विवेचन सारांश
गुणातीत के लक्षण
दीप प्रज्वलन, गुरुवन्दना एवं श्रीकृष्ण स्तुति से विवेचन का आरम्भ हुआ। चौदहवें अध्याय गुणत्रयविभागयोग के चौदह श्लोकों का विवेचन पिछले सत्र में हुआ था। पिछले सत्र में सतगुण, रजोगुणऔर तमोगुण के मुख्य लक्षण क्या होते हैं? वह जाना। इसकी पुनरावृत्ति, बच्चों से अलग-अलग गुणों की क्या विशेषता होती है? यह पूछ कर की गयी।
आगे हम देखेंगे कि पुनर्जन्म कैसे होता है? सतगुणी मृत्यु के बाद कहाँ जाते हैं, उनकी क्या गति होती है? गरुड़ पुराण में नरक का वर्णन है और सतगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी व्यक्ति के साथ कैसे, क्या होता है? यह भी बताया गया है।
गीता पठन के समय बच्चों को बताया गया था कि निडर बनो, लीडर बनो। सतगुणी ही निडर बनता है, अर्थात् उसके जीवन में भय नहीं होता है। जितना व्यक्ति रजोगुण और तमो गुण से दूर जाएगा, मोह, आलस्य को छोड़ेगा, वह निर्भय हो जाएगा। निर्भय होकर, महापुरुष, हनुमान, अर्जुन और श्रीभगवान जैसे भी बन सकते हैं, किन्तु होता क्या है? हम अन्धकार से, छोटे-छोटे कीट पतङ्गों, तिलचिट्टों से ही भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगते हैं। सतगुणी के साथ क्या होता है? यह आरम्भ के श्लोकों में जाना। आगे श्रीभगवान बताते हैं कि रजोगुणी और तमोगुणी व्यक्ति के साथ मृत्यु के बाद क्या होता है?
सतगुण की विशेषता है, अच्छाई, ज्ञान, प्रकाश
रजोगुण की विशेषता है, मोह, लगाव
तमोगुण की विशेषता है, आलस्य, प्रमाद
हम सबको सतगुणी बनना है। सतगुणी कैसे बनेंगें? इसकी चर्चा श्रीभगवान ने सत्रहवें अध्याय में की है। हमारा ख़ान-पान, यज्ञ, दान, तप कैसा होना चाहिए? कैसे करना चाहिए? भगवद्गीता में श्रीभगवान ने बताया है। उसे जीवन में लायेंगे तो सतगुणी बन जाएँगे।रजोगुण की विशेषता है, मोह, लगाव
तमोगुण की विशेषता है, आलस्य, प्रमाद
आगे हम देखेंगे कि पुनर्जन्म कैसे होता है? सतगुणी मृत्यु के बाद कहाँ जाते हैं, उनकी क्या गति होती है? गरुड़ पुराण में नरक का वर्णन है और सतगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी व्यक्ति के साथ कैसे, क्या होता है? यह भी बताया गया है।
गीता पठन के समय बच्चों को बताया गया था कि निडर बनो, लीडर बनो। सतगुणी ही निडर बनता है, अर्थात् उसके जीवन में भय नहीं होता है। जितना व्यक्ति रजोगुण और तमो गुण से दूर जाएगा, मोह, आलस्य को छोड़ेगा, वह निर्भय हो जाएगा। निर्भय होकर, महापुरुष, हनुमान, अर्जुन और श्रीभगवान जैसे भी बन सकते हैं, किन्तु होता क्या है? हम अन्धकार से, छोटे-छोटे कीट पतङ्गों, तिलचिट्टों से ही भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगते हैं। सतगुणी के साथ क्या होता है? यह आरम्भ के श्लोकों में जाना। आगे श्रीभगवान बताते हैं कि रजोगुणी और तमोगुणी व्यक्ति के साथ मृत्यु के बाद क्या होता है?
14.15
रजसि प्रलयं(ङ्) गत्वा, कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि, मूढयोनिषु जायते॥14.15॥
रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्मसंगी मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।
14.15 writeup
कर्मणः(स्) सुकृतस्याहुः(स्), सात्त्विकं(न्) निर्मलं(म्) फलम्।
रजसस्तु फलं(न्) दुःखम्, अज्ञानं(न्) तमसः(फ्) फलम्॥14.16॥
विवेकी पुरुषों ने – शुभ कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख (कहा है और) तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।
विवेचन- अच्छे कर्म करने वाले लोगों में वैराग्य आ जाता है। वैराग्य से उनमें सोलहवें अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में बताये हुए, छब्बीस दैवीय गुण आने लगते हैं।
रजोगुणी जो क्रिया और भोजन करता है उसका फल ही है, दुःख।
कट्वम्ललवणात्युष्ण, तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा, दुःखशोकामयप्रदाः॥19.9॥
इसमें श्रीभगवान ने स्पष्ट बताया है कि कड़वे, खट्टे, बहुत गर्म, तीखे भोजन राजसी होते है। ये भोजन दुःख, शोक और आमेय प्रदान करते हैं। ये खाने के बाद स्वतः पेट दर्द या नाना शारीरिक कष्ट होते हैं। तमोगुण मतलब अन्धकार, हम कुम्भकर्ण के जैसे बन जाएँगे, खाएँगे और सोयेंगे।

रजोगुणी जो क्रिया और भोजन करता है उसका फल ही है, दुःख।
कट्वम्ललवणात्युष्ण, तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा, दुःखशोकामयप्रदाः॥19.9॥
