विवेचन सारांश
त्रिगुणात्मक लक्षणानुसार यज्ञ, दान और तप

ID: 6621
हिन्दी
रविवार, 23 मार्च 2025
अध्याय 17: श्रद्धात्रयविभागयोग
3/3 (श्लोक 17-28)
विवेचक: गीता व्रती जाह्णवी जी देखणे


हनुमान चालीसा, परम्परागत दीप प्रज्वलन, कृष्ण वन्दना एवं गुरु वन्दना से आज के विवेचन सत्र का शुभारम्भ हुआ। 

बाल साधकों द्वारा गीताजी के अट्ठारह अध्यायों में से चार अध्यायों का पठन और विवेचन सम्पन्न हो चुका है। 
बारहवाँ, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सत्रहवें अध्याय के भी दो भागों का विवेचन हो चुका है। 

पुनरावृत्ति स्वरूप कुछ प्रश्न-

प्रश्न- बारहवें अध्याय का नाम क्या है? 
उत्तर- भक्तियोग 

प्रश्न- पन्द्रहवें अध्याय का नाम क्या है? 
उत्तर- पुरुषोत्तमयोग।

प्रश्न- सोलहवें अध्याय का नाम क्या है? 
उत्तर- दैवासुरसम्पद्विभागयोग।

प्रश्न- सोलहवें अध्याय में क्या-क्या पढ़ा था? कौन-कौन सी सम्पत्ति होती है?
उत्तर- दैवीय और आसुरी गुणों के बारे में पढ़ा था।

प्रश्न- किसने-किसने तीन अध्यायों को कण्ठस्थ कर लिया है? 
उत्तर- बाल साधकों ने बताया कि कुछ-कुछ स्मरण किये हैं।

कुछ श्लोक भी याद  हुए हैं, बहुत अच्छी बात है। शाम को दीपक जला कर नित्य कुछ समय भी गीताजी के श्लोकों का वाचन करने से शीघ्र श्लोक कण्ठस्थ हो जाते हैं।

प्रश्न- सत्रहवें अध्याय का नाम क्या है?
उत्तर- श्रद्धात्रयविभाग योग। 

इस अध्याय में अलग-अलग प्रकार के विषयों की चर्चा हुई है। यज्ञ कैसे किया जाता है, कितने तरह के यज्ञ होते हैं, भोजन कैसा खाना चाहिए, कैसा नहीं?
तप के विषय में भी थोड़ी चर्चा हुई थी। 

प्रश्न- कितने प्रकार के तप होते हैं?
उत्तर- तीन प्रकार के तप होते हैं। 
शरीर, वाणी और मन का तप।

इस अध्याय के चौदह, पन्द्रह और सोलहवे श्लोक में हमने शारीरिक तपके बारे में जाना था। शबरी की कथा द्वारा शरीर के तप के बारे में जाना था। शरीर का तप आर्जवम् अर्थात् सरल होना चाहिए। भीतर और बाहर एक जैसा होना चाहिए।

गुरुजनों की पूजा, आज्ञा का पालन, तन-मन की शुद्धता, सरलता ये शरीर के तप हैं। 

वाङ्मय तप, अनुद्वेगकरं वाक्यं 
एक ज्योतिषी की कथा पिछले विवेचन में सुनी थी। एक राजा ने ज्योतिषी को अपनी कुण्डली दिखा कर आयु पूछी थी। ज्योतिषी ने सत्य कहा किन्तु प्रिय नहीं कहा तो ज्योतिषी को जेल जाना पड़ा। सामने वाले व्यक्ति को यह लगना चाहिये कि उसके हित की बात बोली जा रही है तो वह प्रसन्न होता है।
मन का तप अर्थात् मन की प्रसन्नता।

अभ्यास से सीधे बैठेंगे, सीधे बैठ कर भोजन और पढ़ाई करेंगे तो मन की प्रसन्नता होगी। इसका वैज्ञानिक कारण आगे के अध्यायों में श्रीभगवान बतायेंगे।

हिन्दू संस्कृति सनातन संस्कृति है। हमारी संस्कृति, धर्म पर आँख बन्द करके विश्वास करने नहीं बोलती।

