विवेचन सारांश
ब्रह्म ज्ञान का अनावरण
सनातन वैदिक परम्परा का पालन करते हुए देश भक्ति गीत, भजन, हनुमान चालीसा पाठ, सुमधुर प्रार्थना, दीप प्रज्वलन एवम् गुरु वन्दना के साथ सत्र का आरम्भ हुआ। आज नूतन वर्ष के अवसर पर गीताजी के स्तर दो के नवीन अध्याय के विवेचन का आरम्भ हुआ। हिन्दू नूतन वर्ष को महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मनाया जाता है। उगादी, चेटी चण्ड आदि अलग-अलग नामों से अलग-अलग प्रान्तो में इस पर्व को मनाया जाता है।
आज जिस अध्याय का विवेचन किया गया वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण अध्याय है। बाल संस्करण होने के कारण सत्र संवाद परक रहा। बच्चों का ज्ञानवर्द्धन करने व उत्साहवर्द्धन करने के लिए उनसे कुछ प्रश्न किए गए जैसे-
आज जिस अध्याय का विवेचन किया गया वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण अध्याय है। बाल संस्करण होने के कारण सत्र संवाद परक रहा। बच्चों का ज्ञानवर्द्धन करने व उत्साहवर्द्धन करने के लिए उनसे कुछ प्रश्न किए गए जैसे-
प्रश्न- सोलहवें अध्याय का नाम क्या है?
उत्तर- सोलहवें अध्याय का नाम दैवासुरसम्पद्विभागयोग है।
प्रश्न- सोलहवें अध्याय में किन दो प्रकार के गुणों की बात की गई थी?
उत्तर- दैवीय और आसुरी गुणों की चर्चा की गई थी और यह भी जाना था कि हमें दैवीय गुण धीरे-धीरे अपने में बढ़ाने है और आसुरी प्रवृत्तियाॅं कम करनी है।
प्रश्न-सत्रहवें अध्याय का नाम क्या है?
उत्तर- सत्रहवें अध्याय का नाम श्रद्धात्रयविभागयोग है।
अब इस अध्याय में श्रीभगवान् अपने प्रिय शिष्य, सखा अर्जुन को ऐसा ज्ञान देने वाले हैं, जिस ज्ञान को पाने के बाद और कोई दूसरा ज्ञान पाने की आवश्यकता नहीं होती। इस अध्याय में श्रीभगवान् सबसे रहस्यमय और महत्त्वपूर्ण बात बताने वाले हैं। इस अध्याय का नाम राजविद्याराजगुह्ययोग है।
हस्तिनापुर के पास खाण्डव नामक एक बहुत घना जङ्गल था। नगर बसाने के लिए उस जङ्गल को जलाना पड़ा। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने सारा जङ्गल साफ कर दिया। जिससे अग्नि देव प्रसन्न हो गए और श्रीकृष्ण व अर्जुन से वरदान माँगने को कहा। अर्जुन क्षत्रिय थे तो उन्होंने गाण्डीव धनुष और ऐसा तशकर माँगा जिसके बाण कभी समाप्त न हो। श्रीकृष्ण ने अग्नि देव से यह वरदान माँगा कि अर्जुन और उनकी मित्रता सदैव बनी रहे, अर्जुन और उनका प्रेम सदा बना रहे, इसलिए श्रीभगवान् ने अर्जुन को यह रहस्यमय (secret knowledge) ज्ञान बताया।
9.1
श्रीभगवानुवाच
इदं(न्) तु ते गुह्यतमं(म्), प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं(व्ँ) विज्ञानसहितं(य्ँ), यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥9.1॥
श्रीभगवान् बोले -- यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान दोष दृष्टि रहित तेरे लिये तो (मैं फिर) अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर (तू) अशुभ से अर्थात् जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो जायगा।
विवेचन:- कौरवों-पाण्डवों की कहानी महाभारत नामक ग्रन्थ में आती है, यह हम सभी को पता है। महाभारत नमक ग्रन्थ के मध्य में श्रीमद्भागवद्गीता जी आती हैं।
बच्चों से पूछा गया-
बच्चों से पूछा गया-
प्रश्न -श्रीमद्भागवद्गीता में कितने अध्याय हैं?
