विवेचन सारांश
त्रिगुणों के बन्धन से मुक्ति के उपाय
माँ सरस्वती, भगवान वेदव्यास, ज्ञानेश्वर महाराज और गुरु गोविन्द देव गिरि जी महाराज के चरणों में वन्दना, मधुर देश भक्ति गीत और हनुमान चालीसा के पाठ के साथ हमें ज्ञान से प्रकाशित करने हेतु इस सत्र का प्रारम्भ हुआ।
चौदहवाँ अध्याय सुन्दर, महत्त्वपूर्ण और मुक्ति दिलाने वाला अध्याय है। जब तक हम यह नहीं जानते कि हम कौन-कौन से बन्धन में बँधे हुए हैं? तब तक उनसे मुक्ति के उपाय भी हमारे सामने प्रकट नहीं होंगे, ऐसी विवेक शक्ति उत्पन्न करने वाला यह अध्याय है।
गुरुदेव के मुखारविन्द से बहने वाली अद्भुत, अलौकिक ज्ञान धारा के ये कण हैं क्योंकि कोई भी शिष्य या शिष्या गुरुदेव से प्राप्त प्रसाद अपने पास सीमित नहीं रख सकता। वह इसे बाँटने के लिए विवश होता है।
गुरुने दिला ज्ञानरूपी वसा,
आम्ही चालवू हा पुढे वारसा।।
यह ज्ञान की धारा बहती रहे, हम इसमें गोते लगाते रहें, अपने जीवन को शुद्ध करते रहें। यह ज्ञान हमें मानसिक उलझनों से मुक्त करने वाला ज्ञान है। श्रीमद्भगवद्गीता एक मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ है। हम जानते हैं कि अर्जुन प्रत्यक्ष समराङ्गण में हतोत्साहित हो गए और श्रीकृष्ण ने उन्हें उनकी इस शोकावस्था से मुक्त किया। जब श्रीभगवान् के मुखारविन्द से यह ज्ञान की धारा प्रवाहित हुई, तब अर्जुन को ज्ञान का बोध हो गया।
पाँच सहस्र वर्ष पूर्व प्रवाहित हुई शाश्वत ज्ञान की यह धारा आज भी हमें हमारे जीवन के विकारों से मुक्त करती है। विकार शिथिल होते हैं, इसके साथ ही विवेक और ज्ञान की शक्ति जागृत होती है और हम उस परमात्मा के साथ से जुड़ जाते हैं।
गीता जी श्रीभगवान् की वाङ्गमयी मूर्ती है।
जयतु-जयतु गीता वाङ्गमयी कृष्ण मूर्ती।
भले ही पाँच सहस्र वर्ष पूर्व परिस्थितियाँ भिन्न रही हों, भौगोलिक स्थिति भी भिन्न होगी, राज्य भी भिन्न रहे होंगे परन्तु मनुष्य वैसा ही है इसलिए गीता की ज्ञान धारा आज भी मन को शान्त करती है।
दुर्योधन, दुःशासन और अन्य कौरव जिस प्रकार आसुरी वृत्ति युक्त थे और पाण्डव दैवीय सम्पत्ति युक्त थे, आज भी उसी प्रकार आसुरी और दैवीय गुण मनुष्य पर प्रभाव डालते हैं। आज के समय में मनुष्य का मन अत्यधिक संवेदनशील और विकारग्रस्त हो गया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अधिक तीव्रता से बढ़ रहे हैं। उन विकारों से युक्त होकर उस अविकारी परमात्मा के साथ कैसे जुड़ा जाए? जो गुणातीत हैं, यह सिखाने वाला यह अध्याय है।
पहले हमें यह जानना होगा कि हमारे विकार क्यों हैं? यह जानना आवश्यक है कि हमारे विकार किन गुणों के कारण हैं, किन बन्धनों के कारण हैं? यहाँ गुण शब्द का अर्थ बन्धन है, रस्सी है। विशेष बात यह है कि यह मानसिक बन्धन है। यह ऊपर से दिखाई नहीं देता परन्तु अन्दर से हमें बाँधता है।
जैसा कि दुर्योधन का वचन था-
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽसि तथा करोमि।।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽसि तथा करोमि।।
मैं करना चाहता हूँ, सम्भव भी है परन्तु कोई बन्धन है जो करने नहीं देता। मैं प्रातः उठना चाहता हूँ, कुछ अच्छा पढ़ना चाहता हूँ पर आलस्य का बन्धन पढ़ने नहीं देता। यह तमोगुण का बन्धन है। जब तक हम यह नहीं समझेंगे तब तक हम स्वयं को नहीं समझेंगे।
सृष्टि के द्वारा इन गुणों के मिश्रण का अनुपात (permutations और combinations) सबके लिए अलग-अलग होता है, इसलिए जीव एक दूसरे से अलग होते हैं क्योंकि मिश्रण अलग-अलग है।हर कण में सत्त्व, रज और तमोगुण तीनों ही व्याप्त हैं। एक परमाणु के केन्द्र ( nucleus) में प्रोटोन्स और न्यूट्रॉन सत्त्वगुण और तमोगुण के और कक्ष में घूमने वाले (ऑर्बिट) इलेक्ट्रॉन रजोगुण के प्रतीक हैं। क्रियाशीलता होती है रजोगुण के कारण और क्रिया शून्यता तमोगुण के कारण होती है। प्रकृति तीनों गुणों का सन्तुलन बनाकर रखती है।
प्रातः काल में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है इसलिए ज्ञान की आराधना प्रातः काल में करना उत्तम माना जाता है। बालकों का सुबह के समय प्राप्त किया गया ज्ञान लम्बे समय तक स्थापित रहता है। फिर सृष्टि में हलचल शुरू हो जाती है। दोपहर में कर्म की हलचल के कारण सत्त्वगुणी सृष्टि रजोगुणी सृष्टि हो जाती है। रात्रि में यही सृष्टि तमोगुण के अधीन होती है और सब सो जाते हैं।
रजोगुणी व्यक्ति यदि हमारे आस-पास होता है तो उसका प्रभाव हम पर भी होता है। सत्त्वगुणी के सम्पर्क में आकर हम ज्ञान की आराधना में चले जाते हैं। ये गुण भी एक दूसरे में सङ्क्रमित होते हैं इसलिए अपनी सङ्गति उत्तम रखने के लिए कहा जाता है।
इस प्रकार यह महत्त्वपूर्ण अध्याय हमारे बन्धनों की पहचान कराता है और यह जीवन छोड़ने के पश्चात् भी हम कौन से गुणों में स्थित रहेंगे यह भी बताता है।
श्रीभगवान् ने अर्जुन से कहा, हे भारत श्रेष्ठ! अब तुम ज्ञान में रमने लगे हो। अब तुम सत्त्वगुण में हो।
सत्त्वं सुखे सञ्जयति, रज: कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तम:, प्रमादे सञ्जयत्युत।।14.09।।
