विवेचन सारांश
यज्ञ, दान और तप का महत्त्व
श्रीभगवान जिन्होंने जीवन की रक्षा करने वाला वास्तविक रक्षा सूत्र पिरोया है, उनके मुखारविन्द से श्रीमद्भगवद्गीता नामक रक्षा सूत्र अर्जुन के माध्यम से हम सभी को प्राप्त हुआ है। कुरुक्षेत्र की पावन धरती पर अनुपमेय सात सौ श्लोक जीवों के कल्याण के लिए प्रवाहित किये हैं और हम उन्हें बटोर रहे हैं।
यह अध्याय स्वयं की ओर झाँकने का अध्याय है। इसके माध्यम से हमें अपने जीवन को गुणों से मण्डित करने तथा दुर्गुणों को दूर करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। श्रीभगवान इसका सुन्दर पाथेय हमें प्रदान करते हैं और पूज्य गुरुदेव अपनी मधुर वाणी से इसका विश्लेषण हम तक पहुँचाते हैं।
गुरुने दिला ज्ञानरूपी वसा
आम्ही चालवू हा पुढे वारसा
गुरु से मिला प्रसाद बाँट कर ही खाया जाता है। इसी भावना से इस अध्याय को आगे देखेंगे।
अपने जीवन के उन्नयन हेतु श्रीभगवान् ने चार बातें कहीं। पहला है आहार, फिर यज्ञ, तप और दान। आहार शरीर, मन इन्द्रियों की शुद्धि के लिए सात्विक हो। इस अध्याय में भगवान सात्त्विक, राजसिक और तामसिक आहार का विश्लेषण करते हैं।
हम जीवन केवल शारीरिक स्तर पर ही नहीं, मानसिक, बौद्धिक, इन्द्रिय स्तर पर भी जीते हैं। आत्म तत्त्व के स्तर पर हम पहुँचना चाहते हैं परन्तु अभी यह ढ़का हुआ है।
यज्ञ, जो समर्पण की भावना से किया जाता है, वह सात्त्विक यज्ञ है।
हम ईगो सेंट्रिक से जिओ सेंट्रिक फिर कॉस्मो सेंट्रिक अर्थात परमात्मा से एकाकार होकर जीवन जीना प्रारम्भ करें यही बात श्रीभगवान कहते हैं।
सृष्टि के साथ तादात्म्य न होने के कारण तथा मैं तथा मेरे देश का उन्नयन हो इस भावना के चलते आज के समय में कई देशों में आपस में युद्ध हो रहा है। प्रकृति के शोषण करते हुए जीवन जीने की भावना के कारण ही मनुष्य सृष्टि को विनाश की ओर ले जाता है।
हमारे प्रधानमन्त्री जी ने लाल किले से अपने भाषण में कहा कि हमारे एक हजार वर्षों के इतिहास में सनातन धर्म के सारे सिद्धान्तों में किसी का अहित करके, स्वयं का हित करने की भावना कहीं पर भी नहीं है। हमारा यह ग्रन्थ भी सबके हित की भावना की ओर ले जाता है।
यज्ञ वह होता है जिसमें सभी अपनी क्षमता के अनुसार अपनी आहुति प्रदान करते हैं। यह सम्मिलित रूप से किया जाता है। कोई विवेचन कर रहा है, कोई सञ्चालन कर रहा है, आई टी टीम मिलकर सारे कार्य का संयोजन कर रही है, कोई अनुवाद कर रहा है, सात-आठ हज़ार लोग इसमें अपनी आहुति प्रदान कर रहे हैं, इसे कहते हैं यज्ञ। जब यह यज्ञ कोई प्रतिफल की आकाँक्षा के बिना किया जाए तो इसे सात्त्विक यज्ञ कहते हैं।
17.11
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो, विधिदृष्टो य इज्यते|
यष्टव्यमेवेति मनः(स्), समाधाय स सात्त्विकः||17.11||
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं:
