विवेचन सारांश
आत्मसंयम और भक्तियोग सर्वश्रेष्ठ है
विशेष बात यह है कि आज विवेचक महोदय किसी कार्यवश दुबई गए हुए है और वह वहीं से हमें सम्बोधित कर रहे है। आज आत्मसंयम योग के अन्तिम भाग का विवेचन हम सुनेंगे। हम लोगों ने यह सुना कि भगवान ने स्वयं ज्ञान की विधा हमें सुनाई। उस ज्ञान की विधि की चर्चा भगवान क्रमशः करते रहे। यम और नियम की पालना किस प्रकार होनी चाहिए इसके विषय में भगवान ने हमें बताया। योगासन के लिए हम लोगों को सीधा बैठने को कहा गया। सीधा बैठने का एकमात्र कारण होता है कि चेतना के लिए आवश्यक प्राणवायु की पूर्ति हमारे मस्तिष्क को हो। इसके लिए हम सीधा बैठें क्योंकि सीधा बैठने के बाद हमारी कमर, हमारी ग्रीवा और हमारा मस्तिष्क सब एक पंक्ति में हो जाते हैं। उसके बाद भगवान ने बताया कि सीधा बैठने के बाद हमारे शरीर में जो वायु का आना-जाना यानी इनहेलेशन (inhalation) और एक्जहेलेशन (exhalation) होता रहता है। उसको समान करने से हमारे शरीर में अद्भुत घटनाएं घटने लगती हैं। वास्तव में देखा जाए तो ध्यान इस शब्द में ही सारी बात आ जाती है। हम बातचीत में ही कहते है कि इस कार्य को ध्यान से करना। इस का मतलब होता है इस कार्य को कॉन्शसनेस (consciousness) से करना है । जब हम ध्यान करने बैठते हैं तो हमारे मन को सचेत होना आवश्यक है। हमारा मन पूर्ण रूप से इस पर एकाग्र होना चाहिए। जब हम आँखे मूँद कर गहरी साँस ले कर विविध प्रकार के ध्यान करते हैं उसमें सबसे पहले धारणा करते हैं। उस अवस्था में हम प्रेक्षक बन जाए और बड़ी सजगता से अपनी आती-जाती साँसों को देखें। हमारी नाक के नीचे और होंठ के ऊपर किस प्रकार से संवेदन हो रहा है, उस को देखें। नाक से होती हुई साँस जब अन्दर पहुँचती है तो उसका स्पर्श कैसा होता है, गर्म होता है या ठण्डा होता है। हमारे फेफड़ों में कहाँ तक साँस पहुँच रही है, केवल ऊपरी फेफड़ों में जा रही है या भीतर तक जा रही है। खासकर जब सुबह स्नान आदि करके भगवान के सामने जाकर बैठते हैं, तब यह करना बहुत उपयोगी है। एक साँस यदि आपके फेफड़ों के तल तक पहुँच जाए तो देखिए आप कितना सुकून महसूस करते हैं। इसके पश्चात यदि हम काम को प्रारम्भ करते हैं तो वह बहुत सजगता से होता है। कोई भी काम यशस्वी करना है तो सजगता से करना चाहिए। सवेरे काम पर निकलने से पहले यदि हम अपने देवालय में बैठकर यह क्रिया करते हैं तो हमारे सब काम यशस्वी हो जाते हैं। तो कल से आप जब सुबह भगवान के सामने बैठेंगे तो सीधे बैठना। लम्बी गहरी साँस लेना, फिर प्राण को एकाग्र करना। फिर थोड़ी देर तक अपने श्वास पर ध्यान केन्द्रित करना। आप देखना कि आपके पैर के नाखून से, तलवे से, घुटने से, पेट से, हाथों से और शरीर के सभी अङ्गों से कैसी संवेदना जाग रही है। यदि खुजली भी आए तो करना मत सिर्फ देखते रहना वह अपने आप चली जाएगी। यही धारणा है। धारणा अर्थात ध्यान केन्द्रित करना। श्वास की प्रेक्षा करने के बाद विचार की प्रेक्षा करनी है। देखना है कि हमारे मन में विचार कैसे आ रहे हैं। बस देखना है किसी प्रकार के विचारों को आमन्त्रण नहीं देना है। ना ही उसकी श्रृङ्खला बनाना है, ना ही उसमें फँसते जाना है। बस आते-जाते विचारों को देखना है। न ही अवरोध है, न ही स्वागत है और न ही आमन्त्रण है। बस प्रेक्षक बन कर देखते रहना है। इस पूरी प्रक्रिया में एक विचार के जाने में और दूसरे विचार के आने के बीच में एक क्षण आता है कि जब मन में कोई विचार रहता ही