवा से मुक्त किया जाता है।" कर्त्तव्य कर्म की अवहेलना करने को किसी तरह से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।
यदृच्छया चोपपन्नं(म्), स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः(फ्) पार्थ, लभन्ते युद्धमीदृशम्॥2.32॥
अथ चेत्त्वमिमं(न्) धर्म्यं(म्), सङ्ग्रामं(न्) न करिष्यसि।
ततः(स्) स्वधर्मं(ङ्) कीर्तिं(ञ्) च, हित्वा पापमवाप्स्यसि॥2.33॥
अकीर्तिं(ञ्) चापि भूतानि, कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति:(र्), मरणादतिरिच्यते॥2.34॥
रावण विद्वान और पराक्रमी था। उसे आज तक बार-बार जलाया जाता है। पाप एक बार किया। हजारों वर्षों से भोग रहा है। रावण का नाम अपशब्द के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। माननीय पुरुषों के लिए, अपकीर्ति बहुत बड़ी होती है। रावण महान था परन्तु जब उसने सीता जी का अपहरण, ऋषियों की प्रताड़ना और अपनी बहू से दुराचरण जैसे घृणित दुष्कर्म किए, तभी से हजारों वर्षों से उसे जलाया जाता है।
भयाद्रणादुपरतं(म्), मंस्यन्ते त्वां(म्) महारथाः।
येषां(ञ्) च त्वं(म्) बहुमतो, भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥2.35॥
अवाच्यवादांश्च बहून्, वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं(न्), ततो दुःखतरं(न्) नु किम्॥2.36॥
शास्त्रों में निन्दा करने वाले को पाप का भागीदार बताया गया है। एक सत्कर्मी राजा का सौतेला भाई सदैव राजा से ईर्ष्या और निन्दा करते हुए अपकार में लगा रहता था। राजा ने एक बार यज्ञ किया। भोजन की तैयारी चल रही थी। उसी समय आकाश में उड़ती चील की चोंच में दबा सर्प छूटकर भोजन में गिर गया। विषाक्त भोजन खाकर अनेक ब्राह्मण और सन्त महात्मा परलोक सिधार गए। राजा के सौतेले भाई ने अवसर का लाभ उठाकर, राजा की अपकीर्ति की। इस निन्दा के दु:ख से राजा ने प्राण त्याग दिए। यमलोक में चित्रगुप्त जी ने लेखा-जोखा जाँचकर बताया। धर्मराज जी ने सबकी मृत्यु के लिए निन्दा करने वाले को पाप का भागीदार ठहराया। हम अनजाने में ही रस में पड़कर निन्दा कर बैठते हैं। निन्दा करने से बचना है।
कबीर दास जी कहते हैं कि:-
बिन पानी, बिन साबुने, निर्मल करे सुभाय।।
अर्थ : जो हमारी निन्दा करता है, उसे अपने अधिक से अधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियाँ बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं(ञ्), जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृतनिश्चयः॥2.37॥
सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व, नैवं(म्) पापमवाप्स्यसि॥2.38॥
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये, बुद्धिर्योगे त्विमां(म्) शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ, कर्मबन्धं(म्) प्रहास्यसि॥2.39॥
हे अर्जुन! यह बुद्धि तुम्हें ज्ञानयोग के लिए जैसी कही गई है, वैसी बुद्धि अब कर्मयोग के लिए सुनो। इस बुद्धि में लगा हुआ, तू कर्म बन्धन को त्याग देगा।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति, प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य, त्रायते महतो भयात्॥2.40॥
अर्जुन ने ज्ञान के प्रश्न किए, तो भगवान ने ज्ञानयोग बताया। अब भगवान कहते हैं कि कर्मयोग में लगो।
व्यवसायात्मिका बुद्धि:(र्), एकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च, बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥2.41॥
तीन बातें हैं -
काम के बदले काम।
काम के बदले दाम।
काम के बदले नाम।
हम चाहते हैं, कि हमारे काम के बदले कोई हमारा काम करे। या फिर काम के बदले हमें धन मिले, या हमारे काम के लिए हमारी प्रशंसा हो। बनिए के बही खाते का हिसाब और बैंक में जमा धन का खाता तो चलता रहेगा। जो भी किया, उसका फल मिलेगा अवश्य, भले कभी भी मिले। चित्रगुप्त का खाता कभी बन्द नहीं होता।
धर्म का छोटा सा कार्य भविष्य में महान सङ्कटों से बचा लेता है। किसी से कुछ लिया है, देना तो पड़ेगा। सेवा के बदले सेवा दे सकते हैं। लर्न गीता में गीता सेवी बनकर सेवा करके अपने ऋणों से मुक्त हो सकते हैं।
