विवेचन सारांश
हतोत्साहित अर्जुन की मनोदशा और विषण्ण मन की पृष्ठभूमि
1.37
तस्मान्नार्हा वयं(म्) हन्तुं(न्), धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं(म्) हि कथं(म्) हत्वा, सुखिनः(स्) स्याम माधव।।1.37।।
विवेचन: अर्जुन फिर कारण देते हैं। कहते हैं कि हे माधव! क्या स्वबन्धुओं की हत्या करके हम सुखी हो पाएँगे? यहाॅं पर युद्ध होने पर दोनों ओर से युद्ध में हमारे स्वजन मारे जाएँगे। अर्जुन देख रहे हैं कि दोनों ही तरफ अपने ही स्वजन हैं।
धृतराष्ट्र कह रहे हैं 'मामकाः' इस शब्द में बहुत आसक्ति है और अर्जुन कह रहे हैं स्वजन। अर्जुन भी मनुष्य ही हैं और अपने लोगों के प्रति उनका राग इस शब्द से पता लगता है। अर्जुन यहाॅं पर अपने गुरु, पितामह जैसे प्रेरणा स्थानों को देख रहे हैं और कहते हैं कि मैं इन्हें मारना नही चाहता। हम देखते हैं कि शिवाजी ने स्वराज अपनी माता जीजाबाई की प्रेरणा से प्राप्त किया था, ठीक उसी प्रकार से जीवन में प्रेरणा स्रोत का होना अत्यन्त आवश्यक होता है, क्योंकि उनके बिना जीवन जीने का कोई उद्देश्य ही शेष नहीं रह जाता है। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी हमारे माता-पिता और गुरु इनका प्रेरणादायक स्थान होना ही चाहिए।
सन्त महात्मा भी अपने गुरु की प्रसन्नता के लिए, भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्यरत रहते हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज अपने गुरु के लिए कहते हैं-
किंबहुना तुमचे केले।
धर्म कीर्तन सिद्धीस नेले।
येथे माझे जो उरले।
पाइकपण ।
वह कहते हैं कि, यह जो भी धर्म-कीर्तन मैंने किया है, नौ हजार ओवियों की यह ज्ञानेश्वरी जो सिद्ध हुई है, यह सब मैंने नहीं, अपितु मेरे परमात्मा ने किया है और मैं उनके चरणों का दास हूँ। ज्ञानेश्वर महाराज अपने गुरुदेव के लिए ऐसा कह रहे हैं।
यद्यप्येते न पश्यन्ति, लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं(न्) दोषं(म्), मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।
कथं(न्) न ज्ञेयमस्माभिः(फ्), पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39।।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति, कुलधर्माः(स्) सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं(ङ्) कृत्स्नम्, अधर्मोऽभिभवत्युत।।1.40।।
अब अर्जुन आगे बता रहे हैं कि कुल के क्षय होने से क्या हो सकता है? यहाॅं पर अर्जुन स्वयं से भी बात कर रहे हैं।
कुल के नाश होने से कुल के धर्म का भी नाश हो जाएगा। धर्म का नाश हो जाने से सम्पूर्ण कुल में अधर्म बढ़ जाएगा। कुल धर्म का अर्थ- जैसे जो त्योहार हैं, उनका क्या महत्त्व है, उनको कैसे मनाया जाता है अथवा अपने-अपने कुल देवता की पूजा किस प्रकार होनी चाहिए यह सब नष्ट हो जाएगा। दीपावली के दिन हमें लक्ष्मीजी का पूजन कैसे करना है? जब घर में बड़े बताने वाले नहीं रहेंगे तो आगे तक यह संस्कार कैसे पहुँचेंगें?
सरल भाषा में धर्म का अर्थ जो हमें करना चाहिए, ऐसे कार्य जिनसे हमारा, हमारे कुल का, हमारे समाज और हमारे राष्ट्र का कल्याण हो तथा अधर्म का अर्थ, जो हमें नहीं करना चाहिए जिससे हमारा, कुल का, समाज का, राष्ट्र का पतन हो सकता है, तो जब पुरानी पीढ़ी नहीं बचेगी तो नयी पीढ़ी धर्म और अधर्म नहीं समझ सकेगी।
धर्म का पालन तभी हो सकता है जब हमारी कर्त्तव्य में प्रगाढ निष्ठा हो, चाहे भगवान में प्रगाढ निष्ठा न हो। जैसे रात के समय में चौराहे पर जब कोई देखने वाला नहीं होता है तब लोग सिग्नल तोड़ कर चले जाते हैं, परन्तु हमारी प्रगाढ़ निष्ठा रही तो हम वह सिग्नल नहीं तोड़ेंगे। इसी तरह धर्म पर प्रगाढ़ निष्ठा होने से संयम भी रहता है। यह तभी सम्भव है जब कुल धर्म का पालन होता है। यह तभी होगा जब एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में धर्मानुसार गुण सङ्क्रमित होंगें।
अधर्माभिभवात्कृष्ण, प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय, जायते वर्णसङ्करः।।1.41।।
चार आश्रम हैं: ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम।
चार पुरुषार्थ हैं: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
यह सोलह खम्भें हमारी सनातन वैदिक संस्कृति का आधार भूत हैं।
सङ्करो नरकायैव, कुलघ्नानां(ङ्) कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां(ल्ँ), लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥1.42॥