नहीं। यह जो शून्य है, यही ध्यान की प्रक्रिया है। जिस क्षण मन विचारों से रहित हो जाता है, उसी क्षण मन विकारों से मुक्त हो जाता है। उस क्षण आप पाप मुक्त रहते हैं। इस विचार शून्यता के समय को लम्बा करते जाना है। आप निरन्तर अभ्यास करते रहें और फिर उस शून्य में आपको भगवान का अधिष्ठान करना है। वहाँ पर ईश्वर की प्राण प्रतिष्ठा करनी है। जब तक शून्य की प्रतीक्षा हुई, ध्यान नहीं हुआ, जैसे ही शून्य प्राप्त हुआ ध्यान शुरू हो गया। यह जो ध्यान है, यह सगुण ध्यान है इसके बारे में हमें बारहवें अध्याय में बताया गया। यह सबसे आसान कार्य है। मीराबाई ने नृत्य के साथ इस शून्य को साधा है। सूरदास जी ने इसे संगीत के माध्यम से साधा है। हम भी नृत्य और संगीत के द्वारा इस शून्य को प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु ध्यान का मार्ग सबसे आसान है। आवश्यक नहीं कि आपका इष्ट श्रीकृष्ण ही हो। आप जिस रूप की चाहें उसकी आराधना कर सकते हैं। आप राम की भी उपासना कर रहे हैं तो उनके भी अनेक रूप है, बालक राम, कोदंड धारी राम, वनवासी राम, राजाराम अनेक प्रकार से ध्यान कर सकते हैं। आप किसका ध्यान कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण नहीं, वरन् कैसे ध्यान कर रहे हैं यह महत्त्वपूर्ण है। आपको बस अपने ध्यान के समय को बढ़ाना है, जैसे-जैसे आप समय बढ़ाएँगे, आपके सुख की अनुभूति बढ़ती जाएगी।
6.28
युञ्जन्नेवं(म्) सदात्मानं(म्), योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम्, अत्यन्तं(म्) सुखमश्नुते॥28॥
सर्वभूतस्थमात्मानं(म्), सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शनः॥29॥
तू है सर्वत्र व्याप्त हरि I
भगवान का यह रूप निरन्तर देखते रहिए कि उनके पैरों में कितनी सुन्दर पायल बँधी हुई है, कि उनका पीताम्बर कितना सुन्दर है। किस प्रकार की सलवटे हैं। किस प्रकार कमर पर कमरबन्द बाँधा गया है।
यो मां(म्) पश्यति सर्वत्र, सर्वं(ञ्) च मयि पश्यति।
तस्याहं(न्) न प्रणश्यामि, स च मे न प्रणश्यति॥30॥
सन्त नामदेव महाराज जब इन्द्राणी के तट पर जाते हैं तो देखते हैं कि इतनी गर्मी में एक गधा प्यास से तड़प रहा है। दूर से लेकर आए पानी का हंडा वह उस गधे को पिला देते है। वह पूजा करने के लिए कई किलोमीटर चल कर आए थे परन्तु जब उन्होंने घड़े का पानी उसे तड़पते हुए गधे को पिला दिया। सब लोग आश्चर्य चकित हो गए कि महाराज यह क्या कर रहे हैं। भगवान के लिए लाया हुआ पानी गधे को पिला रहे है। इस पर नामदेव महाराज ने कहा कि फर्क कहाँ है, मेरा तो विट्ठल यहीं खड़ा है। उस गधे में भी उन्होंने भगवान को ही देखा। भगवान कहते हैं कि जो योगी इस राह पर चल पड़ते हैं उनके साथ इस तरीके की घटना घट जाती है।
सर्वभूतस्थितं(म्) यो मां(म्), भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि, स योगी मयि वर्तते॥31॥
आत्मौपम्येन सर्वत्र, समं(म्) पश्यति योऽर्जुन।
सुखं(म्) वा यदि वा दुःखं(म्), स योगी परमो मतः॥32॥
मन और बुद्धि का समत्त्व बहुत आवश्यक है,
सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व, नैवं(म्) पापमवाप्स्यसि॥२.३८॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2.14।।
प्रजहाति यदा कामान्, सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः(स्), स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२.५५॥