युद्ध में कर्म की इतनी हलचल है, रण वाद्य बज चुके हैं, दोनों सेनाएँ आमने-सामने हैं लेकिन गुरु के वचनों पर पूरी श्रद्धा रखते हुए तुम यह संवाद सुन रहे हो इसलिए तुम भारत हो।
भा अर्थात आभा, ज्ञान और रत अर्थात् रमना।
अर्थात् तुम ज्ञान की आभा में रमे हो। तुम्हें लगेगा कि गुरु कहते ही रहें और तुम सुनते ही रहो।
भूयः कथय तृप्तिर्हि, शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥10.18।।
श्रीभगवान् से अर्जुन दसवें अध्याय में कहते हैं, आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं हो रही, मुझे पुन:-पुनः बताइये।श्रीभगवान् कहते हैं, तुममें ज्ञान का सत्त्वगुण है परन्तु तुम्हें तो कर्म करना पड़ेगा, रजोगुण का आधार भी लेना पड़ेगा, युद्ध भी करना पड़ेगा। ज्ञान के प्रकाश में सुख है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।।15.07।।
सत्त्वगुण सुख में बँधित कर देता है, फिर कर्म करना अच्छा नहीं लगता।
एक लड़की को उसकी माँ लेकर आयी। उसे ध्यान में मग्न रहना अच्छा लगता था। ध्यान करते-करते सो जाती थी। उसे कर्म करना बिलकुल पसन्द नहीं था। उसे रोज के काम करने, पढ़ने में आलस्य होने लगा था। महाविद्यालय की छात्रा थी वह। उसकी माँ को जब गीता पठन का पता चला तो वह अपनी बेटी को यहाँ लेकर आयी। गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग विवेचका जी ने उसे पढ़ाया।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाचप्रजापतिः।। 3.10।।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।।3.8।।
उसको यह अध्याय प्रतिदिन पढ़ने को कहा गया। पढ़ते-पढ़ते उसके मन में कर्म के प्रति भाव जागने लगे। उसकी माँ ने बताया कि वह अब विद्यालय भी जाने लगी है।
श्रीभगवान् हमें बोध दिलाते हैं कि हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है? हमें किस भाँति सन्तुलित जीवन व्यतीत करना है। जब तीनों गुण सन्तुलित होते हैं, तभी प्रकृति, प्रकृति कहलाती है। जब इन गुणों का सन्तुलन बिगड़ जाता है तो प्रकृति विकृति में परिणित हो जाती है।
श्रीभगवान् कहते हैं, सत्त्वगुण ज्ञान की लालसा उत्पन्न न करते हुए उसमें आसक्त कर देता है। फिर कर्म की हलचल नहीं चाहिए।
रजोगुण कर्म में आसक्त (workoholik) कर देता है। कर्म छूटते नहीं हैं। कर्मों की हलचल आरम्भ हो जाती है। सत्त्व और तम दोनों ही गुण दूर हो जाते हैं। कई लोगों को नींद नहीं आने की बीमारी लग जाती है।
तमोगुण ज्ञान को ढक देता है। क्या करना चाहिए, क्या नहीं? यह विवेक शक्ति लुप्त हो जाती है।
रजोगुण के साथ जब सत्त्वगुण मिलता है तो अच्छा कार्य होता है परन्तु रजोगुण के साथ जब तमोगुण मिलता है तो गलत कार्य होता है। इसी के कारण लोग दूसरों को मारते हैं, बलात्कार करते है। यही सृष्टि को विनाश की और ले जाता है। कार्य तो होता है लेकिन गलत कार्य होता है।
तीनों गुण भी स्थिर नहीं हैं। एक दूसरे पर हावी होते रहते हैं।
रजस्तमश्चाभिभूय, सत्त्वं(म्) भवति भारत।
रजः(स्) सत्त्वं(न्) तमश्चैव, तमः(स्) सत्त्वं(म्) रजस्तथा॥14.10॥
रजः(स्) सत्त्वं(न्) तमश्चैव, तमः(स्) सत्त्वं(म्) रजस्तथा॥14.10॥
श्रीभगवान् बताते हैं कि रजोगुण और तमोगुण किस भाँति कार्य करते है।
यदि रजोगुण के बाद सत्त्वगुण होगा तो हम प्रातः योगाभ्यास करेंगे, श्रीभगवान् की आराधना करेंगे और पूजा-पाठ करेंगे। ये गुण भी स्वयं का प्रभाव दूसरे पर डालते हैं। जब हम ज्ञान की आराधना में बैठते हैं तो कब नींद की झपकी आ जाती हैं, पता ही नहीं चलता।
एक माँ प्रातः बालक को पढ़ने के लिए प्रेरित करती है और फिर स्वयं जाकर सो जाती है। थोड़े समय पश्चात् आकर देखती है कि बालक तो नींद के अधीन है तो सत्त्वगुण पर तमोगुण का प्रभाव अधिक हो गया।
श्रीभगवान् कहते हैं, रजोगुण और तमोगुण को दबा कर सत्त्वगुण बढ़ता है। सत्त्व और तम को दबाकर रजोगुण बढ़ता है। क्रियाशीलता बढ़ती है। इसी प्रकार सत्त्व और रज को दबाकर तमोगुण बढ़ता है। एक दूसरे पर ये तीनों गुण हावी होते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम दूसरों पर उँगली उठायें कि यह रजोगुणी है या तमोगुणी है। इसका अर्थ है कि हम अपने बालकों को रजो गुणी बनायें। उन्हें दौड़ने के लिए भेजना, उन्हें खेल-कूद के लिए प्रेरित करना, व्यायाम करवाना, उन्हें तमोगुण से बाहर निकालना, उसके लिये रजोगुण में चित्त लगवाना चाहिए।
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था, हमारे देश में ज्ञान की आभा तो है परन्तु ज्ञान और सतोगुण का नाम लेते-लेते यह देश तमोगुण में डूब गया। लोगों ने अपने कर्त्तव्य कर्म छोड़ दिए। इससे देश अधोगति में डूब गया। पाश्चात्त्य देशों में रजोगुण का इतना प्रभाव है कि वे कुछ न कुछ प्राप्ति के लिए दौड़ते रहते हैं। बहुत बार तो रजोगुण के साथ तमोगुण मिल जाता है तो नैतिकता भी छूट जाती है। दूसरों से पद छीनना, जमीन हड़पना ये सब तमोगुण के अधीन, रजोगुण के कारण होते हैं।
