विवेचन सारांश
ईश्वरीय अनुभूति

ID: 4314
Hindi - हिन्दी
रविवार, 28 जनवरी 2024
अध्याय 11: विश्वरूपदर्शनयोग
1/4 (श्लोक 1-15)
विवेचक: गीता विशारद श्री श्रीनिवास जी वर्णेकर


श्रीहनुमान चालीसा, प्रार्थना, दीप प्रज्वलन तथा गुरु वन्दना के पश्चात विश्वरूप दर्शन का यह ग्यारहवें अध्याय का विवेचन प्रारम्भ हुआ। अर्जुन ने तो भगवान के विश्वरूप का साक्षात दर्शन किया है। इस विश्वरूप का श्रवण भी सौभाग्य की बात है। कैसी परिस्थिति में भगवान ने अपना विश्वरूप दिखाया? और क्या-क्या बताया? यह सब इस ग्यारहवें अध्याय में वर्णन है। सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ अध्याय ज्ञान विज्ञान का अध्याय है। ज्ञान और विज्ञान की अनुभूति तब तक नहीं होती, जब तक हम जान न लें। भगवान ने विस्तार से अर्जुन को बताया। दसवें अध्याय में अर्जुन पूछते हैं- आपकी विभूति को मैं कैसे देखूँ! कैसे जानूँ!

श्रीभगवान बताते हैं -

नान्तोઽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो, विभूतेर्विस्तरो मया॥10:40॥

जैसे भगवान अनन्त हैं, वैसे ही उनकी विभूतियाँ अनन्त हैं। भगवान ने लगभग अपनी पिचहत्तर विभूतियाँ अर्जुन को बताईं।

भगवान कहते हैं -

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नम् एकांशेन स्थितो जगत्॥10:42॥

सम्पूर्ण संसार मैंने एक अंश से धारण किया है और मैं वैसे का वैसा स्थित हूँ। भगवान ने मुख में मिट्टी डाली, तब यशोदा मैया को उनके मुख में विश्वरूप के दर्शन हुए थे। भगवान ने यशोदा मैया को वह दर्शन विस्मृत करा दिया, ताकि श्रीकृष्णावतार का उद्देश्य सफल हो सके। अर्जुन ने विभूतियाँ सुनीं, अनुभूति के स्थान सुने और यह भी जाना कि भगवान ने सारा चराचर एक अंश से धारण कर रखा है। वह कण-कण में बसे हुए हैं। अर्जुन के मन में जिज्ञासा हुई और हमारे मन में भी होती है कि सारे विश्व में व्याप्त भगवान का विश्वरूप कैसा है!

अर्जुन ने अत्यन्त विनम्रता से प्रश्न पूछा। अर्जुन को ज्ञान हो चुका है कि रथ के सारथी सामान्य व्यक्ति या मेरे मित्र नहीं हैं। यह साक्षात् परमेश्वर हैं।

न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥10:14॥

इससे पहले अर्जुन भगवान की शरण में आकर कहते हैं-

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहितन्मे
शिष्यस्तेઽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥2:7॥

जो मेरे लिए श्रेयस्कर है, वही कहिए। अब अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हुए बात करने लगे।

11.1

अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं(ङ्), गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं(म्) वचस्तेन, मोहोऽयं(म्) विगतो मम॥11.1॥

अर्जुन बोले - केवल मेरे पर कृपा करने के लिये ही आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म - विषयक वचन कहे, उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है।

विवेचन- अर्जुन कहते हैं कि मुझ पर अनुग्रह करने के लिए, आपने यह परम गोपनीय अध्यात्म शास्त्र मुझे सुनाया। इससे मैं जान गया हूँ और मेरी भेद दृष्टि समाप्त हो गयी है। बिना कारण ही मैं स्वयं को अर्जुन समझ रहा था और यह कि मेरे मारने से सामने वाले मर जायेंगे।