उत्तर -श्रीमद्भागवद्गीता में अट्ठराह अध्याय है।
महाभारत के मध्य में श्रीमद्भगवद्गीता जी और श्रीमद्भगवद्गीताजी के मध्य में नवाँ अध्याय। गीता जी में श्रीभगवान् ने चारों वेदों का सार बता दिया। पूरी गीता जी का सार इस नवें अध्याय में आ जाता है। ज्ञानेश्वर माऊली कहते हैं, इस अध्याय का जो अध्ययन कर लेता है वह जीवन भर आनन्द में रहता है। इस अध्याय को आनन्दमय अध्याय भी कहा है।
यहाँ पर श्रीभगवान् ने अर्जुन को असुय कहा है। असुय का अर्थ होता है जो किसी दूसरे में बुराई नहीं देखता। अर्जुन किसी में भी बुराई नहीं देखते इसलिए वे श्रीभगवान् को बहुत प्रिय हैं।
पहले अध्याय में आता है कि जब अर्जुन युद्ध लड़ने जाते हैं और सामने अपने भाई-बन्धुओं को देखते हैं तो कहते हैं कि ये सब मेरे भाई-बन्धु हैं। मैं उनके साथ युद्ध कैसे करूँ? कौरवों ने अर्जुन को इतने कष्ट दिए फिर भी वह उन्हें अपना ही मानते हैं। अर्जुन सभी को अपना मानते हैं। हम भी दैवीय गुण के मार्ग पर चलेंगे तो अर्जुन जैसे बन जाएँगे। यदि हम अच्छे व्यक्ति बन गए, हमने अपने में अच्छी आदतें, अच्छे गुणों का विकास किया तो हम श्रीभगवान् के प्रिय सखा या मित्र हो जाएँगे, जैसे अर्जुन थे। यहाॅं श्रीभगवान् ज्ञान और विज्ञान की बातें बताने जा रहे हैं। ज्ञान का अर्थ होता है सभी बातें जान लेना।
मान लो कि मैंने कभी रसगुल्ला नहीं खाया तो जब आप रसगुल्ले के बारे में बताऍंगे तो बोलेंगे सफेद होता है, नरम होता है, रसदार होता है, जालीदार होता है गोल-गोल होता है। कैसा दिखता है? कैसा होता है? तो यह हो गया ज्ञान। जब तक मैं उसका सेवन या भोग नहीं करूॅंगी /करूॅंगा तब तक मुझे पता नहीं चलेगा कि रसगुल्ला होता कैसा है? तो यह हो गया विज्ञान। विज्ञान अर्थात् अनुभव करना। To experience something is science. ज्ञान और विज्ञान में यही अन्तर होता है। स्कूल में भी हम विज्ञान विषय तभी समझते हैं जब उसका प्रयोग (practical) करते हैं।
उपनिषद में कथा आती है, श्वेतकेतु नामक बालक गुरुकुल में पढ़ने गए। पुराने जमाने में गुरुकुल हुआ करते थे। जब बालक वहाॅं पर जाते तो अपनी शिक्षा पूर्ण करके ही वापस लौटते थे। श्वेतकेतु बहुत बुद्धिमान थे। जब उनकी पढ़ाई पूर्ण हुई तो वह घर आ गए। पिताजी ने पूछा श्वेतकेतु क्या तुम्हारी पढ़ाई पूर्ण हो गई? श्वेतकेतु ने गर्व से, अभिमान से उत्तर दिया-"हाॅं मेरी पढ़ाई पूर्ण हो गई, मुझे सब कुछ आता है।" श्वेतकेतु के पिताजी ने उनसे प्रश्न किया कि मुझे एक बात/शब्द ऐसा बताओ जिससे जानने के बाद कुछ और जानने की आवश्यकता नहीं है, जिसे पढ़ने के बाद सब ज्ञान अपने आप ही आ जाता है? श्वेतकेतु सोच में पड़ गए कि ऐसी कौन सी बात या शब्द है जिसे जानने के बाद कुछ और जानने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी? उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था।
ब्रह्मविद्या, सारा संसार जिनकी चेतना शक्ति से चलता है वह परमपिता परमात्मा कौन हैं? श्रीमद्भगवद्गीता जी में हम ब्रह्म विद्या के बारे में ही पढ़ रहे हैं। जिन्होंने समग्र सृष्टि की रचना की है, उन्हें जानना, वह है ब्रह्म ज्ञान। जिस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े योगी, ऋषि तपस्या करते हैं। वह ज्ञान हमें गीता जी के द्वारा अर्जुन के माध्यम से श्रीभगवान् यहाँ बता रहे हैं। श्रीभगवान् कहते हैं "हे अर्जुन! मैं वह रहस्यमय ज्ञान तो बताऊँगा ही, उसका अनुभव कैसे करना है, वह भी बताऊँगा।"
