विवेचन सारांश
त्रिगुणातीत कैसे बनें

ID: 6402
हिन्दी
रविवार, 16 फ़रवरी 2025
अध्याय 14: गुणत्रयविभागयोग
1/2 (श्लोक 1-13)
विवेचक: गीताव्रती श्रीमती श्रुति जी नायक


श्रीहरिनाम सङ्कीर्तन, राष्ट्र वन्दना, हनुमान चालीसा पाठ एवं गुरु महिमा के वर्णन के साथ दीप प्रज्वलन करते हुए हमारे आज के सत्र का शुभारम्भ हुआ। 

बच्चों से उनके पूर्व अध्यायों के सन्दर्भ में पूछा गया। आशा प्रगट की गई कि बच्चों ने इन सभी अध्यायों को भली-भाँति समझ लिया होगा।

विवेचिका जी ने इन सभी अध्यायों के नामों की पुनरावृत्ति करवाई और बच्चों से पूछा।

प्रश्न : इस अध्याय के पहले आपने जो अध्याय पढ़ा उसका क्या नाम था?
उत्तर : श्रद्धात्रयविभागयोग।

प्रश्न : 
श्रद्धात्रयविभागयोग का क्या अर्थ है?
उत्तर : इसका अर्थ है तीन प्रकार की श्रद्धा या स्वभाव। सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

इस अध्याय में हमने तीनों गुणों के तप, यज्ञ, आहार और दान के महत्त्व को विस्तार से समझा। 

प्रश्न : हमारे आज के अध्याय का क्या नाम है?
उत्तर : गुणत्रयविभागयोग। ये गुण हैं सत्त्व, रज और तम।

किसी व्यक्ति में इन तीनों गुणों के विद्यमान होने के आधार पर वह व्यक्ति सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक होता है।

प्रश्न : हमें इन तीनों में से किस प्रकार का व्यक्ति बनने का प्रयत्न करना है?
उत्तर : हमें सत्त्व गुणों से युक्त व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि सत्त्व गुण केवल हमारे लिये ही नहीं, अपितु दूसरों के लिए भी लाभदायक होता है।

प्रश्न : सत्त्व गुण को एक शब्द में हम कैसे बता सकते हैं?
उत्तर :  सत्त्व गुण का अर्थ है अच्छे गुणों का होना।

जो अच्छे गुणों से युक्त है वह सत्त्व गुण से युक्त माना जाता है। जो दुर्गुणों से युक्त है उसे तमोगुण से युक्त माना जाता है। राजसिक गुण का अर्थ है अच्छे काम करना लेकिन किसी आकाङ्क्षा से।

गुणत्रयविभागयोग में श्रीभगवान् ने अर्जुन को इन तीनों गुणों के बारे में बताया है। हम सभी ईश्वर के कृपापात्र हैं क्योंकि हमें गीता सीखने को मिल रही है। हम श्लोक पढ़ते हैं, उनका उच्चारण करते हैं, इससे हमें शक्ति मिलती है। इसका नित्य पठन करना चाहिए। दैनिक रूप से इसका पठन करने से हमें शक्ति मिलती है। यह श्रीभगवान् के मुख से निकली वाणी है। उन्होंने अर्जुन को उपदेश देने के लिए ये श्लोक बोले थे और भगवान् वेदव्यास ने इन्हें लिखा था। ऐसे तो हम सभी ईश्वर के अंश हैं किन्तु अर्जुन अपने गुणों के कारण ईश्वर के विशेष कृपापात्र हैं और उनको निमित्त बनाकर गीता के उपदेश श्रीभगवान् ने सबके लिए दिए। जब हम नित्य गीता के श्लोकों का पठन करते हैं और इसके अर्थ को भी समझते है तो हमारी विचारधारा में परिवर्तन आता है।

निरन्तर गीता माँ के अध्ययन से एवम् उनके श्लोकों के अर्थ समझने से हमारे विचार तथा अन्तर्मन् पवित्र होता जाता है और हमें यही करना है। गीताजी हमें यही सिखाती हैं कि हम उत्तम मानव  कैसे बनें?