ज्ञानेश्वर जी महाराज कहते हैं, यदि स्वधर्म का पालन बिना किसी प्रतिफल के किया जाए तब वह सात्विक यज्ञ है। किसी ने मेरे लिए किया इसीलिए मैं भी आगे यही कार्य कर रहा हूँ, मेरे माता-पिता ने मेरा पालन किया इसीलिए मैं भी यही कार्य कर रही हूँ, तेरा तुझको अर्पण की भावना से किया कार्य ही यज्ञ है।
चार प्रकार के ऋण हम पर होते है। ऋषि ऋण, पितृ ऋण, देवताओं का ऋण और समाज का ऋण। इनसे उऋण होने के लिए हमें भाँति-भाँति के कार्य करने चाहिए। जैसे, पेड़ लगाना, पंछियों को दाना खिलाना, गौ ग्रास देना। पर ये यज्ञ सिर्फ अपनी अन्तर्रात्मा को ही पता होने चाहिएं।
महाभारत में एक प्रसङ्ग है। इन्द्रप्रस्थ के निर्माण के पश्चात जब पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया तब झूठे भोजन के स्थान पर एक नेवला आकर लोटने लगा। उसके बाद हँसने लगा। पाण्डवों के पूछने पर उसने बताया कि पुरानी बात है, औ एक बार एक ब्राह्मण और उनके परिवार को सात दिनों तक भोजन नहीं मिला। एक दिन ब्राह्मण को थोड़ा सत्तू कहीं से मिला जिसे उन्होंने पकाने हेतु अपनी भार्या को दे दिया। जब भोजन बनकर तैयार हुआ तभी वहाँ एक व्यक्ति आकर भोजन माॅंगने लगा। ब्राह्मण ने अपना भोजन उसे दिया। उसके और माॅंगने पर ब्राह्मण ने क्रमशः अपनी पत्नी और अपने परिवार का भोजन भी उसे खिला दिया और स्वयं भूखे ही सो गए। मैं भी भूखा था सो वहाँ पड़े हुए कुछ अन्नकण पर लोटने लगा जिससे मेरा आधा शरीर सोने का हो गया क्योंकि वहाॅं पड़े अन्न के कण यज्ञ के शेष कण थे। अब बाकी शरीर भी सोने का हो जाए इसी आशा केे साथ यहाॅं लोट रहा था परन्तु स्वार्थ हेतु किया गया यज्ञ सात्विक यज्ञ नहीं होता। ब्राह्मण का वह यज्ञ इस राजसूय यज्ञ से बड़ा था। बिना किसी फल की इच्छा के किया गया, छोटे से छोटा यज्ञ भी राजसूय यज्ञ से बड़ा होता है।
अभिसन्धाय तु फलं(न्), दम्भार्थमपि चैव यत्|
इज्यते भरतश्रेष्ठ, तं(म्) यज्ञं(म्) विद्धि राजसम्||17.12||
प्रसिद्धि की आकाँक्षा से राजा को भोजन के लिए निमन्त्रण देना राजसी यज्ञ है।
ज्ञानेश्वर महाराज जी सात्विक यज्ञ और राजसी यज्ञ के बारे में कहते हैं कि:
"तिहीं फळवांच्छात्यागीं, स्वधर्मावांचूनि विरागीं,
किसी भी फल की इच्छा का त्याग करके किया जाने वला यज्ञ सात्त्विक यज्ञ होता है।
"ऐसी केवळ फळालागीं, महत्त्व फोकारावया जगीं,
"जरी राजा घरासि ये, तरी बहुत उपेगा जाये,
श्राद्ध रूपी यज्ञ करते हुए राजा को अपने घर बुलाना जिससे अपनी भी प्रसिद्धि हो, ऐसे फल की इच्छा से किया जाने वाला यज्ञ राजसी यज्ञ होता है।
विधिहीनमसृष्टान्नं(म्), मन्त्रहीनमदक्षिणम्|
श्रद्धाविरहितं(म्) यज्ञं(न्), तामसं(म्) परिचक्षते||17.13||
देवद्विजगुरुप्राज्ञ, पूजनं(म्) शौचमार्जवम्|
ब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं(न्) तप उच्यते||17.14||
