विवेचन सारांश
प्रभु प्राप्ति का मार्ग
यहाँ प्रत्येक अध्याय को अलग-अलग नाम दिए गए। जैसे -
प्रथम अध्याय अर्जुनविषादयोग।
द्वितीय अध्याय साङ्ख्ययोग।
तीसरा अध्याय कर्मयोग।
इस प्रकार सभी प्रकार के योग बताते हुए बारहवें अध्याय में भक्तियोग बताया। बारहवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से प्रश्न पूछे, जो हम सभी के मन में चलते हैं। अर्जुन के अन्यान्य उपकार हैं, हम सभी पर, क्योंकि जो प्रश्न हमारे मन में भी चलते हैं, उन प्रश्नों का शमन भगवान श्रीकृष्ण के श्री मुख से हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण के श्री मुख से निकले हुए ये मन्त्र - केवल श्लोक नहीं हैं, यह धर्म ग्रन्थ है, जो धर्म की व्याख्या करता है। कर्त्तव्यों की व्याख्या करता है, एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसकी जयन्ती मनाई जाती है। जब मैंने अड़तालीस वर्ष की अवस्था गीता जी को कण्ठस्थ करना प्रारम्भ किया तो मेरे पुत्र ने कहा कि आप इसे याद क्यों कर रहे हैं? गूगल में सर्च करिये। अर्थ सहित सब कुछ मिल जायेगा। मैंने अपने पुत्र से कहा कि क्या तुम्हारी माँ तुम्हें दूध चीनी मिलाकर दे देती है या उसे मिलाती भी है। पुत्र ने कहा कि वह मिला कर देती है, तभी मिठास आती है। मैंने उसे बताया कि बेटा उसी प्रकार नित्य याद करने से, गीता जी की मिठास अनुभव होने लगती है। निरन्तर अध्ययन करने से यह समझ में आने लगता है कि इसके माध्यम से जीवन का तनाव दूर होता है। जीवन जीने का तरीका आता है। जीवन आनन्दमय बन जाता है। यह गुह्यतम शास्त्र है। अर्जुन के हर प्रश्न पर भगवान श्री कृष्ण वेद और उपनिषद रूपी गायों को दुहते हैं। यह सेल्फ़ मैनेजमेंट का सबसे अच्छा ग्रन्थ है
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थो वत्सः सुधी: भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
समस्त उपनिषदों को गाय बताया और उनका दोहन करने वाले भगवान श्री कृष्ण हैं। पार्थ अर्थात् अर्जुन बछड़ा बने जिन्होंने उस दुग्ध का पान किया। अर्जुन के कारण यह श्रीमद्भगवद्गीता का अमृत हमें भी प्राप्त हुआ। अर्जुन पहला प्रश्न पूछते हैं। कौन से योगी सर्वश्रेष्ठ होते हैं जो आप के सगुण साकार स्वरूप की पूजा करते हैं? या जो आपके निर्गुण निराकार स्वरूप की पूजा करते हैं?
