विवेचन सारांश
कर्म ही पूजा है
कमल
3.1
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते, मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं(ङ्) कर्मणि घोरे मां(न्), नियोजयसि केशव॥3.1॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन, बुद्धिं(म्) मोहयसीव मे।
तदेकं(व्ँ) वद निश्चित्य, येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥3.2॥
इसका उत्तर हमें अध्याय दो के इस श्लोक में मिलता है
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा, पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां(ङ्), कर्मयोगेन योगिनाम्॥3.3॥
“हे अनघ!"
अर्जुन श्रीभगवान् से निष्पाप मन से प्रश्न पूछ रहे हैं कि आपने दो कल्याणकारी मार्ग बताए हैं, परन्तु मेरे लिए कल्याण का मार्ग कौन सा है?
ज्ञानेश्वर महाराज ने एक सुन्दर उदाहरण देते हुए कहा है-
जैसी सिद्ध साध्य भोजनीं। तृप्ति एकी।।
महाराष्ट्र में एक सन्त गोन्देवलेकर महाराज ने नाम जप का बहुत महत्त्व बताया। उनके आश्रम में बहुत लोग आते और कई-कई घण्टे बैठकर नाम जप करते। भोजन प्रसाद ग्रहण करके फिर नाम जप करते। बहुत सारे भक्त साधना करने उनके आश्रम में आते थे। आश्रम के सामने सड़क निर्माण का कार्य हो रहा था। एक बार मज़दूरों की बात महाराज के कानों में पड़ी कि यहाँ आने वाले लोगों के मज़े हैं। यहाँ आकर बैठ जाते हैं, भोजन करके फिर बैठते हैं, चले जाते हैं और हमारा काम कितना कठिन है। दिन भर धूप में मेहनत करते हैं। महाराज ने यह बात सुनकर उन्हें पास बुलाकर पूछा कि आप लोगों को यह काम करने की रोज कितनी दिहाड़ी मिलती है। पुराने समय की बात है तो उन्होंने कहा दिनभर काम करके चार आने मिलते हैं। महाराज ने उन्हें अगले दिन से आश्रम में आने को कहा कि मैं तुम्हें आठ आने दूँगा। अगले दिन उन्होंने ख़ुश होकर पूछा काम क्या करना होगा? महाराज ने माला फेरनी सिखा कर श्रीराम नाम जप मन ही मन में, बैठकर जपने को कहा। उन्होंने समय अवधि जानने की जिज्ञासा की तो महाराज ने भोजन के समय तक बैठने को कहा। दस पन्द्रह मिनट के बाद उन्होंने महाराज के पास जाकर कहा कि हमसे एक जगह बैठकर करने वाला काम नहीं होता। हम मेहनत करने वाले लोग हैं। हमें आपके आठ आने नहीं चाहियें। हम अपने चार आने में ही ख़ुश हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। धूप में दिन भर पत्थर तोड़ने वाले दो-चार माला फेरकर थक गए।
श्रीभगवान् कहते हैं-
“मनुष्य को अपनी योग्यता के अनुसार मार्ग चुनना चाहिए”।
न कर्मणामनारम्भान्, नैष्कर्म्यं(म्) पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव, सिद्धिं(म्) समधिगच्छति॥3.4॥
मैं कुछ नहीं करता। मैं न तो उदय होता हूॅं और न ही अस्त होता हूॅं! मैं तो बैठा रहता हूॅं।
पृथ्वी के घूमने के कारण हमें ऐसा प्रतीत होता है।
सिद्धि प्राप्त करने के लिए कर्म करना ही पड़ेगा। संन्यास ले लिया, सारे कर्मों का त्याग कर दिया तो सिद्धि प्राप्त हो जाएगी, ऐसी बात नहीं है। सिद्धि प्राप्त करने के लिए पहले बहुत मेहनत करनी पड़ती है।
न हि कश्चित्क्षणमपि, जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः(ख्) कर्म, सर्वः(फ्) प्रकृतिजैर्गुणैः॥3.5॥
यदि हमें ऐसा लगे कि यह कार्य करने का मुझे अवसर मिला है तो हमें बन्धन नहीं लगता। जहाँ यह स्थिति आती है कि हमें यह तो करना ही पड़ेगा तो वहाँ बन्धन निर्माण होता है।
प्रकृति के गुणों के कारण हमें सतत कार्य करते रहना पड़ेगा। हम कुछ न भी करें तो भी हमें कान से सुनाई तो देता ही रहेगा, आँखें देखेंगी, हम शरीर में रहते हैं, हम शरीर नहीं है। यह मेरा शरीर है, मेरे कान, मेरी आँख, मेरी नाक, यह सोच ही गलत है।