अर्जुन का यह मानना कि मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है और मुझे ज्ञान आ गया है, यह भी तो मोह है। मान लेना कि ज्ञान आ गया है, इससे अनुभव तो नहीं हुआ।

11.2

भवाप्ययौ हि भूतानां(म्), श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः(ख्) कमलपत्राक्ष, माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥11.2॥

क्योंकि हे कमलनयन! सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पत्ति तथा विनाश मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुने हैं और (आपका) अविनाशी माहात्म्य भी (सुना) है।

विवेचन-  अर्जुन भगवान की स्तुति करते हुए, उन्हें 'कमल पत्र जैसे नेत्र' के विशेषण से सम्बोधित करते हुए कहते हैं - सारे भूत प्राणियों की उत्पत्ति और नष्ट होने का वर्णन मैंने आपसे सुना है। संसार की उत्पत्ति और विलय और आपका अव्यय महात्म्य मैंने सुना है। 

भगवान की महानता अव्यय है, यह कम नहीं होती। कुछ लोगों की महानता समय के अन्तराल से चली जाती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति, भूतपूर्व प्रधानमन्त्री हो जाते हैं। भगवान की महानता भूतपूर्व नहीं होती, निरन्तर ही अक्षुण्ण बनी रहती है। यह समाप्त नहीं होती। प्रभु श्रीरामचन्द्र जी राजा थे, ऐसा हम नहीं कहते। उनका राज्य सदैव हमारे मन में बना रहता है। भगवान श्रीकृष्ण हमेशा हमारे मन में बने रहते हैं। उनकी महत्ता कभी कम नहीं होती। 

11.3

एवमेतद्यथात्थ त्वम्, आत्मानं(म्) परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्, ऐश्वरं(म्) पुरुषोत्तम॥11.3॥

हे पुरुषोत्तम! आप अपने-आपको जैसा कहते हैं, यह (वास्तवमें) ऐसा ही है। हे परमेश्वर! आपके ईश्वर-सम्बन्धी रूपको (मैं) देखना चाहता हूँ

विवेचन- अर्जुन कहते हैं- यह जो ज्ञान अपने बारे में आपने जैसा बताया है, वह मैं जान गया हूँ। आप आत्मा हैं, परमात्मा हैं, आप पुरुषोत्तम हैं। आपका ईश्वरीय रूप देखने की इच्छा मेरे मन में जाग्रत हुई है।

अर्जुन को ज्ञान हो गया है कि मेरे सामने साक्षात परमेश्वर हैं। पन्द्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम योग हमने देखा है। साङ्ख्यशास्त्र में बताया है कि परमात्मा और प्रकृति दो तत्त्वों से मिलकर ही सारा संसार बना है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशस: श्रिय:।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।

श्रीमद्भगवद्गीता में जहॉं भी भगवान का उच्चारण आरम्भ होता है, वहॉं हम पढ़ते हैं - श्रीभगवानुवाच, श्रीकृष्ण उवाच या वासुदेव उवाच नहीं है, साक्षात् भगवान कह रहे हैं। समग्र ईश्वरीय गुण, धर्म की मूर्ति। उनके गुरु उनके बारे में कहते हैं -

रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः॥

श्रीराम साक्षात धर्म हैं। उनमें ऐश्वर्य है, बल है, यश है, ज्ञान है, वैराग्य है। इन गुणों के होने पर भी उनसे चिपके हुए नहीं हैं, वह भगवान कहलाते हैं।

11.4

मन्यसे यदि तच्छक्यं(म्), मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं(न्), दर्शयात्मानमव्ययम्॥11.4॥

हे प्रभो! मेरे द्वारा (आपका) वह परम ऐश्वर रूप देखा जा सकता है - ऐसा अगर (आप) मानते हैं, तो हे योगेश्वर! आप अपने (उस) अविनाशी स्वरूप को मुझे दिखा दीजिये।

