विवेचन सारांश
सत्त्व, रज, तम - त्रिगुणों के लक्षण
पारम्परिक दीप प्रज्वलन, हनुमान चालीसा पाठ, श्री गुरु वन्दना एवं भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में वन्दन करते हुए अध्याय चौदह के मध्यांश विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ।
श्रीभगवान की अतिशय मङ्गलमय कृपा हम सब लोगों पर बरस रही है, जिससे मानव जीवन के परम उच्च लक्ष्य पर पहुँचने के लिए, उसका परम अर्थ प्राप्त करने के लिए, इस जीवन को सार्थक, सुफल करने के लिए, इस जीवन का परम उच्च लक्ष्य जानने के लिए हम लोग अब प्रवृत्त हो गए हैं।
इस गीता यात्रा में गीताजी के प्रति हमारी समझ थोड़ी बढ़ी है। कुछ बातें समझ आने लगी हैं। यह भी समझ आने लगा है कि गीता कैसे जीवन-शास्त्र है?
गीता कोई धर्मशास्त्र नहीं है। इसमें कहीं नहीं बताया गया है कि पूजा-पद्धति कैसे करनी है? उपासना कैसे करनी है? तिलक कैसे लगाना है?
श्रीमद्भगवद्गीता हमें सिखाती है कि जीवन को कैसे जीना है और कौन से गुणों को धारण करना है।
चौदहवें अध्याय का चिन्तन अति विशिष्ट है। इसका चिन्तन हम कर पा रहे हैं, इससे जुड़ गए हैं, यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात है।
हम जीवन में गीता पढ़ने के लिए चुन लिए गए हैं। पता नहीं कि हमारे इस जन्म के सुकृत हैं, पूर्व जन्मों के सुकृत हैं, हमारे पूर्वजों के कोई पुण्य फलित हुए हैं या फिर किसी जन्म में किसी सन्त-महात्मा की कृपा-दृष्टि हम पर पड़ गई, जिस कारण यह सम्भव हो सका। यह अद्भुत, अविश्वसनीय हो सकता है।
किसी भी पुण्य के प्रभाव से या कृपा के प्रभाव से हम भगवद्गीता के लिए चुन लिए गए हैं तो अब हमें चूकना नहीं चाहिए। यह सर्वोत्तम प्रसाद है। श्रीभगवान कहते हैं-
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ॥2:65।।
जो व्यक्ति प्रसन्न होता है उसके सब दुःखों का नाश हो जाता है।
हनुमानजी महाराज ने तीनों गुणों सत, रज, तम को प्राप्त करके, विजय करके जीवन में गुणातीत अवस्था प्राप्त की। संसार में जितना भी आकर्षण दिखता है- नाम, रूप, उनकी भिन्नताएँ दिखती हैं, उनका मूल कारण ये तीनों गुण ही हैं।
किसी को प्रतीत हो सकता है कि इन तीन गुणों के कारण इतनी भिन्नता कैसे हो सकती है कि सबके रूप भी अलग हैं, रेटिना भी अलग हैं, उँगलियों की छाप भी अलग है, कोई स्त्री है, कोई पुरुष है, कोई हाथी है, कोई घोड़ा है, कोई पेड़ है, कोई जमीन है, कोई नदी है, सभी में तीन गुण हैं। ये मूल तत्त्व तीन हैं।
विचार करें कि एक हजार महिलाओं को एकत्र करके आलू की सब्जी और रोटी बनाने को कहा गया। सभी को समान मात्रा में आलू, मसाले, आटा दिया गया। समान मात्रा के सामान से बना होने पर भी सभी महिलाओं के खाने का स्वाद अलग-अलग होगा। सबके स्वाद में भिन्नता होगी। सबको एक-सा सामान दिया, परन्तु सामान कौन कितनी मात्रा में और कब डालता है और उसे किस प्रकार से पकाएगा, उससे सबके भोजन का स्वाद अलग-अलग होगा। किसी का बहुत तीखा होगा और किसी का बिल्कुल सादा होगा। उनमें स्वाद तो अलग होगा ही परन्तु देखने में भी बिल्कुल अलग होंगे। रोटी भी अलग दिखेगी, सब्जी भी अलग दिखेंगी। किन्हीं भी दो महिलाओं का खाना एक समान नहीं हो सकता। मूल पदार्थ तो एक ही है, परन्तु सामने आने पर उनमें कितनी भिन्नता दिखेगी। थोड़ा सा अन्तर होने से ही उसका रङ्ग रूप बदल गया, आकार बदल गया। मात्रा का थोड़ा भी अन्तर होने से स्वाद बदल गया और इस तरह कुछ न कुछ अन्तर सभी में मिलेगा। यह बिल्कुल सामान्य सी बात है कि छोटे से पदार्थ से भी इतना बड़ा अन्तर आ सकता है।
इसी प्रकार इन तीनों गुणों की थोड़ी-सी मात्रा घटने- बढ़ने से, उनके प्रभाव से अलग-अलग प्रकार की योनियों का और सभी प्रकार के गुणों का निर्माण होता है। हमें लगता है कि हम तमोगुण को समाप्त कर दें और सतोगुणी हो जाएँ। ऐसा बिल्कुल भी सम्भव नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपने तीनों गुणों में से एक गुण को सदैव के लिए समाप्त नहीं कर सकता। ऐसा कभी हो नहीं सकता कि एक गुण को क्षण भर के लिए भी हम समाप्त कर दें। सृष्टि में तीनों गुण- सत, रज, तम, व्याप्त हैं। तीनों में कोई भी कम नहीं हो सकता लेकिन किसी एक की मात्रा कम या अधिक हो सकती है। प्रकृति में इन तीनों गुणों का होना अवश्यम्भावी है।
यदि हम अपने दिन-भर का चिन्तन करें तो दिन भर में हम कभी सतोगुण प्रधान होते हैं, कभी रजोगुण प्रधान और कभी तमोगुण प्रधान। कभी-कभी हमने अनुभव किया है कि हमारा गीता पढ़ने में मन लगता है और हम कहते हैं अरे आज तो विवेचन में इतना मन लग रहा था, इतना आनन्द आया कि समय का पता ही नहीं चला। गीता कक्षा में आनन्द आ गया, आज ध्यान बहुत अच्छा लगा। इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा लगता है, कि अरे! पता नहीं क्या हुआ। आज ध्यान में मन नहीं लगा, पूजा करने में मन नहीं लग रहा। विवेचन में, सत्सङ्ग में मन नहीं लगा।कक्षा में मन नहीं लगा, पता ही नहीं चला, कब पुकारा गया।
हम बैठे थे पर मन कहाँ भाग रहा था, पता नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है कि मन में आता है कि पूजा तो रोज करते हैं, एक दिन के लिए नहीं भी करें तो क्या हुआ। हम बहाना बनाते हैं, आज बुखार लग रहा है, सर्दी बहुत हो रही है, शेरों ने कभी मुँह धोया है? उठने का मन नहीं कर रहा, बदन टूट रहा है तो उस समय तमोगुण प्रधान होता है। कभी-कभी हम एक ही दिन में तीन स्वरूप के हो जाते हैं - सवेरे सतोगुण प्रधान, दोपहर में रजोगुण और रात में तमोगुण प्रधान।
हमें कैसे पता चले कि किस समय कौन सा गुण प्रधान है?