श्रीभगवान ने यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात बताई। यहाँ से कर्मयोग प्रारम्भ होता है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य, य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा, मिथ्याचारः(स्) स उच्यते॥3.6॥
उदाहरण से समझते हैं-
हमने निश्चय कर लिया कि आज मैं भोजन नहीं करुँगा। हाथ को रोका कि भोजन के पास जाना नहीं है, जिह्वा को रोका कि आज तुम्हें भोजन नहीं मिलेगा, अर्थात् हम कर्मेन्द्रियों को संयमित कर रहे हैं। उसके साथ ही हम यह भी सोच रहे हैं कि आज तो निश्चय किया है कि भोजन नहीं करना है। अपने पसन्द के कई सारे व्यञ्जन बने हुए हैं तो मन से उस विषय का चिन्तन कर रहे हैं। विषय को बलपूर्वक अपने से दूर तो रखा है परन्तु मन से, इन्द्रियों से उसी विषय के बारे में सोच रहे हैं।
अभी देखना है कि सच्चा कौन है? ढोंगी कौन है? श्रीभगवान् ने बताया कि ऐसे नहीं करना चाहिए। श्रीभगवान् ने बताया कि बलपूर्वक इन्द्रियों को रोक कर विषय के बारे में सोचना सही नहीं है।
यह कैसे किया जाता है? श्रीभगवान् आगे के श्लोक में बताते हैं।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा, नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः(ख्) कर्मयोगम्, असक्तः(स्) स विशिष्यते॥3.7॥
माते! मैं तो संन्यासी हूँ। मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर नदिया के उस पर नहीं ले जा सकता। यह सुनकर युवती रोने लगती है। वह कहती है, सन्ध्या हो रही है, घर में मेरा बालक दूध के लिए रो रहा होगा। मेरा घर पहुँचना आवश्यक है। आप कृपया मुझे उस पार छोड़ दीजिए।
इतने में गुरुजी वहाॅं पहुँच जाते हैं और पूछते हैं- क्या बात है?
प्राप्त कर्म नाव्हेरी। उचित जें जें।
नियतं(ङ्) कुरु कर्म त्वं(ङ्), कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते, न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥3.8॥
एक व्यापारी स्वभाव के मनुष्य के लिए व्यापार करना सही बताया गया है। यह उसका विहित कर्म है। ब्रह्मचर्य आश्रम में एक छात्र के लिए पढ़ाई करना उसका विहित कर्म है। एक सैनिक को देश के लिए, देश की रक्षा के लिए कठिन परिस्थितियों में सेवा देना उसका विहित कर्म है। इस तरह प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके स्वभाव के अनुसार विहित कर्म हैं।
इन विहित कर्मों में ही नियत कर्म होते हैं।
कुछ किए बिना रहने से कुछ कर्म करते रहना श्रेष्ठ है। यदि कर्म ही नहीं करेंगे तो शरीर को आगे चलाने के लिए जो कर्म करने हैं, वे भी नहीं होंगे। शरीर को आगे चलाने के लिए कुछ कर्म आवश्यक हैं, जैसे भोजन करना है। भोजन करने के लिए कुछ कमाना है और कुछ कमाने के लिए कर्म तो करना ही पड़ेगा। नियत कर्म करना ही है, नियत कर्म किए बिना शरीर नहीं चल सकता।
क्या मेरे लिए यह कर्त्तव्य है? क्या मेरे लिए यह उचित है या फिर क्या मेरे लिए यह योग्य है? केवल यह सोचना है। यदि ऐसा है तो उसे अवश्य करना है।
श्रीभगवान् भी कहते हैं कि जो तुम्हारा नियत कर्म है बस उसे करना है। ब्रह्मचारी के लिए, गृहस्थ के लिए, वानप्रस्थ के लिए, क्षत्रिय के लिए या फिर व्यापारी के लिए, जिस किसी का भी कर्त्तव्य है, उसे वह करना है। कर्म करना आवश्यक है यह भी बताया गया है। श्रीभगवान् ने यह बताया कि जो नियत कर्म है उसे करना है, यह कर्मयोग का दूसरा नियम है। कर्म तो करना है।