विवेचन- अर्जुन आगे कहते हैं - यदि आप यह मानते हैं कि मैं आपका वह रूप देखने योग्य हूँ, तो सारे विश्व को व्याप्त करने वाला अपना ऐश्वर्यमय वह रूप मुझे दिखावें। आप परमात्मा हैं, मेरी पात्रता यदि नहीं है, तो भी पात्रता को बढ़ा सकते हैं। आपने अपने शत्रु, पूतना और शिशुपाल को भी कैवल्य दिया है। ऐसे भाव अर्जुन के मन में हैं। 

बालक की पात्रता है या नहीं मॉं जानती है। पात्र न होने पर भी मॉं उसे दे सकती है और उसकी पात्रता बना सकती है। अर्जुन ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया। किसी से कुछ लेना है, मॉंगना है तो विनम्रता होनी चाहिए। यह अर्जुन के सरल स्वभाव से सीखना है।

11.5

श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि, शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि, नानावर्णाकृतीनि च॥11.5॥

श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन! अब मेरे अनेक तरह के, और अनेक वर्णों (रंगों) तथा आकृतियोंवाले सैकड़ों-हजारों अलौकिक रूपोंको (तू) देख।

विवेचन- अर्जुन में सभी अभिजात गुण हैं, इसीलिए वे भगवान को प्रिय हैं। यशोदा मैया को जो रूप दिखाया, उतने समय से भी अधिक तक अर्जुन को दिखाया। भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! मेरे सैकड़ों हजारों दिव्य रूप जो आप देखना चाहते हैं, वे देखो। 

विश्व में इतने प्रकार के प्राणी हैं कि हम पता ही नहीं लगा सकते। मछलीघर में मछलियाँ इतने प्रकार की हैं कि हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

एकें कृशें एकें स्थूळें, एकें ऱ्हस्वें एकें विशाळें,
पृथुतरें सरळें, अप्रांतें एकें ॥ 124 ॥

एकें अनावरें प्रांजळें, सव्यापारें एकें निश्चळें,
उदासीनें स्नेहाळें, तीव्रें एकें ॥ 125 ॥

एके घूर्णितें सावधें, असलगें एकें अगाधें,
एकें उदारें अतिबद्धें, क्रुद्धें एकें ॥ 126 ॥

एकें शांतें सन्मदें, स्तब्धें एकें सानंदें,
गर्जितें निःशब्दें, सौम्यें एकें ॥ 127 ॥

एकें साभिलाषें विरक्तें, उन्निद्रितें एकें निद्रितें,
परितुष्टें एकें आर्तें, प्रसन्नें एकें ॥ 128 ॥

एकें अशस्त्रें सशस्त्रें, एकें रौद्रें अतिमित्रें,
भयानकें एकें पवित्रें, लयस्थें एकें ॥ 129 ॥

एकें जनलीलाविलासें, एकें पालनशीलें लालसें,
एकें संहारकें सावेशें, साक्षिभूतें एकें ॥ 130 ॥

एवं नानाविधें परी बहुवसें, आणि दिव्यतेजप्रकाशें,
तेवींचि एक{ए}का ऐसें, वर्णेंही नव्हे ॥ 131 ॥

कोई कृष है, कोई मोटा, कोई अति लघु है, कोई विशाल है, कोई सरल है, कोई अक्खड़ है, कोई शान्त है, कोई उदासीन है, कोई सन्तुष्ट है, कोई अधीर है, कोई वाचाल है, कोई मूक है, कोई-कोई सौम्य है, कोई चञ्चल है, कोई शालीन है। ज्ञानेश्वर महाराज ने यहीं वर्णन करना आरम्भ कर दिया है, इसलिए ज्ञानेश्वरी की महत्ता है।

भगवान ने अर्जुन को कैसे-कैसे वर्ण दिखाए, यह भी ज्ञानेश्वर महाराज ने वर्णन किया है -

एकें तातलें साडेपंधरें, तैसीं कपिलवर्णें अपारें,
एकें सर्वांगीं जैसें सेंदुरें, डवरलें नभ ॥ 132 ॥

