विवेचन सारांश
दिव्य विभूतियों का प्रधानता से वर्णन
10.11
तेषामेवानुकम्पार्थम्,अहमज्ञानजं(न्) तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो, ज्ञानदीपेन भास्वता॥10.11॥
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, वह भाव से जाना जाता है।
अर्जुन उवाच
परं(म्) ब्रह्म परं(न्) धाम, पवित्रं(म्) परमं(म्) भवान्।
पुरुषं(म्) शाश्वतं(न्) दिव्यम्, आदिदेवमजं(म्) विभुम्॥10.12॥
आहुस्त्वामृषयः(स्) सर्वे, देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः(स्), स्वयं(ञ्) चैव ब्रवीषि मे॥10.13॥
भगवान् वेदव्यास जी भी जब कभी हमारे राजमहल मे आते थे तो आपके बारे मे इसी प्रकार के वचन उनके मुख से हम लोग सुनते थे लेकिन तब मैंने इसकी और उतना ध्यान ही नहीं दिया। श्रीभगवान् की भक्ति गाने वाले अनेक महानुभाव किस प्रकार से उनके गीत गाते हैं, कितने स्तोत्रों की रचना करते हैं, हमें पता है।
सर्वमेतदृतं(म्) मन्ये, यन्मां(म्) वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं(म्), विदुर्देवा न दानवाः॥10.14॥
स्वयमेवात्मनात्मानं(म्), वेत्थ त्वं(म्) पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश,देवदेव जगत्पते॥10.15॥
जिसका निर्माण होता है, जन्म होता है वह भूत। विभूति का अर्थ है, जो उनमें विशेष है, जिसमे परमात्मा का प्रागट्य या परमात्मा की अनुभूति होती है।
विभूति का दूसरा अर्थ समृद्धि होता है, परमात्मा की विशेषता की समृद्धि।
वक्तुमर्हस्यशेषेण,दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकान्, इमांस्त्वं(म्) व्याप्य तिष्ठसि॥10.16॥
कथं(म्) विद्यामहं(म्) योगिंस्, त्वां(म्) सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु,चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥10.17॥
तुलसीदास जी कहते हैं,
मम हृदय- कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं।।
हा भक्तियोगु निश्चित। जाण माझा।
विस्तरेणात्मनो योगं(म्), विभूतिं(ञ्) च जनार्दन।
भूयः(ख्) कथय तृप्तिर्हि, शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥10.18॥
सन्त ज्ञानेश्वर माऊली कहते हैं, क्या गङ्गाजल कभी बासी हो सकता है? कितना भी पुराना होने पर भी क्या उसमें कभी जन्तु हो सकते हैं? क्या सूर्य का प्रकाश कभी बासी हो सकता है? क्या हम कभी गङ्गाजल जैसे पवित्र जल को और सूर्य प्रकाश को मना कर सकते हैं? नहीं, वे तो हमें नित्य चाहिए। ठीक उसी प्रकार आपके अमृतमय वचनों से मेरी तृप्ति ही नहीं हो रही है। ऐसी उत्कण्ठा है कि आपकी अमृतवाणी बरसती रहे और मैं सुनता रहूँ।
तुकाराम महाराज कहते हैं,
जब कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय अर्जुन की विभूतियोग सुनने की लालसा देखकर श्रीभगवान् उन पर प्रसन्न हुए तो हमारे नित्य जीवन सङ्घर्ष के समय यदि हम गीता जी का पठन, मनन करेंगे, विवेचन सुनेंगे तो क्या भगवान् श्रीकृष्ण हम पर प्रसन्न नहीं होंगे?
