विवेचन सारांश
अर्जुन का परमात्मा के प्रति समर्पण
पारम्परिक गीत श्रृङ्खला, नाम सङ्कीर्तन, मधुराष्टकम्, हनुमान चालीसा, गीता भक्ति अमृत महोत्सव की भाषा, सांस्कृतिक प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, भगवान श्रीकृष्णजी की प्रार्थना एवं श्रीगुरु चरण वन्दना करते हुए आज के विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ।
भगवान ने अपने हृदय का सारा गुह्य ज्ञान अर्जुन को दे दिया। अपने बारे में बताया और अपने बारे में गोपनीय बातें भी बताईं जिसके फलस्वरूप अर्जुन को यह बात समझ आ गई कि परमात्मा और अर्जुन में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। परमात्मा जो सर्वत्र है उसकी भक्ति कैसे करें? कण-कण में ईश्वर का वास है, ऐसा कहने से हम किसकी उपासना करेंगे?
अर्जुन के मन में परमेश्वर की विभूतियों को जानने की इच्छा जाग्रत हुई। उन्होने विशेष अनुभूति के स्थान जाने जहाँ पर परमात्मा की विशेष अनुभूति हो सकती है। अर्जुन के विनती करने पर दसवें अध्याय में श्रीभगवान ने अर्जुन को अपनी विभूतियों के बारे में बताया। विभूतियों के बारे में जानने के पश्चात् दिव्य विभूतियों में परमात्मा को कैसे देखना है? अर्जुन के मन में इच्छा हुई, क्या मैं भगवान के सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाले रूप को देख सकता हूँ? भगवान ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करके अपने विश्वरूप का दर्शन दिखाना आरम्भ किया।
अर्जुन ने देखा कि श्रीभगवान ने अकेले ही सारी दिशाओं और तीनों लोकों को व्याप्त कर लिया है, तीनों लोक, सारे ब्रह्माण्ड परमात्मा में ही समाए हैं। भगवान का यह रूप देखकर कुछ लोग व्यथित हैं, हाथ जोड़कर उनका गुणगान कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं, स्त्रोत गा रहे हैं और उनके स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। अर्जुन ने भगवान के विकराल रूप को देखा, सम्पूर्ण विश्वरूप के दर्शन किए, असङ्ख्य मुख देखे जिनमें अग्नि प्रज्वलित थी। उन जलते मुखों में विकराल दन्त पङ्क्तियाँ देखीं।
अर्जुन भयभीत हो गए और अर्जुन ने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र, दुर्योधन, दु:शासन, आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, कर्ण सब भगवान के जलते हुए मुख में प्रवेश कर रहे हैं और भगवान के दाँतों के बीच दबे हुए हैं। दाँतों के बीच की जगह में उनके उत्तम अङ्ग अर्थात् सिर दबकर चूर्ण हो गए हैं।यह भयानक दृश्य देखकर अर्जुन ने कहा कि यह क्या है?
भगवान ने अपने हृदय का सारा गुह्य ज्ञान अर्जुन को दे दिया। अपने बारे में बताया और अपने बारे में गोपनीय बातें भी बताईं जिसके फलस्वरूप अर्जुन को यह बात समझ आ गई कि परमात्मा और अर्जुन में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। परमात्मा जो सर्वत्र है उसकी भक्ति कैसे करें? कण-कण में ईश्वर का वास है, ऐसा कहने से हम किसकी उपासना करेंगे?
अर्जुन के मन में परमेश्वर की विभूतियों को जानने की इच्छा जाग्रत हुई। उन्होने विशेष अनुभूति के स्थान जाने जहाँ पर परमात्मा की विशेष अनुभूति हो सकती है। अर्जुन के विनती करने पर दसवें अध्याय में श्रीभगवान ने अर्जुन को अपनी विभूतियों के बारे में बताया। विभूतियों के बारे में जानने के पश्चात् दिव्य विभूतियों में परमात्मा को कैसे देखना है? अर्जुन के मन में इच्छा हुई, क्या मैं भगवान के सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाले रूप को देख सकता हूँ? भगवान ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करके अपने विश्वरूप का दर्शन दिखाना आरम्भ किया।
अर्जुन ने देखा कि श्रीभगवान ने अकेले ही सारी दिशाओं और तीनों लोकों को व्याप्त कर लिया है, तीनों लोक, सारे ब्रह्माण्ड परमात्मा में ही समाए हैं। भगवान का यह रूप देखकर कुछ लोग व्यथित हैं, हाथ जोड़कर उनका गुणगान कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं, स्त्रोत गा रहे हैं और उनके स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। अर्जुन ने भगवान के विकराल रूप को देखा, सम्पूर्ण विश्वरूप के दर्शन किए, असङ्ख्य मुख देखे जिनमें अग्नि प्रज्वलित थी। उन जलते मुखों में विकराल दन्त पङ्क्तियाँ देखीं।
अर्जुन भयभीत हो गए और अर्जुन ने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र, दुर्योधन, दु:शासन, आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, कर्ण सब भगवान के जलते हुए मुख में प्रवेश कर रहे हैं और भगवान के दाँतों के बीच दबे हुए हैं। दाँतों के बीच की जगह में उनके उत्तम अङ्ग अर्थात् सिर दबकर चूर्ण हो गए हैं।यह भयानक दृश्य देखकर अर्जुन ने कहा कि यह क्या है?
11.28
यथा नदीनां(म्) बहवोऽम्बुवेगाः(स्),
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा,
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥11.28॥
जैसे नदियोंके बहुत-से जलके प्रवाह (स्वाभाविक) ही समुद्रके सम्मुख दौड़ते हैं, ऐसे ही वे संसारके महान् शूरवीर आपके सब तरफ से देदीप्यमान मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।
विवेचनः- अर्जुन ने भयानक दृश्य देखकर कहा कि मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिस प्रकार नदियों का जल प्रवाह अत्यन्त वेग से समुद्र की ओर दौड़ता है। सागर में जाकर नदियाँ अपना अस्तित्व खो देती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही संसार के सभी श्रेष्ठ वीर योद्धा भगवान के प्रज्वलित मुखों में जा रहे हैं। यज्ञ कुण्ड में दी जाने वाली आहुति के समान वे सब तरफ से दैदीप्यमान आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं और समाप्त होते जा रहे हैं।
