विवेचन सारांश
श्रद्धा-निष्ठा से दैवीय सम्पदा
सत्र गीता गीत, भजन, हनुमान चालीसा से आरम्भ हुआ। सनातन धर्म की परम्परा एवं संस्कृति को सर्वोपरि रखते हुए सबसे पहले प्रार्थना की गई। प्रार्थना अन्तर्मन से श्रीभगवान के प्रति निकली हुई पुकार है, जो हमें उनसे जोड़ती है। सर्वत्र दिव्य शान्ति, प्रेम, सकारात्मक ऊर्जा भरती है। प्रभु भक्ति में है इतनी शक्ति कि आसुरी सम्पदा नष्ट कर दे। मन के अज्ञान और अन्धकार को दूर कर सर्वत्र ज्ञान और खुुशियों के प्रकाश को बिखेरने के लिए दीप प्रज्वलन किया गया एवं सत्र का शुभारम्भ हुआ।
पिछले सत्र में हमने सोलहवें अध्याय को पूर्ण कर लिया था। बच्चों से जब पूछा गया की सोलहवें अध्याय का नाम क्या है? आश्चर्य का विषय है कि बहुत से बच्चों ने दैवासुरसम्पद्विभागयोग कहकर सही-सही उत्तर दिया। अर्थात् दैवी सम्पदाएँ और आसुरी सम्पदाएँ ये दो तरह की सम्पदाएँ श्रीभगवान ने बताई हैं।
बच्चों की परीक्षा भी ली गई। पूछा गया कि कौन देवता हैं और कौन असुर? हाथ जोड़कर बताएँगे। सभी बच्चों ने हाथ जोड़कर प्रमाणित किया कि सभी देवता हैं, असुर कैसे हाथ जोड़ सकता है!
श्रीभगवान ने सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोकों में छब्बीस दैवीय गुणों का वर्णन किया है। सभी ने मिलकर उन तीन श्लोकों को गाया। इन तीन श्लोकों के अनुसार हमने देखा कि छब्बीस दैवीय गुण हमारे भीतर होने चाहिए। सच बोलना चाहिए, किसी से लड़ना-झगडना नहीं चाहिए, अहिंसा का पालन करना चाहिए, अपने भीतर कोमलता को बनाए रखना चाहिए, दिखावा नहीं करना चाहिए आदि।
अन्त में श्रीभगवान ने एक श्लोक कहा, सोलहवें अध्याय का चौबीसवाँ श्लोक:-
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ|
इसलिए श्रीभगवान ने कहा कि, हे अर्जुन! जो शास्त्र प्रमाणित है उसको मानो। सारी बातें हमें पता नहीं होतीं अपितु शास्त्रों को सब पता होता है। शास्त्रों में जो कुछ भी लिखा गया है, बताया गया है, हमें उसको मानना चाहिए। बहुत सारे बच्चों ने तिलक लगाकर सत्र में उपस्थिति दी है। उन सभी को प्रोत्साहित करते हुए तालियाँ बजाई गईं। हमने दैवीय और आसुरी सम्पत्तियों के विषय में समझा है।
पर हम यह नहीं जानते की कौन से समय हमें क्या करना चाहिए? इसीलिए श्रीभगवान ने कहा कि जो शास्त्रों में लिखा है हमें वैसा ही करना चाहिए।
तो अर्जुन की तरह बच्चों से एक प्रश्न, यह शास्त्र क्या है? शास्त्र पढेंगे कैसे? विद्यालयों में तो शास्त्र पढ़ाए नहीं जाते। हम लोग गीताजी का अध्ययन कर रहे हैं। गीता भी एक शास्त्र है। तो इसका यह अर्थ है कि हम लोग शास्त्र पढ़ रहे हैं और हम लोग बुद्धिमान हो गए हैं। कितनी अच्छी बात है कि हम लोग विद्यालयों की पढ़ाई भी कर रहे हैं और शास्त्र की भी पढ़ाई कर रहे हैं।
श्रीभगवान ने कहा है कि:-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्ये: शास्त्र विस्तरै:।

इसका यह अर्थ हुआ कि जिसने गीताजी को पढ़ लिया, उसको किसी अन्य शास्त्र को पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि श्रीभगवान ने गीता में इतना ज्ञान दिया है कि हम गीता जी को पढ़कर शास्त्री बन जाएँगे। कोई हमें पूछ लेता है तो हम बता सकते हैं कि हम शास्त्र पढ़ रहे हैं। हमने बारहवाँ अध्याय एवं पन्द्रहवाँ अध्याय पढ़ा और समझा है। सोलहवाँ अध्याय भी हमने पढ़ा है।

एक चार्ट को साझा करते हुए संक्षेप में बताया गया कि शास्त्र क्या है? गीता सीखो के स्तर एक में एक प्रश्नोत्तरी का आयोजन किया गया था। साधकों से कई सारे प्रश्न भी किए गए थे। प्रश्न शास्त्रों से सम्बन्धित थे। भारतीय शास्त्र के कुछ मुख्य भाग हैं श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, आगम और दर्शन। मूलत: हमारे चार वेद हैं, ऋग्वेद, यजुर्वेद अथर्ववेद और सामवेद। इन वेदों में आते हैं संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्।
यदि कोई हमसे पूछे कि शास्त्र क्या है, तो एक श्लोक में हम बता सकते हैं कि शास्त्र क्या है:
अङ्गानि वेदाश्र्वत्वारो मीमांसा न्यायविस्तर:।
पुराणं धर्मर्शास्त्रं च विद्या ह्योताश्र्वतुर्दश।।
तो यह जो चतुर्दश विद्या है, यह शास्त्र कहलाती है। श्रीभगवान ने कहा है कि शास्त्र में जो कहा गया है, उसे प्रमाण मानो। श्रीभगवान से अर्जुन रोनी सी सूरत बनाकर पूछ रहे हैं, अर्थात् अर्जुन रो रहे हैं। दूसरे अध्याय में सञ्जय ने वर्णन किया है, जैसे कि आँखों में आँसू भरे हुए हैं।
तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।
अर्थात् आँखों में आँसू भरे हुए हैं। हमें जब कोई डाँट पड़ती है तो आँखों में आँसू भर जाते हैं। हमें कभी कुछ करने का भी मन नहीं होता है, डर सा लगा रहता है। पिछले सत्र में हमने देखा कि किसी को छिपकली से डर लग रहा है, तो किसी को झिङ्गुर से डर लग रहा है। वैसे ही अर्जुन को भी युद्ध करने से डर लग रहा है। छिपकली, झिङ्गुर का हमारा डर निकल गया है क्योंकि हमने गीता पढ़ ली है। अर्जुन ने सम्पूर्ण गीता नहीं सुनी है इसलिए उन्हें डर लग रहा है। बच्चे स्कूल में कई सारे विषय पढ़ते हैं, कुछ विषय विशेष भी होते हैं। अर्जुन ने भी धनुर्विद्या सीखी है। अर्जुन कुछ सन्देहों को भगवान श्रीकृष्ण से पूछ रहे हैं।
पिछले सत्र में हमने सोलहवें अध्याय को पूर्ण कर लिया था। बच्चों से जब पूछा गया की सोलहवें अध्याय का नाम क्या है? आश्चर्य का विषय है कि बहुत से बच्चों ने दैवासुरसम्पद्विभागयोग कहकर सही-सही उत्तर दिया। अर्थात् दैवी सम्पदाएँ और आसुरी सम्पदाएँ ये दो तरह की सम्पदाएँ श्रीभगवान ने बताई हैं।
बच्चों की परीक्षा भी ली गई। पूछा गया कि कौन देवता हैं और कौन असुर? हाथ जोड़कर बताएँगे। सभी बच्चों ने हाथ जोड़कर प्रमाणित किया कि सभी देवता हैं, असुर कैसे हाथ जोड़ सकता है!
