विवेचन सारांश
गुणत्रय से जीवन यापन करना

ID: 4738
हिन्दी
रविवार, 28 अप्रैल 2024
अध्याय 14: गुणत्रयविभागयोग
1/2 (श्लोक 1-10)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


 हरि नाम सङ्कीर्तन, प्रारम्भिक प्रार्थना और दीप प्रज्वलन के पश्चात, विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ। भगवान की अत्यन्त मङ्गलमयी कृपा से हम सब लोगों का ऐसा  सद्भाग्य जागृत हुआ, जो हम सब गीता को पढ़ने, समझने, उसका उच्चारण सीखने, उसका अर्थ पढ़ने और विवेचन सुनकर गुण चिन्तन करने में और उसके सूत्रों को समझकर जीवन में लाने में लग गये हैं। भगवान की अत्यन्त कृपा हम पर हुई है, शायद यह हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का फल है या हमारे पूर्वजों का आशीर्वाद, जो ऐसा भाग्योदय हो गया है। गीता को पढ़ने के लिए, गीता को जानने के लिए भगवान ने हमें चुन लिया है। अलग-अलग अध्यायों का चिन्तन करते हुए हम गीता के अट्ठारह सोपान चढ़ रहे हैं। गत सप्ताह हमने नौवाँ अध्याय पूर्ण किया- 'राजविद्याराजगुह्ययोग' । आज अत्यन्त ही महत्वपूर्ण ज्ञान योग के शिखर अध्याय गुणत्रयविभागयोग चौदहवें अध्याय का चिन्तन आरम्भ कर रहे हैं।

गुणातीत अर्थात तीनों गुणों से अतीत। इस अध्याय में सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों को जानेंगे। प्रकृति-पुरुष जगत की उत्पत्ति कैसे हुई? उसका भी इस अध्याय में चिन्तन करेंगे। काल गणना का भी चिन्तन करेंगे। इन तीनों गुणों के रहते कैसे गुणातीत योगी बना जा सकता है, उसको भी समझने का प्रयास करेंगे।

सातवें अध्याय से तेरहवें अध्याय तक भगवान ने ज्ञानयोग की बात अर्जुन को अलग-अलग प्रकार से बतलाई। आठवें अध्याय में अर्जुन ने विषयान्तर किया। नवें अध्याय में भगवान उनको वापस लेकर आए। तेरहवें अध्याय के बाद भगवान को ऐसा लग रहा था कि अर्जुन कुछ प्रतिक्रिया करेंगे। जब वक्ता कुछ कह रहा होता है तब सामने बैठा हुआ व्यक्ति कभी गर्दन को हिलाकर, कभी हाँ कहकर, या कभी बात समझ में आई, ऐसा सङ्केत देता है। 

यह स्वाभाविक बात है जो व्यक्ति बातचीत करता है, उसे सामने वाले के हाव-भाव से कितनी बात समझ में आई, कितनी बात समझ में नहीं आई यह पता चलता है। अगर सामने वाले के चेहरे पर अलग प्रश्न चिह्न दिखता है तो वक्ता को यह समझ में आता है कि इसे अभी और विस्तार से समझाने की आवश्यकता है। भगवान ने जब तेरहवाँ अध्याय पूर्ण करके अपनी बात पूरी की, तब अर्जुन के चेहरे पर प्रश्न चिह्न था। अर्जुन बिल्कुल शान्त थे, न ही चेहरे के हाव-भाव से ये अनुभव हुआ कि अर्जुन की समझ में भगवान की बात आ गयी है।

 भगवान समझ गए कि अभी अर्जुन को इस विषय में थोड़ा और कहना पड़ेगा। भगवान ने यहाँ से ज्ञान योग का थोड़ा सा और विस्तार कर दिया। 

14.1

श्रीभगवानुवाच
परं(म्) भूयः(फ्) प्रवक्ष्यामि, ज्ञानानां(ञ्) ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः(स्) सर्वे, परां(म्) सिद्धिमितो गताः॥14.1॥

श्रीभगवान बोले – सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम (और) श्रेष्ठ ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब के सब मुनि लोग इस संसार से (मुक्त होकर) परमसिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।

विवेचन- तेरहवें अध्याय का अन्तिम श्लोक भी भगवान ने ही कहा पर अर्जुन ने कोई प्रश्न नहीं किया और न ही उत्तर दिया। भगवान ने इस श्लोक से पुन: ज्ञान देना आरम्भ किया। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि अर्जुन अभी भी असमञ्जस की स्थिति में थे। इस श्लोक का दूसरा शब्द - 'परम भूय:' है, भूय: यानि फिर से, अर्थात जो पहले बताई जा चुकी है। इस शब्द से यह बात समझ में आती है कि भगवान अर्जुन को अपनी बात और विस्तार से बता रहे हैं क्योंकि अर्जुन को और ज्यादा गहराई से, स्पष्ट रूप से जानना है। भगवान इस अध्याय का आरम्भ बहुत ही विशेष तरीके से करते हैं। नौवें अध्याय में भगवान ने विद्याओं का राजा, राजविद्यायोग बताया। इस अध्याय में उसी में एक विशेषण और जोड़कर उसे विद्या का महत्व बताना चाहते हैं।

"ज्ञानानाम् उत्तमम्" अर्थात सबसे सर्वश्रेष्ठ ज्ञान फिर से कहूँगा, भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! इतनी विविधता इस संसार में दिखाई देती है, एक मानव जाति में ही कितने भेद हैं वर्ण, कद, सौन्दर्य आदि। इस सृष्टि में भी कहीं पेड़ हैं, कहीं नदी है, कहीं पहाड़ हैं। जीवों में भी अलग-अलग कितनी प्रजातियाँ हैं। इससे आगे और भी विभिन्नता है जैसे एक पृथ्वी, एक चन्द्रमा, एक शनि, एक बृहस्पति, एक सूर्य को मिलाकर एक ब्रह्माण्ड है। ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं। कितने लोग, कितने ब्रह्मा जी हैं। जितने कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, उतने ही कोटि-कोटि ब्रह्मा जी हैं। इन सब का निर्माण कैसे होता है इसका रॉ मैटेरियल क्या है? यह सब मैं बताऊँगा।