उदहारण के लिए- हम कोई कार्य सत्त्वगुण में आरम्भ करते हैं, जैसे कोई बीमार है। अस्पताल में भर्ती है। उसके लिए हमने फल लिए, उसकी सेवा की, उसके स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना भी की। सतोगुण के साथ रजोगुण ने मिलकर कार्य किया। फिर जब वह अस्पताल से स्वस्थ होकर घर आ गए तो हम उनसे धन्यवाद की आकाङ्क्षा रखते हैं। रजोगुण कुछ न कुछ उपहार भी चाहता है। जब बालक किसी के जन्मदिन पर उपहार लेकर जाता है तो वापसी में भी उपहार की आशा करता है। हमने अपने बालकों को यही शिक्षा दी है कि कुछ प्राप्त करने के लिए दौड़ना है।
रजोगुण का प्रभाव सृष्टि पर अत्यधिक है। प्रतिफल की अपेक्षा रजोगुण करता है। फल मिले या न मिले यह सत्त्वगुण है। जब किसी को कोई पद मिलता है तो उसके लिए कार्य भी करता है। यह सत्त्व और रजोगुण का परिणाम है परन्तु इसे बनाए रखने के लिए गलत कार्य किया तो यही तमोगुण बन जाता हैं।
जब हम इन तीनों गुणों को भली-भाँति जान लेंगे तभी हम अपने स्वरूप को जानेंगे और इनके बन्धन से मुक्त होने का उपाय भी प्राप्त कर सकेंगे।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्, प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं(म्) यदा तदा विद्याद्, विवृद्धं(म्) सत्त्वमित्युत॥14.११
इस देह के नौ द्वार हैं, जिससे हमारा इस सृष्टि के साथ कुछ न कुछ व्यापार होता है। दो आँखें, दो कान, दो नासिका द्वार, एक मुख, एक गुदा और एक उपस्थ जिससे मल-मूत्र का त्याग होता है। द्वारों में विवेक की शक्ति का निर्माण होता है। भगवद्गीता के दो स्वर हैं, भगवद् भक्ति और विवेक जागृति।
ज्ञानेश्वर जी महाराज ने कहा था-
ऐकु नये ते कानची वजई, पाहु नये ते दृष्टि ची गाळी।
बोलू नये ते जीभ ची टाळी स्वभावतांच।।
जो नहीं सुनना चाहिए वो सुनने की इच्छा न होना, जो नहीं देखना चाहिए उसे देखने की इच्छा न होना, जो नहीं बोलना चाहिए वह बोलने की इच्छा का न होना अर्थात सत्त्वगुण में ज्ञान का प्रकाश स्थित हो गया। जैसे टी वी पर किसी धारावाहिक में षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं, ऐसे धारावाहिक न देखकर गीता का अध्ययन करना अर्थात् विवेक शक्ति जाग्रत हो गयी। ऐसा जब होने लगे तब समझ लो सत्त्वगुण की वृद्धि हो रही है।बोलू नये ते जीभ ची टाळी स्वभावतांच।।
सन्त श्री गुलाब राय जी महाराज कहते हैं- सत्त्वगुण की वृद्धि करने वाली हर प्रक्रिया धर्म है।
अब श्रीभगवान् कहते हैं कि रजोगुण बढ़ा है यह कैसे जानें?
जैसे किसी के दो बेटे हैं। एक को बहुत जायदाद मिली परन्तु वह लोभ के कारण दूसरे की भी चाहता है। इसका प्रभाव दूसरे पर भी होता है और वह भी लोभी हो जाता है।
लोभः(फ्) प्रवृत्तिरारम्भः(ख्), कर्मणामशमः(स्) स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥
रजस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥
यहाँ श्रीभगवान् अर्जुन को भरतर्षभ कहकर सम्बोधित करते हैं, अर्थात् भारत श्रेष्ठ। क्षत्रियों में कर्म करने की प्रेरणा होती है। युद्ध करने की शक्ति होती है। लोभ की प्रवृत्ति के कारण जो स्वार्थ आरम्भ होता है वह मन में अशान्ति पैदा करता है। एक की प्राप्ति होने पर दूसरा पाने की भूख बढ़ जाती है, लालसा बढ़ती है।
रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण में रावण रजोगुण का प्रतीक है। उसने सारे ग्रहों को अधीन किया। उसके पास युद्ध जीतने की क्षमता है।
कुम्भकरण तमोगुण के अधीन है, सोता ही रहता है। विभीषण सतोगुणी हैं, वे भगवद् भक्ति में लीन हैैं। रावण का रजोगुण के कारण लोभ बढ़ गया। मन्दोदरी जैसी पतिव्रता पत्नी होने के पश्चात् भी रावण ने सीता माता का अपहरण किया।
माझे असतेपण लोपु, नाम रूप हरपु
मज झणे वसपु भूतजात।
ज्ञानेश्वर जी महाराज कहते हैं कि कोई देखे या न देखे, मैं नाम के लिए नहीं कर रहा हूँ। लोक कल्याण के लिए मेरा जीवन व्यतीत हो जाए यही सोचना सत्त्वगुण है।मज झणे वसपु भूतजात।
कभी न समाप्त होने वाली यह तृष्णा, पद, प्रतिष्ठा, व्यक्ति, परिवार में जो रजोगुण है, यह दौड़ाता है। इसमें लोभ मानसिक विकार है।
माझे ते असावें इतरांचे नसावे,
हे म्हणतो जो स्वभावे तो रजोगुणी।।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च, प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥
तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥
श्रीभगवान् कहते हैं, जब तमोगुण बढ़ता है तब ज्ञान का प्रकाश ढक जाता है। जैसे धूम्रपान करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, यह जानते हुए भी धूम्रपान करना। अच्छे कर्म करने की प्रवृत्ति नहीं रहती, आलस, प्रमाद बढ़ता है।
श्रीभगवान् कहते हैं, चिन्ता नहीं मेरा चिन्तन करो। श्रीभगवान् ने अर्जुन को कुरुनन्दन भी कहा, कुरु वंश में श्रेष्ठ।
मोह तमोगुण का प्रतीक है और अर्जुन के अन्दर मोह बढ़ गया है। इतना बढ़ गया कि शोकाकुल होकर, अपना कर्त्तव्य कर्म भूल कर उन्होंने अपना धनुष नीचे रख दिया कि, मैं युद्ध नहीं करुँगा। इस प्रकार तमोगुण गलत मार्ग पर ले जाता है।