श्रीभगवान ने सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोकों में छब्बीस दैवीय गुणों का वर्णन किया है। सभी ने मिलकर उन तीन श्लोकों को गाया। इन तीन श्लोकों के अनुसार हमने देखा कि छब्बीस दैवीय गुण हमारे भीतर होने चाहिए। सच बोलना चाहिए, किसी से लड़ना-झगडना नहीं चाहिए, अहिंसा का पालन करना चाहिए, अपने भीतर कोमलता को बनाए रखना चाहिए, दिखावा नहीं करना चाहिए आदि।
अन्त में श्रीभगवान ने एक श्लोक कहा, सोलहवें अध्याय का चौबीसवाँ श्लोक:-
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ|
इसलिए श्रीभगवान ने कहा कि, हे अर्जुन! जो शास्त्र प्रमाणित है उसको मानो। सारी बातें हमें पता नहीं होतीं अपितु शास्त्रों को सब पता होता है। शास्त्रों में जो कुछ भी लिखा गया है, बताया गया है, हमें उसको मानना चाहिए। बहुत सारे बच्चों ने तिलक लगाकर सत्र में उपस्थिति दी है। उन सभी को प्रोत्साहित करते हुए तालियाँ बजाई गईं। हमने दैवीय और आसुरी सम्पत्तियों के विषय में समझा है।
पर हम यह नहीं जानते की कौन से समय हमें क्या करना चाहिए? इसीलिए श्रीभगवान ने कहा कि जो शास्त्रों में लिखा है हमें वैसा ही करना चाहिए।
तो अर्जुन की तरह बच्चों से एक प्रश्न, यह शास्त्र क्या है? शास्त्र पढेंगे कैसे? विद्यालयों में तो शास्त्र पढ़ाए नहीं जाते। हम लोग गीताजी का अध्ययन कर रहे हैं। गीता भी एक शास्त्र है। तो इसका यह अर्थ है कि हम लोग शास्त्र पढ़ रहे हैं और हम लोग बुद्धिमान हो गए हैं। कितनी अच्छी बात है कि हम लोग विद्यालयों की पढ़ाई भी कर रहे हैं और शास्त्र की भी पढ़ाई कर रहे हैं।
श्रीभगवान ने कहा है कि:-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्ये: शास्त्र विस्तरै:।
इसका यह अर्थ हुआ कि जिसने गीताजी को पढ़ लिया, उसको किसी अन्य शास्त्र को पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि श्रीभगवान ने गीता में इतना ज्ञान दिया है कि हम गीता जी को पढ़कर शास्त्री बन जाएँगे। कोई हमें पूछ लेता है तो हम बता सकते हैं कि हम शास्त्र पढ़ रहे हैं। हमने बारहवाँ अध्याय एवं पन्द्रहवाँ अध्याय पढ़ा और समझा है। सोलहवाँ अध्याय भी हमने पढ़ा है।
एक चार्ट को साझा करते हुए संक्षेप में बताया गया कि शास्त्र क्या है? गीता सीखो के स्तर एक में एक प्रश्नोत्तरी का आयोजन किया गया था। साधकों से कई सारे प्रश्न भी किए गए थे। प्रश्न शास्त्रों से सम्बन्धित थे। भारतीय शास्त्र के कुछ मुख्य भाग हैं श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, आगम और दर्शन। मूलत: हमारे चार वेद हैं, ऋग्वेद, यजुर्वेद अथर्ववेद और सामवेद। इन वेदों में आते हैं संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्।
यदि कोई हमसे पूछे कि शास्त्र क्या है, तो एक श्लोक में हम बता सकते हैं कि शास्त्र क्या है:
अङ्गानि वेदाश्र्वत्वारो मीमांसा न्यायविस्तर:।
पुराणं धर्मर्शास्त्रं च विद्या ह्योताश्र्वतुर्दश।।
तो यह जो चतुर्दश विद्या है, यह शास्त्र कहलाती है। श्रीभगवान ने कहा है कि शास्त्र में जो कहा गया है, उसे प्रमाण मानो। श्रीभगवान से अर्जुन रोनी सी सूरत बनाकर पूछ रहे हैं, अर्थात् अर्जुन रो रहे हैं। दूसरे अध्याय में सञ्जय ने वर्णन किया है, जैसे कि आँखों में आँसू भरे हुए हैं।
तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।
अर्थात् आँखों में आँसू भरे हुए हैं। हमें जब कोई डाँट पड़ती है तो आँखों में आँसू भर जाते हैं। हमें कभी कुछ करने का भी मन नहीं होता है, डर सा लगा रहता है। पिछले सत्र में हमने देखा कि किसी को छिपकली से डर लग रहा है, तो किसी को झिङ्गुर से डर लग रहा है। वैसे ही अर्जुन को भी युद्ध करने से डर लग रहा है। छिपकली, झिङ्गुर का हमारा डर निकल गया है क्योंकि हमने गीता पढ़ ली है। अर्जुन ने सम्पूर्ण गीता नहीं सुनी है इसलिए उन्हें डर लग रहा है। बच्चे स्कूल में कई सारे विषय पढ़ते हैं, कुछ विषय विशेष भी होते हैं। अर्जुन ने भी धनुर्विद्या सीखी है। अर्जुन कुछ सन्देहों को भगवान श्रीकृष्ण से पूछ रहे हैं।
17.1
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य, यजन्ते श्रद्धयान्विताः|
तेषां(न्) निष्ठा तु का कृष्ण, सत्त्वमाहो रजस्तमः||17.1||
अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्र-विधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक (देवता आदि का) पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी-तामसी
विवेचन:- श्रीभगवान कह रहे हैं, लोग शास्त्रों का पालन तो करते हैं किन्तु वे उसका सही-सही पालन नहीं करते। जैसे कि हम लोग छुट्टियों का गृहकार्य तो करते हैं परन्तु अच्छे से नहीं करते हैं। कभी आधा कर लिया, या फिर कभी हस्तलेखन गन्दा कर दिया।
इसलिए अर्जुन पूछ रहे हैं कि चलो शास्त्रों को मानते तो हैं, या शिक्षक की बात मानते तो हैं लेकिन पूर्ण मन से नहीं मानते, श्रद्धा भाव से नहीं मानते। परन्तु उनके भीतर श्रद्धा है कि शिक्षक ने कहा है तो सही है, यदि उन्होंने नहीं कहा है तो सही नहीं होगा। तो ऐसे लोगों की श्रद्धा, निष्ठा कैसी होगी? क्या वे सात्त्विक कहलाएँगे, राजसी कहलाएँगे या तामसी कहलाएँगे? उनका कार्य सफल होगा या नहीं होगा? इस तरह के अर्जुन के प्रश्न हैं। क्योंकि अर्जुन ने भी शास्त्र का चार्ट देखा है लेकिन अच्छे से नहीं देखा है। एक-एक पंक्ति को उन्होंने पढ़ा नहीं है।