भगवान कहते हैं इन सब को बनाने के लिए तीन साधन हैं अर्थात रॉ मैटेरियल हैं। सत्त्व, रज और तम, इन तीनों के संयोग से ही सारा ब्रह्माण्ड बना है। सम्पूर्ण सृष्टि में चौरासी लाख योनियाँ हैं। सेवन प्वाइन्ट टू बिलियन इस दुनिया में मनुष्य की आबादी है। जब कोई आधार कार्ड बनवाने जाते हैं तो बायोमेट्रिक स्कैनिंग होता है। आपका रेटिना स्कैन करते हैं, फिर फिङ्गर स्कैन करते हैं और बायोमेट्रिक स्कैन में यह गारण्टी होती है कि पूरी दुनिया में (सेवन प्वाइन्ट टू बिलियन) मनुष्य में कोई भी दो लोगों का रेटिना एक जैसा नहीं होता। दो लोगों की उंगलियों के निशान (फिङ्गर प्रिण्ट) भी समान नहीं होते। आज जो मनुष्य है उसके अलावा जो इस दुनिया में लाखों वर्ष पहले आए थे उनके साथ भी मैच नहीं करते।

उदाहरण के तौर पर इस संसार में कितने पेड़ हैं? हमारे आसपास कितने पेड़ हैं? एक पेड़ में कितनी पत्तियाँ हैं? और एक ही पेड़ की दो पत्तियाँ भी समान नहीं होती हैं। ये सभी विविधता से युक्त होते हैं।

चौरासी लाख योनियों में से एक योनि मछली की भी है। मछली की भी अनेक प्रजातियाँ हैं। कुत्ते की भी हजारों प्रजातियाँ हैं। पूरे संसार में किसी भी दो जिराफ की रेखाएँ एक जैसी नहीं होती हैं। ब्रह्मा अद्रभुत रचयिता हैं। हम मनुष्य भी जब कोई वस्तु बनाते हैं तो एक ढाँचा (डाई) बना लेते हैं तो एक जैसी वस्तुएँ बननी शुरू हो जाती हैं। सबसे विशेष बात यह है कि इतनी विविधता के लिए सिर्फ तीन ही राॅ मटेरियल की आवश्यकता पड़ती है उन्हीं से सारे प्रोडक्ट बन जाते हैं।

कलर प्रिण्टर से जब प्रिण्ट निकलता है या कोई पुस्तक छपती है, तो उसमें भिन्न-भिन्न रङ्ग दिखायी पड़ते हैं, परन्तु उसमें मुख्य रूप से चार ही रङ्ग होते हैं:

C - Cyan
M - Magenta
Y - Yellow
K - Black
         
ब्रह्मा जी को भी सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों से मिलाकर बनाया है। भगवान कहते हैं हे अर्जुन! यह ज्ञान सब ज्ञान से सर्वश्रेष्ठ है और जो इसको समझ लेता है वह इस संसार के भवसागर को पार करके परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।

14.2

इदं(ञ्) ज्ञानमुपाश्रित्य, मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते, प्रलये न व्यथन्ति च॥14.2॥

इस ज्ञान का आश्रय लेकर (जो मनुष्य) मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, (वे) महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।

विवचन-: भगवान इस श्लोक में दो बातें बता रहे हैं कि सृष्टि के आदि में सृजन होता है और सृष्टि के अन्त में प्रलय होती है। प्रलय अर्थात मर जाना और सृजन का अर्थ उत्पन्न होना है। प्रलय भी कई तरह की होती है।

नित्य प्रलय  प्रतिदिन जब हम रात्रि को शयन करते हैं तो इस संसार का ज्ञान हमें नहीं होता, यह हमारे लिए प्रलय ही है। जब हम बहुत गहरी निद्रा से सोकर उठते हैं तो कुछ क्षण यह समझने में लग जाते हैं कि हम कहाँ पर हैं, अभी रात है या सुबह है ऐसा आभास सभी को होता है।

जब गहरी निद्रा में होते हैं तो उस समय संसार में चाहे परमाणु बम ही फट जाए, आग लग जाए या ईरान ईराक से युद्ध भी लड़ रहा हो, हमें  कुछ भी ज्ञात नहीं होता, सब कुछ व्यवस्थित करने में कुछ पल का समय लग जाता है।

ब्रह्माजी जब विश्राम करने चले जाते हैं तब सारा संसार प्रलय काल में चला जाता है। सुबह उठते हैं तो फिर से सृष्टि का निर्माण करते हैं।

सबका कालचक्र अलग होता है, जो काल मनुष्य का होता है वही कालचक्र छोटे जीवों का नहीं होता। अलग-अलग जीवों की आयु कुछ महीने, कुछ दिन, कुछ घण्टें, कुछ सेकण्ड और माइक्रो सेकण्ड भी होती है। एक ही रात में कितनी सारी चीण्टियॉं आ जाती हैं? एक बल्ब के सामने लाखों पतङ्गे कहाँ से आ जाते हैं! वहीं पर आते हैं वहीं जन्म लेते हैं और तेजी से मर भी जाते हैं। एक दीमक की  सङ्ख्या भी कितनी तेजी से बढ़ती है। कुछ जीवों की आयु इतनी कम  होती है कि चुटकी बजाने में जितना समय लगता है, उतने समय में उनकी तीन पीढ़ियों का सृजन व अन्त हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य से बड़ों का कालचक्र अलग होता है‌। देवशयनी एकादशी पर देवता सो जाते हैं और देवोत्थान एकादशी पर उठ जाते हैं। छ: महीने देवता जागते हैं और छ: महीने देवता सो जाते हैं। देवताओं का एक दिन और एक रात्रि मिलकर मनुष्य का एक वर्ष होता है। पितृलोक के पितरों का एक दिन मनुष्य के तीस दिन के बराबर होता है।