एकें सावियाचि चुळुकीं, जैसें ब्रह्मकटाह खचिलें माणिकीं,
एकें अरुणोदयासारिखीं, कुंकुमवर्णें ॥ 133 ॥

एकें शुद्धस्फटिकसोज्वळें, एकें इंद्रनीळसुनीळें,
एकें अंजनवर्णें सकाळें, रक्तवर्णें एकें ॥ 134 ॥

एकें लसत्कांचनसम पिंवळीं, एकें नवजलदश्यामळीं,
एकें चांपेगौरीं केवळीं, हरितें एकें ॥ 135 ॥

एकें तप्तताम्रतांबडीं, एकें श्वेतचंद्र चोखडीं,
ऐसीं नानावर्णें रूपडीं, देखें माझीं ॥ 136 ॥

हे जैसे कां आनान वर्ण, तैसें आकृतींही अनारिसेपण,
लाजा कंदर्प रिघाला शरण, तैसीं सुंदरें एकें ॥ 137 ॥


कोई कपिल वर्ण है, कोई तप्त वर्ण है, कोई सिन्दूर वर्ण है, कोई आकाश वर्ण है, कोई मणिक वर्ण है, कोई कुङ्कुम वर्ण है, कोई रक्त वर्ण है, कोई श्याम वर्ण है। अनेक वर्ण और अनेक आकृतियाँ हैं।

11.6

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रान्, अश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि, पश्याश्चर्याणि भारत॥11.6॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! तू बारह आदित्योंको, आठ वसुओंको, ग्यारह रुद्रोंको (और) दो अश्विनीकुमारोंको तथा उनचास मरुद्गणोंको देख। जिनको तूने पहले कभी देखा नहीं, (ऐसे) बहुत-से आश्चर्यजनक रूपोंको (भी) (तू) देख।

विवेचन- भगवान कहते हैं, हे भारतवंशी अर्जुन! तुम मेरे भीतर तैंतीस प्रकार के सभी देवता - सभी बारह आदित्य, आठ वसुओं, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनी कुमारों को देखो, उनचास प्रकार के मरुत भी देखो। तुमने जो कुछ पूर्व में नहीं देखे वे सभी आश्चर्य यहॉं एक ही स्थान पर देखो।

11.7

इहैकस्थं(ञ्) जगत्कृत्स्नं(म्), पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश, यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥11.7॥

हे नींद को जीतनेवाले अर्जुन! मेरे इस शरीरके एक देशमें चराचर सहित सम्पूर्ण जगत्को अभी देख ले। इसके सिवाय (तू) और भी जो कुछ देखना चाहता है, (वह भी देख ले)।

विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं - निद्रा को जीतने वाले अर्जुन! तुम जाग्रत होकर एक ही स्थान पर, सम्पूर्ण जगत के चराचर को देखो। अन्य जो भी आश्चर्य देखना चाहते हो, कहीं इधर-उधर जाने की आवश्यकता नहीं है, यहॉं पर ही देख लो।

हम बन्द कमरे में बैठे हुए हों, किसी एक रोशनदान से प्रकाश की किरण आ रही हो, उसमें धूल के अनेक कण उड़ते नजर आते हैं। ऐसे ही श्रीभगवान के रोम-रोम में ब्रह्माण्ड की रचनाएँ उड़ रही हैं।‌ अर्जुन अचम्भित हैं। भगवान का ध्यान गया कि अर्जुन के पास यह सब देखने की दृष्टि नहीं है। पश्य का अर्थ देखना भी है, जानना भी है। अर्जुन न तो देख पा रहे हैं, न ही जान पा रहे हैं। उनके पास तो दिव्य दृष्टि नहीं है।

11.8

न तु मां(म्) शक्यसे द्रष्टुम्, अनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं(न्) ददामि ते चक्षुः(फ्), पश्य मे योगमैश्वरम्॥11.8॥

परन्तु (तू) इस अपनी आँख (चर्मचक्षु) से मुझे देख ही नहीं सकता, (इसलिये मैं) तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, (जिससे तू) मेरी ईश्वरीय सामर्थ्यको देख।

विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं- तुम मुझे देख नहीं सकोगे, मैं तुम्हें दिव्य नेत्र देता हूँ।

दृष्टि दो प्रकार की होती है। सामान्य दृष्टि से हम अपने आसपास का संसार देखते हैं। ज्ञान दृष्टि से हम देखी हुई को समझते हैं। 

वायु को स्पर्श करके सामान्य दृष्टि से हमें उसका पता तो चलता है, किन्तु विज्ञान की ज्ञान दृष्टि से हम पता लगाते हैं कि वह वायु ऑक्सीजन है, या कार्बन डाइऑक्साइड है, या अन्य प्रकार के बहुत से मिश्रण हैं। 

श्रीभगवान द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि से अर्जुन देख रहे हैं। सञ्जय को तो श्री वेदव्यास जी की अनुकम्पा से यह दिव्य दृष्टि पहले प्राप्त हो गयी थी। सञ्जय हस्तिनापुर राजमहल में धृतराष्ट्र को वर्णन बता रहे हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रारम्भ में ही धृतराष्ट्र पूछते हैं-

धृतराष्ट्र उवाच-

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥1:1॥


हे सञ्जय! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? इसके पश्चात् सञ्जय युद्धभूमि का वर्णन, भगवान वेदव्यास जी द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि से देखकर, राजा धृतराष्ट्र को सुनाते हैं।

11.9

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्, महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय, परमं(म्) रूपमैश्वरम्॥11.9॥

सञ्जय बोले - हे राजन्! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुनको परम ऐश्वर विराट् रूप दिखाया।

विवेचन- भगवान की योगशक्ति से, अर्जुन जो कुछ देख रहे हैं, वह सञ्जय भी देख रहे हैं। वे धृतराष्ट्र को बताते हैं - हे राजन! इस प्रकार हमारे सारे पापों व दुःखों को हरने वाले श्रीहरि, जो महायोगेश्वर हैं, उन्होंने अपना परमेश्वरीय रूप दिखाया।

सारे संसार के दुःखों का हरणवाले का नाम है- हरि।
अपनी योग शक्ति से सम्पूर्ण विश्व को समाहित करने वाले हैं - महायोगेश्वर।

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में आता है -

ૐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे।

11.10

अनेकवक्त्रनयनम्, अनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं (न्), दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥11.10॥

जिसके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तरह के अद्भुत दर्शन हैं, अनेक अलौकिक आभूषण हैं, हाथों में उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं (तथा)-

विवेचन- सञ्जय ने देखा विश्व के जितने भी मुख हैं और जितने भी प्रकार के हैं, वे सभी मानों भगवान के ही मुख हैं। भगवान के असङ्ख्य नेत्र हैं, वे विश्व के सभी भूत प्राणियों के हैं। अलौकिक और अद्भुत दर्शन, दिव्यालङ्कारों सहित अनेक शस्त्र और दिव्यास्त्र देखकर सञ्जय विस्मित हैं। 

बालक श्रीराम की मूर्ति हमने अभी देखी, हम अपने भीतर भगवान के विग्रह से कैसी अद्भुत अनुभूति करते हैं? अर्जुन और सञ्जय साक्षात् दर्शन पा रहे हैं। जिसने समस्त विश्व को व्याप्त किया है, ऐसा विश्वतोमुख अद्भुत अवर्णनीय, अकल्पनीय।

11.11

दिव्यमाल्याम्बरधरं(न्), दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं(न्) देवम्, अनन्तं(म्) विश्वतोमुखम्॥11.11॥

जिनके गले में दिव्य मालाएँ हैं, जो अलौकिक वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीर पर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्त रूपोंवाले (तथा) सब तरफ मुखोंवाले देव (अपने दिव्य स्वरूप) को (भगवानने दिखाया)।