स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन का एक प्रसङ्ग है। स्वामी जी को शिकागो में प्रवचन करने के लिए बुलाया गया। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो थे नहीं। जब स्वामी जी वहाँ पहुँचे तो द्वारपाल ने उन्हें रोक लिया। उनके साँवले रङ्ग के कारण द्वारपाल ने उन्हें नीग्रो समझ लिया और अन्दर नहीं जाने दिया। उन दिनों अमेरिका में रङ्ग भेद और वंश भेद अत्यधिक था। बाद में जो यजमान थे उन्होंने उनसे न आने का कारण पूछा? स्वामी जी ने बताया कि उनके द्वारपाल ने नीग्रो समझ कर आने नहीं दिया। उस व्यक्ति ने कहा, अरे! आप उसे बता देते कि आप नीग्रो नहीं हैं। स्वामी जी ने कहा, मैं किसी को नीचा दिखाकर ऊपर उठना नहीं चाहता हूँ। मैं नीग्रो नहीं हूँ, उससे ऊपर हूँ, यह तो किसी को नीचा दिखाना हुआ।
ज्ञान जब शुद्ध हो जाए तो उसका अहङ्कार भी कैसे गल जाए, उसके लिए भी महात्मा लोग अधिक सावधान रहते हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
नवल अहङ्काराची गोठीं। विशेषें न लगे अज्ञानापाठीं।
सज्ञानाचे झोंबे कंठी। नाना संकटीं नाचवी।
ज्ञान का अहङ्कार अज्ञानी को नहीं लगता। ज्ञान जिसने प्राप्त किया उसी को यह बाधित कर देता है और फिर सङ्कट में डाल देता है। यह सत्त्वगुण का साइड इफ़ेक्ट है। हम अपने को पहचाने और अपने साञ्चे में दूसरे को बँधित न करें।सज्ञानाचे झोंबे कंठी। नाना संकटीं नाचवी।
इस प्रकार से तीनों गुणों के अलग-अलग संयोजन (permutations और combinations) हैं। तीन गुणों के तीन प्रभाव हैं।
फल मिलना ही चाहिए यह रजोगुण है।
फल मिले या न मिले मैं कार्य करूँगा, यह सत्त्वगुण है।
पहले फल दिखाओ फिर मैं कार्य करूँगा और करूँगा या नहीं करूँगा यह भी नहीं पता, यह तमोगुण है।
एक बालक विद्यालय से आकर अपना सब सामान स्वयं व्यवस्थित करता है और खाना खाकर स्वयं गृह कार्य करने बैठ जाता है, वह सतोगुणी बालक है।
दूसरा बालक जिसे पढ़ने के लिए आइसक्रीम, खिलौना आदि का लालच देना पड़ता है, वह रजोगुणी बालक है।
तीसरा बालक किसी की नहीं सुनता, सोता रहता है। माँ कहती है कल तुम्हारी परीक्षा है, पढ़ लो, मैं तुम्हे मिठाई दूँगी। तब वह कहता है, पहले दिखाओ कहाँ है मिठाई? तब मैं पढूँगा। वह तमोगुणी बालक है।
इसी प्रकार एक चिकित्सक कहता है, मुझे शुल्क दो या न दो, मुझे तो मरीज का इलाज करना है, यह सत्त्वगुणी चिकित्सक है।
दूसरा रजोगुणी चिकित्सक कहता है, मेरा इतना शुल्क होगा, मैं इलाज कर दूँगा।
तीसरा कहता है, पहले शुल्क दो तभी इलाज होगा। यह तमोगुणी चिकित्सक है।
श्रीभगवान् कहते हैं, अर्जुन ये शारीरिक और मानसिक बन्धन हैं जो देह के साथ तो रहते ही हैं, देह छोड़ने के बाद भी साथ जाते हैं इसलिए मृत्यु के पश्चात् सबकी पृथक-पृथक गति होती है।
14.14
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु, प्रलयं(म्) याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां(म्) लोकान्, अमलान्प्रतिपद्यते॥14.14॥
जिस समय सत्त्वगुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है (तो वह) उत्तमवेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, सत्त्वगुण बढ़ा है और देह छोड़ने का समय आ गया तो अच्छे, पुण्य कर्म करने वाले दोषरहित लोगों के परिवार में इसका जन्म होता है। सत्त्वगुणी का मृत्यु के उपरान्त अच्छे सद्गुणी परिवार में जन्म होता है। उसे बचपन से ही सत्सङ्गति प्राप्त होती है। कोई भी कार्य करते हुए प्रभु के नाम का जाप करना होता है। अन्तिम क्षणों में गीता या रामरक्षा अथवा कोई भी अन्य पाठ से उसकी चेतना ऊर्ध्वगामी के साथ जुड़ेगी।
आठवें अध्याय में श्रीभगवान् कहते हैं, जिसमें हमारा मन रहता है, जिसकी जैसी स्मृति जाग्रत रहती है, उसी प्रकार का उसका जन्म होता है।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥ 8.6।।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥ 8.6।।
आठवें अध्याय में श्रीभगवान् कहते हैं, जिसमें हमारा मन रहता है, जिसकी जैसी स्मृति जाग्रत रहती है, उसी प्रकार का उसका जन्म होता है।
रजसि प्रलयं(ङ्) गत्वा, कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि, मूढयोनिषु जायते॥14.15॥
रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्मसंगी मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, जब रजोगुण में मृत्यु होती है तो उनका जन्म ऐसे घर में होगा जिनके घर में कर्मो की हलचल रहती है, व्यापार है, उद्योग है।
तमोगुण में मृत्यु होने से मूढ़ योनि में जन्म होता है अर्थात् जिसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं है। उनके घर में आतङ्क बढ़ता है। दैत्य कुल में जन्म लेने वाले प्रह्लाद सत्त्वगुणी थे, ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि अन्तिम समय में जैसी प्रवृत्ति रहती है वैसा ही जन्म मिलता है, इसलिए क्लोजिङ्ग बैलेंस का सही होना आवश्यक है। अन्तिम क्षण महत्त्वपूर्ण है। सत्त्व का फल निर्मल होता है।