हमारे  तैंतालिस लाख बीस हजार वर्षों की एक चतुर्युगी होती है। ऐसी एक हजार चतुर्युगी ब्रह्माजी का एक दिन होता है और इतनी ही एक रात्रि होती है।

चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का एक कलियुग है।
आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का द्वापर युग है।
बारह लाख छियानवें हजार वर्षों का त्रेता युग है।
सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षों का सतयुग है।

कुल मिलाकर तैंतालीस लाख बीस हजार वर्षों की एक चतुर्युगी होती है। ऐसी इकहत्तर चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है, अर्थात एक मनु का काल होता है। ब्रह्माजी के एक दिन में चौदह मनु होते हैं। हम सातवें मनु वैवस्व के काल में हैं। 

श्रीभगवान ने गीताजी में कहा-

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।।गीता 4:1।।

इससे यह सिद्ध होता है कि हम जो गीताजी आज पढ रहे हैं, वह इसी वैवस्वत मनु के काल में कही गई है।

जैसे बच्चा मिट्टी ( क्ले) से खेलता है और दिनभर में विभिन्न आकृतियाँ तैयार करता है। रात्रि में माता आकर उन सभी आकृतियों को इकट्ठा करके पुनः एक पिण्ड तैयार कर देती है और उसे डिब्बे में बन्द कर देती है। अगले दिन पुनः वह बच्चा उस पिण्ड से नई-नई आकृतियाँ तैयार करता है। इसी प्रकार ब्रह्मा जी भी अपने दिन के काल में चौरासी लाख योनियों की संरचना करते हैं और प्रलय काल में वे सभी योनियाँ प्रकृति में लीन हो जाती हैं। फिर सर्ग के आरम्भ में ब्रह्मा जी पुनः उनकी रचना करते हैं।

 भगवान कहते हैं कि जो यह ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसे सर्ग और प्रलय में भी जन्म-मरण के चक्र में नहीं फँसना पड़ता। भगवान अब सृष्टि का वर्णन करते हैं कि मैं ही इसे तीन तत्त्वों, सत्, रज, तम से बनाता हूँ।

14.3

मम योनिर्महद्ब्रह्म, तस्मिन्गर्भं(न्) दधाम्यहम्।
सम्भवः(स्) सर्वभूतानां(न्), ततो भवति भारत॥14.3॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है (और) मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

विवेचन-: सर्वप्रथम महत् ब्रह्म, फिर महत् बुद्धि आती है और महत् बुद्धि से महत् अहम् का निर्माण होता है। उससे ही सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों का निर्माण होता है और तीनों गुणों से पञ्च महाभूतों का निर्माण होता है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्नि है।

पाँच तत्त्वों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कैसे बनता है? महत् प्रकृति सबसे पहले आकाश का निर्माण करती है। इस आकाश में केवल शब्द होता है जो इसमें विचरण कर सकता है। पाँच तत्त्वों से उनकी पञ्च तन्मात्राओं और उनकी इन्द्रियों का सम्बन्ध होता है। आकाश की तन्मात्रा है शब्द और शब्द से सम्बन्धित होती है कर्णेन्द्रिय (कान)।

आकाश से वायु का निर्माण हुआ जिसमें दो गुण हैं-शब्द और स्पर्श। वायु के चलने से आवाज भी होती है और उसके स्पर्श को हम त्वचा पर अनुभव भी कर सकते हैं। अतः वायु की इन्द्रिय है त्वचा। आकाश का हम अनुभव नहीं कर सकते, परन्तु वायु का स्पर्श द्वारा अनुभव कर सकते हैं।

आकाश और वायु को मिलाकर अग्नि तत्त्व का निर्माण हुआ। अग्नि में तीन गुण हैं - शब्द, स्पर्श और रूप। अग्नि जलती है तो चट-चट आवाज होती है तथा स्पर्श करके अग्नि को अनुभव भी कर सकते हैं। अग्नि की यह विशिष्टता है कि हम उसे देख भी सकते हैं, जबकि आकाश और वायु को हम देख नहीं सकते। अग्नि की तन्मात्रा है रूप और इन्द्रिय है नेत्र।

आकाश, वायु और अग्नि को मिलाकर जल नामक चौथे तत्त्व का निर्माण हुआ। जल में शब्द भी है, स्पर्श भी है और रूप भी। जल बहता है तो उसकी कल-कल आवाज भी होती है, उसे हम स्पर्श भी कर सकते हैं और उसे देख भी सकते हैं, परन्तु जल में एक और गुण है, वह है रस यानि स्वाद। आकाश, वायु और अग्नि का स्वाद हम नहीं ले सकते, परन्तु जल का जीभ द्वारा स्वाद ले सकते हैं। अतः जल की तन्मात्रा हुई रस और उसकी इन्द्रिय हुई जिह्वा।

इन चारों तत्त्वों को मिलाकर पाँचवें तत्त्व पृथ्वी का निर्माण हुआ। पृथ्वी में इन चारों से विशिष्ट एक और गुण आ गया, जो है गन्ध। आकाश, वायु, अग्नि और जल को हम सूँघ नहीं सकते, परन्तु पृथ्वी को हम नासिका द्वारा सूँघ सकते हैं। अतः पृथ्वी की तन्मात्रा हुई गन्ध और उसकी इन्द्रिय हुई नासिका। इस प्रकार इन पाँच महाभूतों से पञ्च तन्मात्राओं का निर्माण हुआ और उनसे पाँच इन्द्रियों की निर्मिति हुई।

14.4

सर्वयोनिषु कौन्तेय, मूर्तयः(स्) सम्भवन्ति याः।
तासां(म्) ब्रह्म महद्योनि:(र्), अहं(म्) बीजप्रदः(फ्) पिता॥14.4॥

हे कुन्तीनन्दन ! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करने वाला पिता हूँ।

