विवेचन सारांश
ईश्वरीय अनुभूति
श्रीभगवान बताते हैं -
नान्तोઽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो, विभूतेर्विस्तरो मया॥10:40॥
जैसे भगवान अनन्त हैं, वैसे ही उनकी विभूतियाँ अनन्त हैं। भगवान ने लगभग अपनी पिचहत्तर विभूतियाँ अर्जुन को बताईं।
भगवान कहते हैं -
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नम् एकांशेन स्थितो जगत्॥10:42॥
सम्पूर्ण संसार मैंने एक अंश से धारण किया है और मैं वैसे का वैसा स्थित हूँ। भगवान ने मुख में मिट्टी डाली, तब यशोदा मैया को उनके मुख में विश्वरूप के दर्शन हुए थे। भगवान ने यशोदा मैया को वह दर्शन विस्मृत करा दिया, ताकि श्रीकृष्णावतार का उद्देश्य सफल हो सके। अर्जुन ने विभूतियाँ सुनीं, अनुभूति के स्थान सुने और यह भी जाना कि भगवान ने सारा चराचर एक अंश से धारण कर रखा है। वह कण-कण में बसे हुए हैं। अर्जुन के मन में जिज्ञासा हुई और हमारे मन में भी होती है कि सारे विश्व में व्याप्त भगवान का विश्वरूप कैसा है!
अर्जुन ने अत्यन्त विनम्रता से प्रश्न पूछा। अर्जुन को ज्ञान हो चुका है कि रथ के सारथी सामान्य व्यक्ति या मेरे मित्र नहीं हैं। यह साक्षात् परमेश्वर हैं।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥10:14॥
इससे पहले अर्जुन भगवान की शरण में आकर कहते हैं-
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहितन्मे
शिष्यस्तेઽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥2:7॥
जो मेरे लिए श्रेयस्कर है, वही कहिए। अब अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हुए बात करने लगे।
11.1
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं(ङ्), गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं(म्) वचस्तेन, मोहोऽयं(म्) विगतो मम॥11.1॥
भवाप्ययौ हि भूतानां(म्), श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः(ख्) कमलपत्राक्ष, माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥11.2॥
भगवान की महानता अव्यय है, यह कम नहीं होती। कुछ लोगों की महानता समय के अन्तराल से चली जाती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति, भूतपूर्व प्रधानमन्त्री हो जाते हैं। भगवान की महानता भूतपूर्व नहीं होती, निरन्तर ही अक्षुण्ण बनी रहती है। यह समाप्त नहीं होती। प्रभु श्रीरामचन्द्र जी राजा थे, ऐसा हम नहीं कहते। उनका राज्य सदैव हमारे मन में बना रहता है। भगवान श्रीकृष्ण हमेशा हमारे मन में बने रहते हैं। उनकी महत्ता कभी कम नहीं होती।
एवमेतद्यथात्थ त्वम्, आत्मानं(म्) परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्, ऐश्वरं(म्) पुरुषोत्तम॥11.3॥
अर्जुन को ज्ञान हो गया है कि मेरे सामने साक्षात परमेश्वर हैं। पन्द्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम योग हमने देखा है। साङ्ख्यशास्त्र में बताया है कि परमात्मा और प्रकृति दो तत्त्वों से मिलकर ही सारा संसार बना है।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशस: श्रिय:।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।
श्रीमद्भगवद्गीता में जहॉं भी भगवान का उच्चारण आरम्भ होता है, वहॉं हम पढ़ते हैं - श्रीभगवानुवाच, श्रीकृष्ण उवाच या वासुदेव उवाच नहीं है, साक्षात् भगवान कह रहे हैं। समग्र ईश्वरीय गुण, धर्म की मूर्ति। उनके गुरु उनके बारे में कहते हैं -
रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः॥
