विवेचन सारांश
सम्यक और सात्त्विक आहार
नारायण हरि बोल सङ्कीर्तन, हनुमान चालीसा, देश भक्ति गीत, दीप प्रज्वलन, कृष्ण वन्दना, गुरु वन्दना से सत्र का आरम्भ हुआ। आपका सोलहवाँ अध्याय पूरा हो गया, श्रीभगवान अर्जुन का रथ आगे बढ़ा ले गये। भौतिक रथ वहीं खड़ा था। श्रीभगवान ने अर्जुन के भौतिक रथ की लगाम नहीं पकड़ी थी, उसके मन की लगाम अपने हाथ में पकड़ रखी थी। मन जो मोहग्रस्त हो गया था, नीचे बैठ गया था, नकारात्मकता में चला गया था, उस रथ की लगाम भगवान ने अपने हाथ में पकड़ रखी थी। मन के रथ को आगे बढ़ा रहे थे, उसका उपचार कर रहे थे। मोहग्रस्त मन को स्थिर करने के लिए रथ को आगे बढ़ा रहे थे। सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ, भगवान ने देवासुरसम्पद् क्या होता है? इसके बारे में अर्जुन को बताया। सत्रहवें और अट्ठारहवें अध्याय भगवद्गीता के कलश कहे जाते हैं, जिसमें कैसे जियें, ये ज्ञात होता है। स्वामी जी कहते हैं, गीता पढ़ें, पढ़ायें, जीवन में लायें। जीवन में गीता कैसे लायें, कैसे जियें, ये श्रीभगवान बता रहें हैं। इसके लिए धन्यवाद तो अर्जुन को भी देना चाहिये। अर्जुन का जीवन दाँव पर लगा है, मृत्यु का आभास हो रहा है, वह समीप है, ऐसे में जो प्रश्न उठते हैं, वे मौलिक होते हैं। ऐसे ही सत्रहवें अध्याय में अर्जुन ने प्रश्न किया।
17.1
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य, यजन्ते श्रद्धयान्विताः|
तेषां(न्) निष्ठा तु का कृष्ण, सत्त्वमाहो रजस्तमः||17.1||
अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्र-विधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक (देवता आदि का) पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी-तामसी
विवेचन- गुणत्रयविभागयोग में तीन तरह के गुणों के बारे में बताया है। ये तीन गुण सत्त्व, रज और तम जीवन में आवश्यक हैं। मानव जीवन में केवल सत्त्व से भी काम नहीं चलेगा। रजो गुण नहीं हुआ तो कुछ करने की इच्छा नहीं होगी। तमो गुण से आलस्य और निद्रा आती है। तमो गुण नहीं हुआ तो सोएँगे कैसे? सोना भी अति आवश्यक है। दूसरे अध्याय में श्रीभगवान ने कहा है-
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
समता की बात कही है। उपचार करना है। शब्दों को ध्यान से देखने से समझ में आने लगता है। इतना सब कुछ जानना, सारे शास्त्र, वेद, उपनिषद का अध्ययन करना, एक जीवन में सम्भव नहीं है। ऐसे शास्त्र विधि मालूम नहीं होगी, तो हमारी स्थिति क्या होगी? भारत के संविधान में लिखा है कि रास्ते में चलते हैं, तो बाएँ से चलें, उसके बावजूद, हमें मालूम होते हुए भी, दाहिने से चले जाते हैं, तो क्या हमने संविधान तोड़ दिया है? शास्त्र विधि को तोड़ कर श्रद्धा उमड़ती है तो उसे क्या कहेंगे?
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
समता की बात कही है। उपचार करना है। शब्दों को ध्यान से देखने से समझ में आने लगता है। इतना सब कुछ जानना, सारे शास्त्र, वेद, उपनिषद का अध्ययन करना, एक जीवन में सम्भव नहीं है। ऐसे शास्त्र विधि मालूम नहीं होगी, तो हमारी स्थिति क्या होगी? भारत के संविधान में लिखा है कि रास्ते में चलते हैं, तो बाएँ से चलें, उसके बावजूद, हमें मालूम होते हुए भी, दाहिने से चले जाते हैं, तो क्या हमने संविधान तोड़ दिया है? शास्त्र विधि को तोड़ कर श्रद्धा उमड़ती है तो उसे क्या कहेंगे?
शास्त्र विधि के बिना जीने का भाव उत्पन्न कर सकते हैं, लेकिन वह श्रद्धा किस प्रकार की होगी?
अन्यान्य पर विचार करते हैं तो बुद्ध, महावीर का तत्त्व ज्ञान में, भारत और सनातन के तत्त्व ज्ञान में जो अन्तर का अनुभव हुआ, बुद्ध ने सन्यासी की फौज खड़ी कर ली। उससे कैसे चलेगा?
ये जो फौज है, इसके पालन पोषण के लिए गृहस्थ भी तो चाहिए।
अन्यान्य पर विचार करते हैं तो बुद्ध, महावीर का तत्त्व ज्ञान में, भारत और सनातन के तत्त्व ज्ञान में जो अन्तर का अनुभव हुआ, बुद्ध ने सन्यासी की फौज खड़ी कर ली। उससे कैसे चलेगा?