सकाम कर्म वालों की बुद्धि अनेक प्रकार की होती है। कभी किसी देवी, देवता से मन्नत माँगी, कभी किसी मजार, पीर की चौखट पर, कभी गिरिजाघर में, कभी कोई तन्त्र-यन्त्र। सकाम कर्मयोगी निरन्तर किसी एक उपाय में स्थिर नहीं रहता। सकाम कर्म में किसी तरह की बुराई नहीं लेकिन हमारी वृत्ति ऐसी नहीं बननी चाहिए।
यामिमां(म्) पुष्पितां(व्ँ) वाचं(म्), प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः(फ्) पार्थ, नान्यदस्तीति वादिनः॥2.42॥
कामात्मानः(स्) स्वर्गपरा, जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां(म्), भोगैश्वर्यगतिं(म्) प्रति॥2.43॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां(न्), तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः(स्), समाधौ न विधीयते॥2.44॥
कोई पूछेगा, गीता पढने से क्या मिलेगा? कुछ धन-लाभ होगा क्या? कई लोगों का ऐसा मानना भी होता है कि अगर किसी तरह का धन लाभ नहीं है तो इसे हम बाद में वृद्धावस्था में करेंगे क्योंकि अब हम जहाॅं सेवा करते हैं, वहाॅं से कारोबार में दस लाख का लाभ हुआ है।
सकाम बुद्धि वाले को परमात्मा विषयक बात अच्छी नहीं लगती। जिसकी बुद्धि परमात्मा में लगती है, उसकी सकाम वृत्ति धीरे-धीरे घटने लगती है। आवश्यकता होने पर, परमात्मा से माँगना बुरा नहीं है, सामयिक देवताओं का उपयोग तो हमें करना ही चाहिए। केवल माँगने के लिए परमात्मा को याद करना, ऐसी सकाम वृत्ति में नहीं लगे रहना है, बस इसका ध्यान अवश्य रखना है।
त्रैगुण्यविषया वेदा, निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो, निर्योगक्षेम आत्मवान्॥2.45॥
यावानर्थ उदपाने, सर्वतः(स्) सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु, ब्राह्मणस्य विजानतः॥2.46॥
जिसे परमात्मा तत्त्व प्राप्त हो गया, वेदों के सकाम कर्म उसे नहीं बाॅंधते। विकार भी आभूषण हैं, वेदों के सारे मन्त्र ऋषियों को नहीं चाहिए। फिर भी भगवान ने दिए, ताकि समय पर इनका सदुपयोग किया जा सके। इतिहास में आवश्यकतानुसार वेद मन्त्रों का सदुपयोग करने के बहुत से उदाहरण मिलते हैं।
जिस प्रकार भागवत में गोकर्ण एवं धुन्धुकारी की कथा हम सब सुनते हैं कि किस तरह से धुन्धुकारी का कल्याण हुआ। श्रृङ्गी ऋषि ने श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा दशरथ से पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया। वशिष्ठ जी के आश्रम में, कौशिक राजा द्वारा उत्पात के पश्चात नन्दिनी के प्रभाव से वशिष्ठ ऋषि ने उसकी सेना को समाप्त किया । कर्दम ऋषि ने वेदों के मन्त्रों से देवहूति को यौवन प्रदान किया और सारे भोगों सहित नौ लोकों में भ्रमण करवाया। आवश्यकता होने पर च्यवन ऋषि ने अश्विनी कुमारों को बुलाया और च्यवनप्राश का अविष्कार हुआ। वेदों के भोग आवश्यकतानुसार कल्याणार्थ हैं, न कि सकाम भोगों में लिप्त रहने के लिए।
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भू:(र्), मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥2.47॥
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता - सुरेंद्र शर्मा जी
प्रश्न - हम कौन हैं? सबमें एक ही आत्मा है?
उत्तर - आकाश एक होने पर भी महाकाश, घटाकाश अलग-अलग हैं। इसी प्रकार आत्म तत्त्व सबमें एक होने पर भी, उसका उत्तरदायित्व (accountability) अलग-अलग होने से अलग-अलग दिखता है और उत्तरदायित्व में फँसा रहता है। आत्मा चैतन्य है, हमारी बुद्धि जड़ है। जड़ बुद्धि से चैतन्य स्वरूप को समझ पाना कठिन है। हम आरम्भ-अन्त, जन्म-मृत्यु को तो समझते हैं। अजर, अमर, अव्यक्त को नहीं समझ पाते। समझने की दृष्टि से उदहारण रखते हैं। न आदि, न अन्त कहते हैं। सारे उदाहरण लौकिक हैं। अलौकिक समझने की दृष्टि भगवान ने हमें नहीं दी है। जिसने रसगुल्ला नहीं खाया, उसे स्वाद समझाया नहीं जा सकता।
प्रश्नकर्ता - जेठा खुराना जी
प्रश्न - भगवान ने अर्जुन को कौन सी निष्ठाएँ बताई हैं?
प्रश्न - श्रीमद्भगवद्गीता जी में भगवान ने सबसे पवित्र वस्तु किसे कहा है?
ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणां।
प्रश्नकर्ता- मधु जग्गी जी
प्रश्न - आत्मा कहॉं स्थित है?
प्रश्नकर्ता - कान्ता जी
प्रश्नकर्ता- चन्द्रकान्त जी