इस विश्व में अच्छाई भी है और बुराई भी है। अच्छी घटना भी घटती है, भयावह घटना भी घटती है, जैसे युद्ध होता है, सुनामी आती है, बाढ़ आती है, भूकम्प आदि भी आते हैं। कोरोना या कोई बीमारी आती है। इनके दृश्य भयावह ही होते हैं। उनमें लाखों लोगों के शरीर नष्ट हो जाते हैं। वे कहाँ चले गये पता भी नहीं चलता, वैसे ही भगवान के मुखों में जाते हुए वे कहाँ गए ज्ञात नहीं हो पा रहा है। सहस्त्र सूर्य उदित होने के पश्चात् होने वाले ताप के समान आपका यह तेज विश्व को तप्त कर रहा है।
इस विश्व में अच्छाई भी है और बुराई भी है। अच्छी घटना भी घटती है, भयावह घटना भी घटती है, जैसे युद्ध होता है, सुनामी आती है, बाढ़ आती है, भूकम्प आदि भी आते हैं। कोरोना या कोई बीमारी आती है। इनके दृश्य भयावह ही होते हैं। उनमें लाखों लोगों के शरीर नष्ट हो जाते हैं। वे कहाँ चले गये पता भी नहीं चलता, वैसे ही भगवान के मुखों में जाते हुए वे कहाँ गए ज्ञात नहीं हो पा रहा है। सहस्त्र सूर्य उदित होने के पश्चात् होने वाले ताप के समान आपका यह तेज विश्व को तप्त कर रहा है।
यथा प्रदीप्तं(ञ्) ज्वलनं(म्) पतङ्गा,
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका:(स्),
तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥11.29॥
जैसे पतंगे (मोहवश) (अपना) नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट होते हैं, ऐसे ही ये सब लोग भी (मोहवश) (अपना) नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए आपके मुखोंमें प्रविष्ट हो रहे हैं।
विवेचन:- अर्जुन कहते हैं कि पतङ्गे प्रज्वलित अग्नि की ओर दौड़ते जाते हैं। जिस प्रकार वर्षा ऋतु के आरम्भ में या वर्षा ऋतु की समाप्ति के समय छोटे-छोटे कीट प्रदीप्त अग्नि के प्रकाश की ओर अत्यन्त वेग से दौड़ कर उसमें प्रवेश कर जाते हैं और दीपक की ज्योति में स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार ये सारे शूरवीर स्वयं अपने नाश के लिए अत्यन्त वेग से आपके मुख में जाते हुए प्रतीत हो रहे हैं। भयानक दृश्य दिखाई दे रहा है।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- मानो खाई में आग लगी है, बड़े-बड़े जीव- जन्तु पक्षी, कीड़े उसमें प्रवेश कर रहे हैं और मर रहे हैं वैसे ही ये सारे शूरवीर आपके मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- मानो खाई में आग लगी है, बड़े-बड़े जीव- जन्तु पक्षी, कीड़े उसमें प्रवेश कर रहे हैं और मर रहे हैं वैसे ही ये सारे शूरवीर आपके मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं।
लेलिह्यसे ग्रसमानः(स्) समन्ताल्,
लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं(म्),
भासस्तवोग्राः(फ्) प्रतपन्ति विष्णो॥11.30॥
(आप अपने) प्रज्वलित मुखोंद्वारा सम्पूर्ण लोकोंका ग्रसन करते हुए (उन्हें) सब ओरसे बार-बार चाट रहे हैं (और) हे विष्णो! आपका उग्र प्रकाश अपने तेजसे सम्पूर्ण जगतको परिपूर्ण करके (सबको) तपा रहा है।
विवेचन:- अर्जुन कहते हैं कि आप सारे लोकों का अपने जलते हुए मुखों में ग्रास ले रहे हो और चारों ओर से उनको अपनी जिह्वा से चाट कर खा रहे हो (लील रहे हो)। हे विष्णु! आप संसार का भरण पोषण करते हो, पर मैं आपका यह कौन सा रूप देख रहा हूँ। शिवजी में सब विलय होता है।
भगवान का उग्र रूप देखकर अर्जुन को कुछ समझ नहीं आ रहा। वे कहते हैं कि आपके इस उग्र रूप को देखकर सारा जगत व्यग्र हो रहा है, आपके तेज के कारण संसार सन्तप्त हो गया है। अर्जुन यह भयानक रूप देखकर भयभीत हो गए।
अर्जुन भगवान से कहने लगे कि अरे! आप क्या कर रहे हो? आप एक घूँट में सारा सागर पी रहे हो, एक ग्रास में सारा पर्वत खा रहे हो, सारा ब्रह्माण्ड आपके दाँतों तले दबा हुआ है। मानो सारी दिशाओं को आप समाप्त कर रहे हो, सारी दिशाएँ आप में विलीन हो रही हैं। छोटी-छोटी चाँदनियाँ, सारे ग्रह, नक्षत्र-तारे, आप सबको खा रहे हो। ऐसा लग रहा है कि आपकी उग्र भूख समाप्त नहीं हो रही। सारा का सारा ब्रह्माण्ड आप खाते ही चले जा रहे हो। सब खाने के बाद भी आपकी भूख का शमन नहीं हो रहा है, अपितु आपकी भूख बढ़ती ही जा रही है। जैसे ईंधन डालने से अग्नि और बढ़ती है, वैसे ही सब खाने के बाद आपकी भूख बढ़ती जा रही है। आपके मुख कितने विशाल हैं!
यह सब देखकर अर्जुन डर गए और बोले- आप कौन हैं?
ज्ञानेश्वर महाराज उद्धरण देकर समझा रहे हैं - अगर वन में आग लगी हो और उसमें कोई फल गिर जाए तो उस समय जैसा प्रतीत होगा वैसा आपके मुख में ब्रह्माण्ड दिख रहा है।
भगवान का उग्र रूप देखकर अर्जुन को कुछ समझ नहीं आ रहा। वे कहते हैं कि आपके इस उग्र रूप को देखकर सारा जगत व्यग्र हो रहा है, आपके तेज के कारण संसार सन्तप्त हो गया है। अर्जुन यह भयानक रूप देखकर भयभीत हो गए।
अर्जुन भगवान से कहने लगे कि अरे! आप क्या कर रहे हो? आप एक घूँट में सारा सागर पी रहे हो, एक ग्रास में सारा पर्वत खा रहे हो, सारा ब्रह्माण्ड आपके दाँतों तले दबा हुआ है। मानो सारी दिशाओं को आप समाप्त कर रहे हो, सारी दिशाएँ आप में विलीन हो रही हैं। छोटी-छोटी चाँदनियाँ, सारे ग्रह, नक्षत्र-तारे, आप सबको खा रहे हो। ऐसा लग रहा है कि आपकी उग्र भूख समाप्त नहीं हो रही। सारा का सारा ब्रह्माण्ड आप खाते ही चले जा रहे हो। सब खाने के बाद भी आपकी भूख का शमन नहीं हो रहा है, अपितु आपकी भूख बढ़ती ही जा रही है। जैसे ईंधन डालने से अग्नि और बढ़ती है, वैसे ही सब खाने के बाद आपकी भूख बढ़ती जा रही है। आपके मुख कितने विशाल हैं!
यह सब देखकर अर्जुन डर गए और बोले- आप कौन हैं?