ब्रह्मविद्या, सारा संसार जिनकी चेतना शक्ति से चलता है वह परमपिता परमात्मा कौन हैं? श्रीमद्भगवद्गीता जी में हम ब्रह्म विद्या के बारे में ही पढ़ रहे हैं। जिन्होंने समग्र सृष्टि की रचना की है, उन्हें जानना, वह है ब्रह्म ज्ञान। जिस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े योगी, ऋषि तपस्या करते हैं। वह ज्ञान हमें गीता जी के द्वारा अर्जुन के माध्यम से श्रीभगवान् यहाँ बता रहे हैं। श्रीभगवान् कहते हैं "हे अर्जुन! मैं वह रहस्यमय ज्ञान तो बताऊँगा ही, उसका अनुभव कैसे करना है, वह भी बताऊँगा।"
राजविद्या राजगुह्यं(म्), पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं(न्) धर्म्यं(म्), सुसुखं(ङ्) कर्तुमव्ययम्।।9.2।।
यह (विज्ञान सहित ज्ञान अर्थात् समग्र रूप) सम्पूर्ण विद्याओं का राजा (और) सम्पूर्ण गोपनीयों का राजा है। यह अति पवित्र (तथा) अतिश्रेष्ठ है (और) इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है (और) करने में बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।
विवेचन:- यह ज्ञान कैसा है? उसकी क्या विशेषता है? इस श्लोक में श्रीभगवान् बता रहे हैं। It is the king of all knowledge; the best secret knowledge. सारे ज्ञान का राजा। यह ब्रह्म ज्ञान है। इस ज्ञान को जानने के बाद जीवन पवित्र हो जाता है। जैसे ही यह ज्ञान हम ग्रहण करने का प्रयास करते हैं, उसका अनुभव हमें होने लगता है। जैसे रसगुल्ला हम मुॅंह में डालते हैं तो उसका स्वाद हमें आने लगता है। वैसे ही यह ज्ञान है, जैसे-जैसे हम इसे ग्रहण करेंगे, जानेंगे, इसका अनुभव होने लगेगा। यह धर्ममय ज्ञान है।
बच्चों से पूछा गया-
बच्चों से पूछा गया-
प्रश्न -बारहवें अध्याय में हमने भक्त के कितने लक्षण देखे थे?
उत्तर -बारहवें अध्याय में हमने भक्त के (39) उनतालीस लक्षण देखे थे। जिससे हम श्रीभगवान् के प्रिय भक्त बन सकते हैं।
सत्रहवें अध्याय में हमने तीन मूल, आधारभूत (basic) गुण देखे थे। सात्त्विक ,राजसिक और तामसिक। हमें सात्त्विक गुणों को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए यह बात जानी थी। धीरे-धीरे इन गुणों को जब हम अपने जीवन में लाने का प्रयास करेंगे तो हम भी धर्ममय हो जाऍंगे। अभी तक जिन-जिन अध्याय में जो-जो बातें कही गईं उनको धीरे-धीरे यदि हम अपने जीवन में लाने का प्रयास करेंगे तो हम ज्ञान के साथ-साथ उनका अनुभव भी कर सकेंगे।
अश्रद्दधानाः(फ्) पुरुषा, धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां(न्) निवर्तन्ते, मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।
हे परंतप! इस धर्म की महिमा पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसार के मार्ग में लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, यह ज्ञान केवल उन लोगों को मिलता है जो मुझ में (परमात्मा) श्रद्धा, विश्वास रखते हैं और जिन्हें विश्वास और श्रद्धा नहीं है, वे इस संसार चक्र से निकल नहीं पाऍंगे। वे बार-बार जन्म लेते रहेंगे। बार-बार जन्म लेंगे, बार-बार मृत्यु को प्राप्त होंगे। ज्ञान तो श्रीभगवान् हमें दे रहे हैं और विज्ञान हम हमारे अनुभव से प्राप्त कर पाऍगे। हमें जब यह ज्ञान प्राप्त हो जाएगा तो हम आनन्द में हो जाएँगे। मान लो अभी चॉकलेट खाने की इच्छा हो रही है क्योंकि चॉकलेट खाने से आनन्द की प्राप्ति होगी। गाना गाने की इच्छा हो रही है। गाना क्यों गाना है? क्योंकि अच्छा लगता है।