श्रीमद्भगवद्गीता हमें मानसिक सम्बल प्रदान करती है। ओलिम्पिक में मनु भाकर ने बताया कि वह गीता जी का अध्ययन करती है। इसीलिए वह सिर्फ अपना कर्त्तव्य करती है। उसका फल उसे क्या मिलेगा इसकी आशा वह नहीं करती। इसीलिए ऐसा तप करने से हमारी आन्तरिक शक्ति बढ़ती है और हम जीवन के द्वन्द सहन करने की शक्ति पाते हैं।
माता पिता की सेवा करना भी तप ही है।
जिन मात पिता की सेवा की, उन तीर्थ स्नान कियो न कियो
जिनके हृदय राम बसे उन और कोई नाम लियो न लियो।
दूसरा तप वाणी का तप है। गीता जी का विवेचन श्रवण भी तप ही है क्योंकि इसके श्रवण, कण्ठस्थीकरण से हम शरीर को कष्ट भी दे रहे हैं।
अनुद्वेगकरं(म्) वाक्यं(म्), सत्यं(म्) प्रियहितं(ञ्) च यत्|
स्वाध्यायाभ्यसनं(ञ्) चैव, वाङ्मयं(न्) तप उच्यते||17.15||
विवेचन:- वाणी पर संयम वाणी का तप है। हमारे सारे महानुभाव वाणी से अमृतमयी धारा बहने वाला कर्म करते हैं। उद्वेग न करने वाला वाक्य वाणी से निकलता जाए। चाहे किसी ने हमें उद्वेग देने वाला वाक्य कहा, सौम्यता से हम उस तक प्रतिक्रिया न देते हुए अपनी बात पहुँचा सकें। इसलिए कहते हैं, प्रिय हित। प्रिय और हितकारक।
भगवान कहते हैं, प्रिय हो, हितकारक भी हो, लेकिन सत्य हो।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् ,
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:।
किसी को बुरा लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिये और प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए। ऐसा हमारे सनातन धर्म में कहा गया है।
अध्ययन, वाचन और स्वाध्याय- लौकिक विद्याओं का अध्ययन याद रखकर परीक्षा देने के लिए किया जाता है। मन के उन्नयन के लिए जो किया जाता है वह स्वाध्याय है। इसे वाङ्गमयी यज्ञ कहा गया।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आप खोय
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।
वाणी से ऐसा रस बहे कि अपने मन के साथ-साथ दूसरे का मन भी शान्त हो जाये।
वाणी से हमारे संस्कार का परिचय होता है।
ज्ञानेश्वर महाराज जी ने भी कहा है:
"तैसें साच आणि मवाळ, मितले आणि
एक राजा जङ्गल में मृगया के लिए अपने सैनिकों के साथ गया। वहाँ सब जङ्गल में बिछड़ गए। वहीं एक नेत्रहीन साधु तपस्या कर रहे थे। एक सैनिक ने उनसे पूछा, ए तुमने किसी को यहाँ से जाते देखा है। साधु ने कहा नहीं।
मनः(फ्) प्रसादः(स्) सौम्यत्वं(म्), मौनमात्मविनिग्रहः|
भावसंशुद्धिरित्येतत्, तपो मानसमुच्यते||17.16||
ज्ञानेश्वर महाराज के पिता जी ने संन्यास के बाद भी उन्हें गृहस्थ में लगा दिया जिससे रुष्ट होकर तपस्वी संघ ने उन्हें निष्कासित कर दिया। फिर भी सम्पूर्ण ज्ञानेश्वरी में प्रतिशोध का एक भी शब्द नहीं है। ज्ञानेश्वरी अमृतमयी वाणी है। समाज के द्वारा किया गया इस आचरण के विष को उन्होंने नीलकण्ठ में धारण ही नहीं किया, उसे अमृत में परिवर्तित भी कर दिया।
श्रद्धया परया तप्तं(न्), तपस्तत्त्रिविधं(न्) नरैः|
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः(स्), सात्त्विकं(म्) परिचक्षते||17.17||