जिस प्रकार छोटे पौधे होते हैं, उन्हें छोटे होने के समय ही एक दिशा में बाँध दिया जाए तो वे वृक्ष होने पर अच्छे से फलते-फूलते हैं, उसी प्रकार नन्हें बालकों को अभी से सही ज्ञान मिलने पर अपने ज्ञान से महान बनने में सहायता मिलेगी।

गीता परिवार का वाक्य है "गीता पढ़ें, पढ़ाएँ, जीवन में लाएँ"। आप सब गीता पढ़ तो रहे ही हैं, साथ में और लोगों को इसके बारे में बताएँ, अर्थ विवेचन की लिङ्क भी भेजें। इस प्रकार से आप गीता पढ़ाने में भी अपने मित्रों की सहायता करेंगे। जीवन में लाने के लिए आप इसकी शिक्षा का अनुसरण करें। आप सभी में वह परिवर्तन दिखता है।

आज आप सभी को शुभकामनाएँ दी गईं क्योंकि आप नित्य अपनी गीता कक्षा और विवेचन सत्र में उपस्थित रहते हो। अब हम आज के श्लोकों के अर्थ देखते हैं।

14.1

श्रीभगवानुवाच
परं(म्) भूयः(फ्) प्रवक्ष्यामि, ज्ञानानां(ञ्) ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः(स्) सर्वे, परां(म्) सिद्धिमितो गताः॥14.1॥

श्रीभगवान बोले – सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम (और) श्रेष्ठ ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब के सब मुनि लोग इस संसार से (मुक्त होकर) परमसिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।

विवेचन- यह संस्कृत श्लोक है।

प्रश्न: इस श्लोक में आपको कितने शब्द समझ में आये?
उत्तर : ज्ञान। 
विवेचिका जी ने बच्चों की प्रशंसा करते हुए और शब्दों के विषय में पूछा जो बच्चों को समझ में आए किन्तु बच्चों को अन्य शब्द नहीं समझ में आए।

ज्ञान के बारे में सबको पता है। श्रीभगवान् अर्जुन से कहते हैं कि मैं तुम्हें ज्ञानों में जो उत्तम ज्ञान है उसके बारे  में पुनः बताने जा रहा हूँ। यहाँ श्रीभगवान् 'पुनः' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं क्योंकि यह चौदहवाँ अध्याय है और इसके पहले तेरह अध्यायों में वे अर्जुन को बहुत कुछ बता चुके हैं परन्तु उन्हें अर्जुन की प्रतिक्रिया से यह ज्ञात नहीं हो रहा है कि उन्हें कितनी बातें समझ में आयी?

अर्जुन श्रीकृष्ण के परम मित्र एवम् प्रिय शिष्य हैं। वह अनघ, अनुसूय, द्वेषरहित और पापरहित हैं, इन्हीं कारणों से श्रीभगवान् अर्जुन से बहुत प्रेम करते हैं। जिस प्रकार हमारे माता-पिता हमसे प्रेम तो करते हैं किन्तु कुछ अनुचित करने पर वे हमें बार-बार समझाते हैं उसी प्रकार श्रीभगवान् भी अर्जुन को सारी बातें अच्छे प्रकार से समझाना चाहते हैं।

अर्जुन के माध्यम से हमें भी पुनः-पुनः ये सारी बातें सुनने को मिलती हैं, जिससे हम भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि हम कोई गलत कार्य नहीं कर रहे हैं।

आगे श्रीभगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! मैं तुम्हें उस ज्ञान के बारे में बताना चाहता हूँ, जिसे प्राप्त करके महान ऋषि मुनि परमसिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। 

यहाँ मुनयः संस्कृत का शब्द है जो कि मुनि के बहुवचन के लिए प्रयोग किया गया है।

प्रश्न : परमसिद्धि क्या है?
उत्तर : परमसिद्धि का अर्थ है-
ईश्वर के धाम को प्राप्त करना। वहाँ जन्म और मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है और हम सदा के लिए ईश्वर के समीप ही उनकी भक्ति करते हुए रहते हैं।

श्रीभगवान् कहते हैं कि सभी मुनि भी इसी ज्ञान को प्राप्त करके मेरे धाम को प्राप्त करते हैं।