12.1
अर्जुन उवाच
एवं(म्) सततयुक्ता ये, भक्तास्त्वां(म्) पर्युपासते|
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं (न्), तेषां(ङ्) के योगवित्तमाः||1||
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां(न्), नित्ययुक्ता उपासते|
श्रद्धया परयोपेता:(स्), ते मे युक्ततमा मताः||2||
जिस प्रकार एक माँ के दो पुत्रों में से किसी एक पुत्र को ले जाने की बात कही जाए तो माँ अपने बड़े पुत्र को भेजने की बात कहेगी क्योंकि उसे लगता है कि बड़ा पुत्र तो अपनी जिम्मेदारी उठा सकता है लेकिन छोटा पुत्र अभी मेरे ही आश्रित है। इसका आशय यह नहीं है कि माँ को छोटा पुत्र प्रिय है और बड़ा पुत्र प्रिय नहीं है, उसके लिए दोनों समान हैं। इसी प्रकार भगवान उत्तर देते हैं कि छोटा पुत्र अभी मेरे आश्रित है अर्थात् सगुण साकार की उपासना करने वाला अभी मेरे आश्रित है।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यम्, अव्यक्तं(म्) पर्युपासते|
सर्वत्रगमचिन्त्यं(ञ्) च, कूटस्थमचलं(न्) ध्रुवम्||3||
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं(म्), सर्वत्र समबुद्धयः|
ते प्राप्नुवन्ति मामेव, सर्वभूतहिते रताः||4||
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्
ज्ञान उसी को प्राप्त होगा जो श्रद्धा का भाव रखेगा। भगवान को जानने से पहले उन्हें मानना पड़ेगा। मानने से ही ज्ञान सम्भव है। श्रद्धा ही मानना है। जिस प्रकार हम किसी स्थान का पता पूछते हैं तो सामने वाले को हमें सर्वप्रथम यह बताना होता है कि हम कहाँ खड़े हैं? तभी वह हमें आगे का मार्ग बता पाएगा। उसी प्रकार भक्ति के मार्ग में भी हम कहाँ हैं? हमें यह पता होगा तभी हम आगे बढ़ पायेंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भक्ति का सरल और सुगम मार्ग बताया।
क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम्, अव्यक्तासक्तचेतसाम्|
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं(न्), देहवद्भिरवाप्यते||5||
जिस प्रकार हम नाग के पञ्चमी दिन नागों की पूजा करते हैं। वट वृक्ष की पूजा करते हैं, गोवर्धन पर्वत की पूजा करते हैं, अनेक वृक्षों जैसे तुलसी, नीम, आँवला आदि की पूजा करते हैं। छठ पूजा के दिन नदियों की पूजा करते हैं अर्थात् वह परमात्मा सभी जगह विद्यमान है और सभी भूत प्राणियों के हित में लगा हुआ है। ईश्वर सभी जगह विद्यमान है यह बात समझ पाना अत्यन्त कठिन है। सगुण ईश्वर की आराधना करने वाले छोटे बालक के समान होते हैं। वे सब कुछ ईश्वर पर डाल देते हैं। इसीलिए भगवान कहते हैं कि मैं सगुण ईश्वर की आराधना करने वाले लोगों की नैया को पार लगाता हूँ।
अब सौंप दिया इस जीवन का,
सब भार तुम्हारे हाथों में,
है जीत तुम्हारे हाथों में,
और हार तुम्हारे हाथों में।
अर्जुन ने अपने रथ की लगाम भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में सौंप दी। दूसरे अध्याय में अर्जुन ने कहा भी है-
अर्जुन कहते हैं ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो, उसे निश्चित रूप से बतायें | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृपया मुझे उपदेश दें |