ये जो फौज है, इसके पालन पोषण के लिए गृहस्थ भी तो चाहिए।
सनातन धर्म के अनुसार चार आश्रम हैं। संन्यास आश्रम सबके लिए नहीं बोला गया है।
पच्चीस वर्ष तक छात्र जीवन में रहना चाहिए।
अगले पच्चीस वर्ष गृहस्थ जीवन जीना चाहिए। पराक्रम, पुरुषार्थ और सृजन करना चाहिए। परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठानी चाहिए।
उसके पश्चात् के पच्चीस वर्षों में, जब बच्चे भी बड़े हो जाते हैं, छात्र जीवन से वापस आकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाते हैं, तब वानप्रस्थ की तैयारी करने को कहा गया है।
गृहस्थ आश्रम में रह कर संन्यस्थ हो जाना है। यहाँ पर कपड़े और नियम नहीं बदलते, वृत्ति बदलती है। वृत्ति नहीं बदलती है तो संन्यास जीवन प्रवेश के बाद भी संन्यासी भी गलती करता जायेगा। मात्र कपड़े नहीं बदलना है। पचास से पिचहत्तर की उम्र तक घर को दिशा देनी है, सूचना देनी है। आवश्यकता पर मार्ग दर्शन देना। संन्यास ने जो अनुभव किया है, वो गृहस्थी त्याग कर के वन विहार करें। मठ, आश्रमों में रह कर समाज का मार्ग दर्शन करें। यह हमारे यहाँ चार आश्रम की व्यवस्था बतायी है।
सनातन धर्म गृहस्थ जीवन की ओर पीठ कर लेने को नहीं कहता।
जो युद्ध में आये है, वे धन की आशा का त्याग करके ही आये हैं। अर्जुन कहते हैं-मुझे जीवन में कुछ भी नहीं चाहिए, आत्म हत्या कर लेता हूँ। श्रीभगवान कहते हैं, समत्व साधना है, तो योग साधना करनी होगी, पुरुषार्थ करना होगा, बाण साधना होगा। तू तो निमित्त मात्र हैं। सनातन संस्कृति भागने की नहीं, जागने को कहती है। अर्जुन जो सोया हुआ है, उसको जगाने का काम भगवद्गीता कर रही है। इसीलिए जो अन्दर बैठे हुए सारथी हैं उनको हम स्वयं कई बार प्रश्न करते हैं। हमारे अन्दर जो कृष्ण सारथी बन कर बैठे हैं, उनसे हम प्रश्न करते हैं, वे उत्तर देते चलते हैं।
प्रयाग में कुम्भ चल रहा है। साधु सन्त हिमालय से उतर कर आये हैं, गुफाओं और आश्रमों से आये हैं। एक साधु गुफा में तपस्या करके, क्रोध पर विजय प्राप्त करके आये हैं। गुफा में बैठ कर क्रोध पर नियन्त्रण करना सहज है। गृहस्थ में रह कर क्रोध को रोक पाना विशेष होता है। एक साधु को क्रोध पर नियन्त्रण का अभिमान भी था। जल से स्नान करके के नंगे पाव चलने लगा, किसी का पैर पड़ गया। साधु महात्मा क्रोधित हो गये। तुम्हें पता नहीं है, मैं कौन हूँ? तुमने ऐसा क्यों किया, क्रोधित हो गये। सामने वाले ने क्षमा भी माँग ली। क्रोध शान्त नहीं हुआ । हिमालय की गुफा में क्रोध पर नियन्त्रण करने वाले, कुम्भ के मेले में क्रोध कर बैठते है। ऐसा क्यों होता हैं? जब अन्दर का विवेक सो जाता है, तब ऐसा होता है।अवचेतन मन जब अचेत हो जाता है, तब ये घटनाएं घटित होती हैं।
अचेत अवस्था में कोई श्रद्धा के मार्ग पर चल पड़े, उसकी श्रद्धा क्या कहलाएगी? यह प्रश्न अर्जुन ने पूछा है। इसका उत्तर श्रीभगवान ने सत्रहवें अध्याय में विस्तार से दिया हैं। मात्र श्रद्धा ही नहीं, शरीर वाणी, मन के तप के बारे में भी कहा है।
त्रिविध कर्म के बारे में, यज्ञ, दान, और तप के बारे में बताया है।
निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें !
स्वार्थ साधना की आंधी में वसुधा का कल्याण न भूलें !!
वसुधा का कल्याण करने के लिए प्रतिबद्ध रहें। इसीलिए भगवान ने किस प्रकार की श्रद्धा, यज्ञ, तप, दान करना चाहिए, इसका विवेचन अर्जुन के एक प्रश्न पर कर दिया है।
पच्चीस वर्ष तक छात्र जीवन में रहना चाहिए।
अगले पच्चीस वर्ष गृहस्थ जीवन जीना चाहिए। पराक्रम, पुरुषार्थ और सृजन करना चाहिए। परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठानी चाहिए।
उसके पश्चात् के पच्चीस वर्षों में, जब बच्चे भी बड़े हो जाते हैं, छात्र जीवन से वापस आकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाते हैं, तब वानप्रस्थ की तैयारी करने को कहा गया है।
गृहस्थ आश्रम में रह कर संन्यस्थ हो जाना है। यहाँ पर कपड़े और नियम नहीं बदलते, वृत्ति बदलती है। वृत्ति नहीं बदलती है तो संन्यास जीवन प्रवेश के बाद भी संन्यासी भी गलती करता जायेगा। मात्र कपड़े नहीं बदलना है। पचास से पिचहत्तर की उम्र तक घर को दिशा देनी है, सूचना देनी है। आवश्यकता पर मार्ग दर्शन देना। संन्यास ने जो अनुभव किया है, वो गृहस्थी त्याग कर के वन विहार करें। मठ, आश्रमों में रह कर समाज का मार्ग दर्शन करें। यह हमारे यहाँ चार आश्रम की व्यवस्था बतायी है।
सनातन धर्म गृहस्थ जीवन की ओर पीठ कर लेने को नहीं कहता।
जो युद्ध में आये है, वे धन की आशा का त्याग करके ही आये हैं। अर्जुन कहते हैं-मुझे जीवन में कुछ भी नहीं चाहिए, आत्म हत्या कर लेता हूँ। श्रीभगवान कहते हैं, समत्व साधना है, तो योग साधना करनी होगी, पुरुषार्थ करना होगा, बाण साधना होगा। तू तो निमित्त मात्र हैं। सनातन संस्कृति भागने की नहीं, जागने को कहती है। अर्जुन जो सोया हुआ है, उसको जगाने का काम भगवद्गीता कर रही है। इसीलिए जो अन्दर बैठे हुए सारथी हैं उनको हम स्वयं कई बार प्रश्न करते हैं। हमारे अन्दर जो कृष्ण सारथी बन कर बैठे हैं, उनसे हम प्रश्न करते हैं, वे उत्तर देते चलते हैं।
प्रयाग में कुम्भ चल रहा है। साधु सन्त हिमालय से उतर कर आये हैं, गुफाओं और आश्रमों से आये हैं। एक साधु गुफा में तपस्या करके, क्रोध पर विजय प्राप्त करके आये हैं। गुफा में बैठ कर क्रोध पर नियन्त्रण करना सहज है। गृहस्थ में रह कर क्रोध को रोक पाना विशेष होता है। एक साधु को क्रोध पर नियन्त्रण का अभिमान भी था। जल से स्नान करके के नंगे पाव चलने लगा, किसी का पैर पड़ गया। साधु महात्मा क्रोधित हो गये। तुम्हें पता नहीं है, मैं कौन हूँ? तुमने ऐसा क्यों किया, क्रोधित हो गये। सामने वाले ने क्षमा भी माँग ली। क्रोध शान्त नहीं हुआ । हिमालय की गुफा में क्रोध पर नियन्त्रण करने वाले, कुम्भ के मेले में क्रोध कर बैठते है। ऐसा क्यों होता हैं? जब अन्दर का विवेक सो जाता है, तब ऐसा होता है।अवचेतन मन जब अचेत हो जाता है, तब ये घटनाएं घटित होती हैं।
अचेत अवस्था में कोई श्रद्धा के मार्ग पर चल पड़े, उसकी श्रद्धा क्या कहलाएगी? यह प्रश्न अर्जुन ने पूछा है। इसका उत्तर श्रीभगवान ने सत्रहवें अध्याय में विस्तार से दिया हैं। मात्र श्रद्धा ही नहीं, शरीर वाणी, मन के तप के बारे में भी कहा है।
त्रिविध कर्म के बारे में, यज्ञ, दान, और तप के बारे में बताया है।
निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें !
स्वार्थ साधना की आंधी में वसुधा का कल्याण न भूलें !!
वसुधा का कल्याण करने के लिए प्रतिबद्ध रहें। इसीलिए भगवान ने किस प्रकार की श्रद्धा, यज्ञ, तप, दान करना चाहिए, इसका विवेचन अर्जुन के एक प्रश्न पर कर दिया है।
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा, देहिनां(म्) सा स्वभावजा|
सात्त्विकी राजसी चैव, तामसी चेति तां(म्) शृणु||17.2||
श्री भगवान बोले - मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी - ऐसे तीन तरह की ही होती है, उसको (तुम) मुझसे सुनो।
विवेचन- कोटा के शिविर में किसी ने एक प्रश्न पूछा। स्वामी विवेकानन्द जी की जयन्ती मनाने जा रहे हैं, पता चला वो मछली खाते थे। स्वामी विवेकानन्द जी मछली खाते थे, यह तो हिंसा तो हुई। ये समझना आवश्यक है कि विवेकानन्द जी मछली क्यों खाते थे? स्वामी जी का जन्म कायस्थ बङ्गाली परिवार में हुआ था। बङ्गाल में मछली खाना उपवास में छोड़ने की वस्तु होती है। हरेक के अपने पारिवारिक संस्कार होते हैं। बाल्यकाल में जब छोटे होते हैं, उस समय कुछ भी भक्ष्य, अभक्ष्य की समझ नहीं होती उस समय कुछ भी खिला दे तो उसमें कुछ भी गलत नहीं होता। युवा अवस्था में मछली खाये भी तो उसका समर्थन नहीं किया। एक बात और है, जैसे की क्षत्रिय को उसके स्वभाव के अनुसार माँसाहार करने में आपत्ति नहीं है। क्षत्रिय का वर्ण से ही युद्ध का स्वभाव और उसका नियत कर्म है। उसे हिंसा भी करनी होती है। आपातकाल में मेरे देश पर आक्रमण करने वाले का वध करना है, ऐसा स्वभाव बनाया जाता है। ये क्षत्रिय का धर्म बनता है। ये उसे पितृ परम्परा से प्राप्त भी होता है। जिसका पुत्र क्षत्रिय है, उसके खून में क्षत्रित्व स्वयं उतरता है। जिसके पिता वैश्य है, उसके खून में व्यापार करना स्वतः उतरता है। उसी तरह जिसके पिता ब्राह्मण हैं। जन्म से ब्राह्मण नहीं, ब्राह्मण का माने उस तरह का आचरण करने वाला, अध्ययन अध्यापन में स्वतः रुचि आती है. जिसके घर में सेवा ही परम धर्म माना गया है, ऐसे शूद्र के मन में स्वतः सेवा का भाव उदित होता है। कोई क्षत्रिय माँसाहार करता है, अहिंसा के तत्त्व के विरोध में भी हो तो सही है।
सोलहवें अध्याय में भगवान ने अर्जुन को अहिंसा को दैवीय गुण बताया, वहीं भगवान अट्ठारहवें अध्याय में अर्जुन को कहते हैं, उठा बाण, युद्ध कर। भगवान ने ही हत्या का आदेश किया। ये विजय तेरे नाम कर दी। ये स्वभाव के अनुकूल भी है। स्वभाव, एक जन्म से ही नहीं आता, कई जन्मों से आता है। पिछले जन्म के संस्कारों से, हमारे मन में जो संस्कार बनें, वे मन आत्मा के साथ पूर्व जन्म से ही चले हैं। इसलिए एक ही घर के दो बालकों के दो स्वभाव के होते हैं।
उदाहरण- एक माता अपने दो बच्चों को लेकर दूसरे घर में गई। उसने बड़े से प्रणाम करने को कहा, उसने कहने पर प्रणाम किया, छोटे ने नहीं किया। स्वभाव अपने आप आता है। तीन प्रकार की श्रद्धा होती है। श्रद्धा तीन प्रकार की कैसी होती है, ये समझते हैं।
सोलहवें अध्याय में भगवान ने अर्जुन को अहिंसा को दैवीय गुण बताया, वहीं भगवान अट्ठारहवें अध्याय में अर्जुन को कहते हैं, उठा बाण, युद्ध कर। भगवान ने ही हत्या का आदेश किया। ये विजय तेरे नाम कर दी। ये स्वभाव के अनुकूल भी है। स्वभाव, एक जन्म से ही नहीं आता, कई जन्मों से आता है। पिछले जन्म के संस्कारों से, हमारे मन में जो संस्कार बनें, वे मन आत्मा के साथ पूर्व जन्म से ही चले हैं। इसलिए एक ही घर के दो बालकों के दो स्वभाव के होते हैं।
उदाहरण- एक माता अपने दो बच्चों को लेकर दूसरे घर में गई। उसने बड़े से प्रणाम करने को कहा, उसने कहने पर प्रणाम किया, छोटे ने नहीं किया। स्वभाव अपने आप आता है। तीन प्रकार की श्रद्धा होती है। श्रद्धा तीन प्रकार की कैसी होती है, ये समझते हैं।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य, श्रद्धा भवति भारत|
श्रद्धामयोऽयं(म्) पुरुषो, यो यच्छ्रद्धः(स्) स एव सः||17.3||
हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। (इसलिये) जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा (स्थिति) है।
विवेचन- हे भारत कौन राजसी है, तामसी है या सात्त्विकी है, वो आदमी किस स्वभाव का है, ये उसकी श्रद्धा से पहचाना जा सकता है। स्वभाव से जैसे श्रद्धा का पता चलता है, वैसे ही श्रद्धा से उसके स्वभाव का पता चलता है। वो ही उसकी पहचान होगी।
यजन्ते सात्त्विका देवान्, यक्षरक्षांसि राजसाः|
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये, यजन्ते तामसा जनाः||17.4||
सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों का और दूसरे (जो) तामस मनुष्य हैं, (वे) प्रेतों (और) भूतगणों का पूजन करते हैं।
विवेचन- श्रद्धा से पूजन कैसे करते हैं? सात्त्विकी स्वभाव वाले पुरुष देवों का पूजन करते हैं। राजसी स्वभाव वाले यक्ष राक्षसों की पूजा करते हैं। हमारे यहाँ कुबेर यक्ष का पूजन वर्ष भर में एक बार दीवाली पर करते हैं, क्योंकि हमारे शास्त्र चाहते है, सात्त्विकी वृत्ति बढ़ायी जाए। पूर्व जन्म के संस्कारों से हम राजसी स्वभाव वाले हो सकते हैं। बदलने की व्यवस्था मानव जीवन में ही है। क्षत्रिय के घर में जन्म लेने के बाद भी बुद्ध, बुद्ध और महावीर स्वामी महावीर बन जाते हैं। बदलने की व्यवस्था मात्र मानव जीवन में ही है। तभी कहा गया है।
बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।
बड़े भाग्य से ये जीवन मिला है, इसको सात्त्विकता की ओर ले जायें। इसीलिए हमारे शास्त्रों ने देवों की पूजा का उपदेश किया है।
राजसी पुरूष यक्ष, राक्षसों की पूजा करते हैं। उन्हें पराक्रम करना हैं। धन, गाड़ी, समृद्धि, सम्पत्ति आ जाय इसलिए भी उनकी पूजा की जाती है।
तामसी लोग भूत, प्रेत का पूजन करते हैं। शास्त्र विधि से पूजन नहीं किया जाता।
भगवद्गीता योग शास्त्र है। इसलिए इसमें सात्त्विकता की और बढ़ते जाने को कहा है। ये जानना भी थोड़ा आवश्यक है। व्यवसायी को व्यवसाय नियम व क़ानून जानना होगा। व्यवसाय के लिए व्यवसाय प्रमाण पत्र, आयकर और अन्य करों के बारे में जानना ही होगा। मुझे कुछ नहीं पता ऐसा बोलने से मुकदमा भी चलेगा और आयकर अधिकारी पकड़ कर ले जाएंगे। मूलभूत बातें मालूम होनी चाहिए। लेखा जोखा के शास्त्र की जानकारी चाहिए। श्रीभगवान कह रहें, बिना शास्त्र के काम होने लग जाए तो गड़बड़ होने लग जाएगी।
बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।
बड़े भाग्य से ये जीवन मिला है, इसको सात्त्विकता की ओर ले जायें। इसीलिए हमारे शास्त्रों ने देवों की पूजा का उपदेश किया है।
राजसी पुरूष यक्ष, राक्षसों की पूजा करते हैं। उन्हें पराक्रम करना हैं। धन, गाड़ी, समृद्धि, सम्पत्ति आ जाय इसलिए भी उनकी पूजा की जाती है।
तामसी लोग भूत, प्रेत का पूजन करते हैं। शास्त्र विधि से पूजन नहीं किया जाता।
भगवद्गीता योग शास्त्र है। इसलिए इसमें सात्त्विकता की और बढ़ते जाने को कहा है। ये जानना भी थोड़ा आवश्यक है। व्यवसायी को व्यवसाय नियम व क़ानून जानना होगा। व्यवसाय के लिए व्यवसाय प्रमाण पत्र, आयकर और अन्य करों के बारे में जानना ही होगा। मुझे कुछ नहीं पता ऐसा बोलने से मुकदमा भी चलेगा और आयकर अधिकारी पकड़ कर ले जाएंगे। मूलभूत बातें मालूम होनी चाहिए। लेखा जोखा के शास्त्र की जानकारी चाहिए। श्रीभगवान कह रहें, बिना शास्त्र के काम होने लग जाए तो गड़बड़ होने लग जाएगी।
अशास्त्रविहितं(ङ्) घोरं(न्), तप्यन्ते ये तपो जनाः|
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः(ख्), कामरागबलान्विताः||17.5||
जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं; (जो) दम्भ और अहंकार से अच्छी तरह युक्त हैं; (जो) भोग- पदार्थ, आसक्ति और हठ से युक्त हैं; (जो) शरीर में स्थित पाँच भूतों को अर्थात् पांच भौतिक शरीर को तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को (तू) आसुर निष्ठा वाले (आसुरी सम्पदा वाले) समझ। ( 17.5-17.6)
विवेचन- तामसी लोगों की तपस्या के कई उदाहरण हमारे शास्त्रों में मिल जाते हैं। हिरण्यकश्यप और रावण ने तप किया किन्तु तप करने से उनकी कामना और आसक्ति बढ़ गयी, बल का घमण्ड आ गया। रावण ने सीता माता का हरण कर लिया। हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र की सनातन प्रवृत्ति को दबाने की चेष्टा की, वरदान भी प्राप्त कर लिया कि न दिन में मरूँगा, न रात में मरूँगा, न घर में मरूँगा, न बाहर, न अस्त्र से न शस्त्र से। देव, दानव, मनुष्य कोई भी नहीं मार सकेगा तो फिर कैसे मरेगा? ये प्रश्न हमारे मन में भी है। किन्तु भगवान को पता है, कैसे मारेंगे। जब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को कहा - कहाँ है तुम्हारा भगवान ? बता वह नारायण इस खम्भे में है? भगवान सृष्टि में व्याप्त है, ये श्रद्धा है। भगवान को मानना पड़ा, खम्भे पर आघात करने से भगवान को आना पड़ा। मानव और पशु के संयुक्त रूप में आये। अस्त्र शस्त्र के बिना नाखून से पेट फाड़ दिया, दिन रात नहीं सन्ध्या काल में, न घर के अन्दर न बाहर, दरवाज़े के बीच भगवान आसुरी सम्पत्ति वाले असुर का दर्प हरण करने के लिए नरसिंह रूप में प्रकट हुए। ऐसे लोग अपने आप को तपाते है । मन्दोदरी पुष्प रखना भूल गई, रावण ने शीश को परिच्छेद कर के शीश कमल चढ़ाये। भगवान आये और आशीर्वाद दिया। रावण का बल और अहङ्कार दोनों बढ़ गया, क्योंकि मूल वृत्ति तामसी थी। ऐसे लोग स्वयं के शरीर को कष्ट देते हैं।
कर्शयन्तः(श्) शरीरस्थं(म्), भूतग्राममचेतसः|
मां(ञ्) चैवान्तः(श्) शरीरस्थं(न्), तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्||17.6||
विवेचन- इस प्रकार के तप, भगवान ने नकार दिये, सप्ताह में एक दिन उपवास, भगवान के नाम से किया, बहुत है। लोग अचम्भित करने वाले उपवास करते हैं।
एक घर में गया, उनकी बुआजी भी आयी हुई थी। वो भी वार्तालाप में साथ में बैठ गईं। लोगों ने मुझे चाय नाश्ता पूछ लिया, किन्तु घर के लोग बार-बार बुआजी से भी पूछ रहे थे, चाय पीयेंगी? नाश्ता करेंगी? मेहमान मैं हूँ बुआजी नहीं। बुआजी तो वही पली बढीं थीं, उनकी इतनी मनुहार? मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछ लिया कि इतने मान-मनुहार का कारण? आज बुआजी का पुच्छल उपवास है, पूछने पर ही वो खाएँगी। पूछने से ही अहङ्कार बढ़ जाएगा।