इस कर्म के बन्धन से कैसे मुक्त होना है श्रीभगवान् आगे के श्लोक में बताते हैं।
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र, लोकोऽयं(ङ्) कर्मबन्धनः।
तदर्थं(ङ्) कर्म कौन्तेय, मुक्तसङ्गः(स्) समाचर॥3.9॥
भगवद्गीता के सन्दर्भ में यज्ञ का क्या अर्थ है? उसे जान लेना भी आवश्यक है। यज्ञ के नाम से सामान्यतः हमारे सामने एक चित्र उभर कर आता है। एक हवन करने का कुण्ड है, उसके आसपास भक्त बैठे हैं और उसमें आहुति देते जा रहे हैं। यह प्रतीकात्मक या क्रियात्मक यज्ञ है।
भगवद्गीता में यज्ञ का अर्थ है हमारा कर्त्तव्य कर्म। कर्म को कर्त्तव्य के भाव से करना, इससे मुझे क्या मिलेगा? यह सोचना नहीं है। बस, यह मेरा कर्त्तव्य है और मुझे इसे करना है, यही सोच मन में होनी चाहिए। यह सोचकर जब मनुष्य यज्ञकर्म करता है, तो वह यज्ञार्थ कर्म बन जाता है।
श्रीज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं यह तो नित्य यज्ञ है।
यदि हम स्वयं का कर्त्तव्य निरन्तर रूप से कर रहे हैं तो वह हमारे लिए यज्ञ है। यज्ञ के भाव से कर्त्तव्य कर्म करेंगे तो वह यज्ञ हो गया।
सामान्य यज्ञ में हम कुछ अग्नि को अर्पण करते हैं अर्थात् श्रीभगवान् को अर्पण करते हैं, उसी तरह से हमें अपना कर्त्तव्य करना है और उसे अर्पण करना है। मुझ पर सौंपा गया यह श्रीभगवान् का दायित्व है। मनुष्य देह प्राप्ति के कारण मुझे यह दायित्व मिला और मैंने अपना कर्त्तव्य करते हुए उसे श्रीभगवान् को अर्पण कर दिया। इस तरह से यह यज्ञ हो जाता है।
यज्ञकर्म न करते हुए जो कर्म किया जाता है, वह बन्धन बन जाता है। यह तो कर्म का बन्धन है, हमें इस कर्म बन्धन से छूटना है। अपने गुणों के बन्धन से छूटना है। यदि मैं कुछ करूॅंगा तो मुझे वह मिलेगा, ऐसी सोच रहती है तो हम बन्धन में बँध जाते हैं। ऐसी सोच जब बन जाती है, तो वैसे ही हमें भोगना पड़ेगा, हमें उसका वैसा ही फल मिलेगा। अच्छा हो या बुरा हो, उसे भोगने के लिए हमें पुनर्जन्म लेना पड़ेगा। श्रीभगवान् कहते हैं यदि कर्त्तव्य के रूप से यज्ञ किया और उसे अर्पण किया तो कोई बन्धन नहीं रह जाता। यह बन्धन से मुक्त कराता है। सभी कर्म हम इस तरह से नहीं कर सकते, तो प्रतिदिन हमें एक कर्म तो कर्त्तव्य भाव से करना ही होगा। तब यह एक यज्ञ हो जाएगा।
सहयज्ञाः(फ्) प्रजाः(स्) सृष्ट्वा, पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वम्, एष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥3.10॥
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता - रजनीश भैया
प्रश्न - कहा जाता है कि ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही श्रीभगवान् की प्राप्ति के मार्ग हैं, क्या इनमें से कोई एक मार्ग अपनाया जा सकता है?उत्तर - दोनों मार्ग अलग-अलग हैं परन्तु गन्तव्य एक ही है। हम भगवद्गीता में पढ़ते हैं कि कर्म करते रहना चाहिए लेकिन आचरण में नहीं लाते, इससे चित्त शुद्धि नहीं होती।
चित्तस्य शुद्धये कर्मण:
ज्ञान हमारे भीतर ही है। कर्मयोग से ज्ञान प्रकट होता है इसलिए चित्त की शुद्धि कर्मयोग से ही प्रारम्भ करना चाहिए। दोनों मार्ग साथ ही चलते हैं।भगवद्गीता पढ़ना ज्ञान मार्ग का प्रचोदन है, इसलिए इसे पढ़ें पढ़ायें और जीवन में लायें, यह स्वामी जी की त्रिसूत्री अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
यज्ञ भाव से अपने कर्त्तव्य करते रहना चाहिए, यही कर्मयोग है।
प्रश्नकर्ता - श्री रजनीश भैया
प्रश्न - कर्म करने से तो परमात्मा की प्राप्ति होती है, लेकिन ज्ञान मार्ग से यह कैसे हो सकता है?