ज्ञानेश्वर महाराज उद्धरण देकर समझा रहे हैं - अगर वन में आग लगी हो और उसमें कोई फल गिर जाए तो उस समय जैसा प्रतीत होगा वैसा आपके मुख में ब्रह्माण्ड दिख रहा है।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो,
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं(न्),
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥11.31॥
मुझे यह बताइये कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं? हे देवताओंमें श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। (आप) प्रसन्न होइये। आदिरूप आपको (मैं) तत्त्व से जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्तिको भलीभांति नहीं जानता।
विवेचन:- अर्जुन ने भगवान को विष्णु रूप में सम्बोधित करते हुये कहा कि मैं आपके इस भयावह रूप को देख कर अत्यन्त अचम्भित हूँ। मैंने आपको विश्वरूप दिखाने के लिए कहा था, किन्तु यह उग्र रूप धारण करने वाले आप कौन हो? आप मुझे बताओ, मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आपकी शरण में आता हूँ। हे परमेश्वर! प्रसन्न होकर मुझ पर कृपा करो। आपका यह रूप मुझसे देखा नहीं जा रहा। मैं तो जानना चाहता था और देखना चाहता था कि आप कौन हैं, आपका आदि क्या है, आपकी निर्मित्ति कैसे हुई है? मैं समझ नहीं पा रहा कि आप क्या करने के लिए प्रवृत्त हुए हो? मुझे लगा था कि आपका विश्वरूप देखकर मेरा समाधान हो जाएगा, मुझे अच्छा लगेगा, लेकिन आप तो सारा ब्रह्माण्ड खा रहे हो। आप कौन हो मुझे बताइए? अर्जुन भगवान की शरण जाकर कहने लगे कि भगवान! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आप प्रसन्न होइए।
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो,
लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां(न्) न भविष्यन्ति सर्वे,
येऽवस्थिताः(फ्) प्रत्यनीकेषु योधाः॥11.32॥
श्रीभगवान् बोले - (मैं) सम्पूर्ण लोकोंका नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ (और) इस समय (मैं) (इन सब) लोगोंका संहार करनेके लिये (यहाँ) आया हूँ। (तुम्हारे) प्रतिपक्षमें जो योद्धालोग खड़े हैं, (वे) सब तुम्हारे (युद्ध किये) बिना भी नहीं रहेंगे।
विवेचनः- भगवान कहते हैं कि मैं काल हूँ। जब गणना की जाती है, उसमें काल सर्वश्रेष्ठ है। काल की कोख में क्या समाया है? कुछ पता नहीं। काल की कुछ गिनती भी नहीं है। भगवान कहते हैं, मैं वह काल हूँ जो लोकों का नाश करने के लिए प्रवृत्त हुआ है इसलिए मैंने विकराल रूप धारण किया है। इस समय मैं सारे लोकों का नाश करने के लिए ही प्रवृत्त हूँ। यदि तुम कुछ नहीं करोगे या तुम नहीं लड़ोगे तो भी तुम्हारे बिना शत्रु पक्ष के योद्धा, कौरव पक्ष, रहने वाले नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि तुम युद्ध नहीं करोगे तो ये लोग बच जाएँगे। भगवान ने अर्जुन को दिखाया कि यह सारे मर चुके हैं। ये जो योद्धा तुम्हें शत्रु पक्ष में दिखाई दे रहे हैं ये भी नहीं रहेंगे, नष्ट हो जाएँगे।
काल का रूप होने के कारण भगवान ने अर्जुन को दिखाया कि अतीत में क्या हो चुका है? वर्तमान में क्या हो रहा है और भविष्य में क्या होने वाला है? काल का रूप होने के कारण भगवान के लिए भूत, वर्तमान, भविष्य काल नहीं होता। तीनों कालों में भगवान एक ही साथ स्थित हैं और कुछ भी दिखाने में सक्षम हैं।
भगवान ने अर्जुन को आश्वस्त करते हुए कहा कि शत्रु पक्ष के योद्धा समाप्त होने वाले हैं, कौरवों का नाश होगा, किन्तु ऐसा नहीं बोला कि तुम मरने वाले हो। भगवान ने अर्जुन को दिखा दिया कि उनका पक्ष नष्ट नहीं होने वाला, वह जीवित रहने वाले हैं, पाण्डव सुरक्षित रहेंगे और पाण्डवों की जीत होगी।
जापान की एक कथा आती है-
जापान के किसी राजा के मुख्य सेनापति का देहान्त हो गया। वह अत्यन्त वीर योद्धा था। वीर योद्धा के निधन के बाद शत्रु पक्ष ने राजा पर आक्रमण कर दिया और राजा सङ्कट में आ गया। राजा के अन्य योद्धा हताश हो गए कि हम कैसे युद्ध करेंगे, निराश हो गए।
एक साधु- संन्यासी ने राजा से कहा कि राजा आप समस्या में दिख रहे हैं। राजा ने सारी बात बताई। साधु ने कहा कि मैं आपके लिए युद्ध करूँगा। राजा ने कहा कि आप संन्यासी होकर सेना का नेतृत्व कैसे करोगे, आपने गेरूआ वस्त्र धारण किया है, शस्त्र भी धारण नहीं किया है, आप सेना का नेतृत्व कैसे करेंगे?
संन्यासी ने कहा कि सङ्कट आने पर मैं कुछ भी कर सकता हूँ। मैं जैसा कहता हूँ वैसा ही करिए। योद्धा का वेश लाया गया और संन्यासी ने श्रेष्ठ योद्धा का रूप धारण किया। सेना का नेतृत्व होने से राजा के मन में आशा जागृत हो गई। उस संन्यासी ने सेना से कहा हमारी जीत निश्चित है इसलिए सब लोग चलो। हतबल सेना ने पूछा कि हम कैसे करेंगे? संन्यासी ने कहा हम मन्दिर में जाकर भगवान से कौल लेते हैं। यदि भगवान का कौल मिल गया तो हमारी विजय सुनिश्चित है। संन्यासी ने एक सिक्का लिया और उछाल कर कहा कि यदि हैड आता है तो हमारी विजय सुनिश्चित है। हेड आने पर सैनिकों में उत्साह भर गया। यह देखकर कुछ सैनिकों के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ। सन्देह को दूर करने के लिए सिक्का एक बार फिर उछाला गया - दोबारा हैड आ गया। अब तो सारी सेना जोश में भरकर शत्रु सेना पर टूट पड़ी और शत्रु सेना पर विजय प्राप्त की।
भगवान ने अर्जुन को विश्वास दिलाया कि तुम्हारी विजय सुनिश्चित है।
काल का रूप होने के कारण भगवान ने अर्जुन को दिखाया कि अतीत में क्या हो चुका है? वर्तमान में क्या हो रहा है और भविष्य में क्या होने वाला है? काल का रूप होने के कारण भगवान के लिए भूत, वर्तमान, भविष्य काल नहीं होता। तीनों कालों में भगवान एक ही साथ स्थित हैं और कुछ भी दिखाने में सक्षम हैं।
भगवान ने अर्जुन को आश्वस्त करते हुए कहा कि शत्रु पक्ष के योद्धा समाप्त होने वाले हैं, कौरवों का नाश होगा, किन्तु ऐसा नहीं बोला कि तुम मरने वाले हो। भगवान ने अर्जुन को दिखा दिया कि उनका पक्ष नष्ट नहीं होने वाला, वह जीवित रहने वाले हैं, पाण्डव सुरक्षित रहेंगे और पाण्डवों की जीत होगी।
जापान की एक कथा आती है-
जापान के किसी राजा के मुख्य सेनापति का देहान्त हो गया। वह अत्यन्त वीर योद्धा था। वीर योद्धा के निधन के बाद शत्रु पक्ष ने राजा पर आक्रमण कर दिया और राजा सङ्कट में आ गया। राजा के अन्य योद्धा हताश हो गए कि हम कैसे युद्ध करेंगे, निराश हो गए।
एक साधु- संन्यासी ने राजा से कहा कि राजा आप समस्या में दिख रहे हैं। राजा ने सारी बात बताई। साधु ने कहा कि मैं आपके लिए युद्ध करूँगा। राजा ने कहा कि आप संन्यासी होकर सेना का नेतृत्व कैसे करोगे, आपने गेरूआ वस्त्र धारण किया है, शस्त्र भी धारण नहीं किया है, आप सेना का नेतृत्व कैसे करेंगे?