विवेचन: अब अर्जुन आगे कहते हैं कि वर्ण सङ्कर होने से नर्क के दरवाजे खुल जाएँगे, क्योंकि पुत्र कौन? पिता कौन? यह ज्ञात न होने से पितरों को तर्पण देने की क्रिया प्राय: लुप्त हो जाएगी। हमारी संस्कृति में पितरों को श्रद्धापूर्वक जल देकर तर्पण किया जाता है जिससे कि उनकी आत्मा की मुक्ति हो सके।
इस प्रकार की मिलीजुली भावना लगभग सभी देशों में होती है। जैसे हम श्राद्ध पक्ष मानते हैं, वैसे ही सिंगापुर में भी लोग अपने पूर्वजों के लिए श्रद्धा से कई सारी चीज एकत्रित करके रखते हैं और उन्हें श्रद्धा से याद करते हैं।
अर्जुन का कहना है कि यह सब कुछ युद्ध होने के पश्चात लुप्त हो जाएगा।
दोषैरेतैः(ख्) कुलघ्नानां(व्ँ), वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः(ख्), कुलधर्माश्च शाश्वताः॥1.43॥
विवेचन: अब अर्जुन अपनी कारण मीमांसा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यह दोष आने से और वर्ण सङ्कर हो जाने से परम्परा से चले आए हुए जाति धर्म और कुल धर्म नष्ट हो जाएँगे। नयी पीढ़ी को धर्म सिखाने वाले, नैतिक मार्ग दिखाने वाले कुल के लोग नहीं बचेंगें।
उत्सन्नकुलधर्माणां(म्), मनुष्याणां(ञ्) जनार्दन।
नरकेऽनियतं(व्ँ) वासो, भवतीत्यनुशुश्रुम॥1.44॥
विवेचन: अर्जुन कहते हैं कि जिनका कुल धर्म नष्ट हो जाता है, उनके पूर्वज नरक में अनियमित काल के लिए रह जाते हैं, ऐसा सुना है।
यह सारे भाव, विचार सब अर्जुन के मन में हैं, जो वह श्रीभगवान को बता रहे हैं। श्रीभगवान अभी तक कुछ नहीं बोल रहे हैं। ग़लत सोचते-सोचते अर्जुन कहाॅं तक आ गए। उनकी तेजस्विता अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। अर्जुन कहते हैं कि हे केशव! हम कितना बड़ा पाप करने जा रहे हैं।
अहो बत महत्पापं(ङ्), कर्तुं(व्ँ) व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन, हन्तुं(म्) स्वजनमुद्यताः॥1.45॥
विवेचन: अर्जुन अब तनिक आश्चर्य भी कर रहे हैं कि, इतना बड़ा पाप होगा यह हमने अभी तक कैसे नहीं सोचा।
हम अपने राज्य के सुख के लिए अपने ही लोगों की हत्या करने को तैयार हैं। कितना बड़ा पाप हम करने वाले हैं। रोते-रोते अर्जुन कहाॅं तक आ गए। अर्जुन पाप भीरू हैं।
महापुरुष कहते हैं कि पाप से डरना चाहिए। कभी-कभी हमें भगवान से डराया जाता है। यथार्थ में भगवान तो अन्तर्यामी हैं। वे सब जानते हैं। वे तो सबके जीवन का मार्ग उन्नयन करते हैं और पाप से बचने के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं। पानी के तेज प्रवाह से डरना चाहिए, बिजली से हमेशा सुरक्षित रहना चाहिए, विद्युत का भय होना चाहिए। इसी तरह जीवन में सुरक्षित रहने के लिए भय का होना भी कभी-कभी अनिवार्य होता है।
यदि मामप्रतीकारम्, अशस्त्रं(म्) शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्, तन्मे क्षेमतरं(म्) भवेत्।।1.46।।
तैसे राज्यभोगसमृद्धि, उज्जीवन नोहे जीवबुद्धि। एथ जिव्हाळा कृपानिधि, कारुण्य तुझें ॥ ६८ ॥
तुझा अंतराय होईल । मग सांगें आमचें काय उरेल ।
तेणें दुःखे हियें फुटेल । तुजवीण कृष्णा ॥ २३४ ॥
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि अर्जुन ने यह सब भगवान के समीप रहने के लिए किया है और अर्जुन को डर है कि अब वह युद्ध रुपी पाप करेंगे और इस कर्म से श्रीभगवान से दूर हो जाएँगे, इसलिये वह कहतें हैं कि मैं शस्त्र नही उठाऊँगा और यह युद्ध नही करुँगा, चाहे मुझे तीनो लोकों का राज्य मिल जाये। ऐसा कहते-कहते उन्होंने अपना गाण्डीव नीचे रख दिया।
सञ्जय उवाच एवमुक्त्वार्जुनः(स्) संख्ये, रथोपस्थ उपाविशत्।विसृज्य सशरं(ञ्) चापं(म्), शोकसंविग्नमानसः।।1.47।।
अंग्रेजी की बहुत ही प्रसिद्ध पङ्क्तियाँ हैं:
If health is lost, something is lost,
If character is lost, everything is lost.
और स्वामी जी ने इसमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण एक पङ्क्ति और जोड़ दी है:
If confidence is lost, everything is lost for ever.
जेणे संग्रामी हरू जिंतिला । निवातकवचांचा ठावो फेडिला ।
तो अर्जुन मोहें कवळिला । क्षणामाजि ॥ २०० ॥
प्रश्नोत्तर:
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिनीम्-
और जिस तरह से माॅं अपने पुत्र की बहुत सारी कमियों को और गलतियों को क्षमा करके उसे दिल से लगा लेती है। इसी तरह से अब आपके जीवन में गीता जी का पदार्पण हो गया है तो आप भी अपनी पिछली भूलों को भूलकर गीता जी द्वारा दिखाए मार्ग पर चलेंगे तो अपने आप गीता जी आपको अपने दिल से लगा कर आपका मार्ग प्रशस्त करती जाएँगी।
दुर्योधन ने तो स्वयं कहा भी है:
यथेच्छसि तथा कुरु।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्याय:।।