विवेचन-सभी चौरासी लाख योनियों को चार प्रकारों में बाँटा गया है:
१. अण्डज - अण्डे से उत्पन्न होने वाले पक्षी, सर्प आदि
२. पिण्डज (जरायुज) - गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य, पशु आदि
३. स्वेदज - पसीने से उत्पन्न होने वाले जूँ, लीख आदि
४. उद्भिज्ज - पृथ्वी को फोड़कर उत्पन्न होने वाले वृक्ष, लता आदि।

इन चार प्रकारों से ही सभी अनन्त कोटि जीव उत्पन्न होते हैं। फिर वे चाहे जलचर-नभचर-थलचर हों; चौदह लोकों में निवास करने वाले प्राणी हों, मनुष्य-देवता-भूत-प्रेत आदि पञ्च-तत्त्व प्रधान, अग्नि-तत्त्व प्रधान, वायु-तत्त्व प्रधान योनियाँ हों, सब के पिता परमात्मा ही हैं और सबकी माता महत् प्रकृति ही है।

जड़ तत्त्व के रूप प्रकृति उसकी माता है और चेतन तत्केत्व  रूप मैं उसका पिता हूॅं। 

मृत्यु के पश्चात इस शरीर के अङ्गों में कुछ परिवर्तन नहीं आता परन्तु प्राण निकलने पर उसको घर में रखने का कोई लाभ नहीं होता।

एक बार किसी अमीर आदमी की माँ बीमार हो गई। बेटे ने डॉक्टर से कहा कि चाहे करोड़ों रुपए खर्च हो जाएं पर माँ को बचाना है। डॉक्टर ने कहा कि चिन्ता मत करो, हम अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में जाँच करवाएँगे। एक सप्ताह तक सारे टेस्ट किये, वेण्टिलेटर पर भी रखा। दो-तीन करोड रुपए खर्च कर दिए परन्तु माँ को डॉक्टर नहीं बचा पाए और उसकी मृत्यु हो गई। बेटा ऐसा चाहे कि जिस माँ के इलाज पर दो-पांँच करोड रुपए खर्च कर दिए उस माँ के शरीर को छ: महीने या एक साल घर में रखें। परन्तु ऐसा वह नहीं कर सकता क्योंकि मृत्यु होते ही सब का यही कहना होता है कि जितनी जल्दी हो सके इस देह का दाह संस्कार करो। 

जिस शरीर को ठीक करने के लिए लाखों रुपए खर्च कर दिए पर प्राण निकलते ही अग्नि में दाह संस्कार करना पड़ता है। चेतन तत्त्व निकलते ही यह देह मिट्टी की हो गयी। इसकी इतनी ही कीमत है। इसकी प्रकृति जड़ है और जड़ की कोई कीमत नहीं है इसका रूप नहीं बदलता। यह जैसा दिख रहा है ऐसा ही रहेगा। जो नहीं दिखाई दे रहा है वह चेतन तत्त्व निकलते ही इसकी कीमत कुछ भी नहीं है।

अब प्रश्न यह उठता है कि चेतन तत्त्व अगर इतना विलग है तो इस शरीर में आता कैसे होगा। तेल और पानी मिलाने पर भी नहीं मिलते। जिसके गुण-धर्म अलग-अलग हैं, वे कभी नहीं मिलते हैं। प्रकृति जड़ है और प्राण चेतन है। जड़ और चेतन के संयोग से इस सृष्टि का निर्माण होता है। जीवन जड़ चेतन के संयोग से ही बनता है। भगवान इसका वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं।

14.5

सत्त्वं(म्) रजस्तम इति, गुणाः(फ्) प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो, देहे देहिनमव्ययम्॥14.5॥

हे महाबाहो! प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्त्व, रज (और) तम – ये (तीनों) गुण अविनाशी देही (जीवात्मा) को देह में बाँध देते हैं।

विवेचन-: भगवान ने दूसरे अध्याय में बताया है कि आत्मा को न काटा जा सकता है, न ही बाँटा जा सकता है और न ही जलाया जा सकता है। इसको न दु:ख होता है, न ही सुख होता है। यह शरीर ऐसे ही कपड़े बदलते रहता है सत्त्व, रज और तम इन गुणों से मिलकर यह मोह में बँध जाता है।

कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कोई बहेलिया आकाश में उड़ने वाले पक्षी को कैसे पकड़ लेता है? एक तो दाना डालने और जाल बिछाने का तरीका है, परन्तु बहेलिए के पास एक यन्त्र भी होता है। वह एक तार का प्रयोग करता है और उसके आसपास दाना डाल देता है। पक्षी जब उस तार पर आकर बैठता है और दाना चुगने के लिए अपना सिर नीचे झुकाता है, तो वह तार अचानक पलट जाता है और पक्षी को आसमान दिखाई देने लगता है। वह घबराकर तार को कसकर पकड़ लेता है और तभी बहेलिया आकर उसे अपनी झोली में डाल लेता है। स्मरण रहे कि तार ने पक्षी को नहीं पकड़ा, स्वयं पक्षी ने तार को पकड़ा है। यह आत्मतत्त्व इस शरीर में फँसने वाला नहीं है, परन्तु हमारे संस्कार इसको जकड़ लेते हैं। यह बन्धन कैसे होता है, इस पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में बहुत सुन्दर चौपाई कही है:-

सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥2॥
उत्तरकाण्ड 

गोस्वामी जी कहते हैं माया एकदम भ्रामक है फिर भी हम इसमें बन्ध जाते हैं। जड़ चेतन की ग्रन्थि में ऐसे बन्ध जाते हैं कि फिर नहीं छूटती।

गोस्वामी जी ने इस दोहे में दो उदाहरण दिए-:
१) कीट २) मरघट 

  कीट पक्षी को कहते हैं।
जब हम अपने बचपन की फोटो को देखते हैं तो पहचान लेते हैं क्योंकि उसे हम बचपन से देखते आ रहे थे। अगर हम उसे पहले नहीं देखते तो अपने आपको भी हम पहचान नहीं पाते। जब स्कूल की ग्रुप फोटो को देखते हैं तो उसमें अपने आप को ढूँढते हैं।
 हम अपने आप को नहीं पहचान पाते क्योंकि मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर तो हर क्षण बदलता जा रहा है। मैं वही है, मैं कभी बूढ़ा नहीं हुआ। शरीर बूढ़ा हो गया, शरीर की मृत्यु होगी, मेरी नहीं।