14.2

इदं(ञ्) ज्ञानमुपाश्रित्य, मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते, प्रलये न व्यथन्ति च॥14.2॥

इस ज्ञान का आश्रय लेकर (जो मनुष्य) मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, (वे) महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।

विवेचन- जो व्यक्ति इस परम ज्ञान को प्राप्त करके मेरे धाम में आ जाते हैं उन्हें सृष्टि के आरम्भ में जन्म भी नहीं लेना पड़ता और प्रलय के समय उन्हें मृत्यु का भय भी नहीं रहता है। आप अभी अपने माता-पिता के साथ अपने घर में रहते हैं। यदि आपको छात्रावास (hostel) जाने के लिए कहा जाएगा तो आप दुःखी और भयभीत हो जायेंगे और कदाचित मना भी कर देंगे परन्तु यदि उसी समय आपके मित्र के घर से आमन्त्रण आ जाए तो आप सरलता से तैयार हो जायेंगे, ऐसा इसलिए होगा क्योंकि आपको अपने मित्र के घर जाने में कोई समस्या नहीं होगी, ठीक इसी प्रकार से जब हमें ईश्वर के परमज्ञान का आभास हो जाता है तब ईश्वर के धाम जाते समय कष्ट नहीं होता है और भयभीत भी नहीं होते हैं। ऐसे जीव सदैव मुझे पाने के लिए तैयार रहते हैं ।

14.3

मम योनिर्महद्ब्रह्म, तस्मिन्गर्भं(न्) दधाम्यहम्।
सम्भवः(स्) सर्वभूतानां(न्), ततो भवति भारत॥14.3॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है (और) मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

विवेचन- नौवें अध्याय में हमने एक श्लोक पढ़ा था-

मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।

इस श्लोक में श्रीभगवान् कहते हैं कि इस सारी प्रकृति का अध्यक्ष मैं ही हूँ। मेरी अध्यक्षता से प्रकृति इस समस्त सृष्टि की रचना करती है। यहाँ श्रीभगवान् दूसरी पद्धति से अपनी बात को समझा रहे हैं। वे कहते हैं, मैं ही सारी चौरासी लाख योनियों की इस ब्रह्मरूपी प्रकृति में सृष्टि करवाता हूँ। इनमें चेतना भी मैं ही भरता हूँ और इन योनियों के लिए बीज भी मैं ही देता हूँ। 

प्रकृति चार प्रकार से जीवों को जन्म देती है-
1. अण्डज
2. पिण्डज 

3. स्वेदज 
4. उद्भीज 

अण्डे से उत्पन्न होने वाले जीवों को अण्डज कहते हैं।

प्रश्न: अण्डे से कौन से जीव उत्पन्न होते हैं?
उत्तर: अण्डे से चिड़ियाँ, मछलियाँ, साँप, मगरमच्छ, कछुआ इत्यादि उतपन्न होते हैं।

पिण्ड अर्थात् जीव के रूप में माँ के गर्भ से जन्म लेने वाले जीवों को पिण्डज कहते हैं। 

स्वेदज
अर्थात् स्वेद/पसीने से उत्पन्न होने वाले जीवों को स्वेदज कहते हैं।

उद्भीज का अर्थ होता है बीज से उत्पन्न होने वाले, अर्थात् पेड़-पौधे।

अब इन सभी जीवों तथा वृक्षों में भी भिन्न-भिन्न प्रजातियाँ होती हैं जो सब मिलकर प्रकृति से उत्पन्न होती हैं।

14.4

सर्वयोनिषु कौन्तेय, मूर्तयः(स्) सम्भवन्ति याः।
तासां(म्) ब्रह्म महद्योनि:(र्), अहं(म्) बीजप्रदः(फ्) पिता॥14.4॥

हे कुन्तीनन्दन ! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करने वाला पिता हूँ।

विवेचन- इन सभी योनियों में बीज मैं रखता हूँ किन्तु शरीर प्रकृति से मिलता है। बीज देने वाला पिता तथा उसे ग्रहण करने वाली माता है, इसलिए हम ईश्वर को परमपिता तथा प्रकृति/धरती को माता कहते हैं। अभी तक आप यह नहीं जानते थे कि आप ऐसा क्यों कहते हैं? हमारे माता पिता केवल निमित्त हैं किन्तु इसकी अध्यक्षता श्रीभगवान् के हाथ में है। 