विवेचन- सञ्जय दिव्य गन्धों से परिपूर्ण और सभी प्रकार से, सभी ओर से विश्वमुख देखकर आश्चर्यचकित होकर धृतराष्ट्र को वर्णन बता रहे हैं। सभी देवता उनमें स्थित हैं। विश्वतोमुख में विश्व के समस्त प्रकार के भूतप्राणियों के मुख समाहित हैं। सब कुछ अत्यन्त आश्चर्यचकित करने वाला है। हम सब भी उस अद्भुत रूप का वर्णन सुनकर अपने भीतर आश्चर्य अनुभव करते हैं।

11.12

दिवि सूर्यसहस्रस्य, भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः(स्) सदृशी सा स्याद्, भासस्तस्य महात्मनः॥11.12॥

(अगर) आकाश में एक साथ हजारों सूर्योंका उदय हो जाय, (तो भी) उन सबका प्रकाश (मिलकर) उस महात्मा (विराट् रूप परमात्मा) के प्रकाशके समान शायद ही हो अर्थात् नहीं हो सकता।

विवेचन- सञ्जय वर्णन करते हैं - आकाश में हजारों सूर्य एक साथ प्रकाशित हो जाएँ, जो मैं देख रहा हूँ, वही अर्जुन भी देख रहे हैं। 

भा का अर्थ है - प्रकाश, इसी से हमारे देश का नाम भारत है। 
भा रत जो ज्ञान के प्रकाश में लगा हुआ है। 

यहॉं सञ्जय कहते हैं - स्यात् (शायद) हजारों सूर्यों का प्रकाश भी शायद ही श्रीभगवान के विश्वरूप के प्रकाश की समानता कर पाते हों। विश्वमूर्ति का प्रकाश हजारों सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक है। 

11.13

तत्रैकस्थं(ञ्) जगत्कृत्स्नं(म्), प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य, शरीरे पाण्डवस्तदा॥11.13॥

उस समय अर्जुनने देवोंके देव भगवान्के उस शरीर में एक जगह स्थित अनेक प्रकारके विभागोंमें विभक्त सम्पूर्ण जगत् को देखा।

विवेचन- सञ्जय धृतराष्ट्र को बताते हैं, एक ही शरीर में, एक ही स्थान पर, विस्मित होकर अर्जुन देख रहे हैं - अनेक प्रकार का जगत, वन, नदियाँ, भूत प्राणी, मनुष्य, सभी प्रकार के पशु पक्षी, कीट, सब अलग-अलग विभक्त होकर भी, सब अलग से, अच्छे से, एक दिखते हैं और एक ही परमात्मा में दिखाई देते हैं।

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि,
तुझमें यह सारा संसार।
इसी भावना से अन्तर भर, 
मिलूँ सभी से तुझे निहार ।।

यह अध्याय सभी में परमात्मा को देखने का है। यह पढ़ने का नहीं, अपने भीतर अनुभव करने का अध्याय है। भगवान का ऐसा विश्वदर्शन अनुभव, हमें भी रोमाञ्चित करता है।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

जैसे मेरु पर्वत को सोने से ढक दिया जाए, ऐसा चमकदार, आकर्षक और दिव्य गन्ध से युक्त।

दसवें अध्याय में भगवान विभूतियाँ बताते हुए कहते हैं - जहॉं विभूति आती है, वहॉं मैं हूँ।

11.14

ततः(स्) स विस्मयाविष्टो, हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं(ङ्), कृताञ्जलिरभाषत॥11.14॥

भगवान् के विश्वरूप को देखकर वे अर्जुन बहुत चकित हुए (और) आश्चर्य के कारण उनका शरीर रोमांचित हो गया। (वे) हाथ जोड़कर विश्वरूप देव को मस्तकसे प्रणाम करके बोले।