बन्दर तो बहुत समझदार होता है, वह मदारी की पकड़ में कैसे आ जाता है? मदारी एक सुराही को जमीन में गाड़कर उसमें ढेर सारे चने डाल देता है और कुछ चने आस-पास भी बिखेर देता है। बन्दर वहाँ आकर पहले आसपास गिरे हुए चनों को खाता है और फिर सुराही में से चने लेने के लिए उसमें हाथ डालता है। चनों को मुट्ठी में बन्द करके जब वह हाथ बाहर निकालने का प्रयास करता है तो बन्द मुट्ठी सुराही के तङ्ग मुख से बाहर नहीं आ पाती। वह चाहे तो मुट्ठी खोलकर चने छोड़कर अपना हाथ बाहर निकाल सकता है, परन्तु चने का मोह और लालच उसे वहीं फँसा देता है और मदारी आकर उसे पकड़ लेता है।

हम भी अपनी इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं, राग, द्वेष, आसक्ति आदि के चने नहीं छोड़ पाते और जन्म-मरण के चक्र में फँसे रहते हैं। हम चाहें तो इस चक्र से अभी मुक्ति पा सकते हैं, ईश्वर की प्राप्ति तुरन्त कर सकते हैं, परन्तु हम उन सांसारिक मोह के चनों को छोड़ना ही नहीं चाहते। मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरी माँ, मेरे पिता-ये सब झूठे बन्धन हैं, ये सब माने हुए हैं, ये सत्य नहीं हैं। जन्म के समय हमें इनमें से किसी सम्बन्ध का पता ही नहीं था।

14.6

तत्र सत्त्वं(न्) निर्मलत्वात्, प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति, ज्ञानसङ्गेन चानघ॥14.6॥

हे पाप रहित अर्जुन! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक (और) निर्विकार है। (वह) सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बाँधता है।

विवेचन -: सत्त्व तत्त्व एक प्रकाश पुञ्ज है। जिसकी सात्त्विकता जितनी ज्यादा होगी उसकी बुद्धि उतनी साफ होगी। सब मनुष्य उन सात्त्विक गुण वाले मनुष्य से सलाह लेते हैं क्योंकि उसकी बुद्धि ज्यादा प्रखर है। सत्त्व गुणी का विवेचन में, पूजा में बहुत मन लगता है। जब तक सत्व गुण बढ़ा होता है तब तक मन लगता है। जब रजोगुण मन में ज्यादा हो गया तो उसका मन भी नहीं लगता। तम गुण वाले बहाना बनाने लगते हैं कि आज इस कारण से पूजा नहीं की। ये तीनों गुण एक दूसरे पर हावी होते रहते हैं।

14.7

रजो रागात्मकं(म्) विद्धि, तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय, कर्मसङ्गेन देहिनम्॥14.7॥

हे कुन्तीनन्दन! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को (तुम) रागस्वरूप समझो। वह कर्मों की आसक्ति से देही जीवात्मा को बाँधता है।

विवेचन-  संसार में मनुष्य जितनी भी क्रिया करते हैं वह रजोगुण के कारण ही करते हैं। रजोगुण से मनुष्य की इच्छाएं और मोह बढ़ता है। इस कारण कर्मों से और उसके फल में आसक्ति बढ़ती है।

रजोगुण- क्रिया, कर्म।

अगर गीता पढ़ते हैं तो यह पढ़ने की क्रिया रजोगुण ही है पर गीता पढ़ने से यह रजोगुण सत्त्वगुण की ओर ले जाएगा।

14.8

तमस्त्वज्ञानजं(म्) विद्धि, मोहनं(म्) सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभि:(स्), तन्निबध्नाति भारत॥14.8॥

हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बाँधता है

विवेचन- आलस्य और निष्क्रियता तमोगुण के लक्षण हैं। दिन भर आलस्य में पड़े रहने का मन चाहता है, जो चाहते हैं वही करना है। जो नहीं करने योग्य कार्य है उसको करने का मन करता है, यही  प्रमाद है। दिन में छ: घण्टे की नींद लेनी जरूरी है। परन्तु तमोगुण की अधिकता से व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है।

14.9

सत्त्वं(म्) सुखे सञ्जयति, रजः(ख्) कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः(फ्), प्रमादे सञ्जयत्युत॥14.9॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में (और) रजोगुण कर्म में लगाकर (मनुष्य पर) विजय करता है। परन्तु तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में लगाकर (मनुष्य पर) विजय करता है।

विवेचन-: सत्त्वगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्म को बढ़ाता है और तमोगुण ज्ञान को अज्ञान से ढक कर प्रमाद में लगाता है। इन तीनों गुणों के द्वारा यह जीवात्मा इस शरीर से बँध जाती है।

14.10

रजस्तमश्चाभिभूय, सत्त्वं(म्) भवति भारत।
रजः(स्) सत्त्वं(न्) तमश्चैव, तमः(स्) सत्त्वं(म्) रजस्तथा॥14.10॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्व गुण बढ़ता है, सत्त्व गुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण (बढ़ता है) वैसे ही सत्त्वगुण (और) रजोगुण को दबाकर तमोगुण (बढ़ता है)।

विवेचन-: भगवान कहते हैं हे अर्जुन!  इन तीनों गुणों में से किसी को शून्य नहीं कर सकते न सत्त्वगुण, न रजोगुण को और न ही तमोगुण को। पूज्य स्वामी जी श्रेष्ठ महात्मा हैं फिर भी रात्रि में विश्राम करने के लिए उनका सोना जरूरी है, उतनी देर तमोगुण में रहना ही पड़ेगा। सुबह उठकर खाना भी पड़ेगा और भी रजोगुण द्वारा क्रियाएँ करनी ही पड़ेंगी। स्वामी जी का सत्त्वगुण बढ़ा हो सकता है। रजोगुण और तमोगुण न्यून हो सकते है परन्तु कुछ भी शून्य नहीं हो सकता। तीनों गुणों को एक दूसरे के साथ घटाया बढ़ाया जा सकता है। अगर सत्त्वगुण बढा़ना है तो रजोगुण को कम करना पड़ेगा और रजोगुण को बढ़ाना है तो सत्त्वगुण को कम करना पड़ेगा तथा तमोगुण को बढ़ाना है तो सत्त्वगुण और रजोगुण को कम करना पड़ेगा।