परीक्षा में प्रथम श्रेणी से पास होना है। उससे माता-पिता को प्रसन्नता मिलेगी, स्वयम् को आनन्द मिलेगा, प्रसन्नता होगी। देखा जाए तो जो भी कार्य हम करते हैं वह इसलिए करते हैं कि वह हमें अच्छा लगता है। हमें उससे प्रसन्नता मिलती है, आनन्द प्राप्त होता है। हम आनन्द और प्रसन्नता के लिए ही सब कुछ करते है।
हमने देखा है कि श्रीकृष्ण का स्वरूप कैसा है? यह आनन्दमय है। प्रार्थना में भी हम गाते हैं “योगेशंसच्चिदानन्दम्” Every moment you are happy, that is moksh. श्रीभगवान् कहते हैं कि जो श्रद्धा से इस ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा रखेगा, वही आनन्द स्वरूप को प्राप्त करेगा। हर समय प्रसन्न रहना ही मोक्ष है। ऐसा नहीं है कि मरने के बाद ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। जो इस मार्ग पर चलते हैं उन्हें स्वयम् ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और वे आनन्दित रहने लगते हैं।
परीक्षा में प्रथम श्रेणी से पास होना है। उससे माता-पिता को प्रसन्नता मिलेगी, स्वयम् को आनन्द मिलेगा, प्रसन्नता होगी। देखा जाए तो जो भी कार्य हम करते हैं वह इसलिए करते हैं कि वह हमें अच्छा लगता है। हमें उससे प्रसन्नता मिलती है, आनन्द प्राप्त होता है। हम आनन्द और प्रसन्नता के लिए ही सब कुछ करते है।
हमने देखा है कि श्रीकृष्ण का स्वरूप कैसा है? यह आनन्दमय है। प्रार्थना में भी हम गाते हैं “योगेशंसच्चिदानन्दम्” Every moment you are happy, that is moksh. श्रीभगवान् कहते हैं कि जो श्रद्धा से इस ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा रखेगा, वही आनन्द स्वरूप को प्राप्त करेगा। हर समय प्रसन्न रहना ही मोक्ष है। ऐसा नहीं है कि मरने के बाद ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। जो इस मार्ग पर चलते हैं उन्हें स्वयम् ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और वे आनन्दित रहने लगते हैं।
मया ततमिदं(म्) सर्वं(ञ्), जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि, न चाहं(न्) तेष्ववस्थितः।।9.4।।
यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा (वे) प्राणी (भी) मुझ में स्थित नहीं हैं - मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और प्राणियों का धारण, भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। (9.4-9.5)
9.4 writeup
न च मत्स्थानि भूतानि, पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो, ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि पूरी सृष्टि में, मैं ही व्याप्त हूॅं।
हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद की कथा हम सभी को पता है-
जब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से पूछा था कि कहाँ है तुम्हारे भगवान्, क्या इस स्तम्भ में भी हैं? प्रह्लाद ने उत्तर दिया "हाँ, इस स्तम्भ में भी श्रीभगवान् है।" हिरणकश्यप क्रोधित हो गया और बोला-" कैसे पत्थर में भी तुम्हारे भगवान् हो सकते हैं?" और यह कहकर उसने उस स्तम्भ पर वार किया। उस स्तम्भ में से नरसिंह भगवान् प्रकट हो गए। नरसिंह भगवान् के उग्र रूप को देखकर सभी भयभीत हो गए थे। भक्त प्रह्लाद को स्पर्श करते ही नरसिंह भगवान् शान्त हो गए।
श्रीभगवान् कण-कण में अव्यक्त रूप से विद्यमान हैं। श्रीभगवान् कहते हैं कि ये सारे प्राणी मुझ में नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूॅ। श्रीभगवान् कहते हैं, मैं इस सृष्टि में व्याप्त हूँ। अगले ही क्षण कहते हैं कि मैं इनमें नहीं हूँ, यह कैसी गोलमोल बात हुई? अर्जुन के मन में भी यही प्रश्न था। श्रीभगवान् यहाँ दो परिप्रेक्ष्य (Perspectives) से कह रहे हैं।