14.11
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्, प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं(म्) यदा तदा विद्याद्, विवृद्धं(म्) सत्त्वमित्युत॥14.11॥
श्रीभगवान ने सर्वद्वारेषु कहा और नव द्वारे पुरे देही की बात की।
श्रीभगवान कहते हैं कि इस देह के नौ द्वार होते हैं -
चेतनता की दृष्टि से पाँच और अन्तःकरण की दृष्टि से चार।
पाँच द्वार ज्ञानेन्द्रियों के और-
चार अन्तःकरण चतुष्टय - मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार।
पाँचो इन्द्रियों से हम चेतना के रूप में क्या कर रहे हैं, यह महत्त्वपूर्ण है।आँखों से देखते हैं- क्या देखना है? क्या नहीं देखना? कानों से सुनते हैं- क्या सुनना है? क्या नहीं सुनना? यह स्पष्ट होना चाहिए।
प्रकाश का अर्थ है सही देखना।
हमें क्या करना है और क्या नहीं करना? इसके बारे में मन में स्पष्टता होनी चाहिए।
(Do's and Don't)
इसमें अन्तर, विहित और निषिद्ध में अन्तर हमें समझना चाहिए।
हम अपने मन में, बुद्धि में और चित्त में जुगाली करते रहते हैं। हम लोग अपनी बुद्धि का प्रयोग सही बात समझने के स्थान पर अपने (wrongdoings) अनुचित कार्यों को (right doings) सही सिद्ध करने में लगा देते हैं। जहाँ से भी हो वहाँ से अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए तर्क ले आते हैं।
मन चङ्गा तो कठौती में गङ्गा
अपनी बातों को सिद्ध करने का कारण ढूँढ लेते हैं। मेरे विचार किस दिशा में हैं? मेरे निर्णय, मेरा ध्यान किस दिशा में है, हमें इसका चिन्तन करना है।
We need not to justify our actions,
हमें कुछ भी सिद्ध नहीं करना है।
हमें न्याय परायण मार्ग का चयन करना है,
यही प्रकाश है।
हमें उचित और अनुचित में अन्तर समझ में आना चाहिए। जो अपने बारे में, अपनी गलतियों के बारे में, सही कामों में के बारे में जितना स्पष्ट है, वह उतना सत्त्वगुण प्रधान है। गलती करना बड़ी बात नहीं। मनुष्य है, गलती होगी, लेकिन गलती को गलती मानते हैं या नहीं यह महत्त्वपूर्ण है।
मैं सवेरे देर से उठता हूँ। मैं इसे गलत भी मानता हूँ। यह गलती मैं करता हूँ, साथ ही यह भी मानता हूँ कि यह मेरी गलती है, लेकिन इसे उचित सिद्ध करना कि अरे! हम क्या करें, हमारी तो जीवन शैली ही ऐसी है, घर की व्यवस्था ऐसी है, दिनचर्या ऐसी है कि हमें देर हो जाती है। मैं गलत कर रहा हूँ लेकिन गलत को गलत नहीं मान रहा।
कई लोग झूठा खाना छोड़ देते हैं और कहते हैं कि पत्नी के प्रेम में छोड़ता हूँ, इससे हमारा प्रेम बढ़ता है। झूठा छोड़ने की आदत को पत्नी प्रेम बना लेना गलत है। गलत करते समय, मैं गलत कर रहा हूँ, कभी-कभी ऐसा भी मन में विचार आता है। मन असमञ्जस में रहता है। नब्बे प्रतिशत लोग कहते हैं कि मन में विचार तो आ रहा था कि गलत कर रहा हूँ, पर मन को नियन्त्रित नहीं कर पाया। मन में आ रहा था कि मत फँसो पर फँस गया, मन में आ रहा था कि मत बोलो पर बोल दिया।
यह सत्त्व की न्यूनता के कारण होता है। सत्त्व था पर पूरा नहीं था। मन बोल रहा था, गलत काम मत कर पर क्रियान्वित नहीं हो रहा था। अर्जुन ने दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में पूछा-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामित्वां धर्मसम्मूढचेताः।
क्या करूँ? क्या न करूँ? यह सही है या वह सही है? जब हम जीवन में भ्रमित रहते हैं कि क्या करूँ? उस समय सत्त्वगुण कम होता है।
एक बार एक सेठ जी का मेले में पर्स खो गया। उस में क्रेडिट कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, कई महत्त्वपूर्ण दस्तावेज और रुपये थे। उन्होंने मेले में उद्घोषणा करवाई कि पर्स लाने वाले व्यक्ति को एक हजार रुपए इनाम मिलेगा। एक साधु को वह पर्स मिल गया। वह सेठ के पास गया और उन्हें पर्स सौंप दिया। सेठ जी को पर्स मिला तो प्रसन्न हो गए।
किन्तु सेठ जी के मन में लालच भी आ गया कि अब हजार रुपए देने होंगे। उन्होंने कहा इसमें दस हजार रुपए नहीं ग्यारह हजार रुपए थे। तुमने हजार रुपए चोरी कर लिए। साधु को बड़ा अपमानजनक लगा। वह परेशान हो गया कि मेरे ऊपर आरोप लग गया। एक अन्य साधु ने देखा कि पहले साधु के साथ अन्याय हो रहा है। दूसरा साधु न्यायधीश बन जाता है। उसने दोनों की बातों को सुना और चेहरा देखकर सत्त्व का आँकलन कर लिया।