श्रीराम साक्षात धर्म हैं। उनमें ऐश्वर्य है, बल है, यश है, ज्ञान है, वैराग्य है। इन गुणों के होने पर भी उनसे चिपके हुए नहीं हैं, वह भगवान कहलाते हैं।
मन्यसे यदि तच्छक्यं(म्), मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं(न्), दर्शयात्मानमव्ययम्॥11.4॥
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि, शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि, नानावर्णाकृतीनि च॥11.5॥
विश्व में इतने प्रकार के प्राणी हैं कि हम पता ही नहीं लगा सकते। मछलीघर में मछलियाँ इतने प्रकार की हैं कि हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
एकें कृशें एकें स्थूळें, एकें ऱ्हस्वें एकें विशाळें,
पृथुतरें सरळें, अप्रांतें एकें ॥ 124 ॥
एकें अनावरें प्रांजळें, सव्यापारें एकें निश्चळें,
उदासीनें स्नेहाळें, तीव्रें एकें ॥ 125 ॥
एके घूर्णितें सावधें, असलगें एकें अगाधें,
एकें उदारें अतिबद्धें, क्रुद्धें एकें ॥ 126 ॥
एकें शांतें सन्मदें, स्तब्धें एकें सानंदें,
गर्जितें निःशब्दें, सौम्यें एकें ॥ 127 ॥
एकें साभिलाषें विरक्तें, उन्निद्रितें एकें निद्रितें,
परितुष्टें एकें आर्तें, प्रसन्नें एकें ॥ 128 ॥
एकें अशस्त्रें सशस्त्रें, एकें रौद्रें अतिमित्रें,
भयानकें एकें पवित्रें, लयस्थें एकें ॥ 129 ॥
एकें जनलीलाविलासें, एकें पालनशीलें लालसें,
एकें संहारकें सावेशें, साक्षिभूतें एकें ॥ 130 ॥
एवं नानाविधें परी बहुवसें, आणि दिव्यतेजप्रकाशें,
तेवींचि एक{ए}का ऐसें, वर्णेंही नव्हे ॥ 131 ॥
कोई कृष है, कोई मोटा, कोई अति लघु है, कोई विशाल है, कोई सरल है, कोई अक्खड़ है, कोई शान्त है, कोई उदासीन है, कोई सन्तुष्ट है, कोई अधीर है, कोई वाचाल है, कोई मूक है, कोई-कोई सौम्य है, कोई चञ्चल है, कोई शालीन है। ज्ञानेश्वर महाराज ने यहीं वर्णन करना आरम्भ कर दिया है, इसलिए ज्ञानेश्वरी की महत्ता है।
भगवान ने अर्जुन को कैसे-कैसे वर्ण दिखाए, यह भी ज्ञानेश्वर महाराज ने वर्णन किया है -
एकें तातलें साडेपंधरें, तैसीं कपिलवर्णें अपारें,
एकें सर्वांगीं जैसें सेंदुरें, डवरलें नभ ॥ 132 ॥
एकें सावियाचि चुळुकीं, जैसें ब्रह्मकटाह खचिलें माणिकीं,
एकें अरुणोदयासारिखीं, कुंकुमवर्णें ॥ 133 ॥
एकें शुद्धस्फटिकसोज्वळें, एकें इंद्रनीळसुनीळें,
एकें अंजनवर्णें सकाळें, रक्तवर्णें एकें ॥ 134 ॥
एकें लसत्कांचनसम पिंवळीं, एकें नवजलदश्यामळीं,
एकें चांपेगौरीं केवळीं, हरितें एकें ॥ 135 ॥
एकें तप्तताम्रतांबडीं, एकें श्वेतचंद्र चोखडीं,
ऐसीं नानावर्णें रूपडीं, देखें माझीं ॥ 136 ॥
हे जैसे कां आनान वर्ण, तैसें आकृतींही अनारिसेपण,
लाजा कंदर्प रिघाला शरण, तैसीं सुंदरें एकें ॥ 137 ॥
कोई कपिल वर्ण है, कोई तप्त वर्ण है, कोई सिन्दूर वर्ण है, कोई आकाश वर्ण है, कोई मणिक वर्ण है, कोई कुङ्कुम वर्ण है, कोई रक्त वर्ण है, कोई श्याम वर्ण है। अनेक वर्ण और अनेक आकृतियाँ हैं।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रान्, अश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि, पश्याश्चर्याणि भारत॥11.6॥
इहैकस्थं(ञ्) जगत्कृत्स्नं(म्), पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश, यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥11.7॥
हम बन्द कमरे में बैठे हुए हों, किसी एक रोशनदान से प्रकाश की किरण आ रही हो, उसमें धूल के अनेक कण उड़ते नजर आते हैं। ऐसे ही श्रीभगवान के रोम-रोम में ब्रह्माण्ड की रचनाएँ उड़ रही हैं। अर्जुन अचम्भित हैं। भगवान का ध्यान गया कि अर्जुन के पास यह सब देखने की दृष्टि नहीं है। पश्य का अर्थ देखना भी है, जानना भी है। अर्जुन न तो देख पा रहे हैं, न ही जान पा रहे हैं। उनके पास तो दिव्य दृष्टि नहीं है।