जो इस भाव को प्राप्त कर लेता है उसके लिए भीतर और बाहर मैं कोई भेद नहीं रहता। जो भीतर है वही बाहर है। जब घट को नदी में पानी से भरा जाता है तो वह अन्दर से खाली होता है और उसके बाहर ही पानी होता है। घट को पानी से भरने के बाद घट के बाहर भी पानी और अन्दर भी पानी। अन्दर का पानी कोई अलग नहीं होता है। केवल बीच में घट आ जाता है। घट के बाहर जो प्रकाश है वही प्रकाश अन्दर भी है दोनों में कोई अन्तर नहीं है। इसीलिए हमारे यहाँ जब अन्तिम संस्कार होता है तो एक घट घर से लेकर जाते हैं और शमशान में उस घट की चिता के चारों ओर तीन बार परिक्रमा करवाई जाती है उसके बाद मृत व्यक्ति का पुत्र घट को पीछे की ओर फेंकता है और घट टूट जाता है। यह सांकेतिक है कि हमारा शरीर भी एक घट के समान है। जब शरीर चला गया तो बाहर का आकाश और अन्दर का आकाश सब एक हो गया। तेरा मेरा की भावना समाप्त हो जाती है। मृत्यु के बाद तो यह हो ही जाता है परन्तु यदि यह जीते-जी हो जाए तो अद्भुत घटनाएँ घटने लगती हैं। यह सब सुनकर अर्जुन ने कहा।
अर्जुन उवाच
योऽयं(म्) योगस्त्वया प्रोक्तः(स्), साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं(न्) न पश्यामि, चञ्चलत्वात्स्थितिं(म्) स्थिराम्॥33॥
चञ्चलं(म्) हि मनः(ख्) कृष्ण, प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं(न्) निग्रहं(म्) मन्ये, वायोरिव सुदुष्करम् ॥34॥
श्रीभगवानुवाच
असंशयं(म्) महाबाहो, मनो दुर्निग्रहं(ञ्) चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते॥35॥
जीवन में ए, बी, सी, डी को सदा याद रखना चाहिए।
B से Birth और D से डेथ। इसके बीच में जो C है वह चॉइस का है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः(र्), ध्रुवं(ञ्) जन्म मृतस्य च।
जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु हो गई उसका पुन: जन्म लेना भी निश्चित है। यह निरन्तर चलते रहने वाला है और हमारे हाथ में नहीं है।
बर्थ और डेथ के बीच में हम अपने जीवन को कैसे बिताना चाहते हैं वह हमारी चॉइस है। मन को सद् विचारों में लगाना है या बुरे कामों में यह चॉइस हमारी अपनी है। यह हम तय करने वाले हैं। हमें मानव तन बड़ी कठिनाई से मिला है। यही जन्म ऐसा है जहाँ हम भक्ति कर सकते हैं। कभी-कभी हम कोई वीडियो मे देखते है कि कुत्ता या गाय या बन्दर या हाथी जाकर मन्दिर में प्रणाम करते हैं परन्तु ऐसा बहुत कम देखने में आता है। लेकिन मनुष्य यह कर सकता है। यह हमारे अपने हाथ में है कि हमें स्वर्ग की तरफ चलना है या नरक की तरफ चलना है। स्वर्ग यानी अच्छे कर्म करो और आगे अच्छा जीवन पाओ नरक यानी बुरे कर्म करो और बुरा जीवन बिताओ। ऐसा भी हो सकता है कि गुणातीत हो जाओ और पुनर्जन्म ना हो। हमें भगवान के चरणों में स्थान मिल जाए पर यह बहुत कठिनाई से होता है।
असंयतात्मना योगो, दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता, शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥36॥
अर्जुन उवाच
अयतिः(श्) श्रद्धयोपेतो, योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं(ङ्), कां(ङ्) गति(ङ्) कृष्ण गच्छति॥37॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्ट:(श्), छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो, विमूढो ब्रह्मणः(फ्) पथि॥38॥
नहीं होती है। फिर वह कौन सी गति को जाते है?
हे महाबाहो! भगवत प्राप्ति के मार्ग में मोहित होने वाला और विचलित होने वाला पुरुष छिन्न-भिन्न बादलों की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?