जब, सब कुछ पढ़ा नहीं है तो सारी बातें पता तो नहीं होंगी। इसलिए अर्जुन पूछ रहे हैं कि जो कार्य हम श्रद्धा से कर रहे हैं, तो क्या वह कार्य सफल होगा? जब शास्त्र पूर्ण रूप से हमें पता नहीं है, तो कार्य भी हम सही क्रम से नहीं कर पाएँगे। विशेष ध्यान नहीं दे पाएँगे। यहाँ श्रीभगवान हमारे लिए एक नये विषय का आरम्भ कर रहे हैं, कुछ बता रहे हैं।
हमें कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना है। या तो हमें सात्त्विक मार्ग को अपनाकर चलना है। सात्त्विक वे बच्चे हैं जिनमें अच्छे गुणों का समावेश होता है, जो सदैव जीवन में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही करते चलते हैं। राजसिक बच्चे वे हैं जिनमें बहुत ज्यादा लगाव होता है, कहीं रास्ते में ही हठ करने लगेंगे कि मुझे यह चाहिए, वह चाहिए और मानेंगे भी नहीं। अन्त में तामसिक बच्चे वे बच्चे होते हैं जो बस सोते रहते हैं और खाते रहते हैं।
सभी बच्चे एक उदाहरण से इस विषय को समझेंगे। रावण था, उसके भाई विभीषण थे, एक और भाई कुम्भकर्ण भी था। विभीषण कैसे थे? वे बहुत अच्छे थे, सदैव सदाचार का पालन करते थे। इसके विपरीत कुम्भकर्ण कैसा था? सभी बच्चे जानते हैं कि कुम्भकर्ण छह महीने निद्रावस्था में रहता था, सोता ही रहता था, बस सोता ही रहता था। बच्चों की जिज्ञासा को जगाते हुए प्रश्न किया गया कि जब कुम्भकर्ण, निद्रा से जाग जाता था तो क्या करता था? बच्चों ने सही-सही बताया कि कुम्भकर्ण जब जाग जाता था तो बस खाते ही रहता था और खाते ही रहता था। इस तरह कुम्भकर्ण तामसिक हो गया। राजसिक कौन था? तो रावण राजसिक था। रावण के पास सोने की लङ्का थी। जो पैसे के पीछे, धन के पीछे भागता रहता है और भागता रहता है वह राजसिक होता है। बच्चे भी हठ करने लग जाते हैं कि मुझे वीडियो गेम चाहिए, मुझे यह चाहिए, मुझे वह चाहिए पता नहीं और क्या कुछ। तो ऐसे बच्चे राजसिक कहलाते हैं। अगला श्लोक जो हम पढ़ेंगे उससे पता चलेगा कि कौन सात्त्विक है, कौन राजसिक और कौन तामसिक है?
बच्चे सच-सच बताएँगे कि वे किस तरह की दिनचर्या का पालन करते हैं। उठते हैं देर से और फिर बताएँगे कि हम तो सवेरे जल्दी उठ जाते हैं, चार बजे या पाँच बजे। पता करते हैं कि बच्चों में कौन रावण है, कौन विभीषण और कौन कुम्भकर्ण! तो आप में से कौन रावण है? अवश्य ही रावण तो कोई नहीं होगा यह बात पक्की है।
इसलिए अर्जुन पूछ रहे हैं कि चलो शास्त्रों को मानते तो हैं, या शिक्षक की बात मानते तो हैं लेकिन पूर्ण मन से नहीं मानते, श्रद्धा भाव से नहीं मानते। परन्तु उनके भीतर श्रद्धा है कि शिक्षक ने कहा है तो सही है, यदि उन्होंने नहीं कहा है तो सही नहीं होगा। तो ऐसे लोगों की श्रद्धा, निष्ठा कैसी होगी? क्या वे सात्त्विक कहलाएँगे, राजसी कहलाएँगे या तामसी कहलाएँगे? उनका कार्य सफल होगा या नहीं होगा? इस तरह के अर्जुन के प्रश्न हैं। क्योंकि अर्जुन ने भी शास्त्र का चार्ट देखा है लेकिन अच्छे से नहीं देखा है। एक-एक पंक्ति को उन्होंने पढ़ा नहीं है।
जब, सब कुछ पढ़ा नहीं है तो सारी बातें पता तो नहीं होंगी। इसलिए अर्जुन पूछ रहे हैं कि जो कार्य हम श्रद्धा से कर रहे हैं, तो क्या वह कार्य सफल होगा? जब शास्त्र पूर्ण रूप से हमें पता नहीं है, तो कार्य भी हम सही क्रम से नहीं कर पाएँगे। विशेष ध्यान नहीं दे पाएँगे। यहाँ श्रीभगवान हमारे लिए एक नये विषय का आरम्भ कर रहे हैं, कुछ बता रहे हैं।
हमें कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना है। या तो हमें सात्त्विक मार्ग को अपनाकर चलना है। सात्त्विक वे बच्चे हैं जिनमें अच्छे गुणों का समावेश होता है, जो सदैव जीवन में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही करते चलते हैं। राजसिक बच्चे वे हैं जिनमें बहुत ज्यादा लगाव होता है, कहीं रास्ते में ही हठ करने लगेंगे कि मुझे यह चाहिए, वह चाहिए और मानेंगे भी नहीं। अन्त में तामसिक बच्चे वे बच्चे होते हैं जो बस सोते रहते हैं और खाते रहते हैं।
सभी बच्चे एक उदाहरण से इस विषय को समझेंगे। रावण था, उसके भाई विभीषण थे, एक और भाई कुम्भकर्ण भी था। विभीषण कैसे थे? वे बहुत अच्छे थे, सदैव सदाचार का पालन करते थे। इसके विपरीत कुम्भकर्ण कैसा था? सभी बच्चे जानते हैं कि कुम्भकर्ण छह महीने निद्रावस्था में रहता था, सोता ही रहता था, बस सोता ही रहता था। बच्चों की जिज्ञासा को जगाते हुए प्रश्न किया गया कि जब कुम्भकर्ण, निद्रा से जाग जाता था तो क्या करता था? बच्चों ने सही-सही बताया कि कुम्भकर्ण जब जाग जाता था तो बस खाते ही रहता था और खाते ही रहता था। इस तरह कुम्भकर्ण तामसिक हो गया। राजसिक कौन था? तो रावण राजसिक था। रावण के पास सोने की लङ्का थी। जो पैसे के पीछे, धन के पीछे भागता रहता है और भागता रहता है वह राजसिक होता है। बच्चे भी हठ करने लग जाते हैं कि मुझे वीडियो गेम चाहिए, मुझे यह चाहिए, मुझे वह चाहिए पता नहीं और क्या कुछ। तो ऐसे बच्चे राजसिक कहलाते हैं। अगला श्लोक जो हम पढ़ेंगे उससे पता चलेगा कि कौन सात्त्विक है, कौन राजसिक और कौन तामसिक है?