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं(म्), रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो, भवतोऽज्ञानमेव च॥14.17॥
सत्त्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ (आदि) ही उत्पन्न होते हैं; तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं।
विवेचन- सतगुण से ज्ञान की वृद्धि होने लगती है। हमारे यहाँ बहुत से सन्त ऐसे हैं, जिन्होंने गुरुकुल जाकर विशेष ज्ञान अर्जित नहीं किया, फिर भी बहुत ज्ञानी हैं, कैसे? क्योंकि सतगुण के बढ़ जाने से ब्रह्माण्ड की ऊर्जाओं से उनके मन और बुद्धि का संयोग हो जाता है। ब्रह्माण्ड का वह ज्ञान उनके अन्तःकरण में समा जाता है। उन्हें किताबी ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं होती।

रजोगुण से लोभ बढ़ता है। लोभ बढ़ने से सर्वनाश हो जाता है। पैसों का लोभ व्यक्ति के ज्ञान को हर लेता है, इसलिए उसकी क्रिया भी असङ्गत होती है।
लोभ को दर्शाने वाली एक बहुप्रचलित कहानी हैः
एक व्यक्ति की मुर्गी प्रत्येक दिन सोने का अण्डा देती थी। एक दिन उसको लोभ आ गया कि रोज़ एक अण्डा देती है, तो क्यों न प्रयास करके एक दिन में ही सारे अण्डे निकाल लूँ। इस प्रयास में उसकी मुर्गी भी मर गयी, रोज़ मिलने वाला सोने का अण्डा भी बन्द हो गया। रावण का भी रजोगुण बढ़ गया तो बड़े-बड़े देवताओं से भी अनुचित कार्य एवम् दुर्व्यवहार करने लगा। अन्त में प्रभु श्रीराम को उसे मारना पड़ा। रजोगुण कम तभी होगा जब सतगुण बढ़ेगा।
प्रमाद, मोह, अज्ञान तमोगुण के परिणाम हैं। तमोगुणी व्यक्ति कुम्भकर्ण बन जाता है। प्रमाद पैदा हो जाता है। जो काम करना चाहिए वो नहीं करना, जो नहीं करना है वह करता है। मोह तो शुरू में अर्जुन को भी हो गया था। युद्ध नहीं करने की बात कृष्ण को बोल दी। कर्म करने से दूर भाग रहे थे। तमोगुण का परिणाम ही मोह और अन्धकार है। तमोगुण को दूर तभी भगा सकते है, जब सतगुण की वृद्धि होगी।
रजोगुण से लोभ बढ़ता है। लोभ बढ़ने से सर्वनाश हो जाता है। पैसों का लोभ व्यक्ति के ज्ञान को हर लेता है, इसलिए उसकी क्रिया भी असङ्गत होती है।
लोभ को दर्शाने वाली एक बहुप्रचलित कहानी हैः
एक व्यक्ति की मुर्गी प्रत्येक दिन सोने का अण्डा देती थी। एक दिन उसको लोभ आ गया कि रोज़ एक अण्डा देती है, तो क्यों न प्रयास करके एक दिन में ही सारे अण्डे निकाल लूँ। इस प्रयास में उसकी मुर्गी भी मर गयी, रोज़ मिलने वाला सोने का अण्डा भी बन्द हो गया। रावण का भी रजोगुण बढ़ गया तो बड़े-बड़े देवताओं से भी अनुचित कार्य एवम् दुर्व्यवहार करने लगा। अन्त में प्रभु श्रीराम को उसे मारना पड़ा। रजोगुण कम तभी होगा जब सतगुण बढ़ेगा।
प्रमाद, मोह, अज्ञान तमोगुण के परिणाम हैं। तमोगुणी व्यक्ति कुम्भकर्ण बन जाता है। प्रमाद पैदा हो जाता है। जो काम करना चाहिए वो नहीं करना, जो नहीं करना है वह करता है। मोह तो शुरू में अर्जुन को भी हो गया था। युद्ध नहीं करने की बात कृष्ण को बोल दी। कर्म करने से दूर भाग रहे थे। तमोगुण का परिणाम ही मोह और अन्धकार है। तमोगुण को दूर तभी भगा सकते है, जब सतगुण की वृद्धि होगी।
ऊर्ध्वं(ङ्) गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था, अधो गच्छन्ति तामसाः॥14.18॥
सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य ऊर्ध्वलोकों में जाते हैं, रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं (और) निन्दनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं।
विवेचन- पन्द्रहवें अध्याय में श्रीभगवान ने पुनर्जन्म की बात बतायी है। अट्ठारहवें अध्याय में बताया है कि जिनका पुनर्जन्म नहीं होता, वे बीच के लोक यानी स्वर्ग, नर्क आदि में जाते हैं। चौदह लोक होते हैं पर हमने तीन ही लोक सुने हैं। चौदह लोक हैं- पृथ्वी और उससे ऊपर के छ: लोक, पृथ्वी सहित ऊपर के सात लोक हो गये। पृथ्वी के नीचे के सात लोक।
भू, भुवस, स्वर, महा, जन, तपस और सत्य ऊपर और अतल, प्राण, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, पाताल और नरक नीचे।
जो ऊपर के लोकों में जाते हैं, उन्हें सुख और आराम मिलते हैं। मनचाही वस्तुएँ मिलती हैं, दिव्य शरीर मिलता है। जो जितने ऊपर के लोकों में जाते हैं, उतना ही अधिक सुख मिलता है। जो पृथ्वी के नीचे के लोकों में जाते हैं, उतना ही दुःख बढ़ा हुआ मिलता है। गरुड़ पुराण में तो बताया है कि सबसे नीचे के लोक में घोर यन्त्रणा मिलती है। पकौड़े की तरह गर्म तेल की कड़ाही में तला जाता है।