हनुमान जी इन तीनों गुणों को कैसे जीतते हैं इससे सम्बन्धित कथानक रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में मिलता है। सुन्दरकाण्ड में जब लङ्का जाने के लिए सारे वानर समुद्र तट पर एकत्रित हुए वहाँ सम्पाति संवाद भी हुआ। सब कल्पना कर रहे थे कि सौ योजन का समुद्र कैसे लाङ्घेंगे, बड़ा कठिन है। अङ्गद जी कहने लगे -

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा।।

किष्किन्धाकाण्ड 
अङ्गदजी कहते हैं कि समुद्र के उस पार चला तो जाऊँगा, पर वापस आ पाऊँगा या नहीं इसमें संशय है। सब अपनी-अपनी शक्ति के बारे में बता रहे थे, जामवन्त जी कहने लगे कि मैं जा तो सकता हूँ पर मैं बूढ़ा हो गया हूँ पहले जितना विश्वास नहीं है, हो सकता है सागर पार करके वापस आ भी जाऊँ, हो सकता है कि नहीं आ पाऊँ। हनुमान जी तो सत्त्वगुण के प्रतीक हैं। वे शान्ति से कोने में बैठे हुए थे, हनुमान जी अपने आप को सबसे छोटा मानते हैं। जामवन्त जी कहते हैं कि हनुमान जी तो कुछ बोलते ही नहीं। जामवन्त जी हनुमान जी को सीता जी की खोज में जाने के लिए प्रेरित करते हैं:

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
किष्किन्धाकाण्ड

हनुमान जी समुद्र लाँघने के लिए खड़े हो जाते हैं और आतुर होकर छलाँग लगा देते हैं, परन्तु प्रत्येक श्रेष्ठ कार्य में भी कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ आती ही हैं।

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी॥ 
सुन्दरकाण्ड 
मैनाक पर्वत प्रकट हो गया,  उसने उन्हें विश्राम कर आगे जाने के लिए कहा। सत्त्वगुणी मैनाक भी राम काज में बाधा हैं, अतः हनुमान जी उनकी परिक्रमा कर और उन्हें प्रणाम करके आगे बढ़ गए।

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम,
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥ 

आगे इन्द्रदेव ने हनुमान जी की परीक्षा लेने के लिए सुरसा को कहा कि हे माता, तुम नागों की माता हो हनुमान जी की परीक्षा लेकर आओ-

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥

सुरसा हनुमान जी को देखकर कहती है;

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा॥ 

हनुमान जी उसके विकराल रूप को देखकर बोले: 

राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥

मैं सीता जी का समाचार श्री राम को कह आऊँ, फिर तुम मुझे खा लेना, लेकिन देवताओं की भेजी हुई रजोगुणी सुरसा कहाँ मानने वाली थी। हनुमान जी ने कहा तो फिर खा लो मुझे। सुरसा ने एक योजन का शरीर बना लिया। सत्त्वगुण समझाने से मान जाता है परन्तु रजोगुण नहीं, रजोगुण को रजोगुण से मारना पड़ता है। जितना-जितना सुरसा अपना विस्तार करती हनुमान जी अपने शरीर का उससे दोगुना विस्तार कर लेते। परन्तु रजोगुण को सदा रजोगुण से भी नहीं जीत सकते, यह भी यहाँ से सीखना चाहिए। हनुमान जी सुरसा के सौ योजन के होते ही छोटा सा रूप लेकर उसके मुख के अन्दर प्रवेश करके जब तक वह अपना मुख बन्द करती, उससे पहले ही तुरन्त बाहर आ गए। सुरसा भी हनुमान जी से प्रभावित होकर उन्हें आशीष देते हुए चली गई। 

राम काज सब करिहऊ, तुम बल बुद्धि निधान,
आसिष देई गई सो, हरषि चलेऊ हनुमान।

परन्तु अभी उनकी तमोगुण द्वारा परीक्षा होनी बाकी थी।

निसिचरि एक सिंधु महुं रहईं । करि माया नभु के खग गहईं।
जीव जंतु जे गगन उड़ाही। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।

आकाश में उड़ने वाले पक्षियों की परछाईं को पकड़कर फिर उनकी गति रोककर उन पक्षियों को पकड़ कर खा जाने वाली राक्षसी ने हनुमान जी की गति अवरुद्ध कर दी। भगवान ने उस तमोगुणी राक्षसी से कोई बात नहीं की, बस उसे एक घूँसा मारा और आगे बढ़ गए। सत्त्व गुण को प्रणाम करके, रजोगुण को रजोगुण से परास्त करके और तमोगुण का दमन करके हनुमान जी आगे बढ़े।

सत्त्व गुण को सदा प्रणाम करना चाहिए। घर में कोई विवाह आदि हो और कोई कहे कि हम तो सत्सङ्गी हैं, हमें इसमें क्या रस लेना, तो यह ठीक नहीं। सत्सङ्गी होने का अर्थ दूसरों के लिए उबाऊ होना नहीं है। विवाह आदि हो तो उसमें थोड़ा आनन्द लें, परन्तु उसमें फँसना नहीं है। जैसे हनुमान जी सुरसा के साथ-साथ बढ़ते ही नहीं रहे, बल्कि तुरन्त छोटे होकर उससे विजयी हो गए। हनुमान जी यह शिक्षा भी देते हैं कि तमोगुण से बात भी नहीं करना, एक पल भी उसमें फँसना नहीं।