ऋषि-मुनि तपस्या सीधे बैठ कर करते थे। उनकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण होती थी। एक बार में ही हर बात उनको याद हो जाती थी और समझ में आ जाती थी। सीधे बैठने से ऑक्सीजन सीधा हमारे फेफड़ो में और मस्तिष्क में पहुँचता है। सीधे बैठने का अभ्यास करना चाहिए। 

अब तक सात्त्विक, राजसिक और तामसिक तीन तरह के तप के प्रकार श्रीभगवान ने बतायें हैं।

सात्त्विक- फल की इच्छा के बिना कर्म करना। 

राजसिक- फल की इच्छा से अच्छे कर्म और पूजा करना। पूजा हम अपने इष्ट रामजी, हनुमान जी की किसी भी कर सकते है। 
इसके आगे श्रीभगवान ने तप के तीन प्रकार और बताये हैं। 

पुनरावृत्ति में बाल साधकों से प्रश्न पर प्रश्न पूछे गए, जिससे उन्हें पुरानी चर्चा स्मरण हो आये। अत्यन्त गूढ़ विषय भी उन्हें सरल और रोचक लगे।

प्रश्न- तप के बारे में पढ़ने की क्या आवश्यकता है? 
उत्तर- मन शान्त हो जाता है और एकाग्रता बढ़ जाती है। जीवन बदल जाता है। 
ऋषि-मुनि तपस्या करते थे, भगवान को पाने के लिए। 

माँ जो बच्चों को खाने का डिब्बा बना कर देती है, अच्छी शिक्षा देती है, वह भी तप है। 

प्रश्न- सोने के गहने बनते हुए किसी ने देखा है, कैसे बनते हैं? 
उत्तर- सोने को आग में तपाते है, फिर साँचे में डालते हैं। 

सही है। पहले सोने को आग में तपा कर नरम किया जाता है, फिर उसको साँचे में डाल कर नाना प्रकार की आकृति या स्वरूप दिया जाता है। उसकी अशुद्धियों को निकाल देते हैं। गहना बनाना है तो सोने को तपाना पड़ता है। तप बहुत आवश्यक है। 

इसी तरह किसी पत्थर से मूर्ति बनाने के लिए, पत्थर को छैनी, हथौड़ी से जगह जगह ठोकना पड़ता है। अनावश्यक भाग को निकालना पड़ता है। 

मन को अधिकाधिक शुद्ध बनाना है तो सोने की तरह तपाना होगा। ये सब मन के तप हैं। 

जीवन में बड़ा बनने के लिए, सेवा कार्य करने के लिए तप करना पड़ेगा। 
तप सही दिशा में करना होगा। विद्यालय जा रहे हैं, सही दिशा में नहीं चले और सही मार्ग को नहीं चुना तो कभी विद्यालय नहीं पहुँच पाएँगे। 

अब सही मार्ग कैसे चुनेंगे? 
इन सब बातों की जानकारी अत्यन्त आवश्यक है। 

उदाहरण-
मिट्टी के घड़े हम सबने देखे हैं। नाना प्रकार के घड़े होते हैं। सबसे गन्दी मिट्टी रास्ते के किनारे की होती है। बच्चे खेल कर आते हैं, तो माँ सर्वप्रथम साफ-सुथरा होने के लिए बोलती है। हाथ भी मुँह के या इधर-उधर नहीं लग जाए।

कुम्हार द्वारा बनाए हुए मिट्टी के सकोरे, कुल्हड़ होते है। उनमें हम कुछ भी डाल कर खा-पी लेते हैं। वो भी उसी मिट्टी के बने होते हैं। उनमें भेद क्या है? कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाने के पहले मिट्टी का संस्कार करता है, शुद्ध बनाता है। आग में तपाता है, तब वह मिट्टी का बर्तन हमारे घर में आता है। उसके बाद ही हम उसमें खाना डाल सकते हैं। 
मिट्टी का और संस्कार करके जब घड़ा बनता है तो जल डाल कर हम जल पीते हैं। 
मिट्टी के घड़े पर नक्काशी करके सजा कर और सुन्दर बना कर भगवान के बगल में रखने वाला कलश बनाते हैं। 

एक ही मिट्टी के संस्कार करके कितने प्रकार के बर्तन बन गए? 

तप, दान, यज्ञ के प्रकारों के बारे में क्यों जान रहें हैं?
रास्ते वाली मिट्टी से भगवान के कलश वाली मिट्टी बनना है तो थोड़ा-थोड़ा विवेक आवश्यक है। क्या करना है, क्या नहीं करना है, इसका ज्ञान होना चाहिए।
आगे श्रीभगवान सात्त्विक तप के बारे में बताएँगे। 

17.17

श्रद्धया परया तप्तं(न्), तपस्तत्त्रिविधं(न्) नरैः|
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः(स्), सात्त्विकं(म्) परिचक्षते||17.17||

परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छा रहित मनुष्यों के द्वारा (जो) तीन प्रकार (शरीर, वाणी और मन) - का तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं।

विवेचन- श्रीभगवान सात्त्विक तप के बारे में बताते हुए कहते हैं, इतने प्रकार के जो तप है, शारीरिक, वाचिक अर्थात् वाणी का तप, मानसिक तप जो पूर्ण श्रद्धा से फल की आकाङ्क्षा के बिना करते हैं, वह तप सात्त्विक तप हुए।

उदाहरण- हम किसी से मीठी वाणी में इसलिए बात करें कि वो मुझे मान सम्मान देगा, प्रशंसा करेगा यह भाव मन में बिना रखे, सभी में भगवान श्रीकृष्ण का वास है ये सोचते हुए, सामने वाले व्यक्ति से बात करें और बदले में किसी तरह के फल की इच्छा भी नहीं रखें, मुझे अच्छा बनना है, मात्र ये भाव रखें तो सारे प्रकार के तप सात्त्विक तप होंगें। 

17.18

सत्कारमानपूजार्थं(न्), तपो दम्भेन चैव यत्|
क्रियते तदिह प्रोक्तं(म्), राजसं(ञ्) चलमध्रुवम्||17.18||

जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये तथा दिखाने के भाव से किया जाता है, वह इस लोक में अनिश्चित (और) नाशवान फल देने वाला (तप) राजस कहा गया है।

विवेचन- शारीरिक, मानसिक और वाचिक तप इस इच्छा से करें कि प्रशंसा होगी, लोग ताली बजाएंगे, अच्छा समझेंगे, किसी तरह के फल की इच्छा से करेंगे तो ऐसे तप राजसिक हुए। ये तप भी अच्छा है, पर राजसिक तप, सात्त्विक तप से थोड़ा कम अच्छा है। 

17.19

मूढग्राहेणात्मनो यत्, पीडया क्रियते तपः|
परस्योत्सादनार्थं(म्) वा, तत्तामसमुदाहृतम्||17.19||

जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से अपने को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह (तप) तामस कहा गया है।

विवेचन- तामसिक तप, कोई भी क्रिया जो व्यक्ति करता है, उससे स्वयं भी कष्ट पाता है, दूसरों को भी कष्ट देता है।

आतङ्की लोग बहुत दुष्प्रवृत्ति के होते है। दुष्प्रवृत्ति करने के लिए स्वयं तो कष्ट पाते ही हैं, दूसरों को भी कितना कष्ट देते है! यह तामसिक तप हुआ। तामसिक तप से स्वयं का भी कल्याण नहीं होने वाला है, न ही दूसरे का।

कहानी-
एक व्यक्ति ने भगवान को अपनी तपस्या से प्रसन्न कर लिया। भगवान ने वरदान माँगने को कहा। उसने कहा आप जो भी देंगे, मुझे स्वीकार है। भगवान उसकी मनःस्थिति देखना चाहते थे। उन्होंने उस व्यक्ति को कहा, तुम्हें जितना भी मिलेगा, उससे दुगुना पड़ौसी को मिल जायेगा। उस व्यक्ति ने स्वयं की एक आँख फोड़ ली। पड़ोसी की दोनों आँखे फूट गईं। पडौसी को लाभ नहीं होना चाहिए। उसको कष्ट देने के लिए स्वयं की आँख फोड़ कर कष्ट पाया। 

ऐसा तप तामसिक तप हुआ। ऐसा तप नहीं करना चाहिए। कोई भी ऐसा कार्य जिससे स्वयं को और दूसरे को पीड़ा पहुँच रही है, ऐसा करने वाला व्यक्ति श्रीभगवान का अभिन्न मित्र नहीं बन सकता है।

17.20

दातव्यमिति यद्दानं(न्), दीयतेऽनुपकारिणे|
देशे काले च पात्रे च, तद्दानं(म्) सात्त्विकं(म्) स्मृतम्||17.20||

दान देना कर्तव्य है - ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुपकारी को अर्थात् निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।

विवेचन- दान के भी तीन प्रकार होते हैं। सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। 

प्रश्न- कौन-कौन सा दान कर सकते हैं? 
उत्तर- अन्न, जल, वस्त्र, भूमि आदि।

प्रसन्नता का भी दान किया जा सकता है, जो अति उत्तम है। आज के समय में व्यक्ति हमेशा तनाव में रह रहा है। मुँह बना कर रखता है। प्रसन्नता का, हँसी का दान देना चाहिए। दान देना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। 

हम बचपन से बड़े हुए हैं, हो रहे है। सब कुछ हम स्वयं नहीं कर पाते हैं। किसी न किसी पर निर्भर रहते हैं। बहुत छोटे थे, तब पूर्ण रूप से माँ-बाप पर निर्भर थे। स्वयं से भोजन भी नहीं कर पाते थे। 
विद्यालय गये, शिक्षक से अच्छी-अच्छी बातें सीखी, जो जीवन भर हमारे काम आती है। उसका शुल्क भी दिया तो वो उस शिक्षा के सामने कुछ नहीं है। किसान, हमारे लिए अथक परिश्रम कर के फल, सब्जी, अन्न उगाता है, साल भर कष्ट सहता है। उसके बदले जो राशि हम देते हैं, वह नगण्य है।  हमें समाज में रहने के लिए किसी न किसी की सहायता की आवश्यकता होती ही है। 

गीता परिवार द्वारा निःशुल्क गीता की कक्षा चल रही है, वह ज्ञान का दान है।

दान क्यों देना चाहिए? समाज में रहने के लिए, समाज के प्रत्येक व्यक्ति का ऋण हमारे ऊपर रहता है। माता-पिता, गुरुजनों का ऋण होता है। बड़े होने पर, समर्थ होने पर हमें समाज को वापस कुछ देने की भावना होनी चाहिए। इसके लिए अच्छे-अच्छे कार्य करने चाहिये। अच्छी-अच्छी बातें जो हमें मिल रही है, वह दूसरों को भी देना चाहिये । 

दान भी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक होता है। 
सात्त्विक दान हुआ, जो अच्छे लोगों तक पहुँच रहा है, अच्छे लोगों के काम आ रहा है। कर्त्तव्य की भावना से किया हुआ दान सात्त्विक दान है। गीता पढ़ रहे हैं, तो आगे कुछ बच्चों को इस कक्षा से जोड़ना, हमारा कर्त्तव्य होना चाहिये। माता-पिता ने मेरा ध्यान रखा है, तो हमें भी पशु-पक्षी को जल और दाना देना चाहिये। हमारे पास जो भी है, उसे बाँटना चाहिए। 

हम विद्यालय जाते हैं, हमारा कोई मित्र किसी दिन नाश्ते का डिब्बा भूल जाता है, तो सभी अपने लाए हुए डिब्बे से मित्र को खाना देते हैं। 

दान, देश, काल और पात्र को देख कर देना चाहिए। हमारे यहाँ बहुत से सेवक होते हैं, जिनको हम कार्य के बदले पैसा देते हैं। वो राशि भी माह के अन्त में श्रद्धा से बैठा कर देना चाहिए। पुराने समय में यह परम्परा भी थी। श्रद्धा से दान देना चाहिए। 

दान दे रहे हैं, तो वो व्यक्ति उसके योग्य भी होना चाहिए। किसी को सर्दी लग रही है, उसे कोई भी ठण्डा पदार्थ देते है, तो सर्दी लगे हुए में वो व्यक्ति उसके योग्य नहीं हुआ। उससे उसका कल्याण नहीं होगा। जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता होती है, उसको वही वस्तु देनी चाहिए। देश, काल, पात्र का विचार करके दान देना श्रेष्ठ है। 

17.21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं(म्), फलमुद्दिश्य वा पुनः|
दीयते च परिक्लिष्टं(न्), तद्दानं(म्) राजसं(म्) स्मृतम्||17.21||

किन्तु जो (दान) क्लेशपूर्वक और प्रत्युपकार के लिये अथवा फल-प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।

विवेचन- उपकार की भावना से किया दान राजसिक है। किसी व्यक्ति के पास बंगला, राजमहल, अथाह सम्पत्ति है। कोई याचक आए, उसे अहङ्कार से भर कर कि मेरे पास बहुत कुछ है, लो मैं तुम्हें दे रहा हूँ तो राजसिक दान हुआ। दान देते समय ऐसा भाव होना चाहिए, ये सब कुछ ईश्वर का दिया हुआ है, मेरा नहीं है, ईश्वर का दिया हुआ ही मैं बाँट रहा हूँ। अहङ्कार आते ही दान राजसिक हो जाता है। 

दिखावे के लिए दिया हुआ दान, मेरे पास बहुत कुछ है, नहीं देने से समाज के लोग कृपण समझेंगे, इसलिए जो मात्र दिखाने के लिए दान दे देते है, वो राजसिक दान है। 

17.22

अदेशकाले यद्दानम्, अपात्रेभ्यश्च दीयते|
असत्कृतमवज्ञातं(न्), तत्तामसमुदाहृतम्||17.22||

जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह (दान) तामस कहा गया है।

विवेचन- तामसिक दान कैसा होता है? जब व्यक्ति दान देते हुए, किसको दे रहा हूँ, कहाँ दे रहा हूँ, जिसको दान दे रहा है, उस दान की उसको आवश्यकता है या नहीं, या उस दिए हुए दान का दुरुपयोग तो नहीं कर रहा है? इनका बिना विचार किए जो दान देता है, उसको तामसिक दान कहलाता है। श्रेष्ठ है, पुस्तक, वस्तु और भोजन का दान दे दें। विवेक से, समझ कर दान देना चाहिए। 
जैसे दान देख कर देना चाहिए, वैसे ही हमें किसी से भी कोई भी दान विद्या का, अच्छी बातों की शिक्षा अच्छे-अच्छे लोगों से ही लेनी चाहिए। हमारे माता-पिता विशेष कर समझाते हैं, किसी से भी कोई भी वस्तु नहीं लेनी चाहिए। सात्त्विक दान ही देना और लेना चाहिए। धीरे-धीरे विचार कर दान देंगे तो ये जागृति आने लगेगी, जिसको दे रहें है, वो सुपात्र है या नहीं। हमारा अपना व्यवहार अच्छा हो इसका चिन्तन करना चाहिए।

इस अध्याय में बहुत सारी बातें देखी। श्रद्धा, तप, यज्ञ, दान के बारे में जाना। ये सब जानने से व्यक्ति के अन्दर अच्छे संस्कार आते हैं। व्यक्तित्व में बदलाव आने लगता है। वो तेजस्वी और बुद्धिमान हो जाता है। 
मिट्टी के घड़े का उदाहरण हमने देखा। संस्कारित मिट्टी से बना कलश भगवान के मन्दिर में स्थापित होता है। 
इतनी सारी बातें एक साथ में जीवन में उतारना सम्भव नहीं है, ये धीरे-धीरे विवेक से जीवन में लानी होंगी। 

सात्त्विक तप, यज्ञ, दान, आहार करना है।
सात्त्विक यज्ञ, पढ़ाई करना है। 
सात्त्विक तप, अच्छे से बोलना है। 
सात्त्विक दान- किसी को कुछ दें तो अहङ्कार रहित होकर देना है। 

अर्जुन ने भी श्रीभगवान से पूछा कि आपने इतनी बातें बतायीं, एक साथ करना कैसे सम्भव है?
श्रीभगवान ने बताया कि भगवान को याद करके, उनको समर्पित करके क्रिया करनी चाहिए । 

आगे के तीन श्लोकों में श्रीभगवान बताने वाले हैं कि वेदों के ज्ञाता उन्हें किस नाम से जानते हैं? किन नामों का स्मरण करके वे वेद के ज्ञाता दान, यज्ञ करते हैं। उनको स्मरण करके किए हुए तप आदि में कुछ कमी होती है, तो श्रीभगवान पूर्ण कर देते हैं। 

17.23

ॐ तत्सदिति निर्देशो, ब्रह्मणस्त्रिविधः(स्) स्मृतः|
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च, यज्ञाश्च विहिताः(फ्) पुरा||17.23||

ऊँ, तत् और सत् - इन तीन प्रकार के नामों से (जिस) परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।

विवेचन- श्रीभगवान के अनेकों नामों में तीन नाम ॐ तत्सदिति नामों से भगवान जाने जाते हैं। वेदों का आरम्भ ओंकार से हुआ है। ब्रह्म का प्रथम नाम ॐ है। ॐ इस नाम से ही ऋषि, मुनियों ने श्रीभगवान को जाना है। ॐ की छवि देखी होगी, उसके चारों तरफ़ तरङ्गें उठती रहती है। सृष्टि में भी तरङ्गें हैं। ॐ तत्सदिति बोल कर किये हुए जप, तप श्रीभगवान को मिलते हैं। आगे के श्लोक में इन नामों का क्या प्रयोजन है, ये बताएँगे। 

17.24

तस्मादोमित्युदाहृत्य, यज्ञदानतपः(ख्) क्रियाः|
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः(स्), सततं(म्) ब्रह्मवादिनाम्||17.24||

इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ सदा 'ॐ’ इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके (ही) आरम्भ होती हैं।

विवेचन- योगी जन, ज्ञानी जन भगवान को अलग-अलग प्रकार से नित्य चिन्तन करते हैं। हम सभी हर समय हमारी नित्य की क्रिया के साथ भगवान का चिन्तन, पूजा पाठ नहीं कर सकते। इसलिए हर कार्य को श्रीभगवान को अर्पण कर के करने से, सारे काम श्रीभगवान के लिए कर रहा हूँ ये भाव रखकर कार्य करते हैं तो योगी जन की तरह ही हमारा चिन्तन नित्य श्रीभगवान के लिए होगा। 

किसी भी कार्य का आरम्भ ॐ से करना चाहिए। जैसे किसी भी स्रोत के आरम्भ ओम श्री गणेशाय नमः बोलते हैं। गीता जी के अध्याय के आरम्भ में ॐ श्रीपरमात्माने नमः बोलते है। ॐ के साथ जप, तप करने से धीरे-धीरे भाव की शुद्धि होने लगती है।

17.25

तदित्यनभिसन्धाय, फलं(म्) यज्ञतपः(ख्) क्रियाः|
दानक्रियाश्च विविधाः(ख्), क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:||17.25||

तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये ही सब कुछ है - ऐसा मान कर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर अनेक प्रकार की यज्ञ और तप रूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ की जाती हैं।

विवेचन- सारी क्रिया का आरम्भ ॐ से करते हैं, तत् बोल कर सारी क्रिया को श्रीभगवान को अर्पित कर देते है। 

जैसे ॐ श्रीकृष्णार्पमणस्तु।
ये तुम्हारा तुम्हीं को समर्पित वाला भाव होता है। ऐसा करने से मन में अहङ्कार नहीं आता है। किसी की सहायता करते हैं, तो ये भाव आ जाता है, मैंने सहायता की है। यही अहङ्कार है। 

प्रेम गली अति संकरी, तामें दाऊ न समाई।
जब में था तब हरी नहीं, अब हरी है में नाहीं।।

भक्ति की गली बहुत छोटी है, उसमें भगवान या अहङ्कार कोई एक ही रह सकता है। श्रीभगवान ने दिया है तभी हम बाँट सकते हैं। दो रोटी दी है तभी तो एक किसी को दे सकते हैं। ॐ से आरम्भ करना और तत  से अर्पण कर देना।