एतन्मे संशयं(ङ्) कृष्ण, छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः(स्) संशयस्यास्य, छेत्ता न ह्युपपद्यते॥39॥
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र, विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्, दुर्गतिं(न्) तात गच्छति॥40॥
कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान I
जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान।I
जो संसार के कल्याणकारी कार्य में लग जाता है उसकी इस लोक में और परलोक में भी कभी दुर्गति नहीं होती।
जो कभी चींटी को भी कष्ट नहीं देता, सब को समान रूप से देखता है, उसका क्या होता है इसका जवाब भगवान ने अगले श्लोक में दिया है।
प्राप्य पुण्यकृतां(म्) लोकान्, उषित्वा शाश्वतीः(स्) समाः।
शुचीनां(म्) श्रीमतां(ङ्) गेहे, योगभ्रष्टोऽभिजायते॥41॥
श्रीमद्भागवतगीतासु उपनिषत्सु
योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुन संवादे आता है।
हम भी कई बार अपने मिलनेे-जुलने वालों को बताते हैं कि गीता का नया सत्र प्रारम्भ हो रहा है, पर सभी इस में नहीं जुड़ते हैं पर आप सभी लोग इस मार्ग पर पिछलेे जन्म में चल चुके हैं, इसीलिए अब भी इसमें आपको रुचि बनी हुई है।
चौथे अध्याय में भगवान ने कहा है
बहूनि मे व्यतीतानि, जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं(व्ँ) वेद सर्वाणि, न त्वं(व्ँ) वेत्थ परन्तप॥४.५॥
हे अर्जुन मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं तू वह नहीं जानता परन्तु मैं जानता हूँ। मुझे सब याद है। पिछले जन्म की पीड़ा इस जन्म में भी साथ चलती है परन्तु यदि अन्तिम समय में पीड़ा भूल कर भगवान में ध्यान लग जाए तो फिर वह पीड़ा वहीं छूट जाती है। इससे भी उत्तम क्या होता है, यह भगवान ने अगले श्लोक में कहा है।
अथवा योगिनामेव, कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं(म्), लोके जन्म यदीदृशम्॥42॥
तत्र तं(म्) बुद्धिसंयोगं(म्), लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः(स्), संसिद्धौ कुरुनन्दन॥43॥
पूर्वाभ्यासेन तेनैव, ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य, शब्दब्रह्मातिवर्तते॥44॥
प्रयत्नाद्यतमानस्तु, योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्ध:(स्), ततो याति परां(ङ्) गतिम्॥45॥
तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन॥46॥
योगिनामपि सर्वेषां(म्), मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां(म्), स मे युक्ततमो मतः॥47॥
श्रीकृष्णार्पणमस्तु के साथ इस विवेचन सत्र का समापन हुआ।
प्रश्नोत्तर के सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता- गायत्री दीदी
प्रश्न- योगियों के घर मे योगी जन्म लेते हैं वहाँ पर विवंचना के कारण उनका ध्यान भटक सकता है क्या?
उत्तर- उनके घर में कोई अडचन नहीं हो इसके भी जिम्मेदारी भगवान लेते है। भगवान ने कहा ही है कि मैं योगक्षेम की जिम्मेदारी लेता हूँ। ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी ने आत्मसमर्पण कर दिया था किन्तु कुछ अच्छे लोगों ने ज्ञानेश्वर महाराज और उनके भाई बहनों का ख्याल रखा। वे उनको भिक्षा दे देते थे। इसलिए उन्होंने अपनी साधना पूरी की थी। उनकी जरूरत भी कम होती है । भौतिक चीज उनको परेशान नहीं करती है। इसलिए योगियों के घर में यह समस्या नहीं होती है।
प्रश्नकर्ता- स्वपन भैया
प्रश्न- प्राण और अपान, प्राणायाम की प्रक्रिया क्या है?
उत्तर- प्राण बाहर जाने वाली और अपान अन्दर आने वाली साँस को कहते है । अगर साँस के ऊपर नाम चढ़ा देते है, तो हम मंत्र उच्चारण साधना करते है। समान समय (ड्यूरेशन) में साँस को लेना है और छोडना, नाम के साथ। कुछ दिन के बाद आप सजग नही है, फिर भी यह नाम की साधना चलती रहती है। ऐसा दस बार भी करेंगे तो ऑक्सीजन की कमी नही रहेगी। यह बहुत अच्छा व्यायाम है।
प्रश्नकर्ता-विजया दीदी
प्रश्न- हम सर्वत्र समदर्शन कैसे साध सकते है? हम तो संसारी लोग है । घर में अगर चींटी और कॉकरोच होते है, तो वह घर को नुकसान पहुँचाते है, हमको उन्हें मारना पड़ता है फिर यह सर्वत्र समदर्शन कैसे हुआ? हम इसको कैसे साध सकते है?
उत्तर- कोई भी काम दोष रहित नहीं होता है। यज्ञ करते समय, रसोई करते समय कुछ ना कुछ दोष रह जाते है। भगवान ने स्वयं यह बात मानी है जो सहज कर्म है, जन्म से प्राप्त कर्म है, उसमें दोष है किन्तु उसे त्यागना नहीं है। सारी चीजों में दोष देखेंगे तो दुनिया में नहीं चला जा सकता। सभी कर्म में कुछ ना कुछ दोष है। बिना वजह किसी की हत्या ना करें बाकी आटे में चीटियाँ है तो उसे निकालना हीं पड़ेगा उसमें कोई दोष नहीं है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः॥