तमोगुण में मृत्यु होने से मूढ़ योनि में जन्म होता है अर्थात् जिसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं है। उनके घर में आतङ्क बढ़ता है। दैत्य कुल में जन्म लेने वाले प्रह्लाद सत्त्वगुणी थे, ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि अन्तिम समय में जैसी प्रवृत्ति रहती है वैसा ही जन्म मिलता है, इसलिए क्लोजिङ्ग बैलेंस का सही होना आवश्यक है। अन्तिम क्षण महत्त्वपूर्ण है। सत्त्व का फल निर्मल होता है।
कर्मणः(स्) सुकृतस्याहुः(स्), सात्त्विकं(न्) निर्मलं(म्) फलम्।
रजसस्तु फलं(न्) दुःखम्, अज्ञानं(न्) तमसः(फ्) फलम्॥14.16॥
विवेकी पुरुषों ने – शुभ कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख (कहा है और) तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, अर्जुन! अच्छे कर्मों का फल निर्मल होता है, जिससे स्वयं का कल्याण हो और दूसरों का भी कल्याण हो।
गीता पढ़ें, पढ़ायें और जीवन में लाएँ। पढ़ाने से अपने जीवन में भी गीता जी सङ्क्रमित होती हैं। इसका हमें निर्मल फल प्राप्त होता है। सात्त्विक व्यक्ति फल देखकर कार्य नहीं करेगा। निर्मल फल सात्त्विक व्यक्ति को मिलता ही है।
रजोगुण फल के लिए, सुख की प्राप्ति के लिए दौड़ाता है पर अन्ततोगत्वा दुःख प्राप्त होता है क्योंकि जो प्राप्त किया उसे छोड़कर जाना है तथा और अधिक पाने की लालसा भी समाप्त नहीं होती।
तमोगुण के कारण अज्ञान और उसके कारण प्रमाद और उसके कारण चिन्ता आती है, इसलिए श्रीभगवान् कहते हैं, अच्छा कर्म आवश्यक है। कर्म से चित्त की शुद्धि होती है।
चित्तस्य शुद्धये कर्म:।
ध्यान और उपासना से चित्त की एकाग्रता होती है, अन्ततोगत्वा ज्ञान की ज्योति प्राप्त होती है।
गीता पढ़ें, पढ़ायें और जीवन में लाएँ। पढ़ाने से अपने जीवन में भी गीता जी सङ्क्रमित होती हैं। इसका हमें निर्मल फल प्राप्त होता है। सात्त्विक व्यक्ति फल देखकर कार्य नहीं करेगा। निर्मल फल सात्त्विक व्यक्ति को मिलता ही है।
रजोगुण फल के लिए, सुख की प्राप्ति के लिए दौड़ाता है पर अन्ततोगत्वा दुःख प्राप्त होता है क्योंकि जो प्राप्त किया उसे छोड़कर जाना है तथा और अधिक पाने की लालसा भी समाप्त नहीं होती।
तमोगुण के कारण अज्ञान और उसके कारण प्रमाद और उसके कारण चिन्ता आती है, इसलिए श्रीभगवान् कहते हैं, अच्छा कर्म आवश्यक है। कर्म से चित्त की शुद्धि होती है।
चित्तस्य शुद्धये कर्म:।
ध्यान और उपासना से चित्त की एकाग्रता होती है, अन्ततोगत्वा ज्ञान की ज्योति प्राप्त होती है।
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं(म्), रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो, भवतोऽज्ञानमेव च॥14.17॥
सत्त्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ (आदि) ही उत्पन्न होते हैं; तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, सत्त्वगुण से ज्ञान बढ़ता है। रजोगुण से लोभ बढ़ता है। तमोगुण के कारण मोह, प्रमाद, आलस्य, गलतियाँ उत्पन्न होती हैं।
हमारे अन्तरङ्ग की प्रवृत्ति हमारे बहिरङ्ग में हमसे परावर्तित होती है। बहिरङ्ग में जो भी हमारा कर्म होगा उससे हमारा अन्तरङ्ग कैसा होगा? यह समझ में आ जाता है। सतगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी की कर्म को देखने की वृत्ति कैसी है और फल की आकाङ्क्षा कैसी होती है?
पिताजी ने अपने तीन बेटों को दो हज़ार रुपये दिए। तीनों ही उसका उपयोग भिन्न प्रकार से करेंगे। सात्त्विक पुत्र उस से पुस्तकें खरीदेगा, ज्ञान अर्जित करेगा। अच्छे काम के लिए उसका विनियोग करेगा। रजोगुणी पुत्र उसे अपने मनोरञ्जन हेतु व्यय करेगा। ऐसे व्यापार में लगाएगा जिससे उसे अधिक धन अर्जित हो। तमोगुणी पुत्र गलत कार्य में उसका उपयोग करेगा। शराब पिएगा, जुआ खेलेगा।
श्रीभगवान् कहते हैं, हमारे जीवन का उन्नयन या अधोगति किस प्रकार होगी? यह तीनों गुणों के मिश्रण पर निर्भर है। अर्जुन, तुम्हारे सामने जो अपराधी खड़े हैं, तुम्हें उनके जैसा नहीं बनना है।
आज सङ्गति का बहुत बड़ा प्रभाव है इसलिए आज के समय में बालकों का लालन-पालन अत्यन्त कठिन हो गया है। माँ-पिताजी को यह देखना आवश्यक है कि बालक किसकी सङ्गति के अधीन है। आज के समय में बालकों को इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग करने देना पड़ता है किन्तु वह क्या देख रहा है? कहीं वह गलत सङ्गति में तो नहीं जा रहा? यह ध्यान रखना अति आवश्यक है। बालकों की मित्रता किसके साथ है? किसके साथ उठता-बैठता है? किसका प्रभाव है? यह देखना भी आवश्यक है। हमारे साथ से अधिक बालक बाहर की सङ्गति में रहता है, अतः यह देखना आवश्यक है। भगवद्गीता पढ़ना ही नहीं है, उसे जीवन में उतारना भी आवशयक है। बच्चों को भगवद्गीता पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
हमारे अन्तरङ्ग की प्रवृत्ति हमारे बहिरङ्ग में हमसे परावर्तित होती है। बहिरङ्ग में जो भी हमारा कर्म होगा उससे हमारा अन्तरङ्ग कैसा होगा? यह समझ में आ जाता है। सतगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी की कर्म को देखने की वृत्ति कैसी है और फल की आकाङ्क्षा कैसी होती है?