बच्चे सच-सच बताएँगे कि वे किस तरह की दिनचर्या का पालन करते हैं। उठते हैं देर से और फिर बताएँगे कि हम तो सवेरे जल्दी उठ जाते हैं, चार बजे या पाँच बजे। पता करते हैं कि बच्चों में कौन रावण है, कौन विभीषण और कौन कुम्भकर्ण! तो आप में से कौन रावण है? अवश्य ही रावण तो कोई नहीं होगा यह बात पक्की है।
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा, देहिनां(म्) सा स्वभावजा|
सात्त्विकी राजसी चैव, तामसी चेति तां(म्) शृणु||17.2||
श्री भगवान बोले - मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी - ऐसे तीन तरह की ही होती है, उसको (तुम) मुझसे सुनो।
विवेचन:- श्रीभगवान कह रहे हैं, तीन प्रकार की श्रद्धा होती है सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। वही अब मैं बताने जा रहा हूँ।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य, श्रद्धा भवति भारत|
श्रद्धामयोऽयं(म्) पुरुषो, यो यच्छ्रद्धः(स्) स एव सः||17.3||
हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। (इसलिये) जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा (स्थिति) है।
विवेचन:- सबसे पहले श्रीभगवान बता रहे हैं कि किसी की श्रद्धा कैसी होती है?
वह होती है किसी के मन के अनुरूप।
किसी के मन में अच्छे-अच्छे विचार होंगे तो उसकी श्रद्धा उसी की तरह अच्छी श्रद्धा ही होगी। जिसके मन में अच्छे विचार नहीं होंगे तो उसके बाहरी विचार, कार्य भी अच्छे नहीं होंगे। किसी का बार-बार अच्छा सोचना, उसका वैसा ही सकारात्मक परिणाम निकलेगा। जो कोई गलत विचार मन में रखेगा, बाह्य रूप में उसका वैसा ही परिणाम होगा, जो कुछ भी है गलत ही होता चला जाएगा।
कोई बच्चा सवेरे उठकर यह सोचने लगेगा कि उसे अच्छा नहीं लग रहा, तो बस उसका परिणाम यही होगा कि वह दिन भर इस प्रभाव में रहेगा कि उसे अच्छा नहीं लग रहा है। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो सवेरे उठकर सकारात्मक सोच से अच्छा विचार करेंगे, सोचेंगे कि आज तो बहुत अच्छा दिन है अच्छा-अच्छा ही होगा तो निश्चय ही वह दिन भर अच्छा कार्य ही करता चला जाएगा।

तो हमें सदैव अपने भीतर सकारात्मक सोच रखनी है, सकारात्मक विचार रखने हैं। हमने यह देखा है कि बड़ा भाई अपने छोटे भाई-बहन को तंग करता रहता है। बोलता है कि तुम पागल हो, तुम गधे हो, तुम्हें कुछ आता नहीं है आदि। बार-बार ऐसे करने से छोटे भाई बहन पर वैसा ही परिणाम होगा और वह अपने आप को कमतर आँकने लगेंगे। तो हम सभी बड़े या छोटे भाई बहन एक दूसरे को अच्छे विचार, अच्छे सम्बोधन करते हैं तो सभी अच्छे ही बनेंगे। इसके विपरीत यदि हम उल्टा करते हैं तो सभी के ऊपर गलत प्रभाव होगा और हम लोग बुरे बनेंगे। भगवान आगे बता रहे हैं कि पूजा करने से किस तरह उसका प्रभाव होता हैं। किस तरह से की जाने वाले पूजा से पता चलता है कि कौन सात्त्विक है, कौन राजसिक और कौन तामसिक?
वह होती है किसी के मन के अनुरूप।
किसी के मन में अच्छे-अच्छे विचार होंगे तो उसकी श्रद्धा उसी की तरह अच्छी श्रद्धा ही होगी। जिसके मन में अच्छे विचार नहीं होंगे तो उसके बाहरी विचार, कार्य भी अच्छे नहीं होंगे। किसी का बार-बार अच्छा सोचना, उसका वैसा ही सकारात्मक परिणाम निकलेगा। जो कोई गलत विचार मन में रखेगा, बाह्य रूप में उसका वैसा ही परिणाम होगा, जो कुछ भी है गलत ही होता चला जाएगा।
कोई बच्चा सवेरे उठकर यह सोचने लगेगा कि उसे अच्छा नहीं लग रहा, तो बस उसका परिणाम यही होगा कि वह दिन भर इस प्रभाव में रहेगा कि उसे अच्छा नहीं लग रहा है। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो सवेरे उठकर सकारात्मक सोच से अच्छा विचार करेंगे, सोचेंगे कि आज तो बहुत अच्छा दिन है अच्छा-अच्छा ही होगा तो निश्चय ही वह दिन भर अच्छा कार्य ही करता चला जाएगा।
तो हमें सदैव अपने भीतर सकारात्मक सोच रखनी है, सकारात्मक विचार रखने हैं। हमने यह देखा है कि बड़ा भाई अपने छोटे भाई-बहन को तंग करता रहता है। बोलता है कि तुम पागल हो, तुम गधे हो, तुम्हें कुछ आता नहीं है आदि। बार-बार ऐसे करने से छोटे भाई बहन पर वैसा ही परिणाम होगा और वह अपने आप को कमतर आँकने लगेंगे। तो हम सभी बड़े या छोटे भाई बहन एक दूसरे को अच्छे विचार, अच्छे सम्बोधन करते हैं तो सभी अच्छे ही बनेंगे। इसके विपरीत यदि हम उल्टा करते हैं तो सभी के ऊपर गलत प्रभाव होगा और हम लोग बुरे बनेंगे। भगवान आगे बता रहे हैं कि पूजा करने से किस तरह उसका प्रभाव होता हैं। किस तरह से की जाने वाले पूजा से पता चलता है कि कौन सात्त्विक है, कौन राजसिक और कौन तामसिक?