रजोगुण में मरने वाले की गति दो तरह की होती है।
लोभ की वृत्ति की एक कहानीः
एक धनी व्यक्ति के तीन पुत्र थे, पिता बिल्कुल मरणासन्न थे। बेटे चिन्ता में पिता के सामने खड़े थे।अचानक बहुत प्रयास के बाद में पिता ने चिल्लाते हुए कहा, यहाँ क्यों खड़े हो? गाय नया पर्दा चबा रही है। यह रजोगुण है। जिनको पैसों से मोह होता है, उनको ऐसा जन्म मिलता है, जिसमें बहुत कर्म करने पड़ते हैं। राजसी लोगों को मध्य के लोक मिलते हैं, जहाँ थोड़ी ख़ुशी, थोड़ा ग़म।
बच्चों का विशेष विवेचन होने के कारण बच्चों की बातों को उदाहरण देकर समझाने की चेष्टा की गयी। विद्यालय जाने के लिए सुबह उठने की इच्छा नहीं होने के बाद भी ज़बरदस्ती उठना पड़ता है। गीता पढ़ने को मिलती है, मित्र आते है, कथा सुनने को मिलती है, मनचाहा जीवन होने से ख़ुशी भी मिलती है। मनुष्य योनि भी मिल सकती है। मनुष्य योनि में भी दो तरह की गति होती है। एक, जिसमें थोड़े ही कार्य करने पड़ते हैं, पर अपार सम्पदा होती है। कुछ को बहुत श्रम और कार्य करने के बाद ही पैसे प्राप्त होते हैं। गधे की योनि भी मिलती है। विभिन्न लोकों में गया हुआ जीव सुख-दुःख को भोग कर फिर पृथ्वी पर आ जाता है। हमको जो जीवन मिला है वो सतगुण का ही परिणाम है। मन का खा सकते है, भाँति-भाँति के सुख भी पाते हैं। गीता पढ़ने का भी अवसर मिला है, तो हम सतगुणी ही थे।
तमोगुणी जो आलस्य और प्रमाद में मरते हैं, उन्हें नीचे के लोक मिलते हैं। कीट, पतङ्गों की योनियाँ मिलती हैं। मनुष्य जीवन पाकर भी तामसी भोजन और वृत्तियाँ होती हैं, उन्हें अधम योनियाँ ही मिलती हैं। ऐसा शरीर देते हैं, जिसका कोई उपयोग नहीं। तामसी गुणों में लिप्त मनुष्य चोरी, हत्या, व्यभिचार, भ्रष्टाचार जैसे अपराध करने लगता है। अगर हमारा मोबाइल कोई चोरी कर ले तो हमें कितना दुःख होता है? न मिलने पर हम कहते हैं, उसको भी उतना ही दुःख मिले। किसी की हत्या कर दें तो श्रीभगवान उसको सजा देते हैं, नर्क की यातना देकर। बहुत सी कोठरियों का वर्णन हैं, जहाँ आत्माओं को बन्द कर दिया जाता है। वहाँ गहन अन्धकार होता है। दुःख से सब चीखते चिल्लाते हैं। कई नदियों का भी वर्णन है। वैतरणी नदी का नाम आता है। ऐसे लोगों को उसमें डाल दिया जाता है।
श्रीभगवान ने अट्ठारहवें अध्याय के इकहत्तरवें श्लोक में कहा है, जो गीता सुनते हैं, पढ़ रहे हैं, याद कर रहें हैं, उन्हें पक्का ऊपर के लोक ही मिलेंगे। इन दो श्लोकों में परलोक की गति के बारे में बताया है।
सतगुणी देश, समाज, राष्ट्र का कार्य कर के प्रशंसा भी पाते हैं। कीट पतङ्गे कुछ भी नहीं कर सकते। परिवारवालों की बात मान कर, माँ-बाप की सेवा से हमारे भीतर हनुमान, अर्जुन और श्रीभगवान के जैसे गुणों का भी विकास हो सकता है। जीवन में सन्तुलन की आवश्यकता है।
अब श्रीभगवान इन लोकों से ऊपर के लोक के बारे में बता रहे हैं। एक रहस्य खोल रहे हैं। वैसे लोक में जाने वाले के लक्षण बताते हुए श्रीभगवान कहते हैं-
भू, भुवस, स्वर, महा, जन, तपस और सत्य ऊपर और अतल, प्राण, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, पाताल और नरक नीचे।
जो ऊपर के लोकों में जाते हैं, उन्हें सुख और आराम मिलते हैं। मनचाही वस्तुएँ मिलती हैं, दिव्य शरीर मिलता है। जो जितने ऊपर के लोकों में जाते हैं, उतना ही अधिक सुख मिलता है। जो पृथ्वी के नीचे के लोकों में जाते हैं, उतना ही दुःख बढ़ा हुआ मिलता है। गरुड़ पुराण में तो बताया है कि सबसे नीचे के लोक में घोर यन्त्रणा मिलती है। पकौड़े की तरह गर्म तेल की कड़ाही में तला जाता है।
रजोगुण में मरने वाले की गति दो तरह की होती है।
लोभ की वृत्ति की एक कहानीः
एक धनी व्यक्ति के तीन पुत्र थे, पिता बिल्कुल मरणासन्न थे। बेटे चिन्ता में पिता के सामने खड़े थे।अचानक बहुत प्रयास के बाद में पिता ने चिल्लाते हुए कहा, यहाँ क्यों खड़े हो? गाय नया पर्दा चबा रही है। यह रजोगुण है। जिनको पैसों से मोह होता है, उनको ऐसा जन्म मिलता है, जिसमें बहुत कर्म करने पड़ते हैं। राजसी लोगों को मध्य के लोक मिलते हैं, जहाँ थोड़ी ख़ुशी, थोड़ा ग़म।