विवेचन- जैसे ही अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन हुआ, उनका हाव-भाव बदल गया। अर्जुन और धृतराष्ट्र के सामने बैठे सञ्जय नतमस्तक हो गये। जब भगवान के दर्शन होते हैं, तब पहले हम हाथ जोड़कर नतमस्तक होते हैं। फिर माथा टेकते हैं, उसके बाद ही कुछ कहते हैं। अर्जुन ने जो कुछ देखा, उससे उनकी भाषा बदल गई। 

11.15

अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे,
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्।
ब्रह्माणमीशं(ङ्) कमलासनस्थम्,
ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥11.15॥

अर्जुन बोले - हे देव! (मैं) आपके शरीर में सम्पूर्ण देवताओं को तथा प्राणियोंके विशेष-विशेष समुदायोंको और कमलासनपर बैठे हुए ब्रह्माजीको, शङ्करजीको, सम्पूर्ण ऋषियोंको और दिव्य सर्पोंको देख रहा हूँ।

विवेचन- अर्जुन हाथ जोड़कर, नतमस्तक होकर श्रीभगवान को प्रणाम करने के पश्चात् कहते हैं - 

हे देव आपकी देह में सब कुछ देख रहा हूँ। आपके सिवा कुछ नहीं है। सबको आप में ही देख रहा हूँ।

ईश्वर के विश्वरूप में सब समाहित हैं। सभी देवी-देवता, सभी भूत प्राणी, ब्रह्मलोक, कैलाश पर स्थित महादेव, स्वर्गलोक, नागलोक, सारे विश्व को अर्जुन ने देखा। 

अर्जुन और सञ्जय ने जो देखा, उसका वर्णन करना भी भाग्य की बात है। स्वामी जी की कृपा और गीता परिवार की कृपा से हम यह पढ़ रहे हैं। यह हमारा सौभाग्य है। श्रीमद्भगवद्गीता हमें वह सब सिखाती है। हम पढ़कर धीरे-धीरे अनुभव भी करने लगेंगे।

गीता पढ़ें पढ़ायें जीवन में लायें। 
Teaching is best way for learning

खरा तो एकची धर्म जगाला प्रेम अर्पावे
जगी जे हीन अतिपतित, जगी जे दीन पददलित
तया जाऊन उठवावे, जगाला प्रेम 

विश्व रूप में अच्छे और बुरे सभी समाहित हैं। आगे का वर्णन अगले सत्र में ।

प्रश्नोत्तर:-

प्रश्नकर्ता:-अवध किशोर भैया

प्रश्न:- विभूति योग में मुझे संशय रहता है। भगवान ने अपनी जो उपमायें दी हैं, वे उस समय के अनुसार श्रेष्ठतम हैं, उन्होंने कहा कि जैसे मैं मृगों में मृगेन्द्र अर्थात् सिंह, पक्षियों में गरुड़ हूँ, किन्तु आज की स्थिति में यह सार्वभौमिक रूप में सत्य होगा क्या?

उत्तर:- ये उपमायें नहीं हैं, ये भगवान ने अपनी विभूतियाँ बताई हैं, जहाँ पर भी विशेष अनुभूति आती है, उस समय का वर्णन किया है, जैसे वन में जाकर जब हम वनराज सिंह को देखते हैं तो उसका तेज विशिष्ट है। उन्मत्त हाथी भी सिंह गर्जना सुनकर अपना उठा हुआ पैर रखना भूल जाता है, सिंह की यह शक्ति उसका विशेषत्त्व है। हमारे हाथ वहीं जुड़ते हैं, जहाँ दिव्यत्त्व परिलक्षित होता है। अन्त में श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा कि मैं ये सारी विभूतियाँ तुम्हें नहीं बता सकता, यह कुछ वर्णन उदाहरण के लिये हैं। मेरी दिव्य विभूतियाँ अनन्त हैं। सब नहीं बताई जा सकती। परमात्मा सर्वत्र है, किन्तु उसको हर जगह देखने के लिये उतनी क्षमता लानी पड़ेगी। अभी तो विशिष्ट स्थानों पर(मन्दिर आदि) ही उसकी अनुभूति की जा सकती है।

प्रश्नकर्ता :- कीर्ति दीदी

प्रश्न:- श्रीभगवान कहते हैं कि सभी देवी-देवता मेरी ही शक्ति से शक्तिमान हैं, इसलिये तुम मुझे ही भजो, अन्य देवताओं की शक्तियाँ अल्पकालिक हैं, पुण्य समाप्त होने पर पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। हम तो गृहस्थ हैं, हम क्या करे?