सत्कारमानपूजार्थं(न्), तपो दम्भेन चैव यत्|
क्रियते तदिह प्रोक्तं(म्), राजसं(ञ्) चलमध्रुवम्||17.18||
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि:
"तैसा स्वरूपाचिया प्रसरा, लागीं प्राणेंद्रियशरीरां,
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि अपने स्वरुप की प्राप्ति, आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए शरीर, मन और वाणी को लगाना भी तप ही है। परन्तु इसमें भी प्रतिफल की भावना सम्मिलित नहीं होनी चाहिए। प्रतिफल की भावना आ गयी तो वह राजसी तप बन जायेगा।
मूढग्राहेणात्मनो यत्, पीडया क्रियते तपः|
परस्योत्सादनार्थं(म्) वा, तत्तामसमुदाहृतम्||17.19||
दातव्यमिति यद्दानं(न्), दीयतेऽनुपकारिणे|
देशे काले च पात्रे च, तद्दानं(म्) सात्त्विकं(म्) स्मृतम्||17.20||
गृहस्थ जीवन हमारा प्रदान काल होता है जिसमें जो हमने लिए है उसे लौटाना ही सात्विक दान है। दान धन का ही नहीं, समय का, श्रम का, विद्या का, उपकार की भावना से नहीं, मैंने लिया इसीलिए लौटा रहा हूॅं, इस भावना से दिया गया दान श्रेष्ठ है। जीवन की, धन की शुद्धि के लिए दान आवश्यक है। दान देना किस तरह से चाहिए इसके सम्बन्ध में हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि:
अर्थात ऐसा दान करना कैसे सीखे हो कि जितना अधिक दान करते हो उतने अधिक विनम्र दिखाई देते हो।
तो इसका उत्तर है:
देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
क्योंकि देने वाला कोई और है जो दिन-रात दे रहा है परन्तु लोगों को ऐसा भ्रम है कि मैं दे रहा हूॅं इसीलिए मैंने अपनी ऑंखें झुका ली हैं।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं(म्), फलमुद्दिश्य वा पुनः|
दीयते च परिक्लिष्टं(न्), तद्दानं(म्) राजसं(म्) स्मृतम्||17.21||
अदेशकाले यद्दानम्, अपात्रेभ्यश्च दीयते|
असत्कृतमवज्ञातं(न्), तत्तामसमुदाहृतम्||17.22||
जब ब्रह्मा जी के पास मनुष्य, दानव और देवता सभी गए और उनसे कोई उपदेश देने को कहा। तब ब्रह्मा जी ने 'द' अक्षर दिया। देवताओं के लिए द से दमन करना, बहुत ज्यादा अपनी इन्द्रियों की भोगों में संलग्नता का दमन करना।
राक्षसों के लिए द से दया करना। बहुत बल है तुम्हारे पास, लोगों को कष्ट पहुँचाते हो, दया करो।
मानवों के लिए द से दान करो।
ॐ तत्सदिति निर्देशो, ब्रह्मणस्त्रिविधः(स्) स्मृतः|
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च, यज्ञाश्च विहिताः(फ्) पुरा||17.23||
तत् यह उस सच्चिदानन्द भगवान का निर्देश रुपी नाम है और जिसका ये नाम है उसी से वेद और यज्ञ निर्माण हो गए। परमात्मा का यह नाम कोई भी अपूर्णता को पूर्ण कर देता है। इसीलिए पूजा उपरान्त बारह बार विष्णु भगवान का नाम लिया जाता है।
ज्ञानेश्वर महाराज भी इसे सर्वोत्तम मन्त्र बताते हैं।
गीता जी में हम जब पुष्पिका पढ़ते हैं तो उसमें भी पढ़ते हैं:
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु...