बच्चों का विशेष विवेचन होने के कारण बच्चों की बातों को उदाहरण देकर समझाने की चेष्टा की गयी। विद्यालय जाने के लिए सुबह उठने की इच्छा नहीं होने के बाद भी ज़बरदस्ती उठना पड़ता है। गीता पढ़ने को मिलती है, मित्र आते है, कथा सुनने को मिलती है, मनचाहा जीवन होने से ख़ुशी भी मिलती है। मनुष्य योनि भी मिल सकती है। मनुष्य योनि में भी दो तरह की गति होती है। एक, जिसमें थोड़े ही कार्य करने पड़ते हैं, पर अपार सम्पदा होती है। कुछ को बहुत श्रम और कार्य करने के बाद ही पैसे प्राप्त होते हैं। गधे की योनि भी मिलती है। विभिन्न लोकों में गया हुआ जीव सुख-दुःख को भोग कर फिर पृथ्वी पर आ जाता है। हमको जो जीवन मिला है वो सतगुण का ही परिणाम है। मन का खा सकते है, भाँति-भाँति के सुख भी पाते हैं। गीता पढ़ने का भी अवसर मिला है, तो हम सतगुणी ही थे।
तमोगुणी जो आलस्य और प्रमाद में मरते हैं, उन्हें नीचे के लोक मिलते हैं। कीट, पतङ्गों की योनियाँ मिलती हैं। मनुष्य जीवन पाकर भी तामसी भोजन और वृत्तियाँ होती हैं, उन्हें अधम योनियाँ ही मिलती हैं। ऐसा शरीर देते हैं, जिसका कोई उपयोग नहीं। तामसी गुणों में लिप्त मनुष्य चोरी, हत्या, व्यभिचार, भ्रष्टाचार जैसे अपराध करने लगता है। अगर हमारा मोबाइल कोई चोरी कर ले तो हमें कितना दुःख होता है? न मिलने पर हम कहते हैं, उसको भी उतना ही दुःख मिले। किसी की हत्या कर दें तो श्रीभगवान उसको सजा देते हैं, नर्क की यातना देकर। बहुत सी कोठरियों का वर्णन हैं, जहाँ आत्माओं को बन्द कर दिया जाता है। वहाँ गहन अन्धकार होता है। दुःख से सब चीखते चिल्लाते हैं। कई नदियों का भी वर्णन है। वैतरणी नदी का नाम आता है। ऐसे लोगों को उसमें डाल दिया जाता है।
श्रीभगवान ने अट्ठारहवें अध्याय के इकहत्तरवें श्लोक में कहा है, जो गीता सुनते हैं, पढ़ रहे हैं, याद कर रहें हैं, उन्हें पक्का ऊपर के लोक ही मिलेंगे। इन दो श्लोकों में परलोक की गति के बारे में बताया है।
सतगुणी देश, समाज, राष्ट्र का कार्य कर के प्रशंसा भी पाते हैं। कीट पतङ्गे कुछ भी नहीं कर सकते। परिवारवालों की बात मान कर, माँ-बाप की सेवा से हमारे भीतर हनुमान, अर्जुन और श्रीभगवान के जैसे गुणों का भी विकास हो सकता है। जीवन में सन्तुलन की आवश्यकता है।
अब श्रीभगवान इन लोकों से ऊपर के लोक के बारे में बता रहे हैं। एक रहस्य खोल रहे हैं। वैसे लोक में जाने वाले के लक्षण बताते हुए श्रीभगवान कहते हैं-
नान्यं(ङ्) गुणेभ्यः(ख्) कर्तारं(म्), यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं(म्) वेत्ति, मद्भावं(म्) सोऽधिगच्छति॥14.19॥
जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के (सिवाय) अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और (अपने को) गुणों से पर अनुभव करता है, (तब) वह मेरे सत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
14.19 writeup
गुणानेतानतीत्य त्रीन्, देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखै:(र्), विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥14.20॥
देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है।
विवेचन- इन तीनों गुणों के अलावा कोई कर्त्ता नहीं है। जो कुछ भी क्रिया होती है, वह शरीर में ही होती है। आत्मा कार्य नहीं करती, वो निर्लिप्त है। हमारा शरीर काम कर रहा है। इन्द्रियाँ, हाथ, पैर और मुख ही कार्य करते हैं। ये सभी गुणों से ही बने हैं। जो गुणातीत हो गया उनसे ऊपर उठ गया। उसे ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक से परे मेरी प्राप्ति होती हैं। परम लोक की प्राप्ति होती है। शरीर ही जन्मता, मरता और वृद्ध होता है। हम आत्मा हैं, यह शरीर किसी और का है। हम कहते हैं, यह मेरा शरीर है, यह किसी और का शरीर है। परमलोक पाने वाले को शक्ति और ऊर्जा मिल जाती है। परमज्ञान की प्राप्ति होती है, परमानन्द मिल जाता है। आगे अर्जुन ने हमारी ओर से ही पूछ लिया।

अर्जुन उवाच
कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणानेतान्, अतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः(ख्) कथं(ञ्) चैतांस्, त्रीन्गुणानतिवर्तते॥14.21॥
अर्जुन बोले – हे प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से (युक्त) होता है? उसके आचरण कैसे होते हैं? और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है?
विवेचन - अर्जुन श्रीभगवान से पूछते हैं कि इन तीनों गुणों से अतीत लोगों का व्यवहार कैसा होता है, तीनों गुणों से अतीत कैसे चले जाते हैं?