पिताजी ने अपने तीन बेटों को दो हज़ार रुपये दिए। तीनों ही उसका उपयोग भिन्न प्रकार से करेंगे। सात्त्विक पुत्र उस से पुस्तकें खरीदेगा, ज्ञान अर्जित करेगा। अच्छे काम के लिए उसका विनियोग करेगा। रजोगुणी पुत्र उसे अपने मनोरञ्जन हेतु व्यय करेगा। ऐसे व्यापार में लगाएगा जिससे उसे अधिक धन अर्जित हो। तमोगुणी पुत्र गलत कार्य में उसका उपयोग करेगा। शराब पिएगा, जुआ खेलेगा।
श्रीभगवान् कहते हैं, हमारे जीवन का उन्नयन या अधोगति किस प्रकार होगी? यह तीनों गुणों के मिश्रण पर निर्भर है। अर्जुन, तुम्हारे सामने जो अपराधी खड़े हैं, तुम्हें उनके जैसा नहीं बनना है।
आज सङ्गति का बहुत बड़ा प्रभाव है इसलिए आज के समय में बालकों का लालन-पालन अत्यन्त कठिन हो गया है। माँ-पिताजी को यह देखना आवश्यक है कि बालक किसकी सङ्गति के अधीन है। आज के समय में बालकों को इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग करने देना पड़ता है किन्तु वह क्या देख रहा है? कहीं वह गलत सङ्गति में तो नहीं जा रहा? यह ध्यान रखना अति आवश्यक है। बालकों की मित्रता किसके साथ है? किसके साथ उठता-बैठता है? किसका प्रभाव है? यह देखना भी आवश्यक है। हमारे साथ से अधिक बालक बाहर की सङ्गति में रहता है, अतः यह देखना आवश्यक है। भगवद्गीता पढ़ना ही नहीं है, उसे जीवन में उतारना भी आवशयक है। बच्चों को भगवद्गीता पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
ऊर्ध्वं(ङ्) गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था, अधो गच्छन्ति तामसाः॥14.18॥
सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य ऊर्ध्वलोकों में जाते हैं, रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं (और) निन्दनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, जो सत्त्व में स्थित है, उसके जीवन का उन्नयन होगा, अर्थात् ऊपर चढ़ेगा। प्रगति की ओर जाएगा, अच्छे कार्य करेगा और जीवन का कल्याण करेगा।
रजोगुण का प्रभाव अधिक है तो वह मध्य में रहता है।
जघन्य दुर्गुणों में वृत्ति रखने वाला अधोगति को प्राप्त होता है। यह तामसिक गुणों का प्रभाव है।
गुणों का अपकर्ष नहीं, उत्कर्ष होना चाहिए। हमारे मन की वृत्ति पर निर्भर है कि हम क्या पढ़ते हैं, क्या खाते हैं? हमारे बालक क्या खाते हैं? स्वास्थ्यवर्धक सात्त्विक भोजन खाते हैं या चटपटा तामसिक भोजन करते हैं?
सूखे मेवे रजो गुण प्रधान हैं, क्रिया शक्ति बढ़ाते हैं। प्रोटीन खाते हैं कि नहीं? यह भी हमें देखना आवश्यक है।
रजोगुण का प्रभाव अधिक है तो वह मध्य में रहता है।
जघन्य दुर्गुणों में वृत्ति रखने वाला अधोगति को प्राप्त होता है। यह तामसिक गुणों का प्रभाव है।
गुणों का अपकर्ष नहीं, उत्कर्ष होना चाहिए। हमारे मन की वृत्ति पर निर्भर है कि हम क्या पढ़ते हैं, क्या खाते हैं? हमारे बालक क्या खाते हैं? स्वास्थ्यवर्धक सात्त्विक भोजन खाते हैं या चटपटा तामसिक भोजन करते हैं?
सूखे मेवे रजो गुण प्रधान हैं, क्रिया शक्ति बढ़ाते हैं। प्रोटीन खाते हैं कि नहीं? यह भी हमें देखना आवश्यक है।
नान्यं(ङ्) गुणेभ्यः(ख्) कर्तारं(म्), यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं(म्) वेत्ति, मद्भावं(म्) सोऽधिगच्छति॥14.19॥
जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के (सिवाय) अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और (अपने को) गुणों से पर अनुभव करता है, (तब) वह मेरे सत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
विवेचन- श्रीभगवान् महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं, हम अपने गुणों को अपना स्वभाव समझ लेते हैं और उनसे बँधित होते हैं । गुणातीत का कार्य भी गुणों से ही चलेगा किन्तु कौनसा गुण कार्य कर रहा है? यह दृष्टा बनकर देखना होगा। जैसे गाड़ी में ब्रेक, स्टेयरिङ्ग, पेट्रोल आदि हैं, परन्तु गाड़ी का उपयोग हम अपने गन्तव्य पर जाने के लिए करते हैं और फिर उतर जाते हैं। जिसने गुणों का उपयोग करके गाड़ी से उतरना सीख लिया, यही गुणातीत के लक्षण हैं।
इन्द्रियों के द्वारा जो कार्य हो रहा है वह कैसा हो रहा है? यह देखना होगा।
नींद आ रही है तो तमोगुण के कारण आ रही है। ज्ञान की लालसा बढ़ रही है तो सत्त्वगुण के कारण बढ़ रही है। कुछ प्राप्त करने के लिए दौड़ रहे हैं तो रजोगुण बढ़ गया है। ये तीनों गुण ही तो हमसे कार्य करवा रहे हैं। इन्होंने हमें बन्धन में डाला है। गुणों से अलग कोई कुछ नहीं करता।
मैं द्रष्टा हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ। करने वाले गुण हैं, यह जो देख लेता है, वह गुणों के परे जो गुणातीत है, उसे जान लेता है। देह में रहते हुए ही वह सच्चिदानन्द स्वरुप भगवान् को प्राप्त कर लेता है।
तुकाराम महाराज कहते हैं,