इन्हीं कारणों से हमें माता प्रकृति की रक्षा करनी चाहिए।

हमारे इस अध्याय का नाम गुणत्रयविभाग योग है। यह प्रकृति तीन गुणों से बनी है, इसलिए प्रकृति को त्रिगुणमयी भी कहते हैं। इन गुणों के बारे में आप पहले भी पढ़ चुके हो। इन्हीं तीनों गुणों के मिलने से समस्त योनियों का जन्म होता है इसलिए ये गुण हममें भी आ जाते हैं। इनके नाम हैं सत्त्व, रज और तमो गुण।

हमारे हृदय में आत्मा है। हमने आत्मा को देखा नहीं है किन्तु यह हम मानते हैं। यह आत्मा ही वह बीज है जो ईश्वर शरीर में डालते हैं। यह आत्मा निर्विकार है। हमारे पूर्वजन्म में किए गए कार्यों के अनुसार हमें इस जन्म में ये तीनों गुण मिलते हैं। प्रकृति निर्जीव है और हम सजीव हैं। इन दोनों के संयोग से चेतना के साथ बीज की उत्पत्ति जीव के रूप में होती है।

इसको जानने के लिए हम न्याय देखते हैं जिसे अन्धू पङ्गु ज्ञान कहते हैं। 
प्रश्न : अन्धा का क्या अर्थ होता है?
उत्तर : जो देख नहीं सकते (blind)

प्रश्न : पङ्गु का क्या अर्थ होता है?
उत्तर : जो चल नहीं सकते।

एक बार अन्धू और पङ्गु में मित्रता हुई। उन दोनों ने कुम्भ मेले में जाने का निश्चय किया। अन्धू ने बोला कि मैं देख नहीं सकता किन्तु तुम मुझे रास्ता बताओ। पङ्गु बोला कि मैं रास्ता बताता हूँ। इस तरह से वे दोनों मेले तक पहुँच गये।

इसी प्रकार प्रकृति और पुरुष दोनों के सामंजस्य से ये सृष्टि चलती है। जब जीव जन्म लेते हैं तो उन सबमें ये गुण होते हैं।

14.5

सत्त्वं(म्) रजस्तम इति, गुणाः(फ्) प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो, देहे देहिनमव्ययम्॥14.5॥

हे महाबाहो! प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्त्व, रज (और) तम – ये (तीनों) गुण अविनाशी देही (जीवात्मा) को देह में बाँध देते हैं।

विवेचन- ये तीनों गुण प्रकृति में विद्यमान हैं और ये आत्मा तथा शरीर को बाँधते हैं।

स्वच्छ जल बिल्कुल पारदर्शी होता है। जब उसमें कुछ गिर जाता है तभी उसमें कोई रङ्ग दिखाई देता है। इसी प्रकार से आत्मा का संयोग जब गुणों से होता है तब विभिन्न जीवों का जन्म भिन्न-भिन्न स्वभावों के साथ होता है। सत्त्व गुण जिसमें अधिक होते हैं उनके क्या गुण होते हैं? ये हम आगे देखेंगे।

प्रश्न : रस्सी का क्या काम होता है?
उत्तर : रस्सी का काम बाँधना होता है।

जिस प्रकार रस्सी दो वस्तुओं को आपस में बाँधने का कार्य करती है उसी प्रकार सत्त्व, रज और तमो गुण भी आत्मा से शरीर को बाँधते हैं।

जिसमें सत्त्व गुण अधिक है उसके क्या गुण होंगे? यह हम आगे देखेंगे।

प्रश्न : आपने कटहल (jackfruit) खाया है क्या?
उत्तर : कटहल का फल अन्दर से बहुत चिपचिपा होता है तथा स्वाद में बहुत मीठा। यदि इसे काटकर रखा जाये तो इसके पास मक्खियाँ आने लगती हैं। जब उनका पेट भर जाता है वो उड़ने का प्रयास करती है परन्तु एक बार यदि मक्खियाँ इस पर बैठ जायें तो वो उड़कर नहीं जा सकतीं।