उत्तर - ज्ञान क्या है? ज्ञान के अलग-अलग स्तर हैं।
सामान्य ज्ञान - अपनी इन्द्रियों की सहायता से हम जो अनुभव करते हैं, आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं, आदि।
विज्ञान - भौतिक रूप से जो जाना उसे विशेष रूप से जानना। जैसे हम एक पँखा देखते हैं यह सामान्य ज्ञान है और उसकी कार्यप्रणाली जानना विज्ञान है।
आत्मज्ञान - मैं कौन हूँ? इसका उत्तर पाना। यही सच्चा ज्ञान है। इस शरीर को मेरा कहने वाला यह मैं कौन है? आत्मज्ञान से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है।
समर्थ रामदास जी ने कहा है
।।पाहणे आपणासी आपण, त्याचें नांव ज्ञान।।
मैं को समाप्त कर किसी भी कर्म का कर्त्ता मैं नहीं हूँ यह भाव मन में उत्पन्न करना आवश्यक है।
प्रश्नकर्ता - श्री रवीन्द्र कौल भैया
प्रश्न - इन्द्रियों पर नियन्त्रण कैसे ला सकते हैं? मन में जो बात रह जाती है उसे कैसे निकाल सकते हैं?
उत्तर - कर्मयोग के आचरण से क्या होता है? पुरानी घटनाएँ जो हमारे चित्त में जम जाती हैं उन्हें निकालने के लिए चित्त शुद्धि करना चाहिए। तन का मैल निकालने के लिए हम नित्य स्नान करते हैं, उसी तरह मन को निर्मल करने के लिए भगवद्गीता पठन का स्नान प्रतिदिन करना होगा।
हम जो कुछ भी कर सकते हैं उसे बिना फल की आशा के करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी विषय में प्रवीण है तो उसे वह विषय दूसरों को भी पढ़ाना चाहिए। सड़क पर गिरे हुए कचरे को उठाकर उसे कचरे के डिब्बे में फेंकना प्रशंसा के लिए नहीं अपितु सामाजिक ऋण चुकाने के उद्देश्य के लिए किया गया कार्य होना चाहिए। मैंने यह काम किया यह भाव दूर करना आवश्यक है।
प्रश्नकर्ता - श्रीनारायण रमण भैया
प्रश्न - आजकल जीवन में योगाभ्यास आदि के लिए समय नहीं मिलता, सभी व्यस्त हैं। कर्मयोग श्रीभगवान् की आज्ञा मानकर करते रहना ही उचित होगा क्या?