पहले ठाकुर रामकृष्ण देव भी पुजारी नियुक्त किये गए। काली माँ की आराधना करते हुए, माँ मुझे दर्शन दो, ऐसे भाव में पहुँच गए कि जब वे माँ का भोग लगाते अथवा माला पहनाते तो अपने ही अन्तर में माँ के दर्शन पाते। उनके अन्तर में माँ इतनी बस गयीं कि वे स्वयं को ही माला पहनाने लगते। माँ को जो भोग लगाया स्वयं ही खाने लगते। फिर माथुर बाबू जो रानी रासमणि के जामाता थे, बड़े अच्छे थे, उन्होंने समझ लिया कि अब इनसे पूजा नहीं करवानी। ये गुणातीत अवस्था तक पहुँच गए हैं, परमात्मा की अवस्था तक पहुँच गए हैं।
श्रीभगवान् कहते हैं, मैं मन नहीं, मैं बुद्धि नहीं, मैं इन्द्रिय नहीं, मैं क्रिया नहीं, मैं करण नहीं, मैं जिह्वा नहीं, मैं सच्चिदानन्द स्वरुप शिव हूँ।
श्री शङ्कराचार्य जी कहते हैं-
मैं सच्चिदानन्द स्वरुप शिव हूँ, यह भाव उनमें इस प्रकार से उजागर होता है, वहाँ तक पहुँचे हुए गुणातीत के लक्षण कैसे होते हैं? यह अगले विवेचन में देखेंगे। आज का यह विवेचन साधकों की जिज्ञासाओं के समाधान के साथ समाप्त हुआ।
मयि सर्वाणि कर्माणि, संन्यस्याध्यात्म चेतना।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:।।3.30
अतः वे अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। कर्त्तव्य कर्म पाप नहीं होता। एक जल्लाद जब किसी अपराधी को फाँसी देता है तो वह अपना कर्त्तव्य करता है, उसे पाप नहीं लगता।
कभी-कभी मनोरञ्जन भी आवश्यक होता है परन्तु रजोगुण को हावी नहीं होने देना है, कुछ देर तक तो ठीक है लेकिन फिर सत्त्व गुण में लौट आना चाहिए।
इन्द्रियों के द्वारा जो कार्य हो रहा है वह कैसा हो रहा है? यह देखना होगा।
नींद आ रही है तो तमोगुण के कारण आ रही है। ज्ञान की लालसा बढ़ रही है तो सत्त्वगुण के कारण बढ़ रही है। कुछ प्राप्त करने के लिए दौड़ रहे हैं तो रजोगुण बढ़ गया है। ये तीनों गुण ही तो हमसे कार्य करवा रहे हैं। इन्होंने हमें बन्धन में डाला है। गुणों से अलग कोई कुछ नहीं करता।
मैं द्रष्टा हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ। करने वाले गुण हैं, यह जो देख लेता है, वह गुणों के परे जो गुणातीत है, उसे जान लेता है। देह में रहते हुए ही वह सच्चिदानन्द स्वरुप भगवान् को प्राप्त कर लेता है।
तुकाराम महाराज कहते हैं,
आधि होता सत्संग, तुका झाला पाण्डुरङ्ग।
त्याचे भजन जाइना, मूळ स्वभाव जाइना।।
सन्त तुकाराम भजन कर रहे हैं। उनका स्वभाव हो गया भजन करने का। पाण्डुरङ्ग से अन्तरङ्ग हो गया। पहले सत्सङ्ग था, सात्त्विक वृत्ति थी, विट्ठल-विट्ठल नाम जपते थे। अब पाण्डुरङ्ग परमात्मा अन्तरङ्ग में इस प्रकार से बस गए कि कोई भेद नहीं रह गया। परमात्मा का सच्चिदानन्द भाव उनमें प्रविष्ट हो जाता है।त्याचे भजन जाइना, मूळ स्वभाव जाइना।।
पहले ठाकुर रामकृष्ण देव भी पुजारी नियुक्त किये गए। काली माँ की आराधना करते हुए, माँ मुझे दर्शन दो, ऐसे भाव में पहुँच गए कि जब वे माँ का भोग लगाते अथवा माला पहनाते तो अपने ही अन्तर में माँ के दर्शन पाते। उनके अन्तर में माँ इतनी बस गयीं कि वे स्वयं को ही माला पहनाने लगते। माँ को जो भोग लगाया स्वयं ही खाने लगते। फिर माथुर बाबू जो रानी रासमणि के जामाता थे, बड़े अच्छे थे, उन्होंने समझ लिया कि अब इनसे पूजा नहीं करवानी। ये गुणातीत अवस्था तक पहुँच गए हैं, परमात्मा की अवस्था तक पहुँच गए हैं।
श्रीभगवान् कहते हैं, मैं मन नहीं, मैं बुद्धि नहीं, मैं इन्द्रिय नहीं, मैं क्रिया नहीं, मैं करण नहीं, मैं जिह्वा नहीं, मैं सच्चिदानन्द स्वरुप शिव हूँ।
श्री शङ्कराचार्य जी कहते हैं-
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोऽहम शिवोऽहम ||
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोऽहम शिवोऽहम ||
मैं सच्चिदानन्द स्वरुप शिव हूँ, यह भाव उनमें इस प्रकार से उजागर होता है, वहाँ तक पहुँचे हुए गुणातीत के लक्षण कैसे होते हैं? यह अगले विवेचन में देखेंगे। आज का यह विवेचन साधकों की जिज्ञासाओं के समाधान के साथ समाप्त हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता – श्री अमित भैया
प्रश्न – हमने सुना है कि कर्मफल इसी जन्म में भोगना पड़ता है। उसे भुगतते हुए और सन्तुलन बनाए रखने के लिए यदि कोई गलत कर्म हो जाता है तो क्या हमारा दोष और बढ़ेगा?
उत्तर – जैसे हमारे कर्म होते हैं फल भी वैसा ही मिलता है, जब यह बात समझ लेते हैं तो हम अपना आत्मावलोकन स्वयं कर सकते हैं और तीनों गुणों में सन्तुलन बनाए रख सकते हैं।
अर्जुन युद्ध के परिणाम से डर रहे थे और अपने कर्त्तव्य कर्म युद्ध से भाग रहे थे इसलिए श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि अपना कर्त्तव्य कर्म उन्हें समर्पित करने से उसके परिणामों का उत्तरदायित्व श्रीभगवान् स्वयं लेते हैं, हमें परिणामों की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होगी।
प्रश्न – हमने सुना है कि कर्मफल इसी जन्म में भोगना पड़ता है। उसे भुगतते हुए और सन्तुलन बनाए रखने के लिए यदि कोई गलत कर्म हो जाता है तो क्या हमारा दोष और बढ़ेगा?