बहुत से बच्चों को कटहल नहीं पता है तो हम चूहे (rat) का उदाहरण देखते हैं। यदि घर में चूहे हो जायें तो उन्हें पकड़ने के लिए हम पिञ्जरे में खाने की किसी वस्तु का टुकड़ा लगा देते हैं। चूहा उस वस्तु के लोभ में पिञ्जरे में प्रवेश करता है और पकड़ा जाता है। ठीक इसी प्रकार से हम भी अपने गुणों के पिञ्जरे में बन्द हैं। हम भी तीनों गुणों में से किसी न किसी गुण के प्रभाव में रहते हैं और शीघ्रता से अपने गुणों को त्याग नहीं पाते, चाहे वो सत्त्व गुण हो, रजोगुण हो या तमोगुण। इससे बाहर आने का उपाय हमें खोजना होगा।

हम स्वाध्याय की सहायता से, अपने गुरु की कृपा से तथा प्रयत्नों से इस परिस्थिति से स्वयं को बाहर ला सकते हैं। जिस प्रकार हिमालय पर्वत पर गिरने वाली हिम (बर्फ/ snow) जमकर कुछ समय के बाद उसे पूरी तरह से ढक देती है। जब सूर्य की किरणें उस पर पड़ती हैं, तब वह हिम पिघलने लगती है और नदी के रूप में बहने लगती है। आगे यह नदी जाकर सागर से मिल जाती है।

प्रश्न : गङ्गा नदी कहाँ जाकर मिलती है?
उत्तर : गङ्गा नदी बङ्गाल की खाड़ी में जाकर गिरती है।

पर्वतों पर जो हिम जमी हुई है, वे हमारे तमोगुण हैं। जब उन पर ज्ञान का प्रकाश पड़ता है तब वे पिघलकर रजोगुण में परिवर्तित हो जाते हैं। नदी का जल जो वाष्पित होता है, वे हमारे सत्त्व गुण हैं क्योंकि उस जल के साथ नदी में बहने वाली कोई भी गन्दगी अथवा गाद नहीं जाती है। वह शुद्ध जल होता है। उसी प्रकार ये तमोगुण जो हमारे मन पर जम जाते हैं, वे भी ज्ञान की सहायता से रजो गुण और फिर सत्त्व गुण में परिवर्तित होते हैं। इसके बाद हमें सात्त्विक गुण से भी ऊपर उठना है।

14.6

तत्र सत्त्वं(न्) निर्मलत्वात्, प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति, ज्ञानसङ्गेन चानघ॥14.6॥

हे पाप रहित अर्जुन! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक (और) निर्विकार है। (वह) सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बाँधता है।

विवेचन- अर्जुन को अनघ सम्बोधित करते हुये श्रीभगवान् बताते हैं कि तीनों गुणों में सत्त्व गुण सबसे निर्मल होने के कारण प्रकाशमान है।

हम बहुधा बल्ब, ट्यूबलाइट अथवा खिड़की के काँच पर जमी हुई धूल देखते हैं। स्वच्छ करने पर उसके दूसरी ओर की वस्तुएँ पुनः स्वच्छ दिखने लगती हैं। उसी प्रकार से सत्त्व गुण से युक्त मनुष्य विकार रहित होता है।

कोई भी व्यक्ति पूर्णतया एक ही प्रकार के गुण से युक्त नहीं होता है।
इन तीनों गुणों की मात्रा प्रत्येक जीव में न्यून अथवा अधिक हो सकती है। सत्त्व गुण से युक्त मनुष्य अपने ज्ञान के कारण सदैव सुखी रहता है। वह सदा आनन्द में रहता है।

प्रश्न : आनन्द का विपरीत शब्द क्या है?
उत्तर : (sadness)
इस पर विवेचिका जी ने सुधार किया कि (sadness) का विपरीत (happiness) होता है। उन्होंने बताया कि आनन्द का विलोम शब्द है ही नहीं। आनन्द चरम सीमा की अनुभूति है। आनन्द मिलता है अच्छे कर्मों को करने से, ईश्वर प्राप्ति से और पूजा करने से। उन्होंने सभी बच्चों से पूछा-