संन्यासी ने कहा कि सङ्कट आने पर मैं कुछ भी कर सकता हूँ। मैं जैसा कहता हूँ वैसा ही करिए। योद्धा का वेश लाया गया और संन्यासी ने श्रेष्ठ योद्धा का रूप धारण किया। सेना का नेतृत्व होने से राजा के मन में आशा जागृत हो गई। उस संन्यासी ने सेना से कहा हमारी जीत निश्चित है इसलिए सब लोग चलो। हतबल सेना ने पूछा कि हम कैसे करेंगे? संन्यासी ने कहा हम मन्दिर में जाकर भगवान से कौल लेते हैं। यदि भगवान का कौल मिल गया तो हमारी विजय सुनिश्चित है। संन्यासी ने एक सिक्का लिया और उछाल कर कहा कि यदि हैड आता है तो हमारी विजय सुनिश्चित है। हेड आने पर सैनिकों में उत्साह भर गया। यह देखकर कुछ सैनिकों के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ। सन्देह को दूर करने के लिए सिक्का एक बार फिर उछाला गया - दोबारा हैड आ गया। अब तो सारी सेना जोश में भरकर शत्रु सेना पर टूट पड़ी और शत्रु सेना पर विजय प्राप्त की।
भगवान ने अर्जुन को विश्वास दिलाया कि तुम्हारी विजय सुनिश्चित है।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व,
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं(म्) समृद्धम्।
मयैवैते निहताः(फ्) पूर्वमेव,
निमित्तमात्रं(म्) भव सव्यसाचिन्॥11.33॥
इसलिये तुम (युद्धके लिये) खड़े हो जाओऔर यशको प्राप्त करो (तथा) शत्रुओंको जीतकर धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्! अर्थात् दोनों हाथों से बाण चलानेवाले अर्जुन! (तुम इनको मारनेमें) निमित्तमात्र बन जाओ।
विवेचन:- भगवान अर्जुन को सव्यसाचिन् कहते हैं क्योंकि वह दोनों हाथों से समान कुशलता से धनुष-बाण चला सकते हैं। भगवान अर्जुन से कहते है कि तुम रोना-धोना छोड़कर उठ जाओ, अपना धनुष उठाओ, यश को प्राप्त करो, विजय तुम्हारी ही है। भगवान अर्जुन को आशीर्वाद देते हुए कहते है, तुम मेरा कार्य करो, तुम्हें यश मिलेगा। जो तुम्हें भविष्य काल दिख रहा है वह मेरे लिए भूतकाल है। तुम निमित्त मात्र बनो, मैंने इनको पहले ही समाप्त कर दिया है। तुम्हें केवल कार्य करना है। युद्ध में जीत तुम्हारी होगी, मैंने इनको पहले ही मार दिया है। तुम युद्ध को जीत कर राज्य का उपभोग करो।
भगवान केवल अर्जुन को ही नहीं कह रहे, हम सबके लिए भी कह रहे हैं कि तुम अपना कार्य करो तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। तुम्हारा लक्ष्य निश्चित है। भगवान कहते हैं कि गोवर्धन तो मैंने उठा लिया है, तुम बस अपनी लकड़ी लगाकर उसे सहारा दे दो और यश के भागीदार बन जाओ।
कुछ लोग इसका गलत अर्थ निकालते हैं। हम करें या न करें यह तो हो गया क्योंकि वह तो भगवान ने कर दिया है, हमारे करने का क्या? भगवान कहते हैं कि निमित्त मात्र बनो - कर्त्तव्य करोगे तो भगवान का कार्य करने में आनन्द मिलेगा। अर्जुन योद्धा हैं, कार्य का अर्थ है वह कर्म जो करने योग्य है, कर्त्तव्य है। जो कर्म कर्त्तव्य के रूप में हमारे समक्ष आते हैं, भगवान कहते हैं, उन्हें करते रहो।
यदि भगवान हैं, तो मैं खटिया पर लेटा रहूँ वह मुझे मिलेगा ही, क्योंकि भगवान मुझे लाकर देने वाले हैं। ऐसा भाव नहीं करना है।
गरुड़ पुराण में कथा आती है-
एक बार सारे देवों की सभा होने वाली थी। दरबार में सभी देव एक-एक करके एकत्र हो रहे थे। यमराज भी वहाँ पर आ गये। उनका ध्यान एक वृक्ष पर गया जहाँ दो पक्षी बैठे थे। यमराज ने पक्षियों को देखा और पक्षियों ने भी यमराज को देखा। उन पक्षियों के मन में डर भर गया कि हमारा अन्तकाल आ गया। इतने में भगवान विष्णु आ गए, गरुड़ जी बाहर रह गए। गरुड़जी के पास जाकर पक्षियों ने कहा कि आप हमें ले जाकर किसी सुरक्षित स्थान पर छुपा दीजिए। गरुड़ जी ने उन्हें ले जाकर हिमालय में छोड़ दिया। सभा समाप्त होने पर यमराज ने गरुड़ जी से पूछा कि वे पक्षी कहाँ गए? गरुड़ जी ने बताया कि वे उन्हें हिमालय पर छोड़ आए हैं। ऐसा सुनकर यमराज जी कहने लगे कि मैंने जब पक्षियों को देखा तो मैं हैरान रह गया क्योंकि उनकी मृत्यु तो हिमालय पर लिखी थी वे यहाँ पर क्या कर रहे थे?
भगवान का कार्य तो होने वाला ही है। यदि हम निमित्त बनकर अपना कर्त्तव्य करते हैं तो भगवद् कार्य करने का सौभाग्य हमें प्राप्त होगा।भगवद्गीता का प्रचार कोई रोक नहीं सकता। सन्त गुलाब राव महाराज जी ने कहा था गीता जी विश्व का धर्म ग्रन्थ बनने वाला है।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने बताया कि वैज्ञानिक दृष्टि से जानते हैं ऐसे क्यों होगा-
कल्पना करो कि एक लम्बी रेलगाड़ी है। गॉर्ड जब हरा सिग्नल दिखाता है तो ड्राइवर को हरा प्रकाश देखने में दो महीने लगते हैं। प्रकाश की गति तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकण्ड है। हम भी सभी स्थानों पर एक साथ रह सकते हैं। हमारे पास एक सैटेलाइट है जिसके द्वारा हम विभिन्न दृश्य एक साथ अनेक स्थानों पर देख सकते हैं।
भगवान विश्व व्यापी हैं, भगवान सभी स्थानों पर एक साथ रह सकते हैं। वह प्रकाश के वेग से भी अधिक वेग से स्थित हैं। वह काल से भी परे हैं। आकाश में हम कुछ ऐसे तारे देख रहे हैं जो कुछ लाख वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए हैं। वे कुछ लाख वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए हैं, जो हमें आज दिखाई दे रहे हैं। जैसे हम भूतकाल देख सकते हैं, वैसे ही भविष्य काल भी देख सकते हैं।
भगवान केवल अर्जुन को ही नहीं कह रहे, हम सबके लिए भी कह रहे हैं कि तुम अपना कार्य करो तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। तुम्हारा लक्ष्य निश्चित है। भगवान कहते हैं कि गोवर्धन तो मैंने उठा लिया है, तुम बस अपनी लकड़ी लगाकर उसे सहारा दे दो और यश के भागीदार बन जाओ।
कुछ लोग इसका गलत अर्थ निकालते हैं। हम करें या न करें यह तो हो गया क्योंकि वह तो भगवान ने कर दिया है, हमारे करने का क्या? भगवान कहते हैं कि निमित्त मात्र बनो - कर्त्तव्य करोगे तो भगवान का कार्य करने में आनन्द मिलेगा। अर्जुन योद्धा हैं, कार्य का अर्थ है वह कर्म जो करने योग्य है, कर्त्तव्य है। जो कर्म कर्त्तव्य के रूप में हमारे समक्ष आते हैं, भगवान कहते हैं, उन्हें करते रहो।
यदि भगवान हैं, तो मैं खटिया पर लेटा रहूँ वह मुझे मिलेगा ही, क्योंकि भगवान मुझे लाकर देने वाले हैं। ऐसा भाव नहीं करना है।
गरुड़ पुराण में कथा आती है-
एक बार सारे देवों की सभा होने वाली थी। दरबार में सभी देव एक-एक करके एकत्र हो रहे थे। यमराज भी वहाँ पर आ गये। उनका ध्यान एक वृक्ष पर गया जहाँ दो पक्षी बैठे थे। यमराज ने पक्षियों को देखा और पक्षियों ने भी यमराज को देखा। उन पक्षियों के मन में डर भर गया कि हमारा अन्तकाल आ गया। इतने में भगवान विष्णु आ गए, गरुड़ जी बाहर रह गए। गरुड़जी के पास जाकर पक्षियों ने कहा कि आप हमें ले जाकर किसी सुरक्षित स्थान पर छुपा दीजिए। गरुड़ जी ने उन्हें ले जाकर हिमालय में छोड़ दिया। सभा समाप्त होने पर यमराज ने गरुड़ जी से पूछा कि वे पक्षी कहाँ गए? गरुड़ जी ने बताया कि वे उन्हें हिमालय पर छोड़ आए हैं। ऐसा सुनकर यमराज जी कहने लगे कि मैंने जब पक्षियों को देखा तो मैं हैरान रह गया क्योंकि उनकी मृत्यु तो हिमालय पर लिखी थी वे यहाँ पर क्या कर रहे थे?