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं(ञ्) च प्रवृत्तिं(ञ्) च, मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि, न निवृत्तानि काङ्क्षति॥14.22॥
श्री भगवान बोले – हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृति तथा मोह – (ये सभी) अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी (गुणातीत मनुष्य) इनसे द्वेष नहीं करता और (ये सभी) निवृत्त हो जायँ तो (इनकी) इच्छा नहीं करता।
विवेचन- श्रीभगवान बताते हैं कि प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह से परे व्यक्ति को किसी से न ग़ुस्सा होता है, न द्वेष। स्वादिष्ट भोजन मिलने पर भी, खाने की लालसा नहीं होती है। किसी के द्वारा अपमानित होने पर भी द्वेष नहीं होता। समता को प्राप्त व्यक्ति ही गुणों से अतीत होता है।
उदाहरण- परीक्षा के समय गणित की परीक्षा हो और विज्ञान पढ़ कर कोई बच्चा आ जाये तो वो डर जाता है। रोने लगता है। ऐसा सबके साथ होता है।
गुणातीत लोगों के साथ अच्छा हो जाये, बुरा हो जाये तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता है। इन्हें फल की इच्छा नहीं होती है।
काठ- भगवान शङ्कराचार्य जी को एक बार कपालियों ने पकड़ लिया। ये लोग बलि देते हैं। जलती हुई आग में डाल देते हैं। शङ्कराचार्य जी बिल्कुल भयभीत नहीं हुए। शरीर जलेगा, मैं शरीर नहीं हूँ। उन्होंने सहर्ष जाना स्वीकार कर लिया। उनके एक शिष्य थे, पदपादाचार्यजी उन्होंने श्रीनरसिंह भगवान का आह्वान किया। उन्होंने कपालियों को मार भगाया। प्रह्लादभक्त भी गुणातीत ही थे। उनको आग में जलाया गया, पहाड़ से फेङ्का गया पर वे पूर्णतः ठीक थे। प्रह्लाद जैसे लोग गुणातीत होते हैं।
उदाहरण- परीक्षा के समय गणित की परीक्षा हो और विज्ञान पढ़ कर कोई बच्चा आ जाये तो वो डर जाता है। रोने लगता है। ऐसा सबके साथ होता है।
गुणातीत लोगों के साथ अच्छा हो जाये, बुरा हो जाये तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता है। इन्हें फल की इच्छा नहीं होती है।
काठ- भगवान शङ्कराचार्य जी को एक बार कपालियों ने पकड़ लिया। ये लोग बलि देते हैं। जलती हुई आग में डाल देते हैं। शङ्कराचार्य जी बिल्कुल भयभीत नहीं हुए। शरीर जलेगा, मैं शरीर नहीं हूँ। उन्होंने सहर्ष जाना स्वीकार कर लिया। उनके एक शिष्य थे, पदपादाचार्यजी उन्होंने श्रीनरसिंह भगवान का आह्वान किया। उन्होंने कपालियों को मार भगाया। प्रह्लादभक्त भी गुणातीत ही थे। उनको आग में जलाया गया, पहाड़ से फेङ्का गया पर वे पूर्णतः ठीक थे। प्रह्लाद जैसे लोग गुणातीत होते हैं।
उदासीनवदासीनो, गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव, योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥14.23॥
जो उदासीन की तरह स्थित है (और) (जो) गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता (तथा) गुण ही (गुणों में) बरत रहे हैं – इस भाव से जो (अपने स्वरूप में ही) स्थित रहता है (और स्वयं कोई भी) चेष्टा नहीं करता।
विवेचन- गुणातीत व्यक्ति उदासीन हो जाते हैं, अर्थात् वे दुःखी नहीं होते। उनकी ख़ुशी शत प्रतिशत होती है। वह कम होती ही नहीं है। ऊपर से छलछलाते गिलास में आप और क्या भरेंगे? पहले से ही भरा हुआ है। गुणातीत ख़ुशी में भरे होते हैं, उन्हें और क्या खुश करेंगे? वो हर क्रिया, घटना और अवस्था में तटस्थ रहते हैं।
उदाहरण से जाने- अगर छोटा भाई डोरेमॉन (कोई कार्टून) देख रहा है। उस समय यदि उसे वह न देखने दिया जाए तो वह रोने लगता है। वही बालक जब बड़ा हो जाता है, तो फिर उस कार्टून के लिए नहीं रोता है। बात ऊपर उठने की है।
हम जब बच्चे होते हैं तो अपनी खिलौना गाड़ी को किसी को भी हाथ नहीं लगाने देते, वहीं बड़े हो होने जाने पर सहर्ष किसी को भी दे देते हैं। गुणातीत व्यक्ति सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता है। परीक्षा में उत्तीर्ण हों या न हों, किसी से मान या अपमान मिले, उसमें गुणातीत का सम भाव ही रहता है।
उदाहरण से जाने- अगर छोटा भाई डोरेमॉन (कोई कार्टून) देख रहा है। उस समय यदि उसे वह न देखने दिया जाए तो वह रोने लगता है। वही बालक जब बड़ा हो जाता है, तो फिर उस कार्टून के लिए नहीं रोता है। बात ऊपर उठने की है।
हम जब बच्चे होते हैं तो अपनी खिलौना गाड़ी को किसी को भी हाथ नहीं लगाने देते, वहीं बड़े हो होने जाने पर सहर्ष किसी को भी दे देते हैं। गुणातीत व्यक्ति सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता है। परीक्षा में उत्तीर्ण हों या न हों, किसी से मान या अपमान मिले, उसमें गुणातीत का सम भाव ही रहता है।
समदुःखसुखः(स्) स्वस्थः(स्), समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीर:(स्), तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥14.24॥
जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम (तथा) अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है, जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है। जो अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है (और) जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। (14.24-14.25)