प्रश्न : कौन-कौन पूजा करता है?
उत्तर : लगभग सभी बच्चों ने अपना हाथ उठाया।
 
आगे उन्होंने बताया कि जिनमें सात्त्विक गुण अधिक होते हैं, उनका मन पूजा-पाठ में लगता है। जो लोग कुछ समय के लिए या केवल ऊपरी मन से पूजा करते हैं, उन्हें मानसिक शान्ति क्षणिक ही मिलती है। अगर किसी को दिखाने के लिए पूजा करते हैं तो सबके चले जाने के बाद अकेले में आप पुनः दुःखी हो जायेंगे। यदि आप वास्तविक रूप से आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं तो स्वयं के लिए ईश्वर में अपना मन लगाना चाहिए।

सत्त्व गुण से हमें ज्ञान मिलता है। ज्ञान होने से हमारी निर्णय लेने की क्षमता में भी वृद्धि होगी। ज्ञान वृद्धि से हमें परीक्षा के काल में भी सहायता मिलती है। पहले से ही तैयारी होने के कारण अपने उत्तर हम भली प्रकार से लिख पाते हैं।

14.7

रजो रागात्मकं(म्) विद्धि, तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय, कर्मसङ्गेन देहिनम्॥14.7॥

हे कुन्तीनन्दन! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को (तुम) रागस्वरूप समझो। वह कर्मों की आसक्ति से देही जीवात्मा को बाँधता है।

विवेचन- हे कौन्तेय! रजोगुण हमें कर्म से बाँध देता है। रजोगुण से युक्त व्यक्ति का मन बहुत आकाङ्क्षाओं से भरा होता है। उसकी इच्छाएँ बहुत होती हैं। अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु वह व्यक्ति सदैव किसी न किसी कार्य में लगा रहता है। जैसे मुझे यदि अपने घर को स्वच्छ रखने की इच्छा है तो भले ही मैं थक जाऊँ किन्तु मैं स्वच्छता करती ही रहती हूँ। 

बहुधा कुछ लोग या तो अपने नाखूनों को चबाते हैं अथवा बालों में अङ्गुलियाँ घुमाते हैं अथवा अपने पैर हिलाते रहते हैं, ये सभी रजोगुण के कारण हैं। हमें पढ़ते समय सात्त्विक बनना है। टेलिवीजन और गानों से दूर रहना है। 

कुछ विद्यार्थियों को पढ़ने में अधिक समय लगता है और कुछ को कम। जिनका मन केन्द्रित नहीं होता है उन्हें उसी अध्याय को पढ़ने में अधिक समय लगता है जिसे मन लगाकर पढ़ने वाले विद्यार्थी कम समय में पढ़ लेते हैं।

जिस प्रकार सत्त्व गुण हमें सुख और ज्ञान से बाँधता है उसी प्रकार रजोगुण हमें कर्म से बाँध देता है।

14.8

तमस्त्वज्ञानजं(म्) विद्धि, मोहनं(म्) सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभि:(स्), तन्निबध्नाति भारत॥14.8॥

हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बाँधता है

विवेचन- हे भरतवंशी! तमोगुण से युक्त मनुष्य हर कार्य को प्रमाद युक्त पद्धति से करते हैं। उनका तप, यज्ञ, दान सब कुछ दूसरों को दिखाने के लिए होता है। इन कार्यों का कोई परिणाम नहीं है। श्रीभगवान् ऐसे कार्यों का फल भी नहीं देते हैं।

दूसरा है आलस्य। गीता कक्षा के बाद आप अपनी पढ़ाई नहीं करते हैं कि अभी थक गए, बाद में करेंगे। यह आलस्य है। यह भी तमोगुण का परिचायक है। हमें आठ घण्टे की निद्रा पर्याप्त होती है। यदि कोई व्यक्ति इससे अधिक सोता है तो उसमें तमोगुण की अधिकता है।