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि, दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः(ख्) कुरुश्रेष्ठ, नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥10.19॥
अहमात्मा गुडाकेश, सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं(ञ्) च, भूतानामन्त एव च॥10.20॥
विवेचनः अर्जुन को श्रीभगवान् यहाँ गुडाकेश नाम से सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि (गुडाकेश अर्थात् जिसने अपनी निद्रा पर नियन्त्रण पा लिया है।) अर्जुन ने धनुर्विद्या सीखने के लिए रात-रात भर अपनी निद्रा को त्याग कर अभ्यास किया था। अर्जुन का अपनी निद्रा पर पूरा नियन्त्रण था, परन्तु अभी अर्जुन मोहरूपी निद्रा में हैं इसलिये भी श्रीभगवान् अर्जुन को गुडाकेश कह रहे होंगे।
श्रीभगवान् कहते हैं- हे गुडाकेश! भूतमात्र के आशय यानी अन्तःकरण में स्थित, मैं कौन हूँ? आत्मा एवम् आत्मरूप में, मैं सभी के हृदय मे स्थित हूँ। मैं सभी में विराजित आत्मतत्त्व हूँ, यह भुलना नही।
केवल बहिरङ्ग मे परमात्मा की विभूतियों को देखोगे और अन्तःरङ्ग के आत्मतत्त्व को भूल जाओगे, तो मैं समग्रता से तुम्हे प्राप्त नहीं होऊँगा, यह समझ लो।
पहली विभूति श्रीभगवान् ने जो बताई वह है, आत्मतत्त्व। अपना पता भी बता दिया कि मैं हृदय में स्थित हूँ। भगवद्गीता मे कई जगह श्रीभगवान् अपना पता बताते है। यहाँ पर बताते हैं कि सभी के अन्त:करण मे विराजित, स्थित वो आत्मत्तत्व मैं ही हूँ।
Internally we all are one and inter connected.
हम सभी आन्तरिक रूप मे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
सातवें अध्याय मे हमने देखा है,
मत्तः(फ्) परतरं(न्) नान्यत्, किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं(म्) प्रोतं(म्), सूत्रे मणिगणा इव॥7.7॥
जिस प्रकार से माला में मणि पिरोए जाते हैं उसी प्रकार मैने सभी भूतमात्र को अदृश्य अन्तःकरण रूपी सूत्र में पिरोया है। सभी भूतमात्र का, सृष्टि का आदि, मध्य और अन्त सभी मैं हूँ।
बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि हमारे सन्त-महात्मा परमात्मा को सृष्टि के कण-कण मे कैसे देखते थे?
सन्त सावता माळी अपने खेत मे उगी हर सब्जी-भाजी, प्याज- मूली मे विट्ठल भगवान् को देखते थे,
कांदा, मुळा, भाजी, अघि विठाई माझी।
रामकृष्ण परमहंस जी के जीवन का एक प्रसङ्ग है। उन्हें मिठाई अतिप्रिय थी परन्तु गले के केंसर के कारण वे मिठाई नही खा सकते थे। वास्तव में श्री रामकृष्ण जी ने मिठाई के बहाने दुनिया से तारतम्य जोड़ के रखा था। तब उनके प्रिय शिष्य नरेन्द्र दत्त अर्थात् स्वामी विवेकानन्द जी ने उनसे प्रार्थना की, कि वे जगदम्बा काली माई को उनका रोग ठीक करने की प्रार्थना करें जिससे वे मिठाई खा सकें तब श्रीरामकृष्ण जी ने सुन्दर उत्तर दिया कि अरे! आप सब लोग जो अपने-अपने मुखों से मिठाई खा रहे हैं, वह मैं ही तो खा रहा हूँ। देखिए कि सन्त-महात्मा, सब लोगों के साथ किस प्रकार से एकाकार होते थे।
श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
तैसा हृदयामध्ये मी रामू। असता सर्व सुखाचा आरामू।
का भ्रांतासी पडे कामू। विषय वरी।।
सन्त कबीर कहते हैं अरे, भगवान् को कहाँ ढूँढ रहे हो?
