विवेचन सारांश
समत्व भाव का विकास
2.33
अथ चेत्त्वमिमं(न्) धर्म्यं(म्), सङ्ग्रामं(न्) न करिष्यसि।
ततः(स्) स्वधर्मं(ङ्) कीर्तिं(ञ्) च, हित्वा पापमवाप्स्यसि॥2.33॥
अकीर्तिं(ञ्) चापि भूतानि, कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति:(र्), मरणादतिरिच्यते॥2.34॥
भयाद्रणादुपरतं(म्), मंस्यन्ते त्वां(म्) महारथाः।
येषां(ञ्) च त्वं(म्) बहुमतो, भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥2.35॥
विवेचन: भगवान कहते हैं, अपने धर्म से विमुख होकर उससे मुँह मोड़ना दुनिया का सबसे बडा पाप कर्म है। इस पाप कर्म से प्राप्त अपकीर्ति को सहना अत्यन्त दुष्कर होता है। एक कायरता पूर्ण कर्म का परिणाम अत्यन्त दु:खद और पीड़ादायक होता है, एक गलत कर्म का दुष्परिणाम युद्ध की यातना को सहन करने से भी अधिक कष्टदायक होता है।
भगवान अर्जुन को समझते हैं कि, युद्ध भूमि से कायर की तरह भाग कर वह सदैव सम्पूर्ण विश्व भर में एक योद्धा की भाँति नहीं वरन भागे हुए कर सैनिक के रूप में स्मरण किए जाएँगे और यह अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक यातना देने वाली होगी। भगवान कहते हैं कि, हे अर्जुन! तुम्हारा एक निकृष्ट कर्म सम्पूर्ण जगत में तुम्हें छोटा बना देगा, भय के कारण युद्ध भूमि से भागना पहले तो सम्भव ही नहीं है, परन्तु यदि तुम युद्ध भूमि छोड़कर भागने में सक्षम भी हो गए तब भी यह गलती तुम्हें आजीवन प्रताड़ित करती रहेगी। अतः हे परन्तप अर्जुन, भविष्य को सोचकर वर्तमान का निर्णय लेना ही सर्वश्रेष्ठ है। क्षत्रिय के रूप में जो तुम्हारा नीतिगत कर्त्तव्य है, उसका पालन करना ही तुम्हारे लिए सर्वोत्तम है।
अवाच्यवादांश्च बहून्, वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं(न्), ततो दुःखतरं(न्) नु किम्॥2.36॥
अर्जुन युद्ध भूमि से भागने के लिए तत्पर थे, आत्महत्या करने के लिए उद्यत थे, भिक्षा माँग कर रहने के लिए भी तैयार थे। वे तो धन और राज पाट का त्याग कर भागने की तैयारी में थे। भगवान ने कहा कि ऐसी स्थिति में तुम भागकर कहाँ जाओगे, कहीं भी जाओ तुम बच नहीं पाओगे।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं(ञ्), जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृतनिश्चयः॥2.37॥
सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व, नैवं(म्) पापमवाप्स्यसि॥2.38॥
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये, बुद्धिर्योगे त्विमां(म्) शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ, कर्मबन्धं(म्) प्रहास्यसि॥2.39॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति, प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य, त्रायते महतो भयात्॥2.40॥
व्यवसायात्मिका बुद्धि:(र्), एकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च, बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥2.41॥
कितनी फीस ?
यामिमां(म्) पुष्पितां(व्ँ) वाचं(म्), प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः(फ्) पार्थ, नान्यदस्तीति वादिनः॥2.42॥
कामात्मानः(स्) स्वर्गपरा, जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां(म्), भोगैश्वर्यगतिं(म्) प्रति॥2.43॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां(न्), तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः(स्), समाधौ न विधीयते॥2.44॥
त्रैगुण्यविषया वेदा, निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो, निर्योगक्षेम आत्मवान्॥2.45॥
यावानर्थ उदपाने, सर्वतः(स्) सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु, ब्राह्मणस्य विजानतः॥2.46॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भू:(र्), मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥2.47॥
अपेक्षा सदा दु:ख का कारण बनती है। अपेक्षाओं से मुक्ति ही आनन्द प्राप्ति का एकमात्र रास्ता है। जब हम अपेक्षा नहीं करते और हमें कुछ मिल जाए तो हमें बहुत खुशी होती है। अपेक्षा रखकर कुछ कार्य किया जाए और उसमें सफलता न मिले, तो अपने भीतर दु:ख और कष्ट होते हैं। इसलिए भगवान अपेक्षाओं से बाहर निकलने के लिए कहते हैं। अपेक्षाओं से बाहर निकल कर कर्म करोगे, तो तुम्हारा कार्य अच्छा होगा।
इसके साथ ही विवेचन सत्र समाप्त हुआ और प्रश्नोतर सत्र का आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता:- मन्जू दीदी
प्रश्न:- भगवान ने अर्जुन को द्वितीय अध्याय में ही सभी बातें विस्तार से समझा दी थीं, तो पुन: अष्टादश अध्यायों में बताने की क्या आवश्यकता थी?