उत्तर - व्यस्तता सबके पीछे लग गई है। जिस कारण व्यस्त हैं, वह भी एक कर्त्तव्य है। अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए काम तो करना ही होगा जो कि स्वार्थ भाव से किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक और काम करना चाहिए जो हमें मानसिक शान्ति दे सके, और हमारा सामाजिक ऋण चुका सके। आजकल तो यह एक प्रथा सी हो गई है कि सप्ताह में पाँच दिन तो कड़ी मेहनत कर ली और सप्ताहान्त में आराम करते हैं, मौज मस्ती करते हैं। यह गलत है।
स्वार्थ इतना बढ़ गया है कि दम्पत्ति सन्तान उत्पत्ति नहीं चाहते, बस पति-पत्नी दोनों कमाते हैं और मौज मस्ती करते हैं इसे Think double income no kids, कहा जाता है। गृहस्थ जीवन में सन्तान उत्पत्ति सामाजिक दायित्व होता है।
कुछ युवकों ने महाराष्ट्र में गाँव दत्तक लिया है और सप्ताहान्त वहाँ जाकर शिक्षा और सफाई अभियान चलाते हैं, इससे उन्हें जीवन में कभी न खत्म होने वाला समाधान मिलता है। संसार में रहते हुए भी विषयों से न बँधकर कर्त्तव्य-कर्म करना चाहिए। जैसे एक जहाज पानी में रहकर भी उसमें तैरता है, वैसे ही भवसागर पार करना है, विषयों में ही रहना है उनमें डूबना नहीं है।
प्रश्नकर्ता - श्रीमती जया पै दीदी
प्रश्न - एक परिवार में रहते हुए सभी सदस्यों को कुछ काम करना चाहिए, परन्तु यदि कोई एक व्यक्ति काम नहीं करता है तो क्या क्रोध आना स्वाभाविक है? जो व्यक्ति ज्यादा काम करता है वह अपने आपको शोषित समझता है, क्या यह सही है?
उत्तर - गीता साधना शिविर के आरम्भ में आदरणीय गुरु स्वामी गोविन्ददेव गिरी जी महाराज ने सभी सदस्यों को एक शपथ दिलाई-
"हम अपनी सेवा का अवसर दूसरों को न देते हुए भी दूसरों की सेवा में सहायता करने का प्रयास करेंगे"।
हमें अपना कर्त्तव्य कर्म करना ही है और दूसरों की सहायता भी करनी चाहिए। परिवार में सभी को काम करना चाहिए परन्तु यदि कोई एक व्यक्ति नहीं करता है तो उसे काम सिखाने के लिए वह काम छोड़ दें, उससे गलती हो सकती है पर उस गलती को अनदेखा कर देना चाहिए।
छोटे बच्चे को हम खाना खिलाते हैं,, उसका हाथ पकड़कर चलना सिखाते हैं, लेकिन बड़ा होते-होते वह स्वयं खाना और चलना सीख जाता है। कर्त्तव्य करवाना भी एक कार्य ही है। हम अक्सर यह सोचते हैं कि यदि हम नहीं करेंगे तो यह काम कोई नहीं करेगा, ऐसा बिल्कुल नहीं होता। हर जीव का प्रवास अकेला ही है, कर्त्तव्य भी अकेले का ही होता है। अपना कर्त्तव्य करते हुए श्रीभगवान् को समर्पित करना चाहिए, इससे क्रोध नहीं आएगा।
प्रश्नकर्ता - श्रीमती सुजाता आनन्द भिवाड़ी दीदी
प्रश्न- भोजन पकाना और अपने परिवार का पालन पोषण करना एक गृहिणी का कर्त्तव्य है, तो क्या इसे श्रीभगवान् को समर्पित किया जा सकता है?
उत्तर- गृहिणी अन्नदाता है अन्नपूर्णा है। भोजन पकाना श्रीभगवान् का सौंपा गया कार्य है और श्रीभगवान् के लिए ही कर रहे हैं यदि इस भाव से भोजन पकाया जाता है तो वह अत्यन्त स्वादिष्ट बनता है।
कोई भी काम छोटा नहीं होता, श्रीभगवान् ने इस काम के लिए हमें चुना है ऐसा मान कर काम करने से वह बोझ नहीं लगेगा। लेकिन "मुझे यह काम करना पड़ रहा है" यह सोचेंगे तो काम में आनन्द नहीं आएगा। काम करने में आनन्द आना यही श्रीभगवान् की प्राप्ति है।
कर्म नहीं बदलना है अपितु दृष्टिकोण बदलना होगा।