हम अपने को अलग मानते हैं और श्रीभगवान् को अलग मानते हैं। हमें ज्ञान है कि श्रीभगवान् हममें है पर इसका अनुभव नहीं है। बड़े-बड़े सन्त महात्माओं व योगियों को इस बात का अनुभव हो जाता है। श्रीभगवान् कहते हैं, मनुष्य यह सोचता है कि मैं (परमात्मा) सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त हूँ पर वह यह नहीं मानता कि मैं उसमें भी हूँ। हम यह समझते हैं कि श्रीभगवान् अलग हैं और मैं अलग हूँ।
हमनें यह कहानी सुनी है कि जब श्रीकृष्ण बाल रूप में थे और अपनी लीला बता रहे थे तो खेलते-खेलते बालकृष्ण ने अपने मुख में मिट्टी डाल ली। सब बाल सखाओं ने कहा, "कान्हा मिट्टी न खाओ, मिट्टी न खाओ" पर वे किसी की बात मान ही नहीं रहे थे। मित्रों ने यशोदा मैया से कहा, "मैया, कान्हा मिट्टी खा रहे हैं, मान नहीं रहे हैं और जब यशोदा मैया ने कान्हा से पूछा तो कान्हा जी ने मना कर दिया, नहींं! मैं मिट्टी नहीं खा रहा। मैया ने कहा "मुख खोल कर बताओ" तो जब कान्हाजी ने मुख खोला उसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन मैया यशोदा को करा दिए।
कान्हाजी के उत्तर के पीछे अलग ही उद्देश्य होता था। वे झूठ नहीं बोलते थे। इस सृष्टि में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो वे (परमात्मा) खा सकें। श्रीभगवान् कहते हैं, "मैं तो पूरी सृष्टि में ही हूँ। ऐसा कुछ नहीं है जो मेरे लिए अलग है, सब मैं ही हूँ। सब मुझ में है और मैं सब में हूँ।" मैं तुझमें और तुम मुझमें, कुछ भी अलग-अलग नहीं है। जब हमारा दृष्टिकोण ऐसा होने लगे तब हमें यह ब्रह्म विद्या या ब्रह्म ज्ञान समझ आने लगेगा और इसका अनुभव होने लगेगा। यह चिन्तन-मनन से होता है।
समुद्र में कुछ लहरें होती हैं। हम यह नहीं कहते कि लहरें ही समुद्र है। जैसे लहरें समुद्र का एक भाग है उसी तरह हम जीव श्रीभगवान् का अंश मात्र हैं। हमारे उपनिषद कहते हैं, हमें कम से कम सौ वर्ष तक जीवित रहना चाहिए। हम यह समझते हैं कि श्रीभगवान् हममें ही हैं, पर वे उससे भी अधिक हैं, वे सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैैं।
हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद की कथा हम सभी को पता है-
जब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से पूछा था कि कहाँ है तुम्हारे भगवान्, क्या इस स्तम्भ में भी हैं? प्रह्लाद ने उत्तर दिया "हाँ, इस स्तम्भ में भी श्रीभगवान् है।" हिरणकश्यप क्रोधित हो गया और बोला-" कैसे पत्थर में भी तुम्हारे भगवान् हो सकते हैं?" और यह कहकर उसने उस स्तम्भ पर वार किया। उस स्तम्भ में से नरसिंह भगवान् प्रकट हो गए। नरसिंह भगवान् के उग्र रूप को देखकर सभी भयभीत हो गए थे। भक्त प्रह्लाद को स्पर्श करते ही नरसिंह भगवान् शान्त हो गए।
श्रीभगवान् कण-कण में अव्यक्त रूप से विद्यमान हैं। श्रीभगवान् कहते हैं कि ये सारे प्राणी मुझ में नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूॅ। श्रीभगवान् कहते हैं, मैं इस सृष्टि में व्याप्त हूँ। अगले ही क्षण कहते हैं कि मैं इनमें नहीं हूँ, यह कैसी गोलमोल बात हुई? अर्जुन के मन में भी यही प्रश्न था। श्रीभगवान् यहाँ दो परिप्रेक्ष्य (Perspectives) से कह रहे हैं।
हम अपने को अलग मानते हैं और श्रीभगवान् को अलग मानते हैं। हमें ज्ञान है कि श्रीभगवान् हममें है पर इसका अनुभव नहीं है। बड़े-बड़े सन्त महात्माओं व योगियों को इस बात का अनुभव हो जाