विवेचन सारांश
सद्गुणों का चयन- ईश्वर प्राप्ति मार्ग
संवादात्मक सत्र होने के नाते बालक-बालिकाओं से समय-समय पर प्रश्न भी पूछे गए। बालकों का उत्साह देखते ही बनता था।
आज सोलहवें अध्याय का उत्तरार्द्ध प्रारम्भ हुआ, जिसके अन्तर्गत श्लोक क्रमाङ्क पाँच से चौबीस तक का विवेचन चिन्तन प्रारम्भ किया गया। अब हम स्तर दो में आ गए हैं, वरिष्ठ हो गए हैं।
प्रश्न- अध्याय बारह का नाम क्या है?
उत्तर- भक्तियोग।
प्रश्न- अध्याय बारह में कुल श्लोक सङ्ख्या कितनी है?
उत्तर- बीस।
प्रश्न- अध्याय पन्द्रह का क्या नाम है?
उत्तर- पुरुषोत्तमयोग।
प्रश्न- अध्याय पन्द्रह में कुल श्लोक सङ्ख्या कितनी है?
उत्तर- बीस।
प्रश्न- अध्याय सोलह का क्या नाम है?
उत्तर- दैवासुरसम्पद्विभागयोग।
प्रश्न- अध्याय सोलह में कुल श्लोक सङ्ख्या कितनी है?
उत्तर- चौबीस।
पिछले विवेचन सत्र में हम सभी छब्बीस दैवीय प्रवृत्तियाँ देख चुके हैं। आज के सत्र में हम सभी श्रीभगवान् द्वारा आसुरी प्रवृत्तियों का विस्तारित विवरण देखेंगे। पिछले सत्र में बालक-बालिकाओं को दैवीय गुणों का अभ्यास करने हेतु प्रेरित किया गया। पिछले विवेचन सत्र में हम सभी ने अन्तिम श्लोक सङ्ख्या चार तक विवेचन-चिन्तन किया-
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च |
अर्थात्
अब इस सत्र में हम अगले श्लोक अर्थात् श्लोक सङ्ख्या पाँच का विवेचन-चिन्तन प्रारम्भ करते हैं।
16.5
दैवी सम्पद्विमोक्षाय, निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः(स्) सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।
किसी मनुष्य में इन दैवीय गुणों की उपस्थिति उसे स्वतः ही श्रीभगवान् का प्रिय बना देती है। हमें उनका मित्र बना देती है। दूसरी ओर आसुरी प्रवृत्तियाँ जैसे दम्भ, दर्प आदि की उपस्थिति किसी भी जीवात्मा हेतु नरक के द्वार खोल देती है, अत: हम कह सकते हैं कि दिव्य गुण मोक्ष हेतु अनुकूल हैं तथा आसुरी गुण बन्धन दिलाने हेतु हैं।
जब कभी हमारे बड़े हमें कुछ ज्ञान की बातें बताते हैं तथा कहते हैं कि सदैव अच्छी बातों को ग्रहण करना चाहिए एवं बुरी आदतों का त्याग करना चाहिए, तब निश्चित ही हमारे मन में यह विचार आ सकता है कि ऐसा हम से क्यों बोला जा रहा है? क्या मुझमें कोई दोष है? कोई अवगुण है? ऐसे ही विचार उस समय अर्जुन के मन में भी उत्पन्न हुए, जब श्रीभगवान् आसुरी गुणों का वर्णन अर्जुन के समक्ष कर रहे थे। अत: श्रीभगवान् अर्जुन की इस शङ्का का समाधान करते हुए कहते हैं कि "हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवीय गुणों से युक्त होकर जन्मे हो।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्, दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः(फ्) प्रोक्त , आसुरं(म्) पार्थ मे शृणु।।16.6।।
यहाँ श्रीभगवान् के वचनों से स्पष्ट होता है कि उनकी दृष्टि में मनुष्यों द्वारा निर्मित सम्प्रदायों, धर्मों, जाति आदि का कोई महत्त्व नहीं है। महत्व है तो दैवीय प्रवृत्तियों का तथा श्रीभगवान् इन्ही दैवीय एवं आसुरी गुणों के आधार पर जीवों में भेद कर उन्हें उनकी प्रवृत्तियों के अनुसार फल देते हैं। श्रीभगवान् कहते हैं, "हे पृथापुत्र! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं- दैवीय एवं आसुरी। मैं प्रारम्भ में ही विस्तार से तुम्हें दैवीय गुण बता चुका हूँ। अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में श्रवण करो।
प्रवृत्तिं(ञ्) च निवृत्तिं(ञ्) च, जना न विदुरासुराः।
न शौचं(न्) नापि चाचारो, न सत्यं(न्) तेषु विद्यते।।16.7।।
उनमें पवित्रता नहीं होती है, अर्थात् वे नित्य प्रति स्नान, ध्यान, भगवत् प्रार्थना आदि जैसे दैवीय गुणों से विरक्त होते हैं। आसुरी प्रकृति से युक्त मनुष्यों में प्रायः आलस्य की अधिकता होती है। न वे उचित आचरण करते हैं एवं न ही उनमें सत्य पाया जाता है। वे किसी के समक्ष अपने विचार रखते हुए सत्य तथा असत्य की ओर ध्यान ही नहीं देते।
असत्यमप्रतिष्ठं(न्) ते, जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं(ङ्), किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।।
eat drink and be merry, जैसे सिद्धान्त का अनुसरण करते हैं।
आगे चलकर हम चौदहवें अध्याय में श्रीभगवान् द्वारा वर्णित भोजन के प्रकारों अर्थात् सात्त्विक, राजसिक एवं तामसी प्रवृत्तियों का उल्लेख देखेंगे। आसुरी प्रवृत्ति से युक्त मनुष्य चूँकि ईश्वर में विश्वास नहीं करते, अत: वे पूजा, उपासना, श्रीमद्भगवद्गीता के पाठ आदि पर भी ध्यान नहीं देते।
एतां(न्) दृष्टिमवष्टभ्य, नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः, क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।
काममाश्रित्य दुष्पूरं(न्), दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्, प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।16.10।।
चिन्तामपरिमेयां(ञ्) च, प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा, एतावदिति निश्चिताः।।16.11।।
इस प्रकार आसुरी गुणों से युक्त मनुष्यों को उनके जीवनपर्यन्त अर्थात् मरणकाल तक अपार चिन्ता होती रहती है।
आशापाशशतैर्बद्धाः(ख्), कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थम्, अन्यायेनार्थसञ्चयान्।।16.12।।
जैसे एक कहावत है कि घी यदि सीधी अङ्गुली से न निकले तब ऐसी स्थिति में अङ्गुली टेढ़ी कर लेनी चाहिए।
कुछ व्यक्ति कार्य पूर्ण न होने पर, उसकी पूर्ति हेतु कोई भी मार्ग अपनाते हैं तथा काम एवं क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति हेतु अवैध ढङ्ग से धनसङग्रह करते हैं, जिस प्रकार रावण ने किया था। हम सभी जानते हैं कि रावण स्वर्ण से निर्मित लङ्का का सम्राट था परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। रावण प्रारम्भ से ही लङ्का का राजा नहीं था। स्वर्ण लङ्का के अधिपति धनकुबेर थे। जब रावण ने प्रथम बार लङ्का को देखा, तत्क्षण उसके मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हुई। वह उस सोने से निर्मित लङ्का को किसी भी प्रकार प्राप्त करने हेतु प्रयत्न करने लगा तथा कुछ समय पश्चात उसने स्वर्ण लङ्का पर अपना अधिकार सिद्ध कर लिया। अत: यह कथा सिद्ध करती है कि कुछ जीव अपने स्वार्थ की सिद्धि हेतु अन्याय करने से भी नहीं चूकते।
कुछ बालक बेहद हठी स्वभाव के होते हैं। वे अपनी इच्छा पूर्ण करवाने हेतु अनेकों स्वाङ्ग रचते हैं। हमें अपने इस स्वभाव को परिवर्तित करना चाहिए व इस प्रकार का भाव मन में कदापि नहीं लाना चाहिए।
इदमद्य मया लब्धम्, इमं(म्) प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।
असौ मया हतः(श्) शत्रु:(र्), हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं(म्) भोगी, सिद्धोऽहं(म्) बलवान्सुखी।।16.14।।
इसी प्रकार रावण भी श्रीरामचन्द्र जी को स्वयं का शत्रु मानता था। आसुरी गुण प्रधान मनुष्य का मानना होता है कि "वह मेरा शत्रु है तथा मैंने उसे मार दिया है एवं मेरे अन्य शत्रु भी मृत्यु को प्राप्त होंगे। मैं समस्त वस्तुओं का स्वामी हूँ। मैं भोक्ता हूँ। मैं सिद्ध, शक्तिमान तथा सुखी हूँ।" हम सभी को यह भाव मन में रखना आवश्यक है कि आवश्यकता से अधिक किसी भी पदार्थ का सङ्ग्रह अनुचित है। हमारी पृथ्वी माता भी जो जल एवं अन्न उत्पन्न करती हैं, वह उनकी समस्त सन्तानों के कल्याण हेतु होता है।
आढ्योऽभिजनवानस्मि, कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य, इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।।
इसी प्रकार आसुरी प्रवृत्ति का व्यक्ति सोचता है कि "कोई अन्य मेरे सदृश शक्तिमान तथा सुखी नहीं है। मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा एवं इस प्रकार आनन्द मनाऊँगा।" ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं।
अनेकचित्तविभ्रान्ता, मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः(ख्) कामभोगेषु, पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।
यह उसी प्रकार है, जैसे कोई पक्षी किसी जाल में फँसकर शिकारी द्वारा पकड़ लिया जाता है। जाल में फँसा वह पक्षी कदापि ऊँची उड़ान नहीं भर सकता। उसी प्रकार भौतिक कामनाओं में फँसा मनुष्य निरन्तर अधोगति को प्राप्त होता है, परन्तु आसुरी प्रवृत्तियुक्त मनुष्य का यह कृत्य सर्वथा अनुचित है। अत: हमें सदैव पूर्ण इच्छाशक्ति के साथ भक्तिपूर्ण भाव से भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में तत्पर रहकर अपने समस्त कार्यों को उनको अर्पित करना चाहिए, तभी किसी जीवात्मा का उन्नयन सम्भव है।
आत्मसम्भाविताः(स्) स्तब्धा, धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते, दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।
कुछ व्यक्ति स्वयं की प्रशंसा कराने के उद्देश्य से दान आदि कर अपनी फोटो फेसबुक पर अपलोड करते हैं। सम्पत्ति तथा मिथ्या प्रतिष्ठा से मोहग्रस्त प्राणी किसी विधि-विधान का पालन न करते हुए कभी-कभी नाममात्र हेतु बहुत गर्व के साथ यज्ञ करते हैं।
श्रीभगवान् यहाँ स्वयं हेतु आत्मचिन्तन करने को कहते हैं। आत्मावलोकन की प्रक्रिया किसी भी मनुष्य हेतु उचित है, परन्तु हमें अपनों से बड़े, जैसे हमारे माता-पिता की निन्दा कदापि नहीं करनी चाहिए क्योंकि कभी-कभी वे हमें कुछ समझाने हेतु हमें डाँटते हैं जो सर्वथा उचित है। तभी तो आगे चलकर जीवन में हम एक अच्छे एवं सफल मनुष्य बनेगें।
श्रीभगवान् द्वारा वर्णित आसुरी गुण उस रोग के समान हैं, जो किसी मानव देह में पाए जाने पर चिकित्सक द्वारा उसका अन्वेषण किया जाता है, तत्पश्चात चिकित्सक द्वारा उसकी औषधि रोगी को दी जाती है। उसी प्रकार श्रीभगवान् भी भिन्न-भिन्न आसुरी गुणों का वर्णन करते हुए उसको मानव स्वभाव से पूर्णत: नष्ट करने हेतु उपाय भी दे रहे हैं।
अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(ञ्) च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।
श्रीभगवान् श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय पन्द्रह में यह स्पष्ट कहते हैं-
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।
तानहं(न्) द्विषतः(ख्) क्रूरान् , संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभान्, आसुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।
ये हमारे पुण्य कर्म ही हैं कि हम मनुष्य योनि में जन्मे तथा हम सभी को श्रीमद्भगवद्गीता जी के पठन, पाठन तथा मनन, चिन्तन का सौभाग्य प्राप्त हुआ ताकि हम स्वयं की, इस सृष्टि में सही स्थिति का आंकलन कर सकें तथा स्वयं एवं ईश्वर के सम्बन्ध को समझ सकें। ऐसा अन्य योनियों में जन्में जीवों के साथ कदापि सम्भव नहीं है। अन्य योनियों में जन्में जीव मात्र अपने कर्म फलों का भोग करते हैं।
मनुष्य योनि में रहते हुए जीवात्मा अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने का प्रयत्न करते हुए, अपने भीतर दैवीय गुणों की उत्पत्ति द्वारा स्वतः ही श्रीभगवान् को अपना प्रिय मित्र बना सकता है तथा अन्ततोगत्वा परमधाम की अपनी यात्रा को पूर्ण करते हुए इस संसार रूपी भवसागर से मुक्त हो सकता है।
हमारे गीता परिवार का ध्येय वाक्य (logo) है-
अर्थात्
आसुरीं(य्ँ) योनिमापन्ना, मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय, ततो यान्त्यधमां(ङ्) गतिम्।।16.20।।
त्रिविधं(न्) नरकस्येदं(न्), द्वारं(न्) नाशनमात्मनः।
कामः(ख्) क्रोधस्तथा लोभ:(स्), तस्मादेतत्त्रयं(न्) त्यजेत्।।16.21।।
- काम अर्थात् असंयमित कामनाएँ।
- क्रोध- कामना पूर्ति न होने पर क्रोधित हो जाना।
- लोभ- अन्य जीवों की इच्छाओं को महत्त्व न देते हुए, किसी भी प्रकार अपनी इच्छाओं की पूर्ति का उद्देश्य।
प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इसे त्याग दे, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है।
एतैर्विमुक्तः(ख्) कौन्तेय, तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः(श्) श्रेयस् , ततो याति परां(ङ्) गतिम्।।16.22।।
यः(श्) शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति , न सुखं(न्) न परां(ङ्) गतिम् ।।16.23।।
तस्माच्छास्त्रं(म्) प्रमाणं(न्) ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं(ङ्), कर्म कर्तुमिहार्हसि।।16.24।।
इसी के साथ विवेचन सत्र का समापन हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता- शिवम भैया
प्रश्न- इस अध्याय के बाद कौन सा अध्याय पढ़ेंगे?
उत्तर- इस अध्याय के बाद चौदहवाँ अध्याय पढ़ेंगे।
प्रश्न- परीक्षा कैसे दे सकते हैं?