कुछ अशुद्धि भी रह गयी तो वह भी शुद्ध हो जाये। जो भी ब्रह्मवादी हैं, उसका स्वरुप पाना चाहते हैं, उन्हें इसका प्रयोग करना चाहिए।
तस्मादोमित्युदाहृत्य, यज्ञदानतपः(ख्) क्रियाः|
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः(स्), सततं(म्) ब्रह्मवादिनाम्||17.24||
ज्ञानेश्ववर महाराज जी कहते हैं कि:
ओमकारा ने आरम्भले
किसी भी कार्य के आरम्भ में और समापन में ॐ के उच्चारण से कार्य शुद्ध हो जाता है।
तदित्यनभिसन्धाय, फलं(म्) यज्ञतपः(ख्) क्रियाः|
दानक्रियाश्च विविधाः(ख्), क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:||17.25||
सद्भावे साधुभावे च, सदित्येतत्प्रयुज्यते|
प्रशस्ते कर्मणि तथा, सच्छब्दः(फ्) पार्थ युज्यते||17.26||
यज्ञे तपसि दाने च, स्थितिः(स्) सदिति चोच्यते|
कर्म चैव तदर्थीयं(म्), सदित्येवाभिधीयते||17.27||
अश्रद्धया हुतं(न्) दत्तं(न्), तपस्तप्तं(ङ्) कृतं(ञ्) च यत्|
असदित्युच्यते पार्थ, न च तत्प्रेत्य नो इह||17.28||
प्रश्नोत्तर:
प्रश्नकर्ता: निशा जी
प्रश्न: जब भी मैं कोई दान देती हूॅं तो कई बार मन में ऐसा संशय आ जाता है कि इस दान का अच्छे से प्रयोग हो भी रहा है या नहीं? तो क्या इस तरह के दान से भी पुण्य की प्राप्ति हो सकती है?
उत्तर: जब आप इस तरह का दान दें तो उसे ॐ तत् सत् कहते हुए भगवान को अर्पित कर दें और यह आपका अर्पण दीर्घकाल के लिए सृष्टि के लिए और आपके लिए हितकारी होगा। फलेच्छा का त्याग करते हुए जो भी दान करेंगे उससे निश्चय ही कल्याण होगा। अब इस का विनियोग परमात्मा करवाएंगे। अगर विनियोग अच्छा नहीं होगा तो उसका पाप भी आपको नहीं लगेगा।
प्रश्नकर्ता: मुनमुन गुप्ता जी
प्रश्न: जीवित रहते हुए गीता जी का पाठ सीखना और करना इससे क्या लाभ है?
उत्तर: स्वाध्यायाभ्यसनं(ञ्) चैव, वाङ्मयं(न्) तप उच्यते||
यह भी एक मानसिक तप है श्रीमद्भगवद्गीता श्रीभगवान की वाङ्गमयी मूर्ति है और मंत्रमयी है। गुरुदेव कहते हैं कि मन से ईश्वर को बार-बार याद करना मन से किया जाने वाला पुरुषार्थ है। जब मन, बुद्धि और वाणी से परमात्मा से जुड़ते हैं तो जीवन का उन्नयन अनिवार्य हो जाता है। परमात्मा से मन को जोड़कर, विवेचन द्वारा बुद्धि को परमात्मा से जोड़कर और वाणी से परमात्मा का नाम लेकर हम अपने जीवन को उन्नयन की ओर ले चलते हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज जी ने कहा है कि गीता जी के श्लोक वास्तव में श्लोक नहीं है बल्कि यह तो मेरे दो हाथ और बाजू हैं जिससे मैं अपने परमात्मा को आलिङ्गन बद्ध कर सकता हूॅं। इस तरह के भाव से जब गीता जी से जुड़ जाते हैं तो निश्चय ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य भी प्राप्त कर पाते हैं।
प्रश्नकर्ता: अनंत विजय जी
प्रश्न: श्रद्धा का क्या अर्थ है?
उत्तर: श्रद्धा का वास्तविक अर्थ है सत्य धारण करने की वृत्ति। रसायन विज्ञान में ऐसा पढ़ते हैं कि हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक अणु मिलकर पानी का निर्माण होता है जबकि हाइड्रोजन ज्वलनशील और ऑक्सीजन जलने में सहायता करने वाली गैस मानी जाती है लेकिन इस पर विश्वास करते हुए जब आगे बढ़ते हैं तभी रसायन विज्ञान को पढ़ पाते हैं। श्रद्धा विश्वास का तीव्र रूप है। विश्वास से निष्ठा और निष्ठा से हम श्रद्धा की ओर बढ़ते हैं। इसे आप सुपरलेटिव डिग्री की तरह भी समझ सकते हैं जैसे गुड, बैटर, बेस्ट (Good, better, best)। विश्वास की सुपरलेटिव डिग्री को श्रद्धा कहा जाता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय:।।