विवेचन सारांश
अपरा और परा प्रकृतियों का स्वरूप
कीं गीता हे सप्तशती। मंत्रप्रतिपाद्य भगवती।
मोहमहिषा मुक्ति। आनंदली असे ॥
गीता सप्तशती है। सात सौ श्लोकों की भगवद्गीता सप्तशती है। जिस प्रकार माॅं जगदम्बा की स्तुति सप्तशती के माध्यम से गाई गई है। ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं जिस प्रकार माॅं दुर्गा महिषासुर का वध करती हैं। उसी प्रकार भगवद्गीता मोह रूपी महिषासुर का वध करती हैं। जैसे ही मनुष्य के मन का मोह शिथिल होने लगता है संसार के प्रति उसके जीवन में आनन्द का मार्ग प्रस्फुटित होता है। यह भगवद्गीता जी हमें उस आनन्दमयी मार्ग की ओर ले जाती हैं।
7.1
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः(फ्) पार्थ, योगं(म्) युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं(म्) समग्रं(म्) मां(म्), यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥1॥
तत्रात्मा यत्र त्वयी मन:
द्रौपदी के चीर हरण के प्रसङ्ग को हम सभी ने सुना है। जब युधिष्ठिर द्युतक्रीड़ा में द्रौपदी को हार गए और दुर्योधन के कहने पर दु:शासन द्वारा द्रौपदी के केश पकड़ते हुए उन्हें सभा में लाया गया। कर्ण ने द्रौपदी को वेश्या कह कर वस्त्र हरण की बात कही, दु:शासन ने जैसे ही द्रौपदी के वस्त्र को हाथ लगाया, द्रौपदी रक्षा के लिए सभी से गुहार लगाने लगी। भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र, आचार्य द्रोण, आचार्य कृपाचार्य, अपने पतियों की ओर, सभा के सभी वृद्धजनों की ओर, परन्तु किसी ने भी उन्हें चीरहरण से बचाया नहीं। द्रौपदी ने अन्त में सारे आश्रय छोड़कर, त्यागकर आर्द्रता से श्रीभगवान् को पुकारा- हे केशव! मेरी रक्षा कीजिए। तुरन्त वहाॅं पर श्रीभगवान् का वस्त्र अवतरित हुआ और दु:शासन की हार हुई। स्वामी जी कहते हैं मन से ईश्वर को हर पल याद करना यह सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। मन से ईश्वर के साथ जुड़े रहना बड़ा कठिन होता है। जिस साधक को उस परमपिता परमात्मा को समग्रता से जानने की इच्छा हो गई, उसके लिए क्या साधन हैं? वह इस श्लोक की पहली पंक्ति में ही आ गया।
ज्ञानं(न्) तेऽहं(म्) सविज्ञानम्, इदं(म्) वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्, ज्ञातव्यमवशिष्यते॥2॥
हमें पता है कि हममें कोई चैतन्य तत्त्व है, जो हमारे इस देह को शरीर को चलाता है। सूक्ष्म ज्ञान, जो जड़ और चेतन का ज्ञान है । जड़ और चेतन के सहयोग से, संसार का कार्य चलता है। विज्ञान में भी हम कहते हैं, मैटर एंड एनर्जी, जबकि वैज्ञानिक कहते हैं, मैटर में भी एनर्जी है। विज्ञान कहता है पहले स्थूल फिर सूक्ष्म, E= mc2 इसका परस्पर सम्बन्ध आइंस्टीन भी बताते हैं।
अर्जुना तया नांव ज्ञान। येर प्रपंचु हें विज्ञान।
ऐसा प्रतीत होता है की श्रीभगवान् ने अर्जुन के मन का भाव जान लिया है। वे कहते हैं कि हे अर्जुन! जब तुम्हें स्वयं का ही ज्ञान प्राप्त करना है। मैं वही तो बता रहा हूॅं। अर्जुन युद्धभूमि छोड़कर हिमालय या कन्दराओं में जाकर स्वयं का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। श्रीभगवान् अर्जुन को वहाँ जाने की अनुमति नहीं देते हैं। क्योंकि वह ज्ञान प्राप्त करने के पहले योग्यता, क्षमता प्राप्त करनी होती है।