व्यक्ति के चेहरे में सत्त्व का अभाव था और साधु तो तेजस्वी थे। जब दूसरे साधु ने कहा कि इस पर्स में दस हजार रुपये हैं और आपके पर्स में ग्यारह हजार रुपये थे इसलिए यह आपका पर्स नहीं है। अपने सारे पैसे जाते देखकर, वह सेठ घबरा कर बोला कि यह पर्स मेरा ही है इसमें दस हजार रुपये ही थे। मैंने झूठ बोला था।
जिसका सत्त्व अशक्त होता है, वह अपने विचारों से अस्थिर हो जाता है। उस व्यक्ति ने साधु के पैर पकड़ लिये और कहने लगा कि पर्स तो मेरा ही है। दूसरे साधु ने कहा-
"अब आप इसे दो हजार रुपए दोगे।"
यह साधु महाराज की बुद्धि की स्पष्टता है।
लोभः(फ्) प्रवृत्तिरारम्भः(ख्), कर्मणामशमः(स्) स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥
श्रीभगवान ने रजोगुण के पाँच लक्षण बताए।
लोभ -
हमारे यहाँ पाँच मूल विकार बताए गए हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहङ्कार।
श्रीभगवान कहते हैं जब रजोगुण बढ़ता है तो ये पाँच विकार- काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहङ्कार आ जाते हैं।
इन पाँचों में चार की सीमाएँ हैं और लोभ असीमित है। जिसमें लोभ अधिक होगा, उसका लोभ कभी पूरा नहीं होगा।
कामना करने वाले की भी एक आयु के बाद, एक स्थिति, अवस्था के बाद कामनाएँ कम हो जाती हैं या शान्त हो जाती हैं।
अहङ्कार करने वालों का भी एक आयु के बाद अहङ्कार शान्त हो जाता है।
क्रोध करने वालों का भी एक आयु, अवस्था के बाद क्रोध शान्त हो जाता है, किन्तु लोगों से अस्सी-पिचासी वर्ष की आयु में भी लोभ नहीं छूटता। जिसका लोभ विकार प्रबल है। जीवन के अन्तिम श्वास तक वह बढ़ता रहेगा।
लोभ के निम्न प्रकार हैं-
लाभ से लोभ-
व्यक्ति को जितना ज्यादा लाभ होता जाता है उसका लोभ उतना ही बढ़ता रहता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई
कुम्भ के मेले में हर स्तर के लोग आते हैं। धनवान से धनवान और निर्धन से निर्धन। सभी लोग सङ्गम पर एक साथ स्नान करते हैं। यदि आप वहाँ देखेंगे तो एक व्यक्ति ऐसा होगा जिसके पास दो सौ रुपये होंगे, जिन्हें उसने बड़ी कठिनाई से जुटाया होगा। दो सौ रुपये वाले ऐसे लोगों की सङ्ख्या कुम्भ में लाखों में होती है। अपने खर्चों से कटौती करके कुम्भ के दर्शन की अभिलाषा लेकर वे आते हैं।
पण्डित और ठग उन्हें घेर कर कहते हैं कि स्नान करके ऐसे ही चले जाओगे? पूजा करनी होगी। वे श्रद्धा से तिलक लगवाएँगे, पूजा करवाने में कितने पैसे लगेंगे, पूछने पर पण्डित जी कहते हैं कि ग्यारह रुपये। सुनकर वह व्यक्ति हाँ कहता है।
पण्डित जी कुछ सङ्कल्प करवाते हैं, मन्त्र बोलते हैं। वह श्रद्धापूर्वक आचमन करता है। फिर पण्डित जी कहते हैं कि दस रुपये गऊदान के लगेंगे, वह मान जाता है। घाट की सफाई के दस रुपये के लिए भी वह मान जाता है। ब्राह्मण भोज के पाँच रुपए लगेंगे, उसके लिए भी तैयार हो जाता है। ये दो सौ रुपये उसके आने-जाने का किराया, भोजन की व्यवस्था और कुम्भ के दर्शन की अभिलाषा थी। शाम को घर जाकर वह प्रसन्नता पूर्वक कहेगा कि श्रीभगवान की कृपा से अच्छा तीरथ हो गया, अच्छा स्नान हो गया, पूजा हो गई और गाय दान भी दे दिया।
मध्यम वर्गीय, उच्च मध्यम वर्गीय और उच्च वर्गीय परिवार स्नान करेंगे, तिलक लगवाने में कतराएँगे, कहीं पैसे न देने पड़ें। पण्डित जी ने यदि उन्हें कहा कि कुम्भ में स्नान के बाद पूजा करवा लो तो वे बड़ी कठिनाई से तैयार होंगे और फिर यदि पण्डित जी ने बोला कि गऊदान का सङ्कल्प ले लो तो वह उसके लिए मना कर देगा कि बाद में कर लेंगे।
ऐसा व्यक्ति घर जाकर बड़ा दुःखी होगा कि दिल को क्लेश हो रहा है। मन ही मन कोसेगा कि कितने बदमाश लोग थे। काहे की सरकार की व्यवस्था? ठग लिया। सौ रुपये कहकर पूजा में बैठाया था, पाँच सौ ले लिए। जितना उसके पास धन होगा, वह उतनी ही कञ्जूसी दिखाएगा। जबकि वह करोड़ों रुपयों का मालिक हो सकता है। गरीब व्यक्ति कभी नहीं बोलेगा कि मुझे ठग लिया।
कुछ तो ऐसे होंगे जो कुम्भ के दर्शन के लिए जाएँगे ही नहीं। यह जीवन का सूत्र है कि जीवन में जितना धन आता है, उस धन का लोभ उतना ही बढ़ता जाता है। जिसके पास धन की कमी है, वह आसानी से पैसा खर्च कर देता है। गाँव के लोग एक-दूसरे की सहायता आसानी से कर देते हैं, लेकिन आवासन समितियों (Housing societies) में रहने वाले लोग एक-दूसरे की सहायता करने से कतराते हैं।
जितना पैसा बढ़ता है,मनुष्य उतना ही कृपण हो जाता है। गरीब व्यक्ति को धन का लोभ नहीं होता लेकिन धनवान व्यक्ति को धन का लोभ होता है। जब हमारे पास कम धन होता है तो हम दूसरों पर सरलता से व्यय कर देते हैं लेकिन धन बढ़ने पर सौ रुपए देने में भी कष्ट होता है।
जैसे–जैसे हमारा सामर्थ्य बढ़ता है, हमारी कृपणता बढ़ती जाती है। उदारता घटती जाती है।
एक गरीब व्यक्ति अपनी आय का जितना हिस्सा बाँट सकता है, एक धनवान व्यक्ति नहीं कर सकता।
मैं, मेरा परिवार, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरे माता-पिता। मेरे माता-पिता को मानने वाले अब कम ही लोग बचे हैं। उनकी नीति है -
हम दो हमारे दो, बूढ़ा बूढ़ी जाने दो।
धन का लोभ -
लाभ से लोभ बढ़ता है, अतिलाभ से अतिलोभ बढ़ता है।
यश का लोभ - काम दूसरे ने किया पर लेकिन मन में लालसा रही कि यश मुझे मिल जाएगा। काम कम किया लेकिन यश अधिक मिले। एक बार आगे बैठे तो हर बार आगे बैठे की लालसा रहती है। हम जो कुछ भी करते हैं,उसकी प्रवृत्ति कार्य की भावना से नहीं होती है अपितु मुझे यश मिलेगा या नहीं, इस भाव से होती है।
सम्पत्ति का लाभ और मोह दोनों होते हैं। यह एकमात्र जड़ पदार्थ है जिससे मोह और लोभ दोनों होते हैं। बहुत लोग हैं जिनके पास खाने के पैसे नहीं होते, लेकिन बड़ा घर होता है। वे अभावों में, कठिनाई में जीते रहेंगे पर घर को बेचेंगे नहीं कि घर बेचकर छोटा घर ले लें और अच्छी प्रकार से रहें। उनको घर के प्रति मोह होता है। उनके मन में होता है कि यह हमारे पूर्वजों का घर है, यहाँ हमारा बचपन बीता है या हमारी अमुक व्यक्ति की यादें जुड़ी है।
पुरुषों को जमीन का लोभ और मोह होता है और महिलाओं को आभूषणों का लोभ और मोह होता है।
पद का लोभ- सामाजिक संस्थाओं में, ट्रस्टों में कोई पद प्राप्त करूँ! यह लोभ बहुत परेशान करता है।
यदि कहीं आग लग जाए तो उसमें जल डालना पड़ता है, इसी प्रकार लोभ की आग को सन्तोष का जल डाल कर बुझाया जा सकता है। हमारे अन्दर अगर लोभ है तो उसका एक ही उपाय है कि हम लोभ की अग्नि का शमन करने के लिए अपने जीवन में सन्तोष लाएँ।
लोभ कभी भी शान्त नहीं होता।
यदि लोभ को नहीं रोका जाए तो मनुष्य का पतन हो जाता है।
श्रीभगवान कहते हैं कि रजोगुण बढ़ने पर लोभ उत्पन्न होता है। लोभ से वृत्ति बनती है। जिन बातों से मन में लोभ होता है, हम उनको ही करने का प्रयास करते हैं। यदि एक बार वृत्ति बन गई तो उसे हर बार करने से वह वृत्ति प्रवृत्ति बन जाती है। फिर यह प्रवृत्ति हमारा आचरण बन जाता है। लोभी आचरण जीवन में अशान्ति उत्पन्न करता है।
जिसका जीवन जितना लोभग्रस्त होता है,
उसका जीवन उतना ही अशान्त होता है।
रजोगुण की प्रवृत्ति बढ़ने पर लोभ बढ़ता है। कुछ करते रहने की प्रवृत्ति बढ़ती है। कुछ न कुछ करते रहने की आदत लग जाती है। दूसरों की उलझनों में फँसते हैं, बिना मतलब के काम करते रहते हैं। शान्त नहीं बैठ सकते।
कभी कोई स्त्री शिकायत करती है कि मेरी सास तो एक मिनट को खाली नहीं बैठती और मुझे भी नहीं बैठने देती। कुछ न कुछ करती रहती है।तमोगुणी व्यक्ति को कार्य का आरम्भ करना है, आवश्यकता नहीं है फिर भी करना है। सामान को इधर से उधर रखना है। बिना मतलब कार्य करना है।
रजोगुणी व्यक्ति चञ्चल होगा। जो व्यक्ति जितना रजोगुणी होगा उतना अधिक चञ्चल होगा। उसकी दृष्टि उतनी ही चञ्चल होगी, अस्थिर होगी।यह चञ्चलता उस की आँखों में दिखती है। कोई व्यक्ति चञ्चल है या नहीं, यह उसकी आँखें देखकर बताया जा सकता है।
सतोगुणी व्यक्ति की दृष्टि स्थिर होगी, एक स्थान पर टिकी होगी। रजोगुणी व्यक्ति की दृष्टि चारों ओर घूमती रहती है। स्कैनर की तरह काम करती है।
स्पृहा -
अर्थात् चिपकाना, विषयों की वासना से चिपका रहना। कभी लड्डू खाया और उसके बाद हम प्रश्न पूछने लग जाते हैं। कहाँ से आया? बहुत स्वादिष्ट है। यह रजोगुण है। खाने के बाद भी मन उसमें चिपका रहता है। पेट में तो चला गया, लेकिन दिमाग से नहीं गया। बहुत लम्बे समय तक नहीं भूला। लड्डू का संस्कार दिमाग से चिपक गया।