एक घर में गया, उनकी बुआजी भी आयी हुई थी। वो भी वार्तालाप में साथ में बैठ गईं। लोगों ने मुझे चाय नाश्ता पूछ लिया, किन्तु घर के लोग बार-बार बुआजी से भी पूछ रहे थे, चाय पीयेंगी? नाश्ता करेंगी? मेहमान मैं हूँ बुआजी नहीं। बुआजी तो वही पली बढीं थीं, उनकी इतनी मनुहार? मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछ लिया कि इतने मान-मनुहार का कारण? आज बुआजी का पुच्छल उपवास है, पूछने पर ही वो खाएँगी। पूछने से ही अहङ्कार बढ़ जाएगा।
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।17.5।।
इस प्रकार का तप अशास्त्रीय है। इनका कोई अर्थ नहीं है। श्रीभगवान कह रहे है, ये मुझे ही क्षींण कर रहे हैं। मैं ही तुम्हारे अन्दर हूँ। भगवान को ऐसे तप अपेक्षित नहीं हैं। उपवास कर सकते हैं। बिना उपवास के भी क्या खाना है? श्रीभगवान ने बताया, सही तरीके से अपनाना होगा। सम्यक् धारण करना होगा। आहार की भी व्याख्या की है।
आहारस्त्वपि सर्वस्य, त्रिविधो भवति प्रियः|
यज्ञस्तपस्तथा दानं(न्), तेषां(म्) भेदमिमं(म्) शृणु||17.7||
आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप (और) दान (भी तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मों में भी गुणों को लेकर तीन प्रकार की रुचि होती है,) (तू) उनके इस भेद को सुन।
विवेचन- आहार भी तीन प्रकार के प्रिय होते है। यज्ञ, तप, दान भी तीन प्रकार के होते है अर्थात् शास्त्रीय कर्म में तीन प्रकार की रुचि होती है।
पहला भेद आहार के बारे में बताया। सात्त्विक, राजसी, तामसी व्यक्ति का आहार कैसा होता है
पहला भेद आहार के बारे में बताया। सात्त्विक, राजसी, तामसी व्यक्ति का आहार कैसा होता है
आयुः(स्) सत्त्वबलारोग्य, सुखप्रीतिविवर्धनाः|
रस्याः(स्) स्निग्धाः(स्) स्थिरा हृद्या, आहाराः(स्) सात्त्विकप्रियाः||17.8||
आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ाने वाले, स्थिर रहने वाले, हृदय को शक्ति देने वाले, रसयुक्त (तथा) चिकने - (ऐसे) आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान बताते हैं - सात्त्विक आहार सत्त्व गुण, बलऔर आरोग्य बढ़ाता है। सुख प्रीति बढ़ाता है। प्रीति बढ़ाता है, प्रीति शब्द बड़ा प्यारा है। खाने से भी प्रीति बढ़ती है। जैसा भोजन वैसा मन। आपसे लोग प्रीति करेंगे, आप लोगों से प्रीति करेंगे। यह आपके भोजन पर निर्भर करेगा। सात्त्विक लोग प्रीति करते हैं। इसलिए प्रीति पाते हैं और ये सब भोजन पर निर्भर करता है।
हमारे यहाँ कोल्हापुर में बड़ी तीखी मिसल बनायी जाती है। महाराष्ट्र का खाद्य है, मिसल। महाराष्ट्र के लोग अपने आप को मराठी कहेंगे। हमारे यहाँ सहृद्री पर्वत है, हिमालय तो अभी-अभी बना होगा। सहृद्री को तोड़ना कठिन है। यहाँ पहाड़ो में अजन्ता, एलोरा जैसी गुफाएँ बनायी गई हैं। अद्भुत कारीगरी है । अजन्ता की गुफा में तो एक ही पत्थर से मन्दिर बनाया गया है। पहले कलश फिर मन्दिर बनाया गया है। महाराष्ट्र को रॉकेट कहते है, अर्थात् तगड़ा देश। तगड़ा देश, दिल भी पत्थर जैसा हो गया है। महाराष्ट्र अर्थात् कड़ा है।
पत्थर जैसा देश, दिल भी पत्थर जैसा।
इसीलिए यहाँ शिवाजी जैसे वीर पैदा होते हैं। क्षत्रित्व का भाव भरा जाता है। तो राजस आहार यहाँ की परम्परा बने, इसमें कोई दो भाव नहीं है। इसीलिए मिसल हमारा राजसी आहार है। कोल्हापुर में पहुँचा, गोरा आदमी। स्थानीय आहार कौन सा है ये उसने पूछा। वो मिसल खाने चला गया। मिसल तीखा होता है। एक चम्मच मिसल के बाद ही पाव रोटी खाना पड़ता है। जलन शुरू हो जाती है। जलन को सोखने के लिए पाव खिलाते हैं। एक दिन पहले ही उस गोरे आदमी ने होटल के मालिक को शौचालय में काग़ज़ (tissue paper) के बण्डल के नहीं होने की शिकायत की थी। गोरे आदमी ने जैसे ही मिसल खायी, पेट में जलन उठी, आग और वायु से कुपित हो गया, गोरा अतिथि पूरा लाल हो गया। वो घर पहुँचते ही बार- बार शौचालय जाने लगा। यहाँ आग है, आग है, कह कर चिल्लाने लगा। पेट में आग लगी है। होटल के व्यवस्थापक ने कहा, पता चला, हम लोग शौचालय में पानी क्यों रखते हैं? श्रीभगवान कहते हैं, इतना भी तीखा न खाये कि आप तामसी वृत्ति के हो जाए। अगले श्लोक में कहते हैं।
हमारे यहाँ कोल्हापुर में बड़ी तीखी मिसल बनायी जाती है। महाराष्ट्र का खाद्य है, मिसल। महाराष्ट्र के लोग अपने आप को मराठी कहेंगे। हमारे यहाँ सहृद्री पर्वत है, हिमालय तो अभी-अभी बना होगा। सहृद्री को तोड़ना कठिन है। यहाँ पहाड़ो में अजन्ता, एलोरा जैसी गुफाएँ बनायी गई हैं। अद्भुत कारीगरी है । अजन्ता की गुफा में तो एक ही पत्थर से मन्दिर बनाया गया है। पहले कलश फिर मन्दिर बनाया गया है। महाराष्ट्र को रॉकेट कहते है, अर्थात् तगड़ा देश। तगड़ा देश, दिल भी पत्थर जैसा हो गया है। महाराष्ट्र अर्थात् कड़ा है।
पत्थर जैसा देश, दिल भी पत्थर जैसा।
इसीलिए यहाँ शिवाजी जैसे वीर पैदा होते हैं। क्षत्रित्व का भाव भरा जाता है। तो राजस आहार यहाँ की परम्परा बने, इसमें कोई दो भाव नहीं है। इसीलिए मिसल हमारा राजसी आहार है। कोल्हापुर में पहुँचा, गोरा आदमी। स्थानीय आहार कौन सा है ये उसने पूछा। वो मिसल खाने चला गया। मिसल तीखा होता है। एक चम्मच मिसल के बाद ही पाव रोटी खाना पड़ता है। जलन शुरू हो जाती है। जलन को सोखने के लिए पाव खिलाते हैं। एक दिन पहले ही उस गोरे आदमी ने होटल के मालिक को शौचालय में काग़ज़ (tissue paper) के बण्डल के नहीं होने की शिकायत की थी। गोरे आदमी ने जैसे ही मिसल खायी, पेट में जलन उठी, आग और वायु से कुपित हो गया, गोरा अतिथि पूरा लाल हो गया। वो घर पहुँचते ही बार- बार शौचालय जाने लगा। यहाँ आग है, आग है, कह कर चिल्लाने लगा। पेट में आग लगी है। होटल के व्यवस्थापक ने कहा, पता चला, हम लोग शौचालय में पानी क्यों रखते हैं? श्रीभगवान कहते हैं, इतना भी तीखा न खाये कि आप तामसी वृत्ति के हो जाए। अगले श्लोक में कहते हैं।