उत्तर:- जब हम इसका पूर्ण विश्लेषण सुनते हैं, तो ज्ञात होता है कि पहले भगवान ने सब ज्ञान सङ्क्षेप में दिया, उसके उपरान्त उसे विस्तार से समझाया। द्वितीय अध्याय में सङ्क्षेप में समझाया, आगे के अध्यायों में उसका विस्तृत रूप बताया। भगवान ने बाद में कर्मयोग हो या ज्ञानयोग या अन्यान्य योग सबको बाद में विस्तार से समझाया। सामान्य साधकों को पूरे विस्तार की आवश्यकता होती है, इसलिये भगवान ने अट्ठारह अध्यायों में सम्पूर्ण वर्णन किया। ज्ञानेश्वर महाराज जी ने कहा है कि गीता का एक-एक श्लोक अनुभव में लाओ। गीता रूपी सागर से एक-एक मोती चुन कर निकालने के बाद भी हर बार कुछ नया ही भाव रूपी मोती प्राप्त होता है।
प्रश्नकर्ता:- मनीषा दीदी
प्रश्न:- सनातन भारतीय परम्परा में स्वर्ग-प्राप्ति का विचार कहाँ से उद्भूत हुआ?
उत्तर:- हमारा भारतीय चिन्तन अद्भुत है, अन्य सभी धर्मों के धर्म ग्रन्थों में बाइबिल या क़ुरान में स्वर्ग या नर्क के विषय में ही उल्लेख है। मात्र भारतीय दर्शन का ही चिन्तन ऐसा है जो स्वर्ग के आगे की भी बात करता है। स्वर्ग की बात तो सामान्य लोगों के लिये है, बचपन में हम छोटे बच्चों को समझाने के लिये कहते हैं, कि ज़्यादा चाकलेट न खाना, नहीं तो तुम्हारे दाँत ख़राब हो जानेंगे। चाकलेट से बहुत से अङ्गों पर प्रभाव पड़ता है् किन्तु कम समझ होने के कारण उन्हें दाँत ही बताया जाता है, उसी प्रकार सामान्य बुद्धि के लोगों को स्वर्ग तक जाने की ही बात कही जाती है, इसलिए हम लोगों ने बाल्यकाल में स्वर्ग तक की बात सुनी। किन्तु भारतीय दर्शन मोक्ष की कामना करने वाला दर्शन है, उसका अन्तिम गन्तव्य मोक्ष है। स्वर्ग-नरक, जीवन-मृत्यु से प्राणि मात्र कब मुक्त होगा, यह भारतीय दर्शन का सिद्धान्त है। गीता में कहा गया है कि स्वर्ग में तो मनुष्य एक हवन करके पहुँच जाएँगे, किन्तु पुण्य समाप्त होने पर पुन: जन्म लेना पड़ेगा। हमारा दर्शन मोक्ष की ही बात करता है।
प्रश्नकर्ता:- रामभूषण भैया
प्रश्न:- अध्याय दो में एक श्लोक है-
अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्, प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:।।
इस श्लोक से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी की मृत्यु पर शोक करना उचित नहीं है, क्या आप इससे सहमत हैं?
उत्तर:- यह क्षणिक आवेग है, इसलिये आता है, क्योंकि हम मानव शरीर में हैं। मानव शरीर प्रकृति से प्राप्त है, प्रकृति से तीन गुणों की प्राप्ति भी हम लोगों को हुई है, तो मन में जो हलचल होनी है वह तो होगी किन्तु हम उसके शोक में ही डूबे रहें यह उचित नहीं है। इसलिये उससे शीघ्र बाहर आने का प्रयास होना चाहिए। परिपक्व हो कर जीवन के दु:ख-सुख को भोगकर देहावसान पर तो लोग प्रसन्नता पूर्वक नाचते गाते हुये दाह संस्कार के लिये ले जाते हैं। मृत्यु कपड़े बदलने जितना ही है, यह हम लोगों का शास्त्र है। इसी अध्याय में हम लोगों ने पढ़ा।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नवानि देही।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
यह केवल वस्त्र बदलने जैसा है, आत्मा शरीर बदल कर दूसरे शरीर को धारण करना है, फिर शोक क्यों करें।
प्रश्नकर्ताः- उर्मिला दीदी
प्रश्न:- अध्याय दो- श्लोक संख्या बयालीस—
यामिमां पुष्पितां वाचम् प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:।। इसका अर्थ क्या है?
उत्तर:- जैसे मुँह से कोई पुष्प निकल रहे हों, अर्थात आपके मुख से जो पुष्प के समान मीठी-मीठी बातें निकल रही हैं, वे अविवेक की बातें अर्जुन तुम कर रहे हो, ये दिखाने की बातें हैं। इनसे तू बाहर निकल क्योंकि तुम्हें इससे बाहर निकलना है। कृत्रिम बातें जन्म रूपी कर्म फल को देने वाली है। कर्मफल को त्याग कर, तू गुणातीत बन जायेगा। तू स्वर्गसे ऊपर उठकर मोक्ष को प्राप्त करेगा।
प्रश्नकर्ता:- नरेन्द्र भैया
प्रश्न:- रामायण के दृष्टान्तों में है कि जब रामचन्द्रजी भरत से मिले एवम् पिता की मृत्यु की सूचना पा कर वे रोये एवम् दूसरी बार जब लक्ष्मण मूर्च्छित हुये तब भी वे अत्यन्त भाव विह्वल हो गये फिर हम साधारण मनुष्य का विदीर्ण होना क्यों उचित नहीं है?
उत्तर:- इस बात को समझना होगा कि भगवान इस समय मानव देह में है, भगवान इस समय प्रकृति के अधीन हैं इसलिये पुरुष पीछे हो जाता है। किन्तु भगवान तुरन्त सम्भल जाते हैं और भरत को राज्य करने के लिये वापस भेज देते हैं। मानव को भी इन स्थितियों से शीघ्र बाहर निकल कर अपने को सम्भालना होगा, क्योंकि मृत्यु ही सत्य है, आत्मा पुन: नवीन शरीर धारण करती है। उसके लिये शोक निरर्थक है।