अज्ञान से तमोगुण आता है या तमोगुण से अज्ञान आता है, ये दोनों एक ही बात है। जब हम स्वाध्याय नहीं करते हैं तब अज्ञान बढ़ता है। गीता परिवार से जुड़ने पर हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। कुछ बच्चे कक्षा में जुड़ तो जाते हैं परन्तु नियमित नहीं होते हैं। सभी को नियमित रूप से कक्षा में उपस्थित होना चाहिए।

हमने देखा आलस्य, निद्रा एवम् प्रमाद ये तमोगुण के लक्षण हैं।

14.9

सत्त्वं(म्) सुखे सञ्जयति, रजः(ख्) कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः(फ्), प्रमादे सञ्जयत्युत॥14.9॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में (और) रजोगुण कर्म में लगाकर (मनुष्य पर) विजय करता है। परन्तु तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में लगाकर (मनुष्य पर) विजय करता है।

विवेचन- सत्त्व गुण हमें सुख और ज्ञान से बाँधता है, रजोगुण कर्म से और तमोगुण अज्ञान, आलस्य, निद्रा और प्रमाद से बाँध देता है।

अज्ञान, ज्ञान को ढक कर रख देता है। कभी-कभी हम उपहास में ही किसी अज्ञानी को ढक्कन कहते हैं। ढक्कन का अर्थ हुआ जो ढक कर रखा हुआ हो। इस ढक्कन को खोलने पर वे भी ज्ञानी बन सकते हैं।

14.10

रजस्तमश्चाभिभूय, सत्त्वं(म्) भवति भारत।
रजः(स्) सत्त्वं(न्) तमश्चैव, तमः(स्) सत्त्वं(म्) रजस्तथा॥14.10॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्व गुण बढ़ता है, सत्त्व गुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण (बढ़ता है) वैसे ही सत्त्वगुण (और) रजोगुण को दबाकर तमोगुण (बढ़ता है)।

विवेचन- प्रत्येक मनुष्य में सत्त्व, रज और तमो गुण का समावेश होता है। 

जब सात्त्विक गुण अधिक होते हैं, तब राजसिक और तामसिक गुण दब जाते हैं। ऐसा व्यक्ति सात्त्विक गुणों से युक्त होता है।

जब राजसिक गुण अधिक होते हैं, तब सात्त्विक और तामसिक गुण दब जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों में राजसिक गुणों की अधिकता होती है।

जब तामसिक गुण अधिक होते हैं, तब सात्त्विक और तामसिक गुण दब जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की प्रवृत्ति तामसिक होती है।

14.11

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्, प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं(म्) यदा तदा विद्याद्, विवृद्धं(म्) सत्त्वमित्युत॥14.11॥

जब इस मनुष्यशरीर में सब द्वारों (इन्द्रियों और अन्तःकरण) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है।

विवेचन- जब मनुष्य में सत्त्व गुण की अधिकता होती है तब उसकी चेतना के द्वार सदैव खुले रहते हैं और उसमें विवेक उत्पन्न होता है। 
हमारे शरीर में कुल मिलाकर नौ द्वार हैं। हमारे शरीर की सारी इन्द्रियाँ भी गुणों के अनुसार ही कार्य करती हैं। 

जैसे आपने तीन बन्दर देखे होंगे जिनमें से एक ने आँखों पर अपने दोनों हाथ रखे हुए हैं, एक ने कान पर और एक ने मुँह पर। इसका अर्थ यह नहीं है कि बोलना, देखना या सुनना नहीं है। इसका अर्थ यह है कि हमें अच्छा देखना, सुनना और बोलना है।

जैसे आप सत्त्व गुण से युक्त हैं तो आपकी आँखें सदैव अच्छा दृश्य ही देखती हैं।

14.12

लोभः(फ्) प्रवृत्तिरारम्भः(ख्), कर्मणामशमः(स्) स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥

हे भरतवंशमें श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मोंका आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा -- ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं।

विवेचन- हे भरतवंशी अर्जुन! जिनमें रजोगुण अधिक होते हैं उनमें लोभ अथवा इच्छायें अधिक होती हैं। 