कट्वम्ललवणात्युष्ण, तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः|
आहारा राजसस्येष्टा, दुःखशोकामयप्रदाः||17.9||
अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे और अति दाह कारक आहार अर्थात् भोजन के पदार्थ राजस मनुष्य को प्रिय होते हैं, (जो कि) दुःख, शोक और रोगों को देने वाले हैं।
विवेचन- अति कड़वा, अति खट्टा, तीक्ष्ण, अति दाहकारक, ऊष्ण, रूखा आहार, भोजन पदार्थ राजस मनुष्य की पसन्द हैं। वास्तव में जीवन को पराक्रमी करने की प्रवृति, जीवन को सफल बनाने के लिए हम लोगों को नियत कर्म पूर्ण करने के बाद सात्त्विक बनने का प्रयास करना चाहिए। आहार पर नियन्त्रण भी आवश्यक है। पञ्चेन्द्रियाँ और मन। मन, पञ्चेन्द्रियों के माध्यम से मन की इच्छा को पूरी करता है। मन की इच्छा हो ये खाना है, तो जीभ को संयमित करना, कठिन है। कान, आँख को नियन्त्रित करना फिर भी कठिन नहीं है। कान को संयमित करने का आसान तरीका है, सुनो मत, आँखों से देखो मत। जिह्वा को संयमित करना कठिन है। जिह्वा बोलती भी है। जिह्वा से शब्द निकलते हैं। जीभ जब दाँत से लगती है तो जो शब्द निकलते हैं वो दन्त्य, तालु जब जीभ से लगती है तब तालव्य शब्द निकलते हैं। तीखे शब्द बोलने से भी रोकना कठिन है।
हमारी परम्पराएँ भी अद्भुत हैं। मेरी नानी पुष्टि मार्गी है। मेरी मामीजी भगवान को बच्चे की तरह उठाती, सुलाती, ऊनी वस्त्र बना कर पहनाती, हाथ से बना कर भोग कराती। पानी के मटके को स्पर्श कोई भी नहीं कर सकता है। हम समझते कि मामीजी हम लोगों को अस्पृश्य अर्थात् शूद्र समझती हैं। हम उनको जोश में ये बात बोलते भी तो मामी बड़े प्यार से बोलती, बेटा मैं क्या करूँ, मेरे भगवान को ही नहीं चलता। कोरोना आया तब पता मटके में हाथ नहीं डाल सकते। नाखून नहीं काटे हुए होते हैं, बाहर से आते हैं, तो हाथ गन्दे होते हैं, मटके में सीधे हाथ डालने से पानी दूषित होता है, स्वयं सहित औरों के लिए भी नुकसानदेह होता है। मामी ने शास्त्र नहीं पढ़ा था, किन्तु भगवान के नाम से शास्त्रीय कार्य ही कर रही थीं। हम लोगों को भी बासी नहीं खिलाती थीं, ताज़ा बना कर खिलाती। भगवान ने गीताजी में कहा है कि जो बासी खाता है, वो तामसी होता चला जाता है।
हमारी परम्पराएँ भी अद्भुत हैं। मेरी नानी पुष्टि मार्गी है। मेरी मामीजी भगवान को बच्चे की तरह उठाती, सुलाती, ऊनी वस्त्र बना कर पहनाती, हाथ से बना कर भोग कराती। पानी के मटके को स्पर्श कोई भी नहीं कर सकता है। हम समझते कि मामीजी हम लोगों को अस्पृश्य अर्थात् शूद्र समझती हैं। हम उनको जोश में ये बात बोलते भी तो मामी बड़े प्यार से बोलती, बेटा मैं क्या करूँ, मेरे भगवान को ही नहीं चलता। कोरोना आया तब पता मटके में हाथ नहीं डाल सकते। नाखून नहीं काटे हुए होते हैं, बाहर से आते हैं, तो हाथ गन्दे होते हैं, मटके में सीधे हाथ डालने से पानी दूषित होता है, स्वयं सहित औरों के लिए भी नुकसानदेह होता है। मामी ने शास्त्र नहीं पढ़ा था, किन्तु भगवान के नाम से शास्त्रीय कार्य ही कर रही थीं। हम लोगों को भी बासी नहीं खिलाती थीं, ताज़ा बना कर खिलाती। भगवान ने गीताजी में कहा है कि जो बासी खाता है, वो तामसी होता चला जाता है।
यातयामं(ङ्) गतरसं(म्), पूति पर्युषितं(ञ्) च यत्|
उच्छिष्टमपि चामेध्यं(म्), भोजनं(न्) तामसप्रियम्||17.10||
जो भोजन सड़ा हुआ, रस रहित, दुर्गन्धित, बासी और जूठा है तथा (जो) महान अपवित्र (मांस आदि) भी है, (वह) तामस मनुष्य को प्रिय होता है।
विवेचन- जो भोजन रसरहित, बासी, सुख गया है, दुर्गन्ध युक्त है, जूठा है, अपवित्र है, वो तामस मनुष्य को प्रिय है। एक गहन चीज तीनों श्लोकों में देखने को मिलती है। ये तीन को ध्यान से देखते हैं, तो भगवान ने रोग के परिणाम बताये हैं। आयु, सत्त्व, सुख, आरोग्य, प्रीति बढ़ेगी। ये सात्त्विक भोजन का परिणाम बताया है। राजसी भोजन का भी परिणाम बताया है- दुःख, शोक प्रदान करने वाला राजसी भोजन है। ये खाने से बड़े उम्र में दुःख आता ही आता है। सात्त्विक और राजसी भोजन के परिणाम की बात की है, किन्तु तामसी भोजन के परिणाम नहीं बताये, मात्र व्याख्या कर के छोड़ दिया। इस प्रकार का भोजन करने वाले परिणाम का सोचते ही नहीं हैं। हमारे यहाँ प्याज, लहसुन को भोग में मना कर दिया है। घर में देवों का पूजन होता है, भगवान को भोग लगाते हैं। देवों का पूजन करने वाला सात्त्विक होता है, उसे सात्त्विक अन्न ही खाना होगा। प्याज, लहसुन से राजसी वृत्ति बढ़ेगी, क्रोध बढ़ेगा। कभी-कभी दवा देकर राजसी वृत्ति बढ़ानी भी पड़ती है। इस प्रकार तीनों आहार की व्याख्या की गयी। नियत आहार भी आवश्यक है। सात्त्विक आहार है मीठा, इसीलिए खाना तो बहुत नहीं ही चाहिए। उसका भी एक मापदण्ड निर्धारित कर के ही खाये।