उत्तर- इसके विषय में आप अपनी प्रशिक्षिका (trainer) दीदी से भी पूछ सकते हैं। हमारी वेबसाइट exam.learngeeta.com है। आप इसके द्वारा रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं। इसके लिए यदि आपको बारहवाँ (12th), पन्द्रहवाँ (15th) तथा सोलहवाँ (16th) अध्याय कण्ठस्थ (learn) है तो आप परीक्षा दे सकते हैं। दो प्रकार की परीक्षाएँ होती हैं। एक गीता जिज्ञासु परीक्षा होती है जिसमें आपको किसी श्लोक का प्रथम चरण बता कर पूरा श्लोक तथा उसके आगे वाला श्लोक पूछते हैं। दूसरी परीक्षा इससे उच्च स्तर (advance level) की होती है। इसका नाम गीता श्लोकाङ्क परीक्षा है। उस में श्लोक की सङ्ख्या (number) बताते हैं और आपको वह श्लोक पढ़ना होता है। यदि आपको सङ्ख्या के साथ श्लोक याद हैं तो आप वह परीक्षा भी दे सकते हैं।
प्रश्नकर्ता- दिव्या दीदी
प्रश्न- आपने पाँच तत्त्वों के विषय में बताया था। वह समझ में नहीं आया था। फिर से समझना चाहती हूँ।
उत्तर- हमारा शरीर (body) पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है। संसार में जो भी हम देखते हैं, जैसे सूर्य, चन्द्र या और कुछ, वे सभी इन पाँच तत्त्वों से मिलकर ही बने हैं। जैसे हम रसायन विज्ञान (chemistry) का अध्ययन करते हैं। उसमें अलग-अलग तत्त्व (केमिकल) मिलाकर अलग-अलग पदार्थ बनाते हैं, उसी प्रकार से इन पाँच तत्त्वों से संसार की अलग-अलग वस्तुएँ या प्राणी बनते हैं।
प्रश्नकर्ता- जीविका दीदी
प्रश्न- रावण शिवजी की पूजा करता था, फिर भी सब ऐसे क्यों कहते हैं कि वह आसुरी प्रवृत्ति का था?
उत्तर- भक्त श्रीभगवान् से प्रेम करते हैं। वे श्रीभगवान् से प्रेम होने के कारण भक्ति करते हैं। हम अपने माता-पिता से भी कुछ माँगते हैं, परन्तु हम अपने माता-पिता से केवल इसलिए प्रेम नहीं करते कि हमें हर समय कुछ चाहिए। हम उनसे हमेशा प्रेम करते हैं। रावण जो भी करता था, उसके पीछे उसका कोई उद्देश्य या माँग (demand) रहती थी। रावण के अन्दर श्रीभगवान् से प्रेम की भावना नहीं थी। रावण हमेशा श्रीभगवान् की उपासना उनसे कुछ प्राप्त करने के लिए करता था। ईश्वर से माँगना बुरी बात नहीं है क्योंकि वे भी हमारे माता-पिता हैं, परन्तु हर समय माँगते रहना अच्छी बात नहीं है। इसलिए रावण को भक्त नहीं कहते बल्कि उपासक कहते हैं। उपासना के बदले में उसे कुछ चाहिए होता था।
प्रश्नकर्ता- देवम भैया
प्रश्न- क्या भूत होते हैं?
उत्तर- यदि संसार में गुण होते हैं तो दोष भी होते हैं, अच्छाई है तो बुराई भी होती है। अगर देव हैं तो राक्षस भी हैं। उसी प्रकार अच्छे व्यक्ति हैं तो बुरे व्यक्ति भी हैं। जैसे देव हैं, यक्ष हैं, अप्सरा आदि हैं, उसी प्रकार भूत भी एक प्रकार की योनि होती है। ये फिल्मों में जैसे दिखाये जाते हैं, वैसे डराने वाले नहीं होते हैं, इसमें डरने वाली कोई बात नहीं है। हम आगे इनके विषय में पढ़ेंगे। श्रीभगवान् ने बता दिया कि अभय बनो तो हम किसी से बिल्कुल नहीं डरेंगे।
प्रश्नकर्ता- गीत सोनी दीदी
प्रश्न- जब हमारी मृत्यु होती है तो हमें जला क्यों देते हैं?
उत्तर- हमारा शरीर (body) भौतिक शरीर (physical body) है और उसके अन्दर हमारी आत्मा होती है जो सूक्ष्म तत्त्व होती है। वह हमारे शरीर से जुड़ी (attach) होती है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के कुछ क्षण बाद तक वह आत्मा या आस-पास की कोई आत्मा उस शरीर में प्रवेश कर सकती है। हमारे अनेक योगियों ने इस प्रकार का प्रयोग किया भी है। इसे परकाया प्रवेश कहते हैं, जिसका अर्थ होता है किसी की मृत्यु होने के बाद उसके शरीर में प्रवेश कर लेना, इसलिए मृत्यु के बाद शरीर को जलाने का विधान है।द
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:।।