जैसे माँ ने आपको एक आइसक्रीम दी तो आपको इसके बाद दूसरी खाने का मन होगा। इसी प्रकार से थोड़ा धन अर्जित करने के बाद थोड़ा और धन एकत्र करने की इच्छा होती है। इसके लिए वे कार्य करते रहते हैं। लोभ के कारण स्वार्थ में वृद्धि होती है।

विवेचिका जी ने उदाहरण के साथ समझाया कि जैसे मुझे कक्षा में प्रथम आना है तो मुझे अपनी मित्र अमूल्या को पीछे करना पड़ेगा। मुझे लगेगा कि अमूल्या के पीछे हुये बिना मैं आगे नहीं आ पाऊँगी। इस स्थिति में मैंने स्वार्थ के कारण अमूल्या के लिए बुरा सोचा। इससे हमें अशान्ति मिलती है। जब रजोगुण तीव्र होता है तब हम दूसरों के लिए बुरा सोचते हैं। 

14.13

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च, प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥

हे कुरुनन्दन! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह – ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं।

विवेचन- जहाँ तमोगुण की अधिकता रहती है वहाँ अज्ञान का अन्धकार रहता है। वे जो भी कार्य करते हैं, उसका फल नहीं मिलता है। इसे प्रमाद कहते हैं।

जैसे अभी परीक्षा का समय है। अभी सारे कार्य छोड़कर हम पढ़ने बैठते हैं परन्तु इसके बाद भी हम पढ़ नहीं रहे हैं। हमारा ध्यान इधर-उधर भटक रहा है। हम अगले दिन की योजना बना रहे हैं या कुछ और सोच रहे हैं। इससे हमारा समय नष्ट होगा और इस कार्य का हमें फल भी नहीं मिलेगा। ऐसा अज्ञान के कारण होता है। अज्ञान तमोगुण को जन्म देता है और तमोगुण के कारण अज्ञान बढ़ता है।

इससे ऊपर उठने के लिए हमें तमोगुणी से रजोगुणी, रजोगुणी से सत्त्वगुणी और सत्त्वगुणी से त्रिगुणातीत बनना है। ईश्वर त्रिगुणातीत हैं अर्थात् तीनों गुणों से ऊपर।

त्रिगुणातीत बनने के लिए स्वाध्याय करना होगा। आप गीता परिवार से जुड़ हुए हो, गीता जी का निरन्तर पठन और मनन करते रहने से सर्व गुणों से ऊपर उठने में सहायता मिलेगी। इसके साथ ही सत्सङ्ग करते रहना चाहिए।

सत्सङ्ग के लिए श्री आदिशङ्कराचार्य जी भगवान् कहते हैं-

सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः।।

सत्सङ्ग से हमारा आकर्षण समाप्त होता है। आकर्षण समाप्त होने पर मोह का त्याग होता है। मोह का त्याग करने से विचारों में चञ्चलता नहीं रहती और विचारों में दृढ़ता आने से जीवन से मुक्ति मिलती है।

इसके साथ ही आज का सत्र श्रीकृष्ण को अर्पण करते हुए समाप्त हुआ।

प्रश्नोत्तर सत्र

प्रश्नकर्ता- काव्या दीदी 
प्रश्न- हम में सात्त्विक गुण अधिक होने चाहिए। तामसिक और राजसिक गुण कम होने चाहिए किन्तु यदि तामसिक और राजसिक गुण हम में विद्यमान ही नहीं हों तो क्या काम चल जाएगा?
उत्तर- नहीं, यदि हम में यदि तामसिक गुण नहीं होंगे तो हम सो नहीं पाएँगे। हमारी आँखें लाल हो जाएँगी। कुछ मात्रा में रजोगुण और तमोगुण होना भी आवश्यक है।

प्रश्नकर्ता- अविशा दीदी
प्रश्न- हमें गुस्सा क्यों आता है? इसे कैसे कम करें?
उत्तर- जब हमारी इच्छाएँ अधिक होंगी तो उनकी प्राप्ति न होने पर हमें गुस्सा आता है, इसलिए इच्छाओं को धीरे-धीरे कम करते जाना है। गुस्सा एक दिन में समाप्त नहीं होता है। निरन्तर अभ्यास से गुस्सा कम होता जाता है