वही युक्ताहार होना चाहिए। भगवान को चढ़ाया हुआ बोल कर भी अधिक खाया तो मेद बढ़ेगा। राजसी वृत्ति बढ़ेगी। फिर तामसी वृत्ति बढ़ेगी, नींद आएगी।
यज्ञ की व्याख्या भी की है। यज्ञ को यह नहीं समझना चाहिए, कि हम जो अग्नि में घृत अर्पित करते हैं, समिधाएं जला कर हवि अर्पण करते हैं, वे यज्ञ हैं।
द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ की, बहुत सारे यज्ञों की बात बतायी है जो स्वयं का स्वार्थ छोड़कर देने का काम करता है, उस हर विधा को यज्ञ कहते हैं।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17।।
वही युक्ताहार होना चाहिए। भगवान को चढ़ाया हुआ बोल कर भी अधिक खाया तो मेद बढ़ेगा। राजसी वृत्ति बढ़ेगी। फिर तामसी वृत्ति बढ़ेगी, नींद आएगी।
यज्ञ की व्याख्या भी की है। यज्ञ को यह नहीं समझना चाहिए, कि हम जो अग्नि में घृत अर्पित करते हैं, समिधाएं जला कर हवि अर्पण करते हैं, वे यज्ञ हैं।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।4.28।।
द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ की, बहुत सारे यज्ञों की बात बतायी है जो स्वयं का स्वार्थ छोड़कर देने का काम करता है, उस हर विधा को यज्ञ कहते हैं।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो, विधिदृष्टो य इज्यते|
यष्टव्यमेवेति मनः(स्), समाधाय स सात्त्विकः||17.11||
यज्ञ करना ही कर्तव्य है - इस तरह मन को समाधान (संतुष्ट) करके फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो शास्त्रविधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है।
विवेचन- शास्त्र विधि से सम्मत, विधि के अनुकूल, इस प्रकार का यज्ञ करना मेरा कर्त्तव्य, मन को आनन्दित करने वाला, निष्काम भाव से किया जाने वाला यज्ञ सात्त्विक यज्ञ कहलाता है। अनेक ऋणों से मुक्ति तक की बात शास्त्रों में कही गयी है। देव ऋण से मुक्त होना है। वरुण देवता का उपकार है, उन्होंने वर्षा के रूप में जल प्रदान किया है। उन्हें हवि देकर खुश करना। यज्ञ का विधान बताया है। अन्य देवताओं को भी हवि देकर पहुँचाना ही देव ऋण से मुक्ति है।
पितृ ऋण- मेरा माता-पिता का कुछ ऋण है। मेरे माता-पिता के प्रति सन्तान होने के नाते कुछ कर्त्तव्य हैं। उससे मुक्ति का उपाय उनकी सेवा करना है, साथ ही अगली पीढ़ी का चरित्र निर्माण भी।
ऋषि ऋण- गुरु का भी ऋण है। गुरु सेवा, गुरु परम्परा से ही हमारा धर्म जीवित रहने वाला है। यह भाव भी बनाये रखना होगा। संन्यासी का आथित्य करना, भोजन करवाना, ये ऋषि ऋण से मुक्ति है।
समाज का भी ऋण है। हमारे आस-पास रहने वाले, हमारे लिए कुछ करते हैं। उनके प्रति भी हमारा कुछ कर्त्तव्य बनता है।
भूत ऋण- हमारी धर्म संस्कृति, परम्पराएँ कहाँ तक पहुँची हैं? पेड़-पौधे, प्राणी मात्र का भी ऋण होता है। नाग, गौ, वृक्ष, आँवला, सबकी पूजा का विधान है। तुलसी तो हमारे घर में ही रहती है, प्रतिदिन पूजा भी होती है। चिता में एक वृक्ष की लकड़ी जलती है तो एक वृक्ष लगा कर जाना है। क्या परम्परा है! क्या विज्ञान है! कुछ लेने की इच्छा न हो, वो भी सात्त्विक यज्ञ कहा गया है। आगे श्रीभगवान ने कहा-
पितृ ऋण- मेरा माता-पिता का कुछ ऋण है। मेरे माता-पिता के प्रति सन्तान होने के नाते कुछ कर्त्तव्य हैं। उससे मुक्ति का उपाय उनकी सेवा करना है, साथ ही अगली पीढ़ी का चरित्र निर्माण भी।
ऋषि ऋण- गुरु का भी ऋण है। गुरु सेवा, गुरु परम्परा से ही हमारा धर्म जीवित रहने वाला है। यह भाव भी बनाये रखना होगा। संन्यासी का आथित्य करना, भोजन करवाना, ये ऋषि ऋण से मुक्ति है।
समाज का भी ऋण है। हमारे आस-पास रहने वाले, हमारे लिए कुछ करते हैं। उनके प्रति भी हमारा कुछ कर्त्तव्य बनता है।
भूत ऋण- हमारी धर्म संस्कृति, परम्पराएँ कहाँ तक पहुँची हैं? पेड़-पौधे, प्राणी मात्र का भी ऋण होता है। नाग, गौ, वृक्ष, आँवला, सबकी पूजा का विधान है। तुलसी तो हमारे घर में ही रहती है, प्रतिदिन पूजा भी होती है। चिता में एक वृक्ष की लकड़ी जलती है तो एक वृक्ष लगा कर जाना है। क्या परम्परा है! क्या विज्ञान है! कुछ लेने की इच्छा न हो, वो भी सात्त्विक यज्ञ कहा गया है। आगे श्रीभगवान ने कहा-
अभिसन्धाय तु फलं(न्), दम्भार्थमपि चैव यत्|
इज्यते भरतश्रेष्ठ, तं(म्) यज्ञं(म्) विद्धि राजसम्||17.12||
परन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! जो यज्ञ फल की इच्छा को लेकर अथवा दम्भ (दिखावटीपन) के लिये भी (किया जाता है), उस यज्ञ को (तुम) राजस समझो।
विवेचन- दशरथ राजा ने राजसूय यज्ञ किया था। राजसूर्य यज्ञ पुत्र, सन्तति की अभिलाषा से किया गया था। पाण्डवों ने जो यज्ञ किया था, वो राजसी था। इस यज्ञ में एक अद्भुत घटना घटी। एक नेवले का आधा शरीर सोने का था, वो यज्ञ में आया। भगवान ने राजसूर्य यज्ञ में जूठी पत्तलें उठाने का काम लिया था। जहाँ पर जूठी पत्तलें डाली जा रही थी, वहाँ आकर वो नेवला लोटने लगा। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ, नेवला क्या कर रहा है? उसने कहा कि वह ऐसा इसलिए कर रहा है कि उसका आधा बचा हुआ शरीर सोने का हो जाएगा पर बन नहीं पाया। पूछा गया कि आधा शरीर सोने का किस यज्ञ में हुआ?