यजन्ते सात्त्विका देवान्, यक्षरक्षांसि राजसाः|
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये, यजन्ते तामसा जनाः||17.4||
सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों का और दूसरे (जो) तामस मनुष्य हैं, (वे) प्रेतों (और) भूतगणों का पूजन करते हैं।
विवेचन:- श्रीभगवान कह रहे हैं, जो लोग देवताओं की पूजा करते हैं वे सात्त्विक हैं। सभी बच्चे भी पूजा करते होंगे, तो अभी बच्चे बताएँगे कि उनके प्रिय देवता कौन हैं? बहुत सारे बच्चों ने बताया कि उनके इष्ट, प्रिय देवता कौन हैं? किसी ने बताया गणेश, तो किसी ने कहा कृष्ण, राधा-कृष्ण, लक्ष्मी, शिव आदि। इससे यह पता चला कि सभी बच्चे पूजा करते हैं और उनके प्रिय देवता हैं, जिनकी वे पूजा करते हैं।

राजसिक भक्त, यक्ष और राक्षसों की पूजा करते हैं। बहुत सारे बच्चों ने टीवी में देखा होगा कि कुछ लोग ॐ चामुण्डाय नमः स्वाहा कहते हुए यज्ञ करते हैं। जिनकी लम्बी-लम्बी जटाएँ होती हैं। किसी भी बच्चे की लम्बी जटा नहीं है तो इसका अर्थ है कि सभी देवताओं की पूजा करते हैं। ऐसे राजसिक भक्तों को जब पूछा जाता है कि वे ऐसा क्यों करते हैं? तो बताते हैं कि उनको कुछ गलत कार्य करवाने होते हैं, कुछ सिद्धि करवानी होती है। जो अच्छे देवता हैं जैसे कि श्रीकृष्ण, श्रीराम, लक्ष्मी जी, गणेश जी, शिव जी आदि। यह सभी अच्छे देवता हैं तो ये कभी किसी का गलत करेंगे नहीं। हम इनकी चाहे जितनी भी पूजा कर लें लेकिन वे ऐसा कुछ गलत नहीं करने वाले हैं।
तामसिक प्रवृत्ति वाले लोग भूत-प्रेत की पूजा करते हैं। जो कुछ अतिरेकी होते हैं, वे इस तरह की पूजा करते हैं। ऐसे लोग किसी का बुरा करना चाहते हैं, किसी का अनिष्ट करना चाहते हैं। गलत पूजा-सिद्धि से अपना कुछ फायदा साधना चाहते हैं, ऐसे लोग इस तरह की पूजा करते हैं। किसी को ऐसा करना भी नहीं चाहिए, नहीं तो श्रीभगवान हमें नर्क का द्वार दिखा देंगे और हमारा टिकट बन जाएगा।
राजसिक भक्त, यक्ष और राक्षसों की पूजा करते हैं। बहुत सारे बच्चों ने टीवी में देखा होगा कि कुछ लोग ॐ चामुण्डाय नमः स्वाहा कहते हुए यज्ञ करते हैं। जिनकी लम्बी-लम्बी जटाएँ होती हैं। किसी भी बच्चे की लम्बी जटा नहीं है तो इसका अर्थ है कि सभी देवताओं की पूजा करते हैं। ऐसे राजसिक भक्तों को जब पूछा जाता है कि वे ऐसा क्यों करते हैं? तो बताते हैं कि उनको कुछ गलत कार्य करवाने होते हैं, कुछ सिद्धि करवानी होती है। जो अच्छे देवता हैं जैसे कि श्रीकृष्ण, श्रीराम, लक्ष्मी जी, गणेश जी, शिव जी आदि। यह सभी अच्छे देवता हैं तो ये कभी किसी का गलत करेंगे नहीं। हम इनकी चाहे जितनी भी पूजा कर लें लेकिन वे ऐसा कुछ गलत नहीं करने वाले हैं।
तामसिक प्रवृत्ति वाले लोग भूत-प्रेत की पूजा करते हैं। जो कुछ अतिरेकी होते हैं, वे इस तरह की पूजा करते हैं। ऐसे लोग किसी का बुरा करना चाहते हैं, किसी का अनिष्ट करना चाहते हैं। गलत पूजा-सिद्धि से अपना कुछ फायदा साधना चाहते हैं, ऐसे लोग इस तरह की पूजा करते हैं। किसी को ऐसा करना भी नहीं चाहिए, नहीं तो श्रीभगवान हमें नर्क का द्वार दिखा देंगे और हमारा टिकट बन जाएगा।
अशास्त्रविहितं(ङ्) घोरं(न्), तप्यन्ते ये तपो जनाः|
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः(ख्), कामरागबलान्विताः||17.5||
जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं; (जो) दम्भ और अहंकार से अच्छी तरह युक्त हैं; (जो) भोग- पदार्थ, आसक्ति और हठ से युक्त हैं; (जो) शरीर में स्थित पाँच भूतों को अर्थात् पांच भौतिक शरीर को तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को (तू) आसुर निष्ठा वाले (आसुरी सम्पदा वाले) समझ। ( 17.5-17.6)
विवेचन:- कुछ लोग बहुत ही कठिन तपस्या करते हैं। पता है वे लोग ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा वो लोग अपने मन की शान्ति के लिए नहीं करते। उनको दिखावा करना होता है, दिखाना होता है कि वे बहुत तपस्या कर रहे हैं, भक्ति कर रहे हैं। कुछ लोग मन्दिर जाते हैं तो वह भी दिखावा होता है। वे सोचते हैं कि उन्हें मन्दिर जाते हुए देखकर लोग उनकी प्रशंसा करेंगे, सोचेंगे कि देखो वह कितनी भक्ति कर रहा है, वह तो भक्ति में लिप्त है।
ये लोग जो प्रशंसा के लिए भक्ति करते हैं, यह भगवान को मान्य नहीं है। कुछ लोग तो यहाँ तक प्रदर्शन करते हैं कि कभी अपनी अङ्गुली को या कभी जीभ को काटकर रक्त को अर्पित करते हैं। श्रीभगवान यह सब कुछ नहीं चाहते, वे तो चाहते हैं कि कोई मन से श्रद्धाभाव निकाले, सच्चे मन से भक्ति करे। कुछ लोग तो भगवान के यहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ियों से घुटनों के बल चलते हैं। कोई-कोई तो श्रीभगवान के दर्शन के लिए अपने आप को जमीन पर लोटकर पहुँचते हैं। यह सब भगवान को प्रिय नहीं है। श्रीभगवान तो केवल इतना चाहते हैं कि कोई श्रद्धा भाव से, अन्तर्मन से उनकी भक्ति करे।