अभी हनुमान जी की परीक्षा बाकी थी। जब वे लङ्का पहुँचे, तो वहाँ की द्वार-रक्षक लङ्किनी से बचने के लिए उन्होंने मच्छर का रूप धारण कर लिया परन्तु वे उसकी दृष्टि से बच न सके। लङ्किनी ने उन्हें डराया धमकाया तो हनुमान जी ने उसे एक घूँसा मारा और लङ्किनी मुख से रक्त वमन करने लगी। वह हनुमान जी के आगे हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और ब्रह्मा जी के वरदान के बारे में बताया कि जब तुम एक वानर के प्रहार से विकल हो जाओ, तब समझ लेना कि दुष्ट राक्षसों का अन्त आ गया है। 

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।

सत्त्व गुण के सङ्ग का क्या प्रभाव होता है, इसे लङ्किनी बताती है:

तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।

वह कहती है कि न जाने कौन से जन्म के मेरे पुण्य आज उदित हो गए जो मुझे भगवान के न सही परन्तु भगवान के दूत के ही दर्शन हो गए।  

तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग, तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।

अर्थात यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाए, तब भी वह एक क्षण के अच्छे लोगों के सङ्ग यानि सत्सङ्ग से मिलने वाले सुख के बराबर नहीं हो सकता। लङ्किनी हनुमान जी को भगवान श्री राम का स्मरण करके लङ्का में प्रवेश करने का आग्रह करती है। हनुमान जी ने कैसे सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण पर विजय प्राप्त की उसका यह उत्तम उदाहरण है।

भजन की स्लाइड 






साधकों की जिज्ञासाओं के समाधान के साथ आज का सत्र समाप्त हुआ।

प्रश्नकर्ता: अलका दीदी 
प्रश्न : उद्धव जी की श्रीकृष्ण से मुलाकात कैसे हुई?
उत्तर: उद्धव जी यादववंशी थे और श्रीकृष्ण के बालसखा थे। भागवत पुराण के एकादश अध्याय में उद्धवगीता आती है जो भगवद्गीता जी के समान ही है।

प्रश्नकर्ता : योगेश गोयल जी 
प्रश्न: आजकल खाटू श्याम महाराज के भजन कीर्तन अधिक हो रहे हैं, तो क्या उन्हें भगवान माना जा सकता है?
उत्तर : श्रीकृष्ण ने ही साधुओं से कहा था कि कलियुग में वे उनके रूप में पूजे जाएँगे। खाटू श्याम महाराज एक देवता का रूप हैं और देवता की भक्ति या उपासना सकाम होती है। उनकी भक्ति में कुछ देने पर ही  कुछ मिलता है। इस उपासना का फल नाशवान है जिसे पाना कोई बडी बात नहीं है। कभी कभी ऐसे भजनों में जाना चाहिए लेकिन उनमें फँसना नहीं है।

प्रश्नकर्ता : योगेश गोयल जी 
प्रश्न: जब भी किसी मित्र या परिचित के घर श्री साईं बाबा के भजन के लिए जाते हैं तो यह देखकर दुःख होता है कि साईं बाबा जी की विशाल प्रतिमा बीच में रखी होती है और श्रीकृष्ण और श्रीराम की प्रतिमाएँ  छोटी-छोटी होती हैं।
उत्तर: दुःखी नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार छोटे बच्चों को अपने खिलौने ही पसन्द होते हैं, वैसे ही किसी एक सन्त या भगवान पर विश्वास करने वाले व्यक्ति उन्हीं को मानते हैं। हम सभी स्वार्थी हैं। कुछ मिलने के लालच में किसी भी देवता की उपासना करते हैं, यहाँ तक कि दूसरे सम्प्रदायों के पूजास्थल भी जाते हैं। 

प्रश्नकर्ता : श्री शिवराज सकपाल जी
प्रश्न : क्या साईं नाथ महाराज भी गुरुदेव दत्तात्रेय जी के ही अवतार हैं जैसे श्री समर्थ और श्री गजानन महाराज?
उत्तर: श्री दत्तात्रेय जी देवता का अवतार हैं जबकि श्री गजानन महाराज और श्री साईं बाबा सन्त हैं जो भगवान से मिलने में हमारी सहायता करते हैं।

प्रश्नकर्ता : श्री शिवराज सकपाल जी 
प्रश्न : ज्ञानेश्वरी या श्रीमद्भगवद्गीता को अच्छे से समझने के लिए क्या करना चाहिए? सबसे पहले कौन सा शास्त्र या उपनिषद लिखा गया?
उत्तर: इनको समझने के लिए एक गुरु की आवश्यकता है। बिना गुरु के तो सामान्य विषय भी समझ में नहीं आते, फिर ये तो ब्रह्म विद्या है जो केवल पुस्तक पढ़ लेने से नहीं आती। परम् पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि रामायण और महाभारत जिसने पढ़ ली, उसे और कुछ पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता ही महाग्रन्थ है जो ज्ञान का असीम भण्डार है।

प्रश्नकर्ता : श्री शिवराज सकपाल जी
प्रश्न :  नवजात शिशु के आगमन पर सूतक लगता है। कितने दिनों तक पूजा नहीं कर सकते?
उत्तर : अपने कुल की परम्परा का अनुसरण करना चाहिए। भगवान के सामने दिया न जलाएँ परन्तु ग्रन्थों का पठन किया जा सकता है।

प्रश्नकर्ता : श्री बजरङ्ग भैया
प्रश्न :  आजकल विज्ञान के तरीके अपनाकर परिवार दो ही बच्चों तक सीमित किया जाता है, वरना तो दस दस बच्चे भी होते हैं। इससे क्या पुनर्जन्म परिवार में रुक जाता है?  पुनर्जन्म मानें या न मानें?
उत्तर : कर्म से प्रारब्ध घटा बढ़ा सकते हैं और टाल भी सकते हैं। विधान के अनुसार पुनर्जन्म तो होता ही है। मनुष्य को अपने नीहित कर्मों का फल भुगतना ही होता है फिर चाहे इस जन्म में या अगले जन्म में। किसी की आयु अस्सी वर्ष है और वह चालीस वर्ष में आत्महत्या कर लेता है तो बचे हुए चालीस वर्षों के फल भोगने के लिए उसे पुनर्जन्म लेना ही पड़ता है।