किसी ने प्रशंसा कर दी कि गीता बहुत अच्छी पढ़ लेते हो। सुनकर अच्छा लगा। घर आकर भी भूले नहीं। रात को बैठे-बैठे मुस्कुराते देख, पत्नी ने कारण पूछा तो कहा कुछ नहीं। जो अच्छा लगा मन उसी से चिपक गया। जो व्यक्ति जितना रजोगुणी होगा, उतना उस विचार से जुड़ा रहेगा। विषयों में, वासनाओं में जुड़ा रहेगा। प्रशंसा सभी को अच्छी लगती है।
प्रशंसा सुनकर सतोगुणी को स्मित हास आएगा और भूल जाएगा। स्मरण करते हुए लम्बे समय तक याद रखना रजोगुण है।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च, प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥
तमोगुण की अधिकता से कर्त्तव्य कर्मों को करने में अप्रवृत्ति, प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा, मोह और निद्रा की वृद्धि होती है।
तमोगुण बढ़ेगा तो सब की बात गलत लगती है और अपनी बात सही लगती है। सामने वाले सभी लोग सही बात बता रहे हैं कि तेरे लिए यह बात सही नहीं है। वह सुनता नहीं अपितु पूरी दुनिया को उल्टा कहता है कि पता नहीं सब लोग मेरे पीछे क्यों पड़े हैं?
ऐसा व्यक्ति अड़ जाएगा कि मुझे अमुक चाहिए तो चाहिए। अपने भले की बात वह सुनने के लिए तैयार नहीं होता। उस के अन्दर विवेकशून्यता और हठ आ जाते हैं। वह अपने भले की बात पर भी झगड़ा करता है। लोग परेशान हो जाते हैं और उससे कतराते हैं। अन्य लोग बोलेंगे कि हम तो समझाना चाह रहे हैं, बचाना चाहते हैं फिर भी झगड़ा कर रहा है।
अप्रवृत्ति - बात को टालना।
जो करना है उसे बाद के लिए टालना। बाद में करेंगे, अभी तो आए हैं, बाहर से आए हैं, सो कर उठे हैं या अभी खाना खाया है, कहकर काम को बाद के लिए टाल देते हैं।
प्रमाद - व्यर्थ काम।
ऐसा नहीं है कि तमोगुणी कुछ नहीं करता। वह आवश्यक कार्य नहीं करेगा, हमेशा फालतू काम करता है। अपेक्षित कर्मों के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म करेगा। व्यर्थ चेष्टा, बिना मतलब के काम, जिनसे धन का उपयोग हो रहा है, समय की हानि हो रही है और उन कामों का कोई अर्थ नहीं है।
मोह- अर्थात् मूढ़ता, अन्धकार
मोह में अपनी हानि-लाभ का विवेक भी नहीं रहता है।
बन्दर और मगरमच्छ दोनों दोस्त थे। बन्दर प्रतिदिन मगरमच्छ को जामुन खिलाता था। वह अपनी पत्नी के लिए भी जामुन लेकर जाता था। एक बार मगरमच्छ ने यह बात अपनी पत्नी को बताई। मगरमच्छ की पत्नी ने कहा कि बन्दर जामुन के वृक्ष पर रहता है उसका कलेजा कितना अच्छा होगा। मुझे उसका कलेजा खाना है। उसने बन्दर का कलेजा खाने की जिद की। मगरमच्छ ने बन्दर को अपने घर आने का न्योता दिया। जब मगरमच्छ बन्दर को ले जा रहा था तो बीच रास्ते में उसने बन्दर को सच्ची बात बताई।
"अरे! तुम्हें पता नहीं कि बन्दरों का कलेजा तो बाहर लटका होता है। मुझे पेड़ की तरफ ले चलो। मैं दे देता हूँ।"
जैसे ही मगरमच्छ किनारे की तरफ गया। बन्दर पेड़ पर लपक गया और मगरमच्छ से पीछा छुड़ाया। मगरमच्छ में तमोगुण है, मोह है, मूढ़ता है।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु, प्रलयं(म्) याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां(म्) लोकान्, अमलान्प्रतिपद्यते॥14.14॥
जब मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है तो उत्तम कर्म करने वाला निर्मल, दिव्य, स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होता है।
रजसि प्रलयं(ङ्) गत्वा, कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि, मूढयोनिषु जायते॥14.15॥
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होने पर, कर्मों की आसक्ति वाला मनुष्य, मनुष्यों में उत्तम होता है। जिसका रजोगुण अधिक होता है उसको कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य योनि में आना पड़ता है।
तमोगुण की वृद्धि होने पर मरा हुआ व्यक्ति कीट, पशु आदि मूढ़ योनि में उत्पन्न होता है। जिसकी तमोगुण में वृत्ति रहती है, जो सोता रहता है, झूठ बोलता है, झगड़ा करता है, नुकसान करता है, बात-बात पर दूसरों का अपमान करता है वह कीट, पशु आदि मूढ़ योनि को प्राप्त होता है।
कर्मणः(स्) सुकृतस्याहुः(स्), सात्त्विकं(न्) निर्मलं(म्) फलम्।
रजसस्तु फलं(न्) दुःखम्, अज्ञानं(न्) तमसः(फ्) फलम्॥14.16॥