उत्तर:- इसका यह अर्थ नहीं है कि देवताओं की पूजा न करें या सुख की लालसा न करें। इस लोक में हम सुखी हो जाये, इसलिये देवताओं का पूजन भी आवश्यक है, देवता भी हमें वह सुख देने के लिये बाध्य हैं। यह फल अल्पकालिक है, किन्तु ज़रूरी है। हम अच्छा भोजन करेंगे, तो स्वस्थ रहेंगे, तभी सांसारिक कार्य कर सकेंगे और श्रीभगवान का पूजन भी कर सकेंगे। भगवद्गीता एक ऐसा शास्त्र है जिसमें नि:श्रेयस और अभ्युदय दोनों को बराबर स्थान प्राप्त है। अभ्युदय का अर्थ है भौतिक उन्नति, इसके लिये यज्ञ देवताओं का पूजन करना ही चाहिए। यहाँ का जीवन सुखमय होने से ही हम भगवान को अच्छी तरह से जान सकेंगे। भूखे पेट से भजन नहीं हो सकता। सब कुछ प्राप्त करने के बाद ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकेगी। अन्तिम उद्देश्य से हमारी दृष्टि हटनी नहीं चाहिए। धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष का क्रमश: ध्यान रखना चाहिए।

प्रश्नकर्ता :- हनुमान प्रसाद भैया

प्रश्न:- द्वैत अद्वैत क्या है? भगवान को इस रूप में कैसे देखें?

उत्तर:- परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है यह अनुभव होना केवल जानना नहीं, जब अहम् भी नष्ट हो जाये, वह अद्वैत है। अहङ्कार छोड़ कर जाता नहीं। यदि अहम् छोड़ कर चला भी जाय तो व्यक्ति सोचने लगता है कि अब मेरा अहङ्कार चला गया। यह भी एक अहम् ही है। अहम् भाव जब चला जायेगा तब जो बचेगा वह अद्वैत है। 

कबीर दास जी का एक दोहा है:-

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहिं।।

प्रश्न:- ग्यारहवें अध्याय के सातवें श्लोक का क्या अर्थ है?

      इहैकस्थम्जगत्कृत्स्नम् पश्यद्य सचराचरम्।

      मम देहे गुडाकेश यच्चान्यादृष्टुमिच्छसि।।

उत्तर:- श्रीभगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम आज मेरी देह में सम्पूर्ण चराचर जगत् को देखो। अपनी निद्रा को नियन्त्रित करने वाले हे गुडाकेश! तुम अन्य जो कुछ देखना चाहते हो वह यहाँ देखो।

प्रश्नकर्ता:- सपना दीदी

प्रश्न:- श्रीभगवान की कृपा से अर्जुन को दिव्य दृष्टि मिली, सञ्जय जी को भी सब कुछ देखने का वरदान उनके गुरु वेदव्यास जी की कृपा से प्राप्त हुआ, सञ्जय जी सब कुछ धृतराष्ट्र को बता रहे थे, तब क्या यह युद्ध रोका नहीं जा सकता था?

उत्तर:- युद्ध तो होने ही वाला था, काल के प्रवाह में जो-जो होने वाला है, वह अटल है। सञ्जय को भी ज्ञात था, भगवान को भी ज्ञात था कि युद्ध भविष्य की नियति है। श्रीभगवान ने तो युद्ध से भाग रहे अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में ही युद्ध की विभीषिका दिखा दी थी। सब कुछ हो चुका है, तुम इनको मारने में एक निमित्त मात्र हो।

श्री कृष्णार्पणमस्तु।