एक बार एक भक्त के सपने में भगवान आए और उससे भगवान ने कहा कि आज मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन का प्रवास दिखाता हूँ। भगवान ने चलना आरम्भ किया। समुद्र के किनारे मुलायम सी रेत पर जब वे दोनों चल रहे थे तो भगवान ने बताया कि देखो, ये जो दो पदचिह्न दिख रहे हैं, ये तुम्हारे पदचिह्न हैं और जब तुम चल रहे थे तो भगवान का चिन्तन कर रहे थे, इसलिए मैं भी तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारे बाजू में तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलता था। तुम्हारे बाजू में जो दो और पदचिह्न है वह मेरे पदचिह्न हैं क्योंकि मैं भी तुम्हारे साथ-साथ चल रहा था। भक्त ने कहा कि मुझे पता है आपकी मुझ पर कितनी अधिक कृपा है। मार्ग में आगे बढ़ने पर काँटे प्रारम्भ हो गए। भक्त ने देखा कुछ दूरी पर आगे बढ़ने पर अब केवल दो ही पदचिह्न दिखाई दे रहे हैं। भक्त ने भगवान से कहा कि जबसे काँटे प्रारम्भ हुए, तब से मुझे केवल दो ही पदचिह्न दिखाई दे रहे हैं। आपने मेरा साथ क्यों छोड़ा? तब भगवान ने कहा कि जब से काँटे प्रारम्भ हुए, मैंने तुम्हें गोद में उठा लिया यह तुम्हारे पदचिह्न नहीं मेरे पदचिह्न हैं। आशय है कि भगवान हमारी हर कदम पर रक्षा करते हैं। जब हम देखकर जानते हैं अनुभव करते हैं तो पता चलता है कि भगवान हमारी हर कदम पर रक्षा करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर गोद में भी उठा लेते हैं क्योंकि ऐसे लोग भगवान पर ही पूर्ण रूप से आश्रित हैं। यह सब कुछ बिना श्रद्धा और भक्ति के सम्भव नहीं है।
ये तु सर्वाणि कर्माणि, मयि सन्न्यस्य मत्पराः|
अनन्येनैव योगेन, मां(न्) ध्यायन्त उपासते||6||
तेषामहं(म्) समुद्धर्ता, मृत्युसंसारसागरात्|
भवामि नचिरात्पार्थ, मय्यावेशितचेतसाम्||7||
मय्येव मन आधत्स्व, मयि बुद्धिं(न्) निवेशय|
निवसिष्यसि मय्येव, अत ऊर्ध्वं(न्) न संशयः||8||
एक बार चूरु जिले के सरदार शहर में स्वामी रामशरण दास जी महाराज ने अपने गुरु शरणानन्द जी महाराज की एक घटना बताई। वे प्रज्ञा चक्षु थे अर्थात् जन्म से अन्धे थे। शरणानन्द जी महाराज एक बार अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे। वे देख नहीं सकते थे। चलते-चलते वह एक पेड़ के नीचे जाकर रुक गए और एक पत्थर को उठाकर उसे प्यार से सहलाने लगे। थोड़ी देर बाद उठकर बोले, यहीं रहना मैं कल फिर आऊँगा। अगले दिन फिर वह अपने शिष्यों के साथ उसी पेड़ के नीचे जाकर बैठ गए और उसी पत्थर को फिर से हाथ में उठाकर उसे सहलाने लगे। यह देखकर एक शिष्य को बड़ा अचम्भा हुआ और उसने सोचा कि यह कैसे सम्भव हो सकता है। जब यह देख नहीं सकते, तो यहाँ कैसे पहुँचे? जरूर इन्होंने अपने पग गिन लिए होंगे। उन्होंने रास्ता याद कर लिया था, इसलिए दूसरे दिन भी आकर इन्होंने इसी पत्थर को उठाया है। जब शरणानन्द जी उठने लगे तो उन्होंने उस पत्थर से फिर कहा कि मैं कल आऊँगा, मेरी प्रतीक्षा करना। यह कहकर उन्होंने उस पत्थर को वापस उसी स्थान पर रख दिया, परन्तु वह जो संशय युक्त शिष्य था उसने उस पत्थर को उठाकर पचास कदम आगे जाकर सीधे हाथ की तरफ एक पेड़ के नीचे फेंक दिया और सोचने लगा कि अब देखते हैं कि कल क्या होता है। अब कल गुरुजी जब यहाँ आएँगे तो उन्हें यह पत्थर यहाँ नहीं मिलेगा। अगले दिन शरणानन्द महाराज निकले और उस पेड़ से पचास कदम चलकर दूसरे पेड़ के नीचे