न तु मां(म्) शक्यसे द्रष्टुम्, अनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं(न्) ददामि ते चक्षुः(फ्), पश्य मे योगमैश्वरम्॥11.8॥
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्, महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय, परमं(म्) रूपमैश्वरम्॥11.9॥
सारे संसार के दुःखों का हरणवाले का नाम है- हरि।
अपनी योग शक्ति से सम्पूर्ण विश्व को समाहित करने वाले हैं - महायोगेश्वर।
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में आता है -
ૐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे।
अनेकवक्त्रनयनम्, अनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं (न्), दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥11.10॥
दिव्यमाल्याम्बरधरं(न्), दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं(न्) देवम्, अनन्तं(म्) विश्वतोमुखम्॥11.11॥
दिवि सूर्यसहस्रस्य, भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः(स्) सदृशी सा स्याद्, भासस्तस्य महात्मनः॥11.12॥
भा का अर्थ है - प्रकाश, इसी से हमारे देश का नाम भारत है।
तत्रैकस्थं(ञ्) जगत्कृत्स्नं(म्), प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य, शरीरे पाण्डवस्तदा॥11.13॥
ततः(स्) स विस्मयाविष्टो, हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं(ङ्), कृताञ्जलिरभाषत॥11.14॥
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे,
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्।
ब्रह्माणमीशं(ङ्) कमलासनस्थम्,
ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥11.15॥
हे देव आपकी देह में सब कुछ देख रहा हूँ। आपके सिवा कुछ नहीं है। सबको आप में ही देख रहा हूँ।
प्रश्नोत्तर:-
प्रश्नकर्ता:-अवध किशोर भैया
प्रश्न:- विभूति योग में मुझे संशय रहता है। भगवान ने अपनी जो उपमायें दी हैं, वे उस समय के अनुसार श्रेष्ठतम हैं, उन्होंने कहा कि जैसे मैं मृगों में मृगेन्द्र अर्थात् सिंह, पक्षियों में गरुड़ हूँ, किन्तु आज की स्थिति में यह सार्वभौमिक रूप में सत्य होगा क्या?
उत्तर:- ये उपमायें नहीं हैं, ये भगवान ने अपनी विभूतियाँ बताई हैं, जहाँ पर भी विशेष अनुभूति आती है, उस समय का वर्णन किया है, जैसे वन में जाकर जब हम वनराज सिंह को देखते हैं तो उसका तेज विशिष्ट है। उन्मत्त हाथी भी सिंह गर्जना सुनकर अपना उठा हुआ पैर रखना भूल जाता है, सिंह की यह शक्ति उसका विशेषत्त्व है। हमारे हाथ वहीं जुड़ते हैं, जहाँ दिव्यत्त्व परिलक्षित होता है। अन्त में श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा कि मैं ये सारी विभूतियाँ तुम्हें नहीं बता सकता, यह कुछ वर्णन उदाहरण के लिये हैं। मेरी दिव्य विभूतियाँ अनन्त हैं। सब नहीं बताई जा सकती। परमात्मा सर्वत्र है, किन्तु उसको हर जगह देखने के लिये उतनी क्षमता लानी पड़ेगी। अभी तो विशिष्ट स्थानों पर(मन्दिर आदि) ही उसकी अनुभूति की जा सकती है।
प्रश्नकर्ता :- कीर्ति दीदी
प्रश्न:- श्रीभगवान कहते हैं कि सभी देवी-देवता मेरी ही शक्ति से शक्तिमान हैं, इसलिये तुम मुझे ही भजो, अन्य देवताओं की शक्तियाँ अल्पकालिक हैं, पुण्य समाप्त होने पर पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। हम तो गृहस्थ हैं, हम क्या करे?