जब हम सुख, शान्ति, सन्तोष का अनुभव करते हैं तो सत्त्वगुण होता है। जब हम भीतर से प्रसन्न होते हैं, सुखी होते हैं और सुखी रहने के लिए, प्रसन्न होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती, प्रसन्न होने के लिए वस्तु, परिस्थिति का विचार नहीं रहता, हर परिस्थिति में सुखी अनुभव करते हैं तो हम सतोगुणी होते हैं।
जब हम दुःख का अनुभव करते हैं तो रजोगुणी और जब हम विपरीत काम कर रहे होते हैं तो तमोगुणी होते हैं।
सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु होने पर स्वर्गादि उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है।
रजोगुण की वृद्धि में मृत्यु होने पर मनुष्य लोक मिलता है ।
तमोगुण की वृद्धि में मृत्यु होने पर कीट, पशु-पक्षी,मूढ़ योनि की प्राप्ति होती है।
प्रकृति का अर्थ है पदार्थ और क्रिया।
प्रत्येक पदार्थ व क्रिया इन तीनों गुणों से आच्छादित होती है, बात केवल प्रधानता की है। हम अपने को सत्त्वगुणी मानते हैं तो क्या हममें वैसे लक्षण हैं? यदि लक्षण नहीं हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम सत्त्वगुणी नहीं हैं।
ऐसे में अपने को रजोगुणी मानें या तमोगुणी? हम पूरे दिन में कभी सतोगुणी होते हैं, कभी रजोगुणी और कभी तमोगुणी होते हैं।
उपनिषद के अनुसार-
व्यक्ति तदनुसार लक्षणम्, लक्षणमं तदनुसार व्यक्ति:।
जैसा व्यक्ति होता है उसके अनुसार उसके लक्षण होते हैं या जैसे लक्षण होते हैं उनके अनुसार उसका व्यक्तित्व होता है।
गुणत्रय-
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के निम्न लक्षण होते हैं।
1. व्यवहार -
सत्त्वगुण- सन्तुष्ट
सत्त्वगुणी किसी भी प्रकार की परिस्थिति में सन्तुष्ट रहता है। वह हमेशा भगवान को धन्यवाद करता है। उसके जीवन में शिकायतें कम होती हैं। भगवान श्रीराम ने माता शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान देते समय आठवीं भक्ति के विषय में कहा–
आठव जथा लाभ संतोषा।
गीताजी के बारहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
सन्तुष्टः येन केन चित्त्।।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
सीताराम सीताराम सीताराम कहिए।
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।।
मेरे आस-पास वाले लोग मुझसे सन्तुष्ट हैं या नहीं? मेरे आस-पास वाले लोग, मेरे साथ रहने वाले लोग मुझसे असन्तुष्ट तो नहीं? सतोगुणी इसका भी ध्यान रखता है।
परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन जयदयाल जी गोयन्दका चूरू के रहने वाले थे और कोलकाता में व्यापार करते थे। एक बार उन्होंने राजस्थान से दस ट्रक बाजरा मँगवा लिया। बाजार में व्यापारियों ने प्रतिस्पर्धावश बाजरे का दाम गिरा दिया और सेठ जी के आगे जाकर अपनी बात कहने लगे कि इससे हानि होगी।
सेठ जी की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा-
"मेरा यह आशय नहीं था कि किसी का नुकसान हो।"
यह कहकर उन्होंने सारा बाजरा रास्ते से ही वापस भिजवा दिया। जहाँ तक हो सके मेरे आस-पास के लोग किसी भी प्रकार से दुःखी न हों। मेरे सही करने से भी दूसरों का कष्ट हो रहा हो तो मुझे वह कार्य नहीं करना है।
रजोगुणी – असन्तुष्ट
रजोगुणी यही कहता है कि यदि मेरा अमुक काम हो जाए तो मैं सन्तुष्ट हो जाऊँ। सारा दिन इसी काम में माथापच्ची करता है, पर कामनाएँ समाप्त नहीं होतीं। पूरा जीवन भर लक्ष्य बदलता रहता है।
तमोगुणी – आलस्य से सन्तुष्ट
देखने में सतोगुणी के जैसा ही लगता है। काम करने की प्रवृत्ति नहीं है। अपने से कुछ लेना-देना नहीं। दूसरे से असन्तुष्ट रहता है। पड़ोसी ऐसा क्यों कर रहा है? वैसा क्यों कर रहा है? मौज में क्यों रह रहा है? इतनी सम्पत्ति कैसे अर्जित कर ली? अपने को मिले या न मिले, पर दूसरे की प्रगति से जलता है। वह आलस में सन्तुष्ट रहता है पर उसे दूसरों की प्रगति से असन्तोष होता है।
2. वाणी :-
सतोगुणी - सत्य बोलता है और सबसे प्रिय बात करता है। जिसकी वाणी धीमी है, (Volume और speed) बात करने में तेजी और शोर दोनों कम हैं, वह सतोगुणी है। श्रीभगवान ने कहा
वाक्यं सत्यं प्रियहितं च।
इनका मानना है -
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
रजोगुणी-