17.26

सद्भावे साधुभावे च, सदित्येतत्प्रयुज्यते|
प्रशस्ते कर्मणि तथा, सच्छब्दः(फ्) पार्थ युज्यते||17.26||

हे पार्थ ! सत्- ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्ता मात्र में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ 'सत्' शब्द जोड़ा जाता है।

विवेचन- अच्छे कार्यो में भगवान का नाम तत् जुड़ जाता है। अच्छे गुणों वाले को सदगुणी कहते है। अच्छे कार्य करने वाले का सत्कार करते है। भगवान का नाम श्रेष्ठ कार्यो से जोड़ने से कार्य की शुद्धता और महत्ता बनी रहती है। 

17.27

यज्ञे तपसि दाने च, स्थितिः(स्) सदिति चोच्यते|
कर्म चैव तदर्थीयं(म्), सदित्येवाभिधीयते||17.27||

यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में (जो) स्थिति (निष्ठा) है, (वह) भी 'सत्' - ऐसे कही जाती है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी 'सत्' - ऐसा ही कहा जाता है।

विवेचन- सारे कार्यो के साथ तत सत श्रीभगवान के नामों को जोड़ने से, कार्य का प्रभाव लम्बे समय तक रहता है। इसमें ये भाव भी जुड़ जाता है कि लोगों का दीर्घ काल तक कल्याण हो। गीता जी पढ़ने वाले बच्चों के प्रति यह भाव रहता है, ये सद्गुणी और संस्कारी बनें। तत्, सत् अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। श्रीभगवान का न आदि है, न अंत है। 
हमारे कार्य के साथ तत्, सत् जोड़ने से भगवान हमारे कार्य को स्वीकार करते हैं। श्रीभगवान ने एक बार स्वीकार कर लिया तो वह कार्य नष्ट हो ही नहीं सकता। इसका प्रसार भी बहुत लोगों तक, दीर्घ काल तक अक्षुण्ण रहेगा। इसीलिए श्रीभगवान के ये नाम ॐ तत्सदिति नाम बहुत महत्वपूर्ण है। 

17.28

अश्रद्धया हुतं(न्) दत्तं(न्), तपस्तप्तं(ङ्) कृतं(ञ्) च यत्|
असदित्युच्यते पार्थ, न च तत्प्रेत्य नो इह||17.28||

हे पार्थ ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान (और) तपा हुआ तप तथा (और भी) जो कुछ किया जाय, (वह सब) 'असत्' - ऐसा कहा जाता है। उसका (फल) न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।

विवेचन- श्रीभगवान बोलते हैं, हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ जप, तप, दान इस लोक और परलोक में लाभदायक नहीं होता है। 
पुष्पिका के साथ सत्र का विश्राम हुआ। 

प्रश्नोत्तर सत्र 
प्रश्नकर्ता- हीरल दीदी
प्रश्न-
श्रीमद्भगवद्गीता किसने लिखी थी?
उत्तर-
श्रीमद्भगवद्गीता महर्षि  वेदव्यास जी ने लिखी थी। लिखने का कार्य गणेश जी ने किया था।

प्रश्नकर्ता- 
प्रणिका दीदी
प्रश्न- 
क्या हमें सदैव सात्त्विक भोजन खाना चाहिए या हम कभी तामसिक भोजन भी कर सकते हैं?
उत्तर- यदि हम तामसिक भोजन करेंगे तो हमारे विचार भी तामसिक होगे। यदि चिकित्सकीय परामर्श के कारण तामसिक भोजन करना पड़ रहा है तो वह औषधीय मर्यादा के अनुकूल होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता-
देवम भैया
प्रश्न- 
यदि कोई हमें मारे और हमसे अच्छा व्यवहार न करे तो हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर- सर्वप्रथम हमें उसे समझाना चाहिए और यदि फिर भी वह नहीं माने तो हमें अपने बड़ों से इसके सम्बन्ध में बात करनी चहिए।
ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘श्रद्धात्रयविभागयोग’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।