ये लोग जो प्रशंसा के लिए भक्ति करते हैं, यह भगवान को मान्य नहीं है। कुछ लोग तो यहाँ तक प्रदर्शन करते हैं कि कभी अपनी अङ्गुली को या कभी जीभ को काटकर रक्त को अर्पित करते हैं। श्रीभगवान यह सब कुछ नहीं चाहते, वे तो चाहते हैं कि कोई मन से श्रद्धाभाव निकाले, सच्चे मन से भक्ति करे। कुछ लोग तो भगवान के यहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ियों से घुटनों के बल चलते हैं। कोई-कोई तो श्रीभगवान के दर्शन के लिए अपने आप को जमीन पर लोटकर पहुँचते हैं। यह सब भगवान को प्रिय नहीं है। श्रीभगवान तो केवल इतना चाहते हैं कि कोई श्रद्धा भाव से, अन्तर्मन से उनकी भक्ति करे।
कर्शयन्तः(श्) शरीरस्थं(म्), भूतग्राममचेतसः|
मां(ञ्) चैवान्तः(श्) शरीरस्थं(न्), तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्||17.6||
विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं, उन लोगों को तो असुर समझना चाहिए, जो अपने शरीर को बहुत ही अधिक कष्ट देकर मेरी प्रार्थना करना चाहते हैं। जिनके सिर पर सींग होते हैं वह असुर नहीं होते हैं। हम अपने सिर पर सींग कहाँ से लाएँ? जो लोग अपने शरीर को अधिक कष्ट देते हैं, गलत कार्य करते हैं, जो कि वास्तव में श्रीभगवान को स्वीकार नहीं होता, वे असुर होते हैं। ये सभी लोग अपने शरीर के साथ में गलत नहीं कर रहे हैं। हमें शरीर किसने दिया? श्रीभगवान ने।
वे लोग भगवान के साथ ही गलत कर रहे हैं, जो भगवान नहीं चाहते।
वे लोग भगवान के साथ ही गलत कर रहे हैं, जो भगवान नहीं चाहते।
आहारस्त्वपि सर्वस्य, त्रिविधो भवति प्रियः|
यज्ञस्तपस्तथा दानं(न्), तेषां(म्) भेदमिमं(म्) शृणु||17.7||
आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप (और) दान (भी तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मों में भी गुणों को लेकर तीन प्रकार की रुचि होती है,) (तू) उनके इस भेद को सुन।
विवेचन:- अभी श्रीभगवान खाने के विषय में बता रहे हैं। बच्चों में किस-किस को खाना अच्छा लगता है? पूछने पर बच्चे तो कहेंगे, हम सभी को खाना अच्छा लगता है। बच्चों को यह सुनकर बहुत अच्छा लगा कि उनकी दीदी को भी खाना बहुत अच्छा लगता है। बच्चों को अपने स्वादिष्ट, मनपसन्द भोजन के विषय में बताने के लिए कहा जाता है। इससे यह पता चलेगा कि कौन सात्त्विक है, कौन राजसिक और कौन तामसिक?
आहार तीन तरह का है। वैसे ही यज्ञ, दान और तप भी तीन प्रकार के होते हैं। श्रीभगवान उनके भेद को सुनने के लिए कह रहे हैं।
आहार तीन तरह का है। वैसे ही यज्ञ, दान और तप भी तीन प्रकार के होते हैं। श्रीभगवान उनके भेद को सुनने के लिए कह रहे हैं।
आयुः(स्) सत्त्वबलारोग्य, सुखप्रीतिविवर्धनाः|
रस्याः(स्) स्निग्धाः(स्) स्थिरा हृद्या, आहाराः(स्) सात्त्विकप्रियाः||17.8||
आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ाने वाले, स्थिर रहने वाले, हृदय को शक्ति देने वाले, रसयुक्त (तथा) चिकने - (ऐसे) आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं।
विवेचन:- यहाँ श्रीभगवान बता रहे हैं कि सात्त्विक व्यक्तियों को क्या पसन्द होता है? ऐसा भोजन जिसे खाकर हम बीमार न पड़ें और हमारी आयु बढ़े। हम घर में बना हुआ जो भोजन खाते हैं, वह खाकर हम कभी बीमार नहीं पड़ते हैं। इस प्रकार हमारी आयु बढ़ती है, हमारा सत्त्व बढ़ता है। हमारा बल बढ़ता है, हम निरोगी बनते हैं और सुख-प्रीति बढ़ती है। हमारा भोजन रसयुक्त हो, जैसे फल आदि। स्निग्ध जैसे घी, मक्खन आदि जो लम्बे समय तक हमारे शरीर में रहने वाले पदार्थ। सभी डेयरी उत्पाद आदि खाने चाहिये। जैसे हमारे दादा जी तथा दादी जी कहते हैं कि हमने बचपन में बहुत घी खाया है, इसलिए हमारी आँखें अभी भी ठीक हैं। देखो तो तुम्हें चश्मा लग गया। इस प्रकार का भोजन सात्त्विक व्यक्ति पसन्द करते हैं।
कट्वम्ललवणात्युष्ण, तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः|
आहारा राजसस्येष्टा, दुःखशोकामयप्रदाः||17.9||
अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे और अति दाह कारक आहार अर्थात् भोजन के पदार्थ राजस मनुष्य को प्रिय होते हैं, (जो कि) दुःख, शोक और रोगों को देने वाले हैं।
विवेचन:- यहाँ सबसे पहले श्रीभगवान ने कहा है कटु, अम्ल, लवण और अति ऊष्ण। यहाँ अति शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि हम ये सारी चीज़ें खा सकते हैं। किन्तु अति अर्थात् हम यदि बहुत अधिक खाएँगे तो समस्या होगी। हमें बहुत तीखे पदार्थ अधिक पसन्द होते हैं, जैसे मोमोज, सिजलर्स आदि जिन्हें खाते-खाते हमारी आँखें लाल हो जाती हैं। ऐसा लगने लगता है जैसे कि कान से धुआँ निकलने लगा हो। फिर भी हम खाते रहते हैं। यह सब खाने वाले पदार्थ राजसिक होते हैं। यह सब अधिक खाने से हम और अधिक राजसिक बनते जाएँगे। ऐसे पदार्थ खाने वाले बहुत अधिक दु:खी रहते हैं और उन्हें शोक भी होता है।
इसका अर्थ है कि जब आपको कड़वा लगेगा तो आपको दर्द होगा। आप बीमार भी हो जाएँगे। बीमार होना किसी को अच्छा नहीं लगता है। राजसिक भोजन खाने से हमें बूढ़े होने पर किडनी या लीवर में समस्या हो जाती है या और कोई बीमारी भी हो सकती है। आज-कल हम सब बर्गर बहुत खाते हैं। बर्गर में बहुत सारा मैदा, थोड़ी सी सब्जियाँ और थोड़ी सी चटनी होती है। एक प्रकार से यह गरीबों वाला भोजन है क्योंकि इसमें सब्जियाँ बहुत कम हैं। ऐसा भोजन खाने से हमारा शरीर भी गरीब बनता जाएगा। इसलिए अगर हमें शरीर से धनवान बनना है तो ये सारी चीज़ें त्यागनी होंगी।
अब देखते हैं तामसिक कौन-कौन हैं?