नेवले ने बताया वो एक खेत में रहता था। एक बार दुर्भिक्ष पड़ा। जिस खेत में वो रहता था, उस खेत में भी खेती नहीं हुई, फसल भी नहीं हुई। किसान के भोजन का भी प्रबन्ध नहीं हो पाता था। कहीं से माँग कर दिन में एक बार एक-आध रोटी का ही प्रबन्ध हो पाता था। किसान को एक रोटी मिली थी, वो लेकर खाने ही बैठा था कि एक भिक्षुक आ गया। वह बहुत भूखा था। किसान को दया आ गयी, उसने अपनी रोटी से आधी उस भिक्षुक को दे दी। भिक्षुक बहुत भूखा था, उसने बची हुई आधी रोटी माँगने पर वो भी दे दी । किसान ने कहा, मैं तो एक दिन का भूखा हूँ, तुम तीन दिन से भूखे हो, ले लो। उस अतिथि ने जो हाथ धोया, जहाँ पानी गिरा था, वहाँ की भूमि ठण्डी हो गयी। नेवला ठण्डक पाने के लिए, उस जगह पर जाकर सो गया। एक ही करवट पूरी रात सोया रहा, जिस ओर पानी गिरा था। उठा तो देखा, जिस तरफ़ वो सोया था, उस तरफ़ का शरीर सोने का हो गया था। वो यज्ञ सात्त्विक यज्ञ था। राजसूर्य यज्ञ, कामना से चल रहा है। अपेक्षा से उदालक ऋषि ने किया था। यज्ञ का नाम विश्वजीत यज्ञ था। इस विश्वजीत यज्ञ में नचिकेता के पिता उदालक ऋषि ने नचिकेता को ही दान कर दिया था। ये चर्चा आगे के सत्रों में सुनेगें।
प्रश्नोत्तर सत्र-
नेवले ने बताया वो एक खेत में रहता था। एक बार दुर्भिक्ष पड़ा। जिस खेत में वो रहता था, उस खेत में भी खेती नहीं हुई, फसल भी नहीं हुई। किसान के भोजन का भी प्रबन्ध नहीं हो पाता था। कहीं से माँग कर दिन में एक बार एक-आध रोटी का ही प्रबन्ध हो पाता था। किसान को एक रोटी मिली थी, वो लेकर खाने ही बैठा था कि एक भिक्षुक आ गया। वह बहुत भूखा था। किसान को दया आ गयी, उसने अपनी रोटी से आधी उस भिक्षुक को दे दी। भिक्षुक बहुत भूखा था, उसने बची हुई आधी रोटी माँगने पर वो भी दे दी । किसान ने कहा, मैं तो एक दिन का भूखा हूँ, तुम तीन दिन से भूखे हो, ले लो। उस अतिथि ने जो हाथ धोया, जहाँ पानी गिरा था, वहाँ की भूमि ठण्डी हो गयी। नेवला ठण्डक पाने के लिए, उस जगह पर जाकर सो गया। एक ही करवट पूरी रात सोया रहा, जिस ओर पानी गिरा था। उठा तो देखा, जिस तरफ़ वो सोया था, उस तरफ़ का शरीर सोने का हो गया था। वो यज्ञ सात्त्विक यज्ञ था। राजसूर्य यज्ञ, कामना से चल रहा है। अपेक्षा से उदालक ऋषि ने किया था। यज्ञ का नाम विश्वजीत यज्ञ था। इस विश्वजीत यज्ञ में नचिकेता के पिता उदालक ऋषि ने नचिकेता को ही दान कर दिया था। ये चर्चा आगे के सत्रों में सुनेगें।
प्रश्नोत्तर सत्र-
प्रश्नकर्ता- रेणु दीदी
प्रश्न- तुलसी जी का भगवान कृष्ण और भगवान शिव के साथ क्या सम्बन्ध है?
उत्तर- भगवान कृष्ण ने तुलसी के साथ विवाह किया था जो कि हम प्रतिवर्ष दीपावली पर्व के बाद करवाते हैं। तुलसी एक असुर की पत्नी थी। देवासुर सङ्ग्राम में उनके पतिव्रत धर्म के कारण उनके पति को हराना अत्यन्त कठिन हो रहा था। तब विष्णु भगवान स्वयं उनके पति का रूप धारण कर उनके पास गए। जब भेद खुला तो तुलसी अत्यन्त दु:खी हुई तब भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि जब वह कृष्ण रूप में अवतरित होंगे तब वह उनसे विवाह करेंगे। हमारे ऋषि-मुनियों ने अत्यन्त सुन्दरता के साथ विज्ञान को ही धर्म बना दिया था। तुलसी का पौधा घर के आँगन में लगाने से ऑक्सीजन की मात्रा अधिक रहती है क्योंकि तुलसी का पौधा दिन और रात दोनों ही समय में ऑक्सीजन को उत्सर्जित करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करता है। तुलसी पत्र का भोग के साथ रखा जाना भी हमारे स्वास्थ्य के लिए उत्तम बताया गया है। भोग की थाली के साथ एक तुलसी पत्र खाने से हानिकारक रोगों का परिहार हो जाता है। इसी प्रकार हमारे ऋषि-मुनियों में भगवान शिव पर तुलसी पत्र चढ़ाने को निषेध बताया है।
प्रश्नकर्ता- मीरा दीदी
प्रश्न- आयुर्वेद में भी सात्त्विक राजसिक और तामसिक भोजन का वर्णन है। तामसिक भोजन के सम्बन्ध में कहे गए श्लोक में अमेद्य का क्या अर्थ है
उत्तर- अमेद्य का अर्थ माँसाहार से है।