दम्भी जोर-जोर से बोलने वाले होते हैं। जिसकी वाणी का (Volume और speed) तेजी और शोर दोनों तीव्र हैं। अपनी बात सिद्ध करने के लिए जोर-जोर से बोलता है और झगड़ा करता है। रास्ते में जा रही गाड़ी को देखकर ही चिल्लाने लगता है-
"अरे अभी गाड़ी लग जाती तो क्या होता? एक्सीडेंट हो जाता तो क्या होता? तुम्हारी गाड़ी से दूसरे का पैर टूट जाता।"
वह सदा दूसरों को ज्ञान देता है, उत्तेजित होकर बोलता है। अपने को सही साबित करने के लिए जोर से बोलता है। कटाक्ष करता है, उपहास और व्यङ्ग करता है। इनका मानना है -
ऐसी वाणी बोलिए, सबसे झगड़ा होए।
लेकिन उससे झगड़ा न करें, जो तुमसे तगड़ा होए।।
तमोगुणी - विवेकहीन
तमोगुणी हर किसी से झगड़ा कर लेता है। बिना कारण अपशब्द बोलता है। ऐसे लोगों को चुप कराना पड़ता है। किसी का ध्यान नहीं करता, चाहे अपनी हानि हो जाए। हितैषी को भी उल्टा बोल देता है। अध्यापक को कुछ भी बोल देता है, चाहे वह परीक्षा में अनुतीर्ण कर दें। पिताजी को अपशब्द बोल देता है, चाहे वे घर से निकाल दें। बॉस को गलत बोल देता है, चाहे वे नौकरी से निकाल दें।
3. भोजन - जैसा अन्न वैसा मन।
सत्त्वगुणी-
ऐसा व्यक्ति अपनी क्षुधापूर्ति के लिए कुछ भी सात्त्विक भोजन खाकर सन्तुष्ट हो जाता है। निश्चित मात्रा में निश्चित समय पर भोजन करता है। खाद्य पदार्थ बहुत अच्छा है और उसकी पसन्द का है तो भी वह निश्चित मात्रा और निश्चित समय का ध्यान रखता है।
रजोगुणी-
इनके जीवन में भूख का महत्त्व कम अपितु स्वाद का महत्त्व अधिक होता है। रजोगुणी भोजन स्वाद के लिए करता है, भूख के लिए नहीं और स्वाद अनुसार करता है। भोजन का समय है और इन्हें भूख भी है लेकिन मनपसन्द खाना नहीं है तो वह छोड़ देता है। भूख नहीं है लेकिन मनपसन्द खाना सामने है तो खा लेगा।
तमोगुणी-
तमोगुणी व्यक्ति भक्ष्य-अभक्ष्य, शुद्ध-अशुद्ध, बासी-ताजा भोजन का विचार नहीं करता। समय, काल, स्थान, शौच–अशौच का भी विचार नहीं करता। जो भी पसन्द आया खा लेता है, चाहे वह शरीर को हानि करे। भूख का विचार नहीं करता। भोजन के समय चाय, चाय के समय भोजन, कभी दुगना खाया कभी नहीं खाया। शौच-अशौच, समय का ध्यान नहीं रखता।
4. वस्त्र :-
सतोगुणी- सफेद, हल्के रङ्ग के और सुविधाजनक वस्त्र पहनना पसन्द करते हैं।
रजोगुणी- चटक, रङ्गीन, सुन्दर, फैशनेबल वस्त्र पहनना पसन्द करते हैं, चाहे यह असुविधाजनक हों।
तमोगुणी - मैले, असुविधाजनक और असभ्य वस्त्र पहनता है। बिना साइज़ के, छोटे-बड़े, फटे हुए, बिना धुले कपड़े भी पहन लेता है।
5. आवास :
सत्त्वगुणी- घर एकदम साफ, स्वच्छ, व्यवस्थित, हवादार और शुद्ध होता है।
रजोगुणी- घर थोड़ा विलासिता पूर्ण होता है। महङ्गा-महङ्गा सामान लगा रहता है।
तमोगुणी- घर अव्यवस्थित और अशुद्ध होता है। उसके घर में न तो सफाई होती है और बर्तन भी जूठे पड़े रहते हैं।
6. निवेश :-
सत्त्वगुणी - सुरक्षित निवेश में विश्वास करता है। दान-पुण्य में पैसा लगाता है, जिससे उसका आगे का जन्म सफल हो। वह अपने धन को सुरक्षित रखने के लिए किसान विकास पत्र, एफ डी, पी.पी.एफ.और एल.आई.सी में भी पैसा लगाता है। जब वह कमाता है तो अगले जन्म के लिए अपनी आय का दसवाँ हिस्सा और रिटायर हो जाने के बाद अपनी पेंशन का पच्चीस प्रतिशत भाग सतोगुणी निवेश में लगाता है, अर्थात् दान में देता है।
रजोगुणी - अपना पैसा म्यूचुअल फण्ड, शेयर या सट्टे में लगाता है, जिससे अधिक पैसै आएँ।
तमोगुणी- अपना पैसा जुए, लॉटरी में उड़ाता है। दस रूपये के सौ रूपये बन जाएँ या एक बार में पैसे दुगुना हो जाएं। उसके मन में हर समय यही विचार चलता है।
7. कार्य :-
सत्त्वगुणी- कर्त्तव्य के रूप में कार्य करता है। उसका क्या कर्त्तव्य है, वह अपने श्रेय का ध्यान रखता है।
रजोगुणी- मन के लिए करता है। वह श्रेय को जानता है, परन्तु उसकी दृष्टि प्रेय पर होती है। वह वही करता है जो उसका मन करता है।
तमोगुणी व्यक्ति– जबरदस्ती कुछ करवा लिया जाए तो मजबूरीवश वह कुछ काम कर देता है। उसका ध्येय है -
‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥’
एक स्त्री अपने पति को साधु के पास ले गई। कहने लगी कि ये जो भी कमाते हैं दारू में उड़ा देते हैं। आप मेरे पति को समझाओ। साधु ने उस व्यक्ति से कहा-
तुम अपने पैसे घर में दिया करो, दारू में क्यों उड़ाते हो?