भगवान का कार्य तो होने वाला ही है। यदि हम निमित्त बनकर अपना कर्त्तव्य करते हैं तो भगवद् कार्य करने का सौभाग्य हमें प्राप्त होगा।भगवद्गीता का प्रचार कोई रोक नहीं सकता। सन्त गुलाब राव महाराज जी ने कहा था गीता जी विश्व का धर्म ग्रन्थ बनने वाला है।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने बताया कि वैज्ञानिक दृष्टि से जानते हैं ऐसे क्यों होगा-
कल्पना करो कि एक लम्बी रेलगाड़ी है। गॉर्ड जब हरा सिग्नल दिखाता है तो ड्राइवर को हरा प्रकाश देखने में दो महीने लगते हैं। प्रकाश की गति तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकण्ड है। हम भी सभी स्थानों पर एक साथ रह सकते हैं। हमारे पास एक सैटेलाइट है जिसके द्वारा हम विभिन्न दृश्य एक साथ अनेक स्थानों पर देख सकते हैं।
भगवान विश्व व्यापी हैं, भगवान सभी स्थानों पर एक साथ रह सकते हैं। वह प्रकाश के वेग से भी अधिक वेग से स्थित हैं। वह काल से भी परे हैं। आकाश में हम कुछ ऐसे तारे देख रहे हैं जो कुछ लाख वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए हैं। वे कुछ लाख वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए हैं, जो हमें आज दिखाई दे रहे हैं। जैसे हम भूतकाल देख सकते हैं, वैसे ही भविष्य काल भी देख सकते हैं।
द्रोणं(ञ्) च भीष्मं(ञ्) च जयद्रथं(ञ्) च,
कर्णं(न्) तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं(ञ्) जहि मा व्यथिष्ठा,
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥11.34॥
द्रोण और भीष्म तथा जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मारो। तुम व्यथा मत करो (और) युद्ध करो। युद्ध में (तुम निःसन्देह) वैरियोंको जीतोगे।
विवेचन:- भगवान कहते हैं कि आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, जयद्रथ कर्ण तथा अन्य वीरों को मैंने मार दिया है, अब ये कठपुतली मात्र हैं। तुम उन्हें समाप्त कर दो, डरो मत। अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए तुम्हें युद्ध करना है। अर्जुन तुम अपना कर्त्तव्य करो, तुम विजयी होने वाले हो। अपने शत्रुओं को समाप्त करो। यह तुम्हारा कर्त्तव्य है। सन्देह रहित होकर तुम केवल बाण चलाओ। भगवान ने अर्जुन को फिर आशीर्वाद दिया।
बोर्ड पर सिंह का चित्र बनाया। उसे गीले हाथ से पोंछ दिया तो सिंह का चित्र मिट जाएगा। ऐसे ही शत्रुपक्ष के साथ युद्ध करके उन्हें समाप्त कर दो। साक्षात काल के रूप में परमात्मा अर्जुन के सामने खड़े हैं। उनका भयङ्कर रूप देखकर अर्जुन भयभीत हो गये।
बोर्ड पर सिंह का चित्र बनाया। उसे गीले हाथ से पोंछ दिया तो सिंह का चित्र मिट जाएगा। ऐसे ही शत्रुपक्ष के साथ युद्ध करके उन्हें समाप्त कर दो। साक्षात काल के रूप में परमात्मा अर्जुन के सामने खड़े हैं। उनका भयङ्कर रूप देखकर अर्जुन भयभीत हो गये।
सञ्जय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं(ङ्) केशवस्य,
कृताञ्जलिर्वेपमानः(ख्) किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं(म्),
सगद्गदं(म्) भीतभीतः(फ्) प्रणम्य ॥11.35॥
सञ्जय बोले - भगवान केशवका यह वचन सुनकर (भयसे) काँपते हुए किरीटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर नमस्कार करके (और) भयभीत होते हुए भी फिर प्रणाम करके गद्गद् वाणीसे भगवान् कृष्णसे बोले।
विवेचन:- सञ्जय ने बताया कि भगवान कृष्ण के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने अपने हाथ जोड़ दिए। वह भयभीत होकर काँप रहे हैं। अर्जुन भगवान को बार-बार प्रणाम करते हुए गदगद होकर बोले कि आप कौन हो?
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या,
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति,
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा:॥11.36॥
अर्जुन बोले - हे अन्तर्यामीभगवन! आपके (नाम, गुण, लीलाका) कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम) को प्राप्त हो रहा है। (आपके नाम, गुण आदि के कीर्तनसे) भयभीत होकर राक्षसलोग दसों दिशाओंमें भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है।
विवेचन:- अर्जुन बोले, हे इन्द्रियों के स्वामी! सबके स्वामी ऋषिकेश, आप अन्तर्यामी हैं। मैंने अभी तक आपकी प्रकीर्ति सुनी थी- भगवान ऐसे हैं, वैसे हैं, श्रेष्ठ हैं। आप कौन हैं? यह मैंने अभी तक शब्दों में जाना था, परन्तु अब मैं यह देख पा रहा हूँ कि आप कौन हैं? आपकी कीर्ति सच है, उसे सुनकर जगत हर्षित हो रहा है क्योंकि आप सारे जगत को धारण करने वाले साक्षात परमात्मा हैं। मनुष्यों को आनन्द होता है क्योंकि उन्हें पता चलता है कि वे साक्षात परमात्मा है। आपकी कीर्ति सुनकर सारे राक्षस सारी दिशाओं में इधर-उधर भाग जाते हैं। सारे पापियों को अपने मन में डर रहता है। आपकी कथा सुनते ही सारे राक्षस दूर भाग जाते हैं, जैसे हनुमानजी का नाम सुनकर भूत-पिशाच भाग जाते हैं -
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै।।
सुनना, सुनकर समझना और प्रत्यक्ष देखना तीनों में अन्तर है।
कोई भी प्राणी जब भयभीत होता है तो आक्रमण करता है। जानवरों को मनुष्य का भय रहता है इसलिए वे आक्रमण करते हैं। राक्षस आपकी कीर्ति, गुणगान, कथा सुनकर दिशाओं में इधर-उधर भाग जाते हैं और सिद्ध, योगी ऋषि-मुनि गण आपकी स्तुति करते हैं, आपके सम्मुख नतमस्तक होते हैं।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै।।
सुनना, सुनकर समझना और प्रत्यक्ष देखना तीनों में अन्तर है।
कोई भी प्राणी जब भयभीत होता है तो आक्रमण करता है। जानवरों को मनुष्य का भय रहता है इसलिए वे आक्रमण करते हैं। राक्षस आपकी कीर्ति, गुणगान, कथा सुनकर दिशाओं में इधर-उधर भाग जाते हैं और सिद्ध, योगी ऋषि-मुनि गण आपकी स्तुति करते हैं, आपके सम्मुख नतमस्तक होते हैं।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्,
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास,
त्वमक्षरं(म्) सदसत्तत्परं(म्) यत्॥11.37॥
हे महात्मन्! गुरुओंके भी गुरु और ब्रह्माके भी आदिकर्ता आपके लिये (वेसिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें? (क्योंकि) हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षरस्वरूप हैं; (आप) सत् भी हैं, असत् भी हैं, (और) उनसे (सत्-असत् से) पर भी जो कुछ है (वह भी आप ही हैं)।
विवेचन:- आप सबसे बड़े हैं, सबसे श्रेष्ठ हैं, गुरु हैं, ब्रह्म देव का भी आपसे निर्माण हुआ हैं। विश्व को ब्रह्मा ने बनाया है। ब्रह्मा को आपने बनाया है। आप विश्व के आश्रय हैं, आप अनन्त हैं, आप देवेश हैं। सत्य क्या है? असत्य क्या है? जो काल बदलने पर भी नहीं बदलता वह सत्य है। संसार हर क्षण बदलता है, यह असत्य है। आप सत्य भी हैं, असत्य भी हैं और इससे परे भी अगर कुछ है तो वह भी आप ही हैं। आपके अतिरिक्त कुछ और नहीं है। आपका क्षरण नहीं होता।
अर्जुन भगवान की स्तुति गा रहे हैं क्योंकि अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप का साक्षात दर्शन किया है। ऋषि-योगी आपकी स्तुति करेंगे क्योंकि आप सर्वश्रेष्ठ हो, आप ब्रह्मदेव के भी आदि देव हो - ब्रह्माजी का भी आपसे निर्माण हुआ है, आप अनन्त हो, विश्व को व्याप्त करने वाले हो, समस्त ब्रह्माण्ड को व्याप्त करने वाले हो, जगन्निवास हो जिसमें सारा विश्व निवास करता है। आप अक्षर हो, आपका क्षरण नहीं हो सकता। आप अव्यय हो, अविनाशी हो, आप सत् हो आपके बिना कुछ नहीं है।
सत् का अर्थ है जो काल और स्थान बदलने पर भी जैसे का तैसा रहता है। त्रिकाल में भी जो एक समान रहता है, वह सत्य है।
जगत हर क्षण बदल रहा है, कभी भी एक जैसा नहीं रहता। हमारे शरीर में असङ्ख्य कोशिकाएँ बदलती रहती हैं। पृथ्वी अपनी कक्षा में अपने अक्ष पर घूमती रहती है।
किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा है-
You cannot wash your hands in same river again.