जा कर उसी पत्थर को उठाया और उस पर हाथ रख कर बोले अरे! तू यहाँ कैसे आ गया, तेरे पैर लग गए क्या? उन्होंने उसी पत्थर को उठा लिया। यह देखकर वह शिष्य अचम्भित हो गया। वह गुरु के सामने नतमस्तक हो गया और साष्टाङ्ग प्रणाम करके बोला कि गुरुजी ये पत्थर मैंने यहाँ पर उठा कर रखा था, परन्तु कृपा करके बताइए कि यह कैसे घटित हुआ। इस पर शरणानन्द महाराज ने कहा कि हर पत्थर में चेतना होती है, हर एक में चेतना होती है। आप अगर हृदय से आवाज दो तो वह चेतना जागने लगती है, इसलिए पत्थरों से मूर्ति बनती है और जब भक्तों की चेतना उसमें जाती है तो उसमें जागृति आ जाती है और वह मूर्ति भी जीवित हो उठती है। हमारे यहाँ पण्ढरपुर के विठोबा की सवारी में लोग पैदल चलते हैं और पण्ढरपुर पहुँच के विट्ठल के चरणों को अपने अश्रु से भिगो देते हैं तो सोचिए कि उस विट्ठल के चरणों में कितनी चेतना जाग गई होगी। इस प्रकार जब मन और बुद्धि एक हो जाएँगे तब ऐसी घटना घटेगी। इन सबके लिए श्रद्धा की आवश्यकता है।
शबरी अपनी बाल्यावस्था में ही मतङ्ग ऋषि के आश्रम में पहुँच गई थी। उसका कारण यह था कि उसकी शादी के लिए उसके पिता ने मेमने पाल रखे थे। एक दिन शबरी मेमनों के साथ खेल रही थी। उसके पिता ने कहा कि खेल ले जब तक खेलना है, जब तेरा विवाह होगा तो यह सब काट के पका दिए जायेंगे। यह सुनकर शबरी रात भर सो नहीं पाई और रात में ही घर से भाग गई। सुबह जब पता चला कि शबरी घर पर नहीं है तो उसको ढूँढने के लिए उसके पिता ने आदमी भेजे। लोगों को आता देखकर शबरी एक पेड़ पर चढ़ गई। दिन भर पेड़ पर रही और रात को दौड़ने लग गई। इस प्रकार वह दिन में तो पेड़ पर चढ़ जाती और रात को दौड़ती। इस प्रकार करते-करते एक दिन वह एक आश्रम के पास पहुँच गई। वहाँ उसने अत्यन्त सात्त्विक ऋषियों को देखा। आश्रम के गुरु मतङ्ग ऋषि ने उसे आश्रम में रहने की अनुमति दे दी।शबरी के मन में मेमनों के प्रति भी प्रेम भाव था, सर्वभूतहिते रता:, वह सभी का कल्याण चाहती थी।
भगवान ने शबरी को नवधा भक्ति सिखाई। यह वनवासियों के लिए सिखाई गई थी। शबरी को इस नवधा भक्ति की शिक्षा उसको दिया जाने वाला मानपत्र है। भगवान कृपालु है और भाव के भूखे हैं। हमें भी बहिरङ्ग से अन्त:रङ्ग योग की ओर बढ़ना है।
अथ चित्तं(म्) समाधातुं(न्), न शक्नोषि मयि स्थिरम्|
अभ्यासयोगेन ततो, मामिच्छाप्तुं(न्) धनञ्जय||9||
इसी प्रकार गीता को पढ़ना, पढ़ाना और जीवन में लाना अति आवश्यक है। निरन्तर गीता का अभ्यास करें।
भगवान आदि शङ्कराचार्य ने कहा है-
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं ।
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि, मत्कर्मपरमो भव|
मदर्थमपि कर्माणि, कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि||10||
हे ईश्वर! मैं समस्त कार्य आपके लिए ही कर रहा हूँ। मेरे पेट भरने का कार्य भी यह भाव बन जाए कि मैं आपका ही हवन कर रहा हूँ। हम हमारे समस्त कर्म ईश्वर को समर्पित कर दें।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता :-बजरङ्ग भैया
प्रश्न:- मैंने एक स्थान पर सुना कि भगवान को एक स्थान पर ज्योति स्वरूप परमात्मा को मानो सर्वव्यापी मत मानो और आत्मा में भी वही गुण मानो जो भगवान में हैं। सत्य क्या मानें?