व्यक्ति ने सन्त को प्रणाम किया और कहा कि आप कहते हो-
"सबके दाता राम'। सब लोगों की रोटी की व्यवस्था भगवान करते हैं। मैं आपकी बात को कैसे झुठला सकता हूँ? श्रीभगवान रोटी तो दे देंगे पर दारू नहीं देंगे इसलिए मैं दारू के लिए कमाता हूँ।
8. स्वभाव :-
सत्त्वगुणी- व्यक्ति जो करता है वह दूसरों के हित के लिए करता है।
लङ्काकाण्ड में जब सेना समुद्र पार पहुँच गई तो भगवान राम ने अङ्गद को शान्ति दूत बनाकर भेजा। अङ्गद ने रामजी से पूछा कि मुझे वहाँ क्या कहना है? इस पर श्रीराम जी ने कहा-
काजु हमार तासु हित होई।
रिपु सन करेहु बतकही सोई॥
शत्रु से वो ही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो जाये और उसका भी कल्याण हो। हमारा काम भी बन जाए और उसका भी हित हो जाए।
रजोगुणी - रजोगुणी के लिए अपना स्वार्थ साधना सर्वोपरि होता है।
कई बार तो सत्सङ्ग में जाने वाले भी कुछ ऐसे ही करते हैं। एक आदमी ने अपनी चप्पल की जगह बनाने के लिए वहाँ पड़ी सारी चप्पलों को पैर से हटा कर एक ओर कर दिया और अपनी चप्पल उतार कर अन्दर चला गया। चाहे सत्सङ्ग के बाद अन्य लोगों को अपनी चप्पलें ढूँढने में कितनी ही कठिनाई क्यों न हो।
रजोगुणी का तो यही ध्येय वाक्य रहता है-
अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।
तमोगुणी- अपना भी नाश करता है दूसरों का भी नाश करता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
जिमि हिमि उपल कृषी दलि गरही।
वे दूसरों का धन बर्बाद करके, खुद भी नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके, ओला भी नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार ओले फसल को नुकसान पहुँचाते हैं और खुद भी नष्ट हो जाते हैं। तमोगुणी व्यक्ति अपने हित का विचार नहीं करता और दूसरों के भी हित का विचार नहीं करता है।
9. रुचि :-
सत्त्वगुणी- धर्म, कार्य और सेवा में रुचि रहती है। समाज में कोई अच्छा काम हो और उसमें मेरा भी योगदान हो जाए।
रजोगुणी- दम्भ और मान में रुचि रहती है। वह नाम, यश, लोभ बढ़ाने के लिए सारा दिन काम करता है, दिखावा करता है। लोग मुझे जानें, मुझे मानें, अच्छा मानें।
तमोगुणी- हमेशा अधर्म की बातें करता है और विपरीत काम करता है। अधर्म में रुचि रखता है। धर्म में भी अधर्म को ढूँढता है।
10. इच्छाएँ :-
सत्त्वगुणी- आवश्यकताओं को महत्त्व देता है।
रजोगुणी- इच्छाओं को आवश्यकता बना लेता है।
शादियों के मौसम में स्त्रियाँ अपने कपड़े और अलङ्करण दिखाने की चाह में ठण्ड में सिकुड़ती रहती हैं लेकिन गर्म वस्त्र नहीं पहनतीं। इच्छा पूर्ति के लिए आवश्यकता का त्याग कर देती हैं।
तमोगुणी- दूसरों की कामनाओं में बाधा बनता है। अपनी इच्छा की परवाह नहीं लेकिन दूसरों का काम नहीं बनना चाहिए।
11. सङ्ग :-
सत्त्वगुणी- सज्जनों का सङ्ग करता है, उसे अच्छे लोगों के साथ रहना पसन्द है। तुलसीदास जी कहते हैं कि
"बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई"
रजोगुणी- सदैव धनी व बड़े लोगों का सङ्ग करता है। उच्च पदस्थ का सङ्ग, धनी, प्रभावशाली व्यक्तियों का सङ्ग करता है।
तमोगुणी- अच्छे लोगों से दूर रहता है।
यदि कोई बाबा तम्बाकू खाता है। वह तमोगुणी नहीं है। उसका गुण उसके पूरे जीवन पर निर्भर करता है। हमें अपने जीवन में सतोगुण की वृद्धि करनी है।
हरिनाम सङ्कीर्तन के साथ गुणत्रयविभागयोग के विवचन का समापन हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
उसके उपरान्त श्रीहनुमान चालीसा पाठ के साथ आज के सुन्दर विवेचन सत्र का समापन हुआ।