उत्तर:- इसका यह अर्थ नहीं है कि देवताओं की पूजा न करें या सुख की लालसा न करें। इस लोक में हम सुखी हो जाये, इसलिये देवताओं का पूजन भी आवश्यक है, देवता भी हमें वह सुख देने के लिये बाध्य हैं। यह फल अल्पकालिक है, किन्तु ज़रूरी है। हम अच्छा भोजन करेंगे, तो स्वस्थ रहेंगे, तभी सांसारिक कार्य कर सकेंगे और श्रीभगवान का पूजन भी कर सकेंगे। भगवद्गीता एक ऐसा शास्त्र है जिसमें नि:श्रेयस और अभ्युदय दोनों को बराबर स्थान प्राप्त है। अभ्युदय का अर्थ है भौतिक उन्नति, इसके लिये यज्ञ देवताओं का पूजन करना ही चाहिए। यहाँ का जीवन सुखमय होने से ही हम भगवान को अच्छी तरह से जान सकेंगे। भूखे पेट से भजन नहीं हो सकता। सब कुछ प्राप्त करने के बाद ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकेगी। अन्तिम उद्देश्य से हमारी दृष्टि हटनी नहीं चाहिए। धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष का क्रमश: ध्यान रखना चाहिए।
प्रश्नकर्ता :- हनुमान प्रसाद भैया
प्रश्न:- द्वैत अद्वैत क्या है? भगवान को इस रूप में कैसे देखें?
उत्तर:- परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है यह अनुभव होना केवल जानना नहीं, जब अहम् भी नष्ट हो जाये, वह अद्वैत है। अहङ्कार छोड़ कर जाता नहीं। यदि अहम् छोड़ कर चला भी जाय तो व्यक्ति सोचने लगता है कि अब मेरा अहङ्कार चला गया। यह भी एक अहम् ही है। अहम् भाव जब चला जायेगा तब जो बचेगा वह अद्वैत है।
कबीर दास जी का एक दोहा है:-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहिं।।
प्रश्न:- ग्यारहवें अध्याय के सातवें श्लोक का क्या अर्थ है?
इहैकस्थम्जगत्कृत्स्नम् पश्यद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यादृष्टुमिच्छसि।।
उत्तर:- श्रीभगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम आज मेरी देह में सम्पूर्ण चराचर जगत् को देखो। अपनी निद्रा को नियन्त्रित करने वाले हे गुडाकेश! तुम अन्य जो कुछ देखना चाहते हो वह यहाँ देखो।
प्रश्नकर्ता:- सपना दीदी
प्रश्न:- श्रीभगवान की कृपा से अर्जुन को दिव्य दृष्टि मिली, सञ्जय जी को भी सब कुछ देखने का वरदान उनके गुरु वेदव्यास जी की कृपा से प्राप्त हुआ, सञ्जय जी सब कुछ धृतराष्ट्र को बता रहे थे, तब क्या यह युद्ध रोका नहीं जा सकता था?
उत्तर:- युद्ध तो होने ही वाला था, काल के प्रवाह में जो-जो होने वाला है, वह अटल है। सञ्जय को भी ज्ञात था, भगवान को भी ज्ञात था कि युद्ध भविष्य की नियति है। श्रीभगवान ने तो युद्ध से भाग रहे अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में ही युद्ध की विभीषिका दिखा दी थी। सब कुछ हो चुका है, तुम इनको मारने में एक निमित्त मात्र हो।
श्री कृष्णार्पणमस्तु।