मनुष्याणां(म्) सहस्रेषु, कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां(ङ्), कश्चिन्मां(म्) वेत्ति तत्त्वतः॥3॥
एक प्रसङ्ग नारद जी के जीवन का- श्रीभगवान् की भक्ति का प्रसार करने के लिए नारदजी धरती पर नारायण-नारायण का स्मरण करते हुए विचरण करते हैं। एक गाॅंव में लोगों के मन में भक्ति का रस ऐसे घोल दिया कि सब श्रीभगवान् नाम का जाप करने लगे। नारद जी बड़े प्रसन्न हुए।
भूमिरापोऽनलो वायुः(ख्), खं(म्) मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं(म्) मे, भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥4॥
अपरेयमितस्त्वन्यां(म्), प्रकृतिं(म्) विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां(म्) महाबाहो, ययेदं(न्) धार्यते जगत्॥5॥
एतद्योनीनि भूतानि, सर्वाणीत्युपधारय।
अहं(ङ्) कृत्स्नस्य जगतः(फ्), प्रभवः(फ्) प्रलयस्तथा॥6॥
ज - उत्पत्ति या स्थिति
ग- गच्छति या प्रलय
त- तिष्ठति या स्थिति
क्या धरा हमने बनाई, क्या बुना हमने गगन,
मत्तः(फ्) परतरं(न्) नान्यत्, किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं(म्) प्रोतं(म्), सूत्रे मणिगणा इव॥7॥
तैसे म्यां जग धारीलें। सबाह्याभ्यांतरी।।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय, प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः(स्) सर्ववेदेषु, शब्दः(ख्) खे पौरुषं(न्) नृषु॥8॥
पुण्यो गन्धः(फ्) पृथिव्यां(ञ्) च, तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं(म्) सर्वभूतेषु, तपश्चास्मि तपस्विषु॥9॥
बीजं(म्) मां(म्) सर्वभूतानां(म्), विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि, तेजस्तेजस्विनामहम्॥10॥
ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं-
बीज का तरु हो जाता है और स्वर्ण के अलङ्कार बन जाते हैं। जब अलङ्कार बन जाते हैं तो स्वर्ण का लोप हो जाता है। जब वृक्ष बन जाता है तो बीज का लोप हो जाता है। जिस आधार के कारण बिजली बनती है, उसका भी विद्युत प्रवाहित होने पर लोप हो जाता है। ऐसे ही परमात्मा हैं। सृष्टि का कार्य परमात्मा के द्वारा चलता है। इस तरह श्रीभगवान् भक्ति का कक्ष खोलते हैं और चार प्रकार की भक्ति का वर्णन आगे करते हैं। हम कौन सी श्रेणी के भक्त है यह अगले सत्र में देखेंगे। इसी के साथ इस गूढ़ विवेचन सत्र का समापन हुआ।
विचार - मंथन(प्रश्नोत्तरी):-
प्रश्नकर्ता : हंसा पटेल जी
प्रश्न : अपरा और परा प्रकृति के बारे में कुछ बताइए।
उत्तर : अपरा का अर्थ है जड़ प्रकृति और परा का अर्थ है चेतन प्रकृति। मन का शरीर से जुड़ना स्थूल,जड़ प्रकृति जाना जाता है । जिससे सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है वह परा अर्थात् चेतन प्रकृति है।
प्रश्नकर्ता : जयंती प्रसाद जी
प्रश्न : पितृ पक्ष में विशेष रूप से सातवें अध्याय को क्यों पढ़ा जाता है?
उत्तर : पितृ पक्ष में सातवें अध्याय के विशेष पठन के विषय में अधिक सुनने में नहीं आया है। परन्तु गीता जी का पठन कभी भी किया जा सकता है। कोई भी श्लोक,अध्याय का पठन, प्रभावी माना गया है।
प्रश्नकर्ता: सीमा जी
प्रश्न: आठ प्रकार के भेदों वाली अपरा प्रकृति में अहङ्कार सबसे सूक्ष्म कैसे हुआ ?
उत्तर: अहङ्कार इन सभी प्रकार के भेदों में सबसे सूक्ष्म माना जाता है क्योंकि यह अत्यधिक व्यापक है और पकड़ में नहीं आता।
।। ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।