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं, गुणातीत के लिए सुख-दुःख समान होते हैं। परमानन्द की प्राप्ति हुए व्यक्ति के सामने सांसारिक दुःख कुछ होते ही नहीं हैं। सोना और मिट्टी का ढ़ेला दोनों उनके लिए समान हैं। सोना उनके लिए बड़ी चीज नहीं और न ही पैसे का लालच होता है। हमारे पास संसार के सारे पैसे भी आ जायें, पर दाँत ही न हो तो हम खा नहीं सकते। कोई शारीरिक अस्वस्थता हो तो भी उपभोग नहीं कर पायेंगे। मानसिक शान्ति चाहिए। समता का भाव होने पर ही हम गुणातीत हो पाएँगे।
इसके विपरीत हम सभी प्रसंशा, स्तुति चाहते हैं। हमारी शिक्षिका हमारा कार्य देख कर सराहना करे, यह भाव रहता है। गुणातीत इन सबसे परे होता है। बच्चों को हरी सब्ज़ियाँ- किसी को बैगन, किसी को लौकी खाना पसन्द नहीं, तो किसी को मित्रों से मिलने में, खेलनें में आनन्द आता है। गुणातीत की पसन्द या नापसन्द कुछ होती ही नहीं है।
इसके विपरीत हम सभी प्रसंशा, स्तुति चाहते हैं। हमारी शिक्षिका हमारा कार्य देख कर सराहना करे, यह भाव रहता है। गुणातीत इन सबसे परे होता है। बच्चों को हरी सब्ज़ियाँ- किसी को बैगन, किसी को लौकी खाना पसन्द नहीं, तो किसी को मित्रों से मिलने में, खेलनें में आनन्द आता है। गुणातीत की पसन्द या नापसन्द कुछ होती ही नहीं है।
मानापमानयोस्तुल्य:(स्), तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः(स्) स उच्यते॥14.25॥
विवेचन- गुणातीत मान और अपमान में सम रहते हैं। प्रसंशा हो तो भी उन्हें विशेष आनन्द नहीं आता है, अपमान होने पर भी विचलित नहीं होते। मित्र को साथ रखूँ और शत्रु को मार दूँ, ऐसे दोनों ही भाव उनमें नहीं होते। कोई कार्य आरम्भ करते हैं, तो कर्त्तापन का अभिमान नहीं होता, बल्कि मेरा कर्म है, इस भाव से करते हैं। यदि पढ़ाई करते हैं तो पढ़ाई ही करें। एक बार परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है तो ईश्वर की शक्ति से सीधे जुड़ जाते हैं।
मां(ञ्) च योऽव्यभिचारेण, भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥14.26॥
और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।
14.26 writeup
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्, अमृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य, सुखस्यैकान्तिकस्य च॥14.27॥
क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं (ही हूँ)।
विवेचन- अव्यभिचारिणी भक्ति- अर्थात् दो अभिन्न मित्र अचानक एक दूसरे की मित्रता छोड़ किसी दूसरे से मित्रता कर लेते हैं तो यह मित्रता व्यभिचारिणी होती है। यदि अभिन्न मित्र अपनी मित्रता कभी भी न छोड़ें तो वह अव्यभिचारिणी मित्रता होगी। कोई श्रीकृष्ण को भजता है, फिर कभी दूसरे देवी-देवताओं की पूजा करने लगे तो उसकी भक्ति अव्यभिचारिणी नहीं हुई।
श्रीभगवान की ही शरणागति में जो जीते हैं। जिनके जीवन का आधार श्रीकृष्ण होते है, उन्हें कोई भी चिन्ता नहीं होती। वे सुख और दुःख दोनों से ऊपर होते हैं। श्रीभगवान ही सब कुछ नियन्त्रित करते हैं। जो बनाने वाला है, वह कैसे कुछ नष्ट कर सकता है? श्रीभगवान को मित्र बनायें। सुदामा ने श्रीकृष्ण को मित्र बनाया तो उनके बिना माँगे ही श्रीभगवान उनके अभाव दूर कर देते हैं। भरी सभा में द्रौपदी का अपमान दुर्योधन और दु:शासन ने किया, तो श्रीभगवान को मित्र मानने वाली द्रौपदी के मान की रक्षा श्रीभगवान ने वहाँ उपस्थित हुए बिना ही कर दी। अर्जुन भी श्रीभगवान के अभिन्न मित्र थे। श्रीभगवान ने स्वयं कहा कि अर्जुन मेरा प्रिय मित्र है। हम भी भगवद्गीता पढ़ेंगे तो श्रीभगवान के प्रिय मित्र हो जाएँगे।

पिछली बार बहुत से बच्चों ने अच्छी आदतों का सङ्कल्प लिया था, उस पर चर्चा करेंगे। किन-किन बच्चों ने इसका पालन किया।
सम्बित- मैंने झूठ बोलना छोड़ दिया। अब चीजें याद भी रखता हूँ। एक हफ़्ते से इसका पालन भी कर रहा हूँ।
कृतिका- ने सङ्कल्प लिया था कि वह स्मरण शक्ति को बढ़ावा देगी। अब सब कुछ याद हो जाता है। उसके पास पढ़ाई करने के बाद भी समय बचता है। उसने उसका सदुपयोग करने का सङ्कल्प लिया है। वह अब ख़ाली समय का सही उपयोग कर रही है।
ईशिका- अब प्रत्येक दिन गीता जी पढ़ती है।
मधुश्री- अब पढ़ते हुए खाना नहीं खाती है। हनुमान चालीसा भी गाती है और तिलक भी लगाती है।
अनन्या- दाँतों से नाखून चबाती थी, अब ध्यान रख कर नाखून न चबाने की चेष्टा करती है।
प्रीतेश- माँ के पुस्तक मँगवाने पर विद्यालय से लाने में भूल जाता था। अब जाते समय याद रखता है। लिख कर ले जाना विशेष लाभदायक हो सकता है।
युग- मन्दिर में दिया जला कर गीताजी के दो अध्यायों का पठन करता है। कभी बारहवें और पन्द्रहवें या फिर कभी सत्रहवें अध्याय का पाठ करता है। अनन्या ने भी बताया कि वह भी गीता जी का पाठ करती है और ग़ुस्सा भी करना छोड़ दिया है।
रिया दीदी- विद्यालय में चिड़चिड़ाहट होती थी, अकेलापन भी लगता था। अभ्यास से कुछ कम हुआ है। अकेलापन भी नहीं लगता। अब औरों से बातचीत भी करती है। श्रीकृष्ण उसके मित्र हैं, ऐसा सोचने से उसे अकेलापन नहीं लगता।
बालकों के इस विषेश सत्र में सभी ने बताया कि श्रीकृष्ण उनके भी मित्र हैं। अन्त में सभी बच्चों ने समवेत स्वर में सोलहवें अध्याय के पहले, दूसरे और तीसरे श्लोक का पठन किया। पुष्पिका वाचन के साथ ही इस बालक विशेष विवेचन सत्र का समापन हुआ।
प्रश्नकर्ता - शिवि दीदी
प्रश्न - गीता कक्षाओं में दीदी ने समझाया कि किसी के साथ झगड़ना नहीं चाहिए, किसी के साथ लड़ना भी नहीं चाहिए। ऐसे में सेना में जो सैनिक होते हैं, वे युद्ध करते हैं तो उनका क्या? उन्हें कौन सा लोक मिलेगा?