उत्तर – जैसे हमारे कर्म होते हैं फल भी वैसा ही मिलता है, जब यह बात समझ लेते हैं तो हम अपना आत्मावलोकन स्वयं कर सकते हैं और तीनों गुणों में सन्तुलन बनाए रख सकते हैं।
अर्जुन युद्ध के परिणाम से डर रहे थे और अपने कर्त्तव्य कर्म युद्ध से भाग रहे थे इसलिए श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि अपना कर्त्तव्य कर्म उन्हें समर्पित करने से उसके परिणामों का उत्तरदायित्व श्रीभगवान् स्वयं लेते हैं, हमें परिणामों की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होगी।
मयि सर्वाणि कर्माणि, संन्यस्याध्यात्म चेतना।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:।।3.30
अतः वे अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। कर्त्तव्य कर्म पाप नहीं होता। एक जल्लाद जब किसी अपराधी को फाँसी देता है तो वह अपना कर्त्तव्य करता है, उसे पाप नहीं लगता।
कर्म करते हुए अज्ञानवश हुई गलती पाप नहीं होती, पूजा करते हुए यदि गलती से तीन पत्ती वाले बिल्व पत्र के स्थान पर दो पत्ती वाले बिल्व पत्र चढ़ाए जाते हैं तो वह पाप नहीं होता, हाँ जानबूझकर किसी का मन दुखाना, गलत व्यवहार करना पाप कहलाता है।
श्रीभगवान् हमारे कर्मफल का दायित्व लेते हैं लेकिन पहले हमें सही मार्ग पर चलना होगा, आत्मावलोकन द्वारा अपने मन के पाप और पुण्य समझने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि ऊपरी तौर पर तो हम निष्काम भाव दिखाएँ परन्तु मन में फल की अपेक्षा रखें।
प्रश्नकर्ता – श्री अमित भैया
प्रश्न – सत्त्व गुण का पालन करते हुए यदि नीरसता आती है तो क्या कभी -कभी उससे हटकर रजो गुण के माध्यम से अपना मनोरञ्जन कर सकते हैं?
उत्तर -- जी हाँ, बिल्कुल कर सकते हैं। जीवन में सक्रियता आवश्यक है।
समर्थ रामदास जी कहते हैं-
प्रश्न – सत्त्व गुण का पालन करते हुए यदि नीरसता आती है तो क्या कभी -कभी उससे हटकर रजो गुण के माध्यम से अपना मनोरञ्जन कर सकते हैं?
उत्तर -- जी हाँ, बिल्कुल कर सकते हैं। जीवन में सक्रियता आवश्यक है।
समर्थ रामदास जी कहते हैं-
कधी गलबला कधी निवळ,
कधी एकान्त कधी लोकान्त
कधी एकान्त कधी लोकान्त
ऐसा सर्वं काळ खण्डित जावा।।
कभी-कभी मनोरञ्जन भी आवश्यक होता है परन्तु रजोगुण को हावी नहीं होने देना है, कुछ देर तक तो ठीक है लेकिन फिर सत्त्व गुण में लौट आना चाहिए।
प्रश्नकर्ता – डाक्टर मिशिता चौधरी दीदी
प्रश्न – एक प्रिय सखी पूरी तरह से नकारात्मक भावनाओं से घिर गई है और कभी-कभी आत्महत्या करने का भाव भी उसके मन में आता है, उसकी सहायता कैसे करें?
प्रश्न – एक प्रिय सखी पूरी तरह से नकारात्मक भावनाओं से घिर गई है और कभी-कभी आत्महत्या करने का भाव भी उसके मन में आता है, उसकी सहायता कैसे करें?
उत्तर – उसे मनोवैज्ञानिक सहायता की आवश्यकता है। आप उसे भगवद्गीता पढ़ने की सलाह दें, यदि वह पढ़ना नहीं चाहती है तो उसे सुनने की प्रेरणा दें। भगवद्गीता नकारात्मक भावनाओं को दूर करने वाला ग्रन्थ है, इसलिए निराश अर्जुन पुनः युद्ध करने को तैयार हो गए। भगवद्गीता एक psychotherapist है। हताश मन की बैटरी को सकारात्मकता से चार्ज करना चाहिए। सम्पूर्ण भगवद्गीता लिखी भी जा सकती है, उससे मन क्रियाशील रहेगा और नकारात्मकता से धीरे-धीरे मुक्त हो सकते हैं।
प्रश्नकर्ता – डाक्टर मिशिता चौधरी दीदी
प्रश्न – यदि सामने वाला नकारात्मक है तो उसके साथ हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए?
उत्तर – अन्याय के साथ लड़ना ही है, प्रतिक्रिया आवश्यक है परन्तु क्रोध में आकर नहीं अपितु शान्ति से काम लेना चाहिए ताकि सामने वाले को अपनी गलती समझ में आ सके।
प्रश्नकर्ता – सुमन रस्तोगी दीदी
प्रश्न – वैराग्य क्या है? शमशान वैराग्य और प्रसव वैराग्य क्या है? क्या वैराग्य स्थायी होता है?
उत्तर – राग का अर्थ है आसक्ति और वैराग्य अनासक्ति है। जब व्यक्ति शमशान जाता है तो संसार की नश्वरता के कारण मन में विरक्ति आती है। यही शमशान वैराग्य है, परन्तु यह अस्थाई है। कुछ देर बाद मन उस भावना से उभरकर सामान्य हो जाता है।
ऐसे ही प्रसव या अन्य पीड़ादायक घटनाओं से भी कुछ समय तक निवृत्ति का भाव जागृत होता है। साधु और सन्त वैराग्य को परमात्मा से हुआ विशेष राग कहते हैं, परमात्मा से एकाकार होना।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज इस वैराग्य को वसन्त वैराग्य कहते हैं, यह स्थाई आनन्दमय वैराग्य है इससे जीवन निखरता है
एरवी दिवस तरी अपुरे, जे वैराग्य वसन्ता चे निखरे।
जो सोऽहम् भाव महुरे, उमळोनी आलां।।
जो सोऽहम् भाव महुरे, उमळोनी आलां।।
जिस प्रकार वसन्त ऋतु में पेड़ पर आम की मोहरें खिलती हैं, उसी प्रकार परमात्मा से एकाकार होने पर मन में सोऽहम् भाव जागृत होता है।