इसका अर्थ है कि जब आपको कड़वा लगेगा तो आपको दर्द होगा। आप बीमार भी हो जाएँगे। बीमार होना किसी को अच्छा नहीं लगता है। राजसिक भोजन खाने से हमें बूढ़े होने पर किडनी या लीवर में समस्या हो जाती है या और कोई बीमारी भी हो सकती है। आज-कल हम सब बर्गर बहुत खाते हैं। बर्गर में बहुत सारा मैदा, थोड़ी सी सब्जियाँ और थोड़ी सी चटनी होती है। एक प्रकार से यह गरीबों वाला भोजन है क्योंकि इसमें सब्जियाँ बहुत कम हैं। ऐसा भोजन खाने से हमारा शरीर भी गरीब बनता जाएगा। इसलिए अगर हमें शरीर से धनवान बनना है तो ये सारी चीज़ें त्यागनी होंगी।
अब देखते हैं तामसिक कौन-कौन हैं?
यातयामं(ङ्) गतरसं(म्), पूति पर्युषितं(ञ्) च यत्|
उच्छिष्टमपि चामेध्यं(म्), भोजनं(न्) तामसप्रियम्||17.10||
जो भोजन सड़ा हुआ, रस रहित, दुर्गन्धित, बासी और जूठा है तथा (जो) महान अपवित्र (मांस आदि) भी है, (वह) तामस मनुष्य को प्रिय होता है।
विवेचन:- भोजन पकाने के तीन घण्टे बीतने के बाद अगर हम उस भोजन को खाएँगे तो वह तामसिक हो जायेगा। श्रीभगवान हमें अप्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं कि वह भोजन बासी हो जायेगा। कल का फ्रीजर में रखा हुआ भोजन आज खाते हैं तो वह तामसिक हो जाता है। उसका रस उड़ जाता है। बर्गर का बन बहुत दिन पहले का बना हुआ होता है, फिर उसका बर्गर बनता है और फिर हम उसे खाते हैं तो वह तामसिक हो जाता है। बहुत तीव्र गन्ध वाले भोजन भी तामसिक होते हैं। अक्सर हम किसी का जूठा भोजन खा लेते हैं। केक काटते हैं, तब उसका एक टुकड़ा लेकर सबको उसी में से खिलाते हैं। अब अगर एक व्यक्ति को कोई समस्या है तो वह दूसरे व्यक्ति के अन्दर भी जायेगी।
इस प्रकार का भोजन भी तामसिक माना जाता है। इसलिए यदि हमें सात्त्विक बनना है तो जैसा भोजन प्रथम श्लोक में बताया गया है, वैसा भोजन खाना चाहिए।
सात्त्विक बनने का लाभ यह है कि एक तो हम बीमार नहीं पड़ेंगे, दूसरे हम शक्तिशाली बन कर कुछ बड़ा कार्य कर सकते हैं। ओलम्पिक में मेडल लाने वाले खिलाड़ी बहुत सात्त्विक भोजन करते हैं। हमें बीमारियों से दूर रहना है, कक्षा में प्रथम आना है या कोई भी लक्ष्य प्राप्त करना है, सबके लिये स्वस्थ होना आवश्यक है। कहते हैं न, health is wealth। दूसरा लाभ है सात्त्विक मस्तिष्क में ज्ञान भी शीघ्र प्रवेश करता है। अगर आपका मन शुद्ध और सात्त्विक है, तो आप ज्यादा अच्छी तरह से क्लास में पढ़ पायेंगे, आप श्लोक याद कर पायेंगे।
इस प्रकार का भोजन भी तामसिक माना जाता है। इसलिए यदि हमें सात्त्विक बनना है तो जैसा भोजन प्रथम श्लोक में बताया गया है, वैसा भोजन खाना चाहिए।
सात्त्विक बनने का लाभ यह है कि एक तो हम बीमार नहीं पड़ेंगे, दूसरे हम शक्तिशाली बन कर कुछ बड़ा कार्य कर सकते हैं। ओलम्पिक में मेडल लाने वाले खिलाड़ी बहुत सात्त्विक भोजन करते हैं। हमें बीमारियों से दूर रहना है, कक्षा में प्रथम आना है या कोई भी लक्ष्य प्राप्त करना है, सबके लिये स्वस्थ होना आवश्यक है। कहते हैं न, health is wealth। दूसरा लाभ है सात्त्विक मस्तिष्क में ज्ञान भी शीघ्र प्रवेश करता है। अगर आपका मन शुद्ध और सात्त्विक है, तो आप ज्यादा अच्छी तरह से क्लास में पढ़ पायेंगे, आप श्लोक याद कर पायेंगे।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो, विधिदृष्टो य इज्यते|
यष्टव्यमेवेति मनः(स्), समाधाय स सात्त्विकः||17.11||
यज्ञ करना ही कर्तव्य है - इस तरह मन को समाधान (संतुष्ट) करके फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो शास्त्रविधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है।
विवेचन:- यहाँ श्रीभगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति शास्त्रों में बतायी गयी विधि के अनुसार यज्ञ आदि करते हैं, वह सात्त्विक होते हैं।
अभिसन्धाय तु फलं(न्), दम्भार्थमपि चैव यत्|
इज्यते भरतश्रेष्ठ, तं(म्) यज्ञं(म्) विद्धि राजसम्||17.12||
परन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! जो यज्ञ फल की इच्छा को लेकर अथवा दम्भ (दिखावटीपन) के लिये भी (किया जाता है), उस यज्ञ को (तुम) राजस समझो।
विवेचन:- कुछ व्यक्ति कार्य करने से पहले फल के विषय में सोचते हैं। हमें इस कार्य का यह फल मिल जायेगा आदि। उन्हें हर कार्य के बदले में कुछ चाहिये। वह सोचते हैं कि मैं यह करूँगा तो मुझे बदले में क्या मिलेगा? अगर माँ ने कहा कि जाओ बाज़ार से यह सामान लेकर आओ तो पूछते हैं कि बदले में मुझे क्या मिलेगा? कुछ बच्चे तो कहते हैं कि इस बार मेरे नब्बे प्रतिशत अङ्क आ गये तो मुझे नया वाला वीडियो गेम चाहिये। सोचिए पढ़ाई आप कर रहे हैं। परिणाम आपका अच्छा होगा। आपको अपने माता-पिता को धन्यवाद बोलना चाहिये, लेकिन आपको उनसे उपहार चाहिये। श्रीभगवान कहते हैं कि यह सारी आदतें राजसिक आदतें होती हैं। इसके विपरीत अगर हमारे माता-पिता ने हमें कुछ दिया और हमने उन्हें धन्यवाद बोला तो हम सात्त्विक हो जायेंगे।
हमें भी अपने माता-पिता को प्रातःकाल उठ कर प्रणाम करना चाहिये। इसका अर्थ होगा कि हम उन्हें धन्यवाद बोल रहे हैं। सत्र को संवादत्मक और रोचक बनाने के लिये बच्चों से कहा गया कि वे अगले सप्ताह बताएँगे कि कौन-कौन प्रतिदिन सुबह उठकर अपने माता-पिता को प्रणाम करता है?