उत्तर - सैनिकों को तो बहुत ही अच्छा ऊर्ध्व लोक मिलेगा। सोचने वाली बात है, वे युद्ध करते किस लिए हैं? वे तो देश, देशवासियों की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे हैं। वे अपना कर्तव्य कर रहे हैं, उसके साथ ही वे अहिंसा को सर्वोपरि रखते हुए, शत्रुओं की हिंसा को निरस्त करने के लिए ही युद्ध करते हैं। महाभारत की युद्ध भूमि में अर्जुन ने भी युद्ध किया था। धर्म संस्थापना के लिए अर्जुन ने युद्ध किया था। यदि वे ऐसा न करते तो दुर्योधन अपने लक्ष्य में सफल होकर, निर्दोष जनता पर अत्याचार करता, दुर्व्यवहार करता। इस तरह जब हम धर्म स्थापना के लिए युद्ध करते हैं तो वह गलत नहीं होता।
प्रश्नकर्ता -क्रितिका मोदी दीदी
प्रश्न - गीताजी का कौन सा अध्याय है जिसको पढ़ने से मन को शान्ति मिलती है?
उत्तर - गीताजी का कोई भी अध्याय पढ़ने से मन को शान्ति मिलती है, इसमें कोई दो राय नहीं। अब देखना यह है कि आपको किस बात से मन में अशान्ति उत्पन्न हो रही है और वह कारण जानने के बाद पता चलेगा कि कौन सा अध्याय पढ़ना सही रहेगा।
प्रश्नकर्ता - रिया अग्रवाल दीदी
प्रश्न - हमें गीता कक्षा में लर्न गीता के माध्यम से श्लोकों को सीखने की क्या आवश्यकता है, जबकि हम विवेचन सत्र में श्लोक को सुनकर गीता जी को अपने जीवन में ला सकते हैं?
उत्तर - इसमें दो विषय हैं। गीता जी के जो श्लोक हैं वे मन्त्र की तरह हैं। जब उनको हम स्वयं अपनी वाणी से दोहराते हैं, उनका उच्चारण करते हैं तो उनका एक बहुत ही अच्छा प्रभाव हम पर होता है। विवेचन सत्र में उसका अर्थ सुनकर या श्लोक को सुनने से वह प्रभाव हम पर नहीं होता है। विवेचन सत्र में श्लोक का अर्थ हम समझ सकते हैं लेकिन श्लोक से नहीं जुड़ पाते। जब हम श्लोक कण्ठस्थ कर लेते हैं, तो जब उससे सम्बन्धित कोई बात होगी तो तुरन्त श्लोक हमारे मस्तिष्क में आ जाएगा, हम उससे जुड़ जाते हैं। श्लोक को याद करना भी एक तपस्या है। श्लोक को कण्ठस्थ करने के लिए जब हम प्रयासरत होते हैं, तो जैसे हम गीता जी को अपने भीतर घोल रहे होते हैं।
प्रश्नकर्ता - सिद्धि मिश्रा दीदी
प्रश्न - चौदहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक का अर्थ जानना चाहती हूँ और अध्याय के नाम का अर्थ?
उत्तर - किन लक्षणों से युक्त हुआ वह पुरुष इन तीनों गुणों से अतीत हो जाता है। उसके लक्षण क्या होते हैं और उसका आचरण कैसा होता है, वह कैसे चलता है और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके कैसे उस पार चला जाता है? गुणत्रयविभागयोग अध्याय का अर्थ होता है तीनों गुणों के विभाग, अर्थात् सतगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों गुणों के विभाग।
प्रश्नकर्ता - इशिका लाहोटी दीदी
प्रश्न - चौदहवें अध्याय के पहले श्लोक का अर्थ जानना चाहती हूँ?
उत्तर - श्रीभगवान कह रहे हैं, सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम और श्रेष्ठ ज्ञान को फिर कहूँगा। जिसको जानकर सब सन्त, मुनि इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।
श्रीभगवान की ही शरणागति में जो जीते हैं। जिनके जीवन का आधार श्रीकृष्ण होते है, उन्हें कोई भी चिन्ता नहीं होती। वे सुख और दुःख दोनों से ऊपर होते हैं। श्रीभगवान ही सब कुछ नियन्त्रित करते हैं। जो बनाने वाला है, वह कैसे कुछ नष्ट कर सकता है? श्रीभगवान को मित्र बनायें। सुदामा ने श्रीकृष्ण को मित्र बनाया तो उनके बिना माँगे ही श्रीभगवान उनके अभाव दूर कर देते हैं। भरी सभा में द्रौपदी का अपमान दुर्योधन और दु:शासन ने किया, तो श्रीभगवान को मित्र मानने वाली द्रौपदी के मान की रक्षा श्रीभगवान ने वहाँ उपस्थित हुए बिना ही कर दी। अर्जुन भी श्रीभगवान के अभिन्न मित्र थे। श्रीभगवान ने स्वयं कहा कि अर्जुन मेरा प्रिय मित्र है। हम भी भगवद्गीता पढ़ेंगे तो श्रीभगवान के प्रिय मित्र हो जाएँगे।
पिछली बार बहुत से बच्चों ने अच्छी आदतों का सङ्कल्प लिया था, उस पर चर्चा करेंगे। किन-किन बच्चों ने इसका पालन किया।
सम्बित- मैंने झूठ बोलना छोड़ दिया। अब चीजें याद भी रखता हूँ। एक हफ़्ते से इसका पालन भी कर रहा हूँ।
कृतिका- ने सङ्कल्प लिया था कि वह स्मरण शक्ति को बढ़ावा देगी। अब सब कुछ याद हो जाता है। उसके पास पढ़ाई करने के बाद भी समय बचता है। उसने उसका सदुपयोग करने का सङ्कल्प लिया है। वह अब ख़ाली समय का सही उपयोग कर रही है।
ईशिका- अब प्रत्येक दिन गीता जी पढ़ती है।
मधुश्री- अब पढ़ते हुए खाना नहीं खाती है। हनुमान चालीसा भी गाती है और तिलक भी लगाती है।