मोको कहाँ ढूँढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
न मन्दिर में न मस्जिद में, न काबा कैलास में।।
मैं तो तुम्हारे ही अन्दर स्थित हूँ। तीर्थ स्थानों से उर्जा प्राप्त करने जाएँ पर ये न भूलें कि परमात्मा तो अन्तःकरण मे विराजित हैं।
इसलिये श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
तैसे हृदया मधे मी रामू, रमू याने विश्राम, रम जाना।
राम शांतता, निर्वाण हैं।
शान्ति के लिए, सुख के लिए दौड़ने वाले जीव को श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, अरे, तुम्हारे हृदय मे स्थित उस राम का, आत्मत्तत्व का परिचय कर लो न।
परम् श्रद्धेय श्रीगुरुदेव जी कहते हैं कि हमारी सनातन् संस्कृति में एक सुन्दर पद्धति है कि हम जब एक दुसरे से मिलते हैं तो राम- राम कहते हैं। इसका मतलब यह है कि तुम्हारे अन्दर के राम और मेरे अन्दर के राम का मिलन हो।
अहम् ब्रह्मास्मि तत्वमसि।
जब शिष्य उस अनुभूति तक पहुँचते हैं तो गुरु, शिष्य को कहते हैं, तत्वमसि, तुम वही हो। तो शिष्य उत्तर देता है, अहम् ब्रह्मास्मि, मैं ही वह ब्रह्मस्वरूप हूँ।
यह भी ध्यान रखने योग्य है कि हम यहाँ ब्रह्मविद्या सीख रहे हैं। हम यह ब्रह्मविद्या उसके साथ एकाकार होकर, जुड़ कर सीख रहे हैं। जैसा कि हम पुष्पिका मे देखते है,।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ),
परन्तु हमें एक बात ध्यान में रखनी है कि भले ही हम सब एक-दूसरे से जुड़े हैं परन्तु सबके साथ एक जैसा व्यहवार नहीं करना है। जिस प्रकार एक ही विद्युत से अलग अलग उपकरण चलते हैं और उनके उपयोग अलग-अलग होते हैं उसी तरह चेतना एक होने पर भी हमें सब व्यक्तियों से अलग-अलग व्यवहार उनकी योग्यतानुसार करना चाहिए।
जिस प्रकार अध्याय पाँच मे कहा है-
विद्याविनयसम्पन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः(स्) समदर्शिनः॥5.18॥
अर्थात्, विद्या सम्पन्न ब्राह्मण हो, गौ माता हो, हथिनी हो, कुत्ता हो, माँस भक्षी चाण्डल हो, सभी मे वही चेतना है परन्तु सम् वर्तना नही है। हमें सबकी चेतना का दर्शन करना चाहिए, परन्तु सबके साथ व्यवहार उनकी योग्यता के अनुसार ही करना चाहिए।
इसलिये कहते हैं-
पायरीशी होउ दंग, गावूनी अभंग।
स्वयं को पहचानना, अपनी भी पात्रता समझना आवश्यक है। मेरे अन्दर भी वही परमात्मा हैं परन्तु उन्होंने मुझे कहाँ रखा है? यह समझना भी आवश्यक है।
भगवान् श्रीराम जो मर्यादा पुरुषोत्तम होकर भी कभी भी अपनी सीमाओं का उलङ्घन नही करते। भगवान् श्रीराम की तरह ज्ञान प्राप्त करते हुए हमें समग्रता से जीवन यापन करना चाहिए।
आगे श्रीभगवान् विभूतियों का विस्तार कर रहे हैं।
आदित्यानामहं(म्) विष्णु:(र्), ज्योतिषां(म्) रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि, नक्षत्राणामहं(म्) शशी॥10.21॥
ॐ नमोजी आद्या । वेदप्रतिपाद्या। जय जय स्वसंवेद्या । आत्मरूपा॥1।।
वेदानां(म्) सामवेदोऽस्मि, देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां(म्) मनश्चास्मि, भूतानामस्मि चेतना॥10.22॥
रुद्राणां(म्) शङ्करश्चास्मि,वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां(म्) पावकश्चास्मि, मेरुः(श्) शिखरिणामहम्॥10.23॥
आठ वसु मे जो द्यो नामक वसु थे उन्होंने षडयन्त्र करके महर्षि वशिष्ठ की कामधेनु गाय का अपहरण कर लिया था तो वशिष्ठ मुनि के श्राप के परिणामस्वरूप उन आठों वसुओं ने गङ्गा मैया के पुत्र बन कर जन्म लिया। उनमें से सात को तो गङ्गा मैया ने अपने प्रवाह मे बहा दिया पर ये जो द्यो था वो बच गया, जो आगे चल के भीष्म पितामह के नाम से जाने गये। इस तरह भीष्म गङ्गा जी के पुत्र थे। ऐसे वसुओं की अशुद्धियों को भस्म कर के पवित्र करनेवाली अग्नि मैं हूँ।
पुरोधसां(ञ्) च मुख्यं(म्) मां(म्), विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं(म्) स्कन्दः(स्),सरसामस्मि सागरः॥10.24॥
महर्षीणां(म्) भृगुरहं(ङ्),गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां(ञ्) जपयज्ञोऽस्मि, स्थावराणां(म्) हिमालयः॥10.25॥
अक्षरों मे एक अक्षर (प्रणवाक्षर), ॐ (ओङ्कार) मैं हूँ। स्थिर रहने वालों मे हिमालय पर्वत मैं हूँ। हिमालय के कण-कण में आध्यात्मिकता है।
इसी के साथ सत्र समाप्त हुआ एवं प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
विचार - मन्थन (प्रश्नोत्तर)-
प्रश्नकर्ता - विद्याधर जी