उत्तर:- आप जो कह रहे हैं वह सत्य है परन्तु आप को यह देखना है कि आप कहाँ खड़े हैं? आपका स्वभाव क्या है? एवरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिये अनेक साधनों से ज़ाया जा सकता है। किन्तु देखना यह है कि आप खड़े कहाँ हैं? निर्गुण निराकार का मार्ग अत्यन्त दुष्कर है। जिस बुद्धिमान मनीषी ने इस मार्ग से ईश्वर को पाया, उसे लगता है कि यही मार्ग है। भगवान ने इसी अध्याय में बताया कि भगवान की प्राप्ति के अनेक मार्ग है। भगवान ने बताया कि सरल मार्ग कौन सा है। भगवान ने बताया कि ईश्वर तक भक्ति योग, कर्म योग, ध्यान योग, से भी पहुँचा जा सकता है। एक मार्ग पर चलना होता है शेष मार्ग स्वयं ही खुलते जाते हैं। एक नाव पर चलना होता है, हम दो नावों पर पैर रख कर नहीं चल सकते। दो नावों पर पैर रख कर चलने वाला निश्चित ही गिरेगा। अत: एक मार्ग-सगुण या निर्गुण पर चलना ही श्रेयस्कर होगा।
प्रश्नकर्ता:- योगेश भैया
प्रश्न:- आजकल बहुत से सामाजिक पार्टियों या वैवाहिक कार्यक्रमों में आमन्त्रित करते हैं, हम वहाँ जायें या नहीं? क्योंकि हम ऐसे आयोजनों से दूर रहना चाहते हैं।
उत्तर:- किसी से भी दूरी बनाने की आवश्यकता नहीं है। सर्वभूतहिते रता:। ऐसे स्थान पर ज्ञानी अज्ञानी सभी आयेंगे, उन सबको स्नेह देना आपका काम है। आप वहाँ पर अपनी इच्छानुसार खान पान कर सकते हैं।कोई व्यक्ति बुरा नहीं होता, हो सकता है उसका मार्ग बुरा है। हमें तो सबको स्नेह देना है। हो सकता है कि आप के साथ चलते चलते वह सन्मार्ग पर चलना सीख जाये, इसलिये कोई भी त्याज्य नहीं है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12:13।।
सबके लिये प्रेम का भाव द्वेष का भाव किसी के प्रति न हो। मैत्री और करुणा का भाव सबके लिये हो। आज पृथ्वी पर इतना पाप है किन्तु हम पृथ्वी तो नहीं छोड़ सकते इसलिये ग़लत कार्य में संलग्न लोगों से सजग रहें श्री भगवद्गीता भागो नहीं कहती, वह जागो का सन्देश देती है। हम सब के लिये समत्त्व का भाव रखें।
प्रश्नकर्ता:- शुभदा दीदी
प्रश्न:- यदि हमें भवसागर पार करना है तो हमें एक ही मार्ग का चयन करना है सगुण या निर्गुण, किन्तु हम जो यह विभिन्न स्तरों पर सांसारिक कार्य करते हैं, उनके साथ भक्ति से कैसे सामञ्जस्य करें?