हमें भी अपने माता-पिता को प्रातःकाल उठ कर प्रणाम करना चाहिये। इसका अर्थ होगा कि हम उन्हें धन्यवाद बोल रहे हैं। सत्र को संवादत्मक और रोचक बनाने के लिये बच्चों से कहा गया कि वे अगले सप्ताह बताएँगे कि कौन-कौन प्रतिदिन सुबह उठकर अपने माता-पिता को प्रणाम करता है?
विधिहीनमसृष्टान्नं(म्), मन्त्रहीनमदक्षिणम्|
श्रद्धाविरहितं(म्) यज्ञं(न्), तामसं(म्) परिचक्षते||17.13||
शास्त्र विधि से हीन, अन्न-दान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के (और) बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।
विवेचन:- जो व्यक्ति वेदों में लिखी गयी विधि को न मानकर केवल यज्ञ करते हैं, क्योंकि उन्हें दूसरों को दिखावा करना है कि हमारे पास बहुत धन है, हम यज्ञ करवा रहे हैं, हम तो बहुत धार्मिक हैं आदि। इस प्रकार के व्यक्ति तामसिक कहलाते हैं। केवल दिखावा करने के कारण वह मन्त्रहीन कहलाते हैं। मन्त्र के बिना किया गया यज्ञ तो यज्ञ होता ही नहीं है।
अनेक बार ऐसा होता है कि किसी ने पण्डितजी से कहा कि यज्ञ करवा दीजिये, आपको मैं पाँच हज़ार रुपये दूँगा, लेकिन जब यज्ञ हो जाता है तो उनसे कहते हैं कि आपने यज्ञ ठीक से नहीं किया तो मैं आपको आधे रुपये ही दूँगा। इसे अदक्षिणम अर्थात् दक्षिणा के बिना किया गया यज्ञ कहते हैं। हमें शास्त्रों मे विश्वास होना चाहिये और उसी के अनुसार यज्ञ करवाना चाहिये।
इसी के साथ आज का सत्र पूर्ण हुआ।
इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता:- जीविका दीदी
प्रश्न:- माँस किस प्रकार के भोजन में आता है?
उत्तर:- श्लोक के अनुसार इसमें तीव्र गन्ध भी होती है और किसी को दुःख भी पहुँचता है इसलिए यह तामसिक भोजन के अन्तर्गत आता है।
प्रश्नकर्ता:- मधुश्री दीदी
प्रश्न:- धर्म क्या होता है?
उत्तर:- धर्म को अनेक प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। सरल रूप में जो सही है, जिससे किसी को दुःख न पहुँचे, सोलहवें अध्याय में जो दैवीय गुण बताए गए हैं, उनका अनुसरण करना ही धर्म है।
प्रश्नकर्ता:- तक्ष भैया
प्रश्न:- क्या सात्त्विक लोगों के कोई स्वप्न नहीं होते हैं?
उत्तर:- सात्त्विक लोगों के स्वप्न सभी के कल्याण के लिए होते हैं। जैसे स्वामी जी ने गीता परिवार प्रारम्भ किया ताकि सभी भगवद्गीता पढ़ पाएं और सबका कल्याण हो। राजसिक लोगों के स्वप्न स्वयं के लिए होते हैं। जैसे मैं धनवान हो जाऊँ।
प्रश्नकर्ता:- शिवि दीदी
प्रश्न:- दिखाए गए चार्ट में नीचे जो श्लोक लिखा था, उसका क्या अर्थ है?
उत्तर:- श्लोक इस प्रकार से है-
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।
अर्थात् छ: वेदाङ्ग होते हैं, जिन्हें अङ्ग कहा गया है-
1) शिक्षा
2) व्याकरण
3) छन्द
4) निरुक
5) ज्योतिष
6) कल्प
वेद चार होते हैं। मीमांसा और न्याय शास्त्र हैं। अट्ठारह महापुराण, अट्ठारह उपपुराण, अन्य उपपुराण हैं। धर्म शास्त्र याज्ञवल्क्य आदि स्मृति हैं। इस प्रकार चौदह प्रकार की विद्या शास्त्र है।
अनेक बार ऐसा होता है कि किसी ने पण्डितजी से कहा कि यज्ञ करवा दीजिये, आपको मैं पाँच हज़ार रुपये दूँगा, लेकिन जब यज्ञ हो जाता है तो उनसे कहते हैं कि आपने यज्ञ ठीक से नहीं किया तो मैं आपको आधे रुपये ही दूँगा। इसे अदक्षिणम अर्थात् दक्षिणा के बिना किया गया यज्ञ कहते हैं। हमें शास्त्रों मे विश्वास होना चाहिये और उसी के अनुसार यज्ञ करवाना चाहिये।
इसी के साथ आज का सत्र पूर्ण हुआ।
इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता:- जीविका दीदी
प्रश्न:- माँस किस प्रकार के भोजन में आता है?
उत्तर:- श्लोक के अनुसार इसमें तीव्र गन्ध भी होती है और किसी को दुःख भी पहुँचता है इसलिए यह तामसिक भोजन के अन्तर्गत आता है।
प्रश्नकर्ता:- मधुश्री दीदी
प्रश्न:- धर्म क्या होता है?
उत्तर:- धर्म को अनेक प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। सरल रूप में जो सही है, जिससे किसी को दुःख न पहुँचे, सोलहवें अध्याय में जो दैवीय गुण बताए गए हैं, उनका अनुसरण करना ही धर्म है।
प्रश्नकर्ता:- तक्ष भैया
प्रश्न:- क्या सात्त्विक लोगों के कोई स्वप्न नहीं होते हैं?
उत्तर:- सात्त्विक लोगों के स्वप्न सभी के कल्याण के लिए होते हैं। जैसे स्वामी जी ने गीता परिवार प्रारम्भ किया ताकि सभी भगवद्गीता पढ़ पाएं और सबका कल्याण हो। राजसिक लोगों के स्वप्न स्वयं के लिए होते हैं। जैसे मैं धनवान हो जाऊँ।
प्रश्नकर्ता:- शिवि दीदी
प्रश्न:- दिखाए गए चार्ट में नीचे जो श्लोक लिखा था, उसका क्या अर्थ है?
उत्तर:- श्लोक इस प्रकार से है-
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।
अर्थात् छ: वेदाङ्ग होते हैं, जिन्हें अङ्ग कहा गया है-
1) शिक्षा
2) व्याकरण
3) छन्द
4) निरुक
5) ज्योतिष
6) कल्प
वेद चार होते हैं। मीमांसा और न्याय शास्त्र हैं। अट्ठारह महापुराण, अट्ठारह उपपुराण, अन्य उपपुराण हैं। धर्म शास्त्र याज्ञवल्क्य आदि स्मृति हैं। इस प्रकार चौदह प्रकार की विद्या शास्त्र है।
।।ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।