प्रश्नकर्ता : श्रीमती इन्दु दीदी 
प्रश्न : रजोगुण क्रिया है, तो गीता पढ़ना, ध्यान लगाना रजोगुण हैं या सत्त्व गुण?
उत्तर : रजोगुण कर्म क्रिया है। हम जो भी करते हैं रजोगुण है। अच्छे कर्म हमें सत्त्वगुण की ओर ले जाते हैं और बुरे कर्म तमोगुण की ओर। रजोगुण मार्ग है अन्य दो गुणों की ओर जाने का।

प्रश्नकर्ता : श्रीमती इन्दु दीदी 
प्रश्न : महर्षि वेदव्यास जी को महाभारत की घटनाओं का ज्ञान पहले से ही था। यदि नियति पहले से ही लिखी गई हो तो कर्म चयन की स्वतन्त्रता विरोधी बात हो गई?
उत्तर : कालचक्र चलता रहता है। हम जो तारा आज देखते हैं वह शायद दो लाख वर्ष पूर्व समाप्त हो गया होगा,  हमें केवल उसका प्रकाश दिखता है। हम काल में वापस नहीं जा सकते परन्तु देख सकते हैं। त्रिकालदर्शी को भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों दिखाई देते हैं।

प्रश्नकर्ता : श्रीमती पद्मिनी अग्रवाल दीदी 
प्रश्न : रोज रात में पूर्वजों के सपने आते हैं जिससे मन विचलित रहता है। क्या उपाय है?
उत्तर : योगी या पुण्यात्मा को ही ऐसे सपने कोई परोपकार करने हेतु आते हैं। हम जैसे सामान्य मनुष्य के लिए इन सपनों का कोई मतलब नहीं होता। सोने से पहले ध्यान और प्राणायाम करने से मन शान्त रहेगा।

प्रश्नकर्ता : श्री सुनील भैया जी
प्रश्न : आपकी प्रेरणा से तामसी भोजन बन्द कर दिया है। क्या तामसी भोजन शास्त्रों में वर्जित है? श्री रामकृष्ण परमहंस जी और स्वामी विवेकानन्द जी मछली खाते थे। तो वे सन्त कैसे हुए?
उत्तर : श्री भागवत के एकादश अध्याय में पहला बिन्दु अहिंसा बताया गया है। यही धर्म का सार है। तामसिक भोजन करने से भगवान से दूरी बढ़ती है। जैसा खाएं अन्न, वैसा बने मन। सब में भगवान को देखने वाला (वासुदेवं सर्वमिति) हिंसा कर ही नहीं सकता।
 
रामकृष्ण परमहंस जी और स्वामी विवेकानन्द जी मछली खाते थे।  परन्तु उनके सात्त्विक गुणों की अधिकता से यह छोटा तामसिक गुण छिप गया था। सामान्य मनुष्य यह नहीं कर सकता।

प्रश्नकर्ता : श्रीमती चित्रा जी
प्रश्न:
तमोगुणी व्यक्ति से वार्तालाप कैसे करें?
उत्तर: सभी में तीनों गुण होते हैं।  परिस्थिति विशेष में इनकी मात्रा कम ज्यादा हो सकती है, इसलिए किसी को भी तमोगुणी नहीं कहना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : स्वीटी सिङ्घल जी 
प्रश्न : क्या सुन्दरकाण्ड का पारायण केवल मङ्गलवार या शनिवार को ही करना चाहिए या प्रतिदिन?
उत्तर: नियमित रूप से पाठ हो इसलिए दिन निश्चित किए जाते हैं, वैसे तो रोज पाठ किया जा सकता है।

प्रश्नकर्ता : श्रीमती बीना जी 
प्रश्न : यह अध्याय गुणत्रयविभागयोग कहलाता है। क्या इसमें भक्तों के गुणों का वर्णन है?
उत्तर : नहीं, इसमें प्रकृति के तीन गुण बताए गए हैं।

प्रश्नकर्ता : श्रीमती ज्योत्स्ना जी 
प्रश्न : सुन्दरकाण्ड, रामचरित मानस को कैसे समझ सकते हैं?
उत्तर : इन्हें समझने के लिए किसी गुरु की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही पढ़कर समझ सकते हैं। 

प्रश्नकर्ता : श्रीमती किरण जी 
प्रश्न : सत्त्वगुण कैसे बढ़ाएं?
उत्तर:  रजोगुण और तमोगुण को घटाकर, अपने आपको अच्छे कार्यों में व्यस्त करें तो बुरे विचार आएंगे ही नहीं। भजन बनाते हुए बना भोजन प्रसाद बन जाता है।

प्रश्नकर्ता: श्री भूषण जी 
प्रश्न : नवम अध्याय के कुछ श्लोक समझने में अधिक समय चाहिए, कैसे समझें? 
उत्तर: एक बात समझनी चाहिए कि यदि भगवान अविनाशी हैं और संसार विनाशकारी तो क्या संसार अविनाशी होगा या भगवान विनाशकारी? 
ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या ,
हम ज्ञानमार्ग को भक्तिमार्ग के सिद्धान्त से समझने का प्रयास कर रहे हैं। परछाईं के लिए सूर्य प्रकाश आवश्यक है, परछाईं में सूर्य नहीं होता और न परछाईं सूर्य है। संसार का कारण भगवान हैं संसार में भगवान नहीं हैं।

प्रशनकर्ता : श्रीमती अनु जी 
प्रश्न : जीवन निर्णय के लिए गुरु आवश्यक हैं। क्या स्वामी गुरु गोविन्ददेव गिरि जी से दीक्षा ली जा सकती है? ध्यान की गहराई में जाने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर
: गुरुदेव के आफिस से सम्पर्क साधें।
गहन ध्यान के लिए ध्यान की पात्रता और विधि आवश्यक है, जिनका विस्तृत वर्णन छठे अध्याय में किया गया है।