संसार सदैव बदलता रहता है लेकिन आत्मतत्त्व परमात्मा नहीं बदलता। सत् और असत् भी आप ही हो। उसके परे कुछ और है तो वह भी आप ही हो, क्योंकि आपके बिना कुछ भी नहीं है। ऐसे में, आप परमात्मा को प्रणाम क्यों न करें?
अर्जुन भगवान की स्तुति गा रहे हैं क्योंकि अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप का साक्षात दर्शन किया है। ऋषि-योगी आपकी स्तुति करेंगे क्योंकि आप सर्वश्रेष्ठ हो, आप ब्रह्मदेव के भी आदि देव हो - ब्रह्माजी का भी आपसे निर्माण हुआ है, आप अनन्त हो, विश्व को व्याप्त करने वाले हो, समस्त ब्रह्माण्ड को व्याप्त करने वाले हो, जगन्निवास हो जिसमें सारा विश्व निवास करता है। आप अक्षर हो, आपका क्षरण नहीं हो सकता। आप अव्यय हो, अविनाशी हो, आप सत् हो आपके बिना कुछ नहीं है।
सत् का अर्थ है जो काल और स्थान बदलने पर भी जैसे का तैसा रहता है। त्रिकाल में भी जो एक समान रहता है, वह सत्य है।
जगत हर क्षण बदल रहा है, कभी भी एक जैसा नहीं रहता। हमारे शरीर में असङ्ख्य कोशिकाएँ बदलती रहती हैं। पृथ्वी अपनी कक्षा में अपने अक्ष पर घूमती रहती है।
किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा है-
You cannot wash your hands in same river again.
संसार सदैव बदलता रहता है लेकिन आत्मतत्त्व परमात्मा नहीं बदलता। सत् और असत् भी आप ही हो। उसके परे कुछ और है तो वह भी आप ही हो, क्योंकि आपके बिना कुछ भी नहीं है। ऐसे में, आप परमात्मा को प्रणाम क्यों न करें?
त्वमादिदेवः(फ्) पुरुषः(फ्) पुराण:(स्),
त्वमस्य विश्वस्य परं(न्) निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं(ञ्) च परं(ञ्) च धाम,
त्वया ततं(म्) विश्वमनन्तरूप॥11.38॥
आप (ही) आदिदेव और पुराण पुरुष हैं (तथा) आप (ही) इस संसार के परम आश्रय हैं। (आप ही) सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे (ही) सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।
विवेचन:- अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि आप ही देव हो, आदि देव हो, देवों के भी आदि हो, जिनका कोई आदि नहीं है, अनादि हो। कब से हो पता नहीं? पुरातन हो, सदैव रहने वाले हो, सनातन हो।
श्रीमद्भगवद्गीताजी के सातवें अध्याय में बताया कि पुरुष का अर्थ है जो पूर्व से ही हो -
पूर्वमेव आसीत इति पुरुषः।
सातवें अध्याय में प्रकृति और पुरुष, प्रकृति और आत्मतत्त्व, प्रकृति और चैतन्य के बारे में बताया गया है। आप समस्त विश्व के परम निधान हैं, विश्व का आश्रय स्थल हैं। आपने विश्व को धारण किया है। पृथ्वी अवकाश में लटक रही है किन्तु सूर्य भगवान के गुरुत्वाकर्षण बल से टिकी हुई है, लेकिन सूर्य को किसने धारण किया है? असङ्ख्य आकाशगङ्गाएँ हैं जो अनेक प्रकाश वर्ष दूर हैं। ऐसे विश्व के परम निधान, परमवेत्ता, आप ही सबको जानने वाले एवं सभी प्राणियों द्वारा जानने योग्य हैं।
आकाश कितना बड़ा है? यह आकाश ही बता सकता है। परमात्मा कैसा है? यह परमात्मा ही बता सकता है। वेत्ता भी आप हैं और परमधाम भी आप ही हैं। धाम का अर्थ है निधान। आपका कोई आदि नहीं, आपका कोई अन्त नहीं है। आप अनन्त हैं।
श्रीमद्भगवद्गीताजी के सातवें अध्याय में बताया कि पुरुष का अर्थ है जो पूर्व से ही हो -
पूर्वमेव आसीत इति पुरुषः।
सातवें अध्याय में प्रकृति और पुरुष, प्रकृति और आत्मतत्त्व, प्रकृति और चैतन्य के बारे में बताया गया है। आप समस्त विश्व के परम निधान हैं, विश्व का आश्रय स्थल हैं। आपने विश्व को धारण किया है। पृथ्वी अवकाश में लटक रही है किन्तु सूर्य भगवान के गुरुत्वाकर्षण बल से टिकी हुई है, लेकिन सूर्य को किसने धारण किया है? असङ्ख्य आकाशगङ्गाएँ हैं जो अनेक प्रकाश वर्ष दूर हैं। ऐसे विश्व के परम निधान, परमवेत्ता, आप ही सबको जानने वाले एवं सभी प्राणियों द्वारा जानने योग्य हैं।
आकाश कितना बड़ा है? यह आकाश ही बता सकता है। परमात्मा कैसा है? यह परमात्मा ही बता सकता है। वेत्ता भी आप हैं और परमधाम भी आप ही हैं। धाम का अर्थ है निधान। आपका कोई आदि नहीं, आपका कोई अन्त नहीं है। आप अनन्त हैं।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः(श्) शशाङ्क:(फ्),
प्रजापतिस्त्वं(म्) प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः(फ्),
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥11.39॥
आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजीके भी पिता) हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो! नमस्कार हो! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो! नमस्कार हो!
विवेचन:- वायु, यम, अग्नि, वरुण, आप हो, शीतल चन्द्र देव भी आप हो, सृष्टि के परम पिता आप हो, ब्रह्म भी आप हो। सब कुछ आप ही हो। अर्जुन कहते हैं कि आप कौन नहीं हो? आप सभी देव हो। आप वायु, यम अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, आदि अन्य देव हो।
जब अथर्वशीर्ष उपनिषद पढ़ते हैं और गणेश जी की स्तुति करते हैं-
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वंरुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ॥६॥
पिता, पितामह, प्रपितामह भी आप ही हैं। अर्जुन कहते हैं कि आपको मैं हजारों बार बार-बार प्रणाम करता हूँ। फिर से बार-बार आपको प्रणाम करता हूँ। मैं आपके बारे में कुछ नहीं कह सकता। अर्जुन ने ज्ञान और विज्ञान दोनों को पा लिया है।
ज्ञान का अर्थ है जानना।
विज्ञान का अर्थ है अनुभूति करना।
जब अथर्वशीर्ष उपनिषद पढ़ते हैं और गणेश जी की स्तुति करते हैं-
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वंरुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ॥६॥
पिता, पितामह, प्रपितामह भी आप ही हैं। अर्जुन कहते हैं कि आपको मैं हजारों बार बार-बार प्रणाम करता हूँ। फिर से बार-बार आपको प्रणाम करता हूँ। मैं आपके बारे में कुछ नहीं कह सकता। अर्जुन ने ज्ञान और विज्ञान दोनों को पा लिया है।
ज्ञान का अर्थ है जानना।
विज्ञान का अर्थ है अनुभूति करना।
नमः(फ्) पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते,
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं(म्),
सर्वं(म्) समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥11.40॥
हे सर्वस्वरूप! आपको आगेसे (भी) नमस्कार हो! पीछेसे (भी) नमस्कार हो! सब ओरसे (दशों दिशाओं से) ही नमस्कार हो! हे अनन्तवीर्य! असीम पराक्रमवाले आपने सबको (एक देश में) समेट रखा है; अतः सब कुछ (आप ही) हैं।
विवेचन:- आप अनन्तवीर्य हो, वीर्य का अर्थ है- शक्ति, सामर्थ्य।
एक परमाणु को तैयार करने के लिए कितनी ऊर्जा लगती है
E = mc2
E = Energy
m = mass
c = Velocity of light
परमाणु बम का विभाजन होने पर जितनी ऊर्जा प्राप्त होती है जितनी उसके निर्माण में लगती है।
शरीर इस पृथ्वी के हर धूल कण से भी छोटा है और पृथ्वी ब्रह्माण्ड में धूलकण के बराबर है। अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के निर्माण में जितनी ऊर्जा लगती है, वह अनन्त है, अमित है, उसे मापा नहीं जा सकता। इतनी ऊर्जा लगने के बाद भी भगवान की ऊर्जा जस की तस रहती है, व्यय नहीं होती। आप अनन्त ऊर्जा वाले हैं, अनन्तवीर्य हैं। आप सब जगह व्याप्त हैं। आप कहाँ नहीं हैं? आपने सारे संसार को व्याप्त कर रखा है, आपके सिवाय अन्य कुछ नहीं है, ऐसा मुझे दिख रहा है। इसीलिए मैं आगे से, पीछे से, चारों ओर से, सभी ओर से आपको प्रणाम करता हूँ।
एक परमाणु को तैयार करने के लिए कितनी ऊर्जा लगती है
E = mc2
E = Energy
m = mass
c = Velocity of light
परमाणु बम का विभाजन होने पर जितनी ऊर्जा प्राप्त होती है जितनी उसके निर्माण में लगती है।
शरीर इस पृथ्वी के हर धूल कण से भी छोटा है और पृथ्वी ब्रह्माण्ड में धूलकण के बराबर है। अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के निर्माण में जितनी ऊर्जा लगती है, वह अनन्त है, अमित है, उसे मापा नहीं जा सकता। इतनी ऊर्जा लगने के बाद भी भगवान की ऊर्जा जस की तस रहती है, व्यय नहीं होती। आप अनन्त ऊर्जा वाले हैं, अनन्तवीर्य हैं। आप सब जगह व्याप्त हैं। आप कहाँ नहीं हैं? आपने सारे संसार को व्याप्त कर रखा है, आपके सिवाय अन्य कुछ नहीं है, ऐसा मुझे दिख रहा है। इसीलिए मैं आगे से, पीछे से, चारों ओर से, सभी ओर से आपको प्रणाम करता हूँ।
सखेति मत्वा प्रसभं (म्) यदुक्तं(म्),
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं(न्) तवेदं(म्),
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥11.41॥
आपकी इस महिमा को न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे!' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत! हँसी-दिल्लगी में, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय अकेले अथवा उन (सखाओं, कुटुम्बियों आदि) के सामने (मेरे द्वारा आपका) जो कुछ तिरस्कार (अपमान) किया गया है; हे अप्रमेयस्वरुप! वह सब आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ अर्थात आपसे क्षमा माँगता हूँ।
विवेचन:- ऐसे में अर्जुन को अपना बचपन याद आ गया कि साक्षात परमात्मा बचपन में उनके साथ खेले हैं, लेकिन उनको अपना सखा समझकर मैं उनके साथ खेलता था।
हे कृष्ण! हे यादव! हे सखा! किसी भी नाम से मैं आपको पुकारता था। आप परमात्मा हैं, मैंने कभी समझा ही नहीं। अज्ञानतावश आपको मैं किसी भी नाम से पुकारता रहा। आपके साथ एक सामान्य मनुष्य की भाँति व्यवहार किया क्योंकि उस समय मैं आपकी महानता, आपके महात्म्य को नहीं जानता था। मैंने आपके साथ बचपन में जो भी व्यवहार किया वह अज्ञानवश हुआ है। अर्जुन क्षमा याचना करने लगे।
हे कृष्ण! हे यादव! हे सखा! किसी भी नाम से मैं आपको पुकारता था। आप परमात्मा हैं, मैंने कभी समझा ही नहीं। अज्ञानतावश आपको मैं किसी भी नाम से पुकारता रहा। आपके साथ एक सामान्य मनुष्य की भाँति व्यवहार किया क्योंकि उस समय मैं आपकी महानता, आपके महात्म्य को नहीं जानता था। मैंने आपके साथ बचपन में जो भी व्यवहार किया वह अज्ञानवश हुआ है। अर्जुन क्षमा याचना करने लगे।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि,
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं(न्),
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥11.42॥
आपकी इस महिमा को न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे!' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत! हँसी-दिल्लगी में, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय अकेले अथवा उन (सखाओं, कुटुम्बियों आदि) के सामने (मेरे द्वारा आपका) जो कुछ तिरस्कार (अपमान) किया गया है; हे अप्रमेयस्वरुप! वह सब आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ अर्थात आपसे क्षमा माँगता हूँ।
विवेचनः- अर्जुन कहते हैं कि हे भगवान! मैं विभिन्न प्रकार से आपको अपना सखा जानते हुए परिहासवश, अज्ञानतावश कैसा भी व्यवहार करता रहा। खेलते समय, भोजन करते समय, सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, शैय्या पर विभिन्न प्रकार से खेलते, अकेले में, सबके समक्ष मेरे द्वारा आपका तिरस्कार भी किया गया, भला-बुरा भी कहा गया, अपमान भी हुआ। आपके साथ कैसा भी व्यवहार किया। आप की महिमा को कोई नहीं जान सकता, मैं आपसे मेरे अनुचित व्यवहार के लिए क्षमा याचना करता हूँ। आप अप्रमेय हैं, जिसे नापा नहीं जा सकता। आप अनन्त हैं। मैं क्षमा माँगता हूँ।
ज्ञानेश्वर माऊली कहते हैं-
अमृत हमारे हाथ आया था, हमने उसे मार्जन के लिए - हाथ-पैर, मुख धोने के लिए लगा दिया। कामधेनु हमारे साथ थी, उसे हमने बेच दिया। पारस का पर्वत हमारे सामने था, हमने उसे तोड़कर सड़क में डाल दिया। कल्पतरु हमारे सामने था, हमने उसे तोड़ डाला।
मैं जिद करता था आप मेरे पाँव पकड़ लेते थे। आपकी कसम खाता हूँ कि मैं अज्ञानी था, मैंने आपका बहुत अपमान किया है। मैं आपकी महिमा नहीं जानता था। आप मुझे क्षमा करें और स्वीकार करें। आपका हृदय सागर जैसा है। जैसे सागर, मार्ग में मैली हुई नदी को भी स्वीकार कर लेता है, उसी प्रकार आप मुझे क्षमा करें और स्वीकार करें।
परमात्मा के चरणों में समर्पित करते हुए, ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणम् अस्तु के साथ विवेचन सत्र का समापन हुआ। तत् पश्चात प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता:- गीता दीदी
प्रश्न:- क्या सञ्जय ने भी भगवान का विश्वरूप देखा था?
उत्तर:- जी हाँ, सञ्जय ने भी भगवान का विश्वरूप देखा था। सञ्जय को उनके गुरु भगवान वेदव्यास जी ने दिव्य दृष्टि दी थी। इसलिए सञ्जय ने दसवें श्लोक से ही भगवान के विश्वरूप का वर्णन प्रारम्भ कर दिया था।
प्रश्नकर्ता:- गीता दीदी
प्रश्न:- क्या हम निमित्त मात्र हैं, सबकुछ पहले ही हो चुका है?
उत्तर:- हमारे लिए जो घटित होने वाला है वह भविष्य ही है, किन्तु भगवान कालातीत हैं अर्थात् काल से परे हैं, अतः उनके लिए भूत, वर्तमान और भविष्य कुछ भी नहीं है। भगवान के लिए सब घटित हो चुका है। उन्हें सब ज्ञात है।
प्रश्नकर्ता:- दीपा दीदी
प्रश्न:- अर्जुन को विश्वरूप दर्शन के लिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता पड़ी, किन्तु जब भगवान ने दुर्योधन को अपना रूप दिखाया तो दिव्य दृष्टि की आवश्यकता नहीं हुई, क्यों?
उत्तर:- भगवान ने दुर्योधन को भयभीत करने के लिए अपना विकराल रूप दिखाया था, जिसे भगवान ने दुर्योधन को बिना दिव्य दृष्टि के ही दिखा दिया था, जिस प्रकार यशोदा मैय्या को मुँह में ब्रह्माण्ड के दर्शन करवा दिए थे, बिना दिव्य दृष्टि के।
प्रश्नकर्ता:- सतीश भैया
प्रश्न:- जिस प्रकार अर्जुन अपने द्वारा बचपन में भगवान से कहे गए शब्दों के लिए क्षमा माँगते हैं, क्या हम भी अपने गलत कार्यों के लिए क्षमा माँग सकते हैं?
उत्तर:- जी हाँ, जिस प्रकार हम पूजा अर्चना करने के बाद निम्नानुसार कह कर भगवान से क्षमा माँगते हैं-
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं।
पूजा चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि॥
अर्थात् हे प्रभु। न मैं आपको बुलाना जानता हूँ और न विदा करना। पूजा करना भी नहीं जानता। कृपा करके मुझे क्षमा करें। मुझे न मन्त्र याद है और न ही क्रिया। मैं भक्ति करना भी नहीं जानता। यथा सम्भव पूजा कर रहा हूँ, कृपया मेरी भूलों को क्षमा कर इस पूजा को पूर्णता प्रदान करें।
प्रश्नकर्ता:- बजरंग भैया
प्रश्न:- क्या भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति भगवान को याद करने और अच्छे कर्म करने से प्राप्त होती है?
उत्तर:- सभी प्रकार की उन्नति भगवान के स्मरण और समस्त कर्म उनका ध्यान करके करने एवं उन कर्मों को भगवान के अर्पण करते चलने से प्राप्त होती है। भगवान ने कहा भी है-
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।9.22।।
अर्थात् जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए मुझे पूजते हैं, ऐसे नित्ययुक्त साधकों के योगक्षेम को मैं स्वयं वहन करता हूँ। उन्हें मैं सब प्रदान करता हूँ।
प्रश्नकर्ता:- सुनीति दीदी
प्रश्न:- सञ्जय ने कौन से पुण्य किए थे कि उन्हें भगवान के विश्वरूप के दर्शन हुए?
उत्तर:- सञ्जय पर उनके सद्गुरु भगवान वेदव्यास जी की कृपा हुई थी, जिसके कारण उन्हें इन दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
ज्ञानेश्वर माऊली कहते हैं-
अमृत हमारे हाथ आया था, हमने उसे मार्जन के लिए - हाथ-पैर, मुख धोने के लिए लगा दिया। कामधेनु हमारे साथ थी, उसे हमने बेच दिया। पारस का पर्वत हमारे सामने था, हमने उसे तोड़कर सड़क में डाल दिया। कल्पतरु हमारे सामने था, हमने उसे तोड़ डाला।
मैं जिद करता था आप मेरे पाँव पकड़ लेते थे। आपकी कसम खाता हूँ कि मैं अज्ञानी था, मैंने आपका बहुत अपमान किया है। मैं आपकी महिमा नहीं जानता था। आप मुझे क्षमा करें और स्वीकार करें। आपका हृदय सागर जैसा है। जैसे सागर, मार्ग में मैली हुई नदी को भी स्वीकार कर लेता है, उसी प्रकार आप मुझे क्षमा करें और स्वीकार करें।
परमात्मा के चरणों में समर्पित करते हुए, ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणम् अस्तु के साथ विवेचन सत्र का समापन हुआ। तत् पश्चात प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता:- गीता दीदी
प्रश्न:- क्या सञ्जय ने भी भगवान का विश्वरूप देखा था?
उत्तर:- जी हाँ, सञ्जय ने भी भगवान का विश्वरूप देखा था। सञ्जय को उनके गुरु भगवान वेदव्यास जी ने दिव्य दृष्टि दी थी। इसलिए सञ्जय ने दसवें श्लोक से ही भगवान के विश्वरूप का वर्णन प्रारम्भ कर दिया था।
प्रश्नकर्ता:- गीता दीदी
प्रश्न:- क्या हम निमित्त मात्र हैं, सबकुछ पहले ही हो चुका है?
उत्तर:- हमारे लिए जो घटित होने वाला है वह भविष्य ही है, किन्तु भगवान कालातीत हैं अर्थात् काल से परे हैं, अतः उनके लिए भूत, वर्तमान और भविष्य कुछ भी नहीं है। भगवान के लिए सब घटित हो चुका है। उन्हें सब ज्ञात है।
प्रश्नकर्ता:- दीपा दीदी
प्रश्न:- अर्जुन को विश्वरूप दर्शन के लिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता पड़ी, किन्तु जब भगवान ने दुर्योधन को अपना रूप दिखाया तो दिव्य दृष्टि की आवश्यकता नहीं हुई, क्यों?
उत्तर:- भगवान ने दुर्योधन को भयभीत करने के लिए अपना विकराल रूप दिखाया था, जिसे भगवान ने दुर्योधन को बिना दिव्य दृष्टि के ही दिखा दिया था, जिस प्रकार यशोदा मैय्या को मुँह में ब्रह्माण्ड के दर्शन करवा दिए थे, बिना दिव्य दृष्टि के।
प्रश्नकर्ता:- सतीश भैया
प्रश्न:- जिस प्रकार अर्जुन अपने द्वारा बचपन में भगवान से कहे गए शब्दों के लिए क्षमा माँगते हैं, क्या हम भी अपने गलत कार्यों के लिए क्षमा माँग सकते हैं?
उत्तर:- जी हाँ, जिस प्रकार हम पूजा अर्चना करने के बाद निम्नानुसार कह कर भगवान से क्षमा माँगते हैं-
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं।
पूजा चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि॥
अर्थात् हे प्रभु। न मैं आपको बुलाना जानता हूँ और न विदा करना। पूजा करना भी नहीं जानता। कृपा करके मुझे क्षमा करें। मुझे न मन्त्र याद है और न ही क्रिया। मैं भक्ति करना भी नहीं जानता। यथा सम्भव पूजा कर रहा हूँ, कृपया मेरी भूलों को क्षमा कर इस पूजा को पूर्णता प्रदान करें।
प्रश्नकर्ता:- बजरंग भैया
प्रश्न:- क्या भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति भगवान को याद करने और अच्छे कर्म करने से प्राप्त होती है?
उत्तर:- सभी प्रकार की उन्नति भगवान के स्मरण और समस्त कर्म उनका ध्यान करके करने एवं उन कर्मों को भगवान के अर्पण करते चलने से प्राप्त होती है। भगवान ने कहा भी है-
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।9.22।।
अर्थात् जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए मुझे पूजते हैं, ऐसे नित्ययुक्त साधकों के योगक्षेम को मैं स्वयं वहन करता हूँ। उन्हें मैं सब प्रदान करता हूँ।
प्रश्नकर्ता:- सुनीति दीदी
प्रश्न:- सञ्जय ने कौन से पुण्य किए थे कि उन्हें भगवान के विश्वरूप के दर्शन हुए?
उत्तर:- सञ्जय पर उनके सद्गुरु भगवान वेदव्यास जी की कृपा हुई थी, जिसके कारण उन्हें इन दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।