अनन्या- दाँतों से नाखून चबाती थी, अब ध्यान रख कर नाखून न चबाने की चेष्टा करती है।
प्रीतेश- माँ के पुस्तक मँगवाने पर विद्यालय से लाने में भूल जाता था। अब जाते समय याद रखता है। लिख कर ले जाना विशेष लाभदायक हो सकता है।
युग- मन्दिर में दिया जला कर गीताजी के दो अध्यायों का पठन करता है। कभी बारहवें और पन्द्रहवें या फिर कभी सत्रहवें अध्याय का पाठ करता है। अनन्या ने भी बताया कि वह भी गीता जी का पाठ करती है और ग़ुस्सा भी करना छोड़ दिया है।
रिया दीदी- विद्यालय में चिड़चिड़ाहट होती थी, अकेलापन भी लगता था। अभ्यास से कुछ कम हुआ है। अकेलापन भी नहीं लगता। अब औरों से बातचीत भी करती है। श्रीकृष्ण उसके मित्र हैं, ऐसा सोचने से उसे अकेलापन नहीं लगता।
बालकों के इस विषेश सत्र में सभी ने बताया कि श्रीकृष्ण उनके भी मित्र हैं। अन्त में सभी बच्चों ने समवेत स्वर में सोलहवें अध्याय के पहले, दूसरे और तीसरे श्लोक का पठन किया। पुष्पिका वाचन के साथ ही इस बालक विशेष विवेचन सत्र का समापन हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता - शिवि दीदी
प्रश्न - गीता कक्षाओं में दीदी ने समझाया कि किसी के साथ झगड़ना नहीं चाहिए, किसी के साथ लड़ना भी नहीं चाहिए। ऐसे में सेना में जो सैनिक होते हैं, वे युद्ध करते हैं तो उनका क्या? उन्हें कौन सा लोक मिलेगा?
उत्तर - सैनिकों को तो बहुत ही अच्छा ऊर्ध्व लोक मिलेगा। सोचने वाली बात है, वे युद्ध करते किस लिए हैं? वे तो देश, देशवासियों की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे हैं। वे अपना कर्तव्य कर रहे हैं, उसके साथ ही वे अहिंसा को सर्वोपरि रखते हुए, शत्रुओं की हिंसा को निरस्त करने के लिए ही युद्ध करते हैं। महाभारत की युद्ध भूमि में अर्जुन ने भी युद्ध किया था। धर्म संस्थापना के लिए अर्जुन ने युद्ध किया था। यदि वे ऐसा न करते तो दुर्योधन अपने लक्ष्य में सफल होकर, निर्दोष जनता पर अत्याचार करता, दुर्व्यवहार करता। इस तरह जब हम धर्म स्थापना के लिए युद्ध करते हैं तो वह गलत नहीं होता।
प्रश्नकर्ता -क्रितिका मोदी दीदी
प्रश्न - गीताजी का कौन सा अध्याय है जिसको पढ़ने से मन को शान्ति मिलती है?
उत्तर - गीताजी का कोई भी अध्याय पढ़ने से मन को शान्ति मिलती है, इसमें कोई दो राय नहीं। अब देखना यह है कि आपको किस बात से मन में अशान्ति उत्पन्न हो रही है और वह कारण जानने के बाद पता चलेगा कि कौन सा अध्याय पढ़ना सही रहेगा।
प्रश्नकर्ता - रिया अग्रवाल दीदी
प्रश्न - हमें गीता कक्षा में लर्न गीता के माध्यम से श्लोकों को सीखने की क्या आवश्यकता है, जबकि हम विवेचन सत्र में श्लोक को सुनकर गीता जी को अपने जीवन में ला सकते हैं?
उत्तर - इसमें दो विषय हैं। गीता जी के जो श्लोक हैं वे मन्त्र की तरह हैं। जब उनको हम स्वयं अपनी वाणी से दोहराते हैं, उनका उच्चारण करते हैं तो उनका एक बहुत ही अच्छा प्रभाव हम पर होता है। विवेचन सत्र में उसका अर्थ सुनकर या श्लोक को सुनने से वह प्रभाव हम पर नहीं होता है। विवेचन सत्र में श्लोक का अर्थ हम समझ सकते हैं लेकिन श्लोक से नहीं जुड़ पाते। जब हम श्लोक कण्ठस्थ कर लेते हैं, तो जब उससे सम्बन्धित कोई बात होगी तो तुरन्त श्लोक हमारे मस्तिष्क में आ जाएगा, हम उससे जुड़ जाते हैं। श्लोक को याद करना भी एक तपस्या है। श्लोक को कण्ठस्थ करने के लिए जब हम प्रयासरत होते हैं, तो जैसे हम गीता जी को अपने भीतर घोल रहे होते हैं।
प्रश्नकर्ता - सिद्धि मिश्रा दीदी
प्रश्न - चौदहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक का अर्थ जानना चाहती हूँ और अध्याय के नाम का अर्थ?
उत्तर - किन लक्षणों से युक्त हुआ वह पुरुष इन तीनों गुणों से अतीत हो जाता है। उसके लक्षण क्या होते हैं और उसका आचरण कैसा होता है, वह कैसे चलता है और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके कैसे उस पार चला जाता है? गुणत्रयविभागयोग अध्याय का अर्थ होता है तीनों गुणों के विभाग, अर्थात् सतगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों गुणों के विभाग।
प्रश्नकर्ता - इशिका लाहोटी दीदी
प्रश्न - चौदहवें अध्याय के पहले श्लोक का अर्थ जानना चाहती हूँ?
उत्तर - श्रीभगवान कह रहे हैं, सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम और श्रेष्ठ ज्ञान को फिर कहूँगा। जिसको जानकर सब सन्त, मुनि इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय:।।
इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘गुणत्रयविभागयोग’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।