उत्तर:- यदि भगवान से सम्बन्धित कार्य है तो पूरी श्रद्धा के साथ जो भी कार्य कर रहे हैं, उसका फल भगवान को अर्पण करके करें तो बाद में किसी तरह की पीड़ा नहीं होती, लेकिन नित्य प्रति के कामों में बुद्धि की स्थिरता बहुत महत्वपूर्ण होती है। बुद्धि की स्थिरता प्राप्त करने के लिए द्वितीय अध्याय के अन्तिम दस बारह श्लोकों में यह वर्णित है- तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठित प्रज्ञा को कैसे प्रतिष्ठित करें यह बात बताई गई है।
भगवान ने कहा कि श्री गीता योग शास्त्र है, मैं ज्ञान की भी बात करूँगा और विज्ञान की भी बात करूँगा।
ज्ञान तो सदा के लिये है, विज्ञान परिवर्तनशील है। ज्ञान एवम् विज्ञान में अन्तर समझना, इस मार्ग पर निर्णय लेते समय हमारी बुद्धि को कैसे प्रतिष्ठित करना हमारे मन बुद्धि और शरीर में कैसे तादात्म्य स्थापित करना यह योग सिखाता है, योग का तात्पर्य ही है जोड़ना है। मन और बुद्धि को जोड़ना। मन और बुद्धि एक साथ कार्य में लग जायेगे तो विजय की प्राप्ति निश्चित है। एक विद्यार्थी कक्षा में बैठ कर अध्ययन तो कर रहा है, किन्तु उसका मन अन्यत्र भटक रहा है तो वह कुछ भी सीख नहीं सकेगा। मन बुद्धि को एकसाथ कैसे लायें? इसके लिये श्री गीता में अनेक विधायें हैं, आगे हम इनका अध्ययन करेंगे।
प्रश्नकर्ता:- रचना दीदी
प्रश्न:- क्या गुरु बनाना आवश्यक है? या हम इष्ट की आराधना से ही मार्ग प्राप्त कर सकते हैं?
उत्तर:- जैसे रसोई बनाना जब आपने प्रारम्भ किया तो घर के किसी अनुभवी ने आपका मार्गदर्शन किया तो आप शीघ्र ही वह कार्य सीख जाती हैं और आप पाक कला अच्छी तरह से सीख जाती हैं। गुरु बहुत आगे पहुँचे हुये हैं, अध्यात्म के मार्ग में जो भी कठिनाइयाँ आयेंगी, उन्हें वे बता देते है, निराकरण कर देते हैं, जिससे हमारा समय बच जाता है, गुरु अनेक जन्मों के अनुभवों से मार्गदर्शन करता है, उसे पता है कि हम खड़े कहाँ हैं? अत: वह हमें उचित मार्ग बताता है। सनातन संस्कृति में गुरु की अनिवार्यता बताई गयी है। आजकल इतने प्रकार के गुरु हैं कि सच्चे गुरु को खोज पाना ही दुष्कर है। किन्तु इसके लिये चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है, वह समय अपने समयानुसार स्वयं ही आयेगा। गुरु स्वयं ही अपने शिष्य को खोज लेता है। विवेक को हमेंशा ही जागृत रखना होगा।
प्रश्नकर्ता:- विकेन्द्र भैया
प्रश्न:- हमने गीता जी का पठन बारहवें अध्याय से क्यों प्रारम्भ किया?
उत्तर:- बारहवें अध्याय से प्रारम्भ करने का पहला कारण यह है कि यह सबसे छोटा अध्याय है, इसमें बीस श्लोक है। यह एक सरल अध्याय है। इसके शब्द छोटे विच्छेद कर के पढ़ने से स्वतः ही समझ में आ जाते हैं। सरलता से समझ में आने के कारण लोग इससे विमुख नहीं होते, उनमें आगे पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाती है। दूसरा कारण यह है कि यह बहुत भावगर्भित अध्याय है समझने के लिये एवम् आचरण करने में सुगम है। इसलिये गुरुजी ने यह बताया कि पहले बारहवाँ, फिर पन्द्रहवाँ एवम् उसके बाद सोलहवाँ अध्याय पढ़ाना है,
जिसके कारण छः वर्ष की आयु से लेकर पचासी वर्ष की आयु तक के हज़ारों लोगों ने गीता के अट्ठारह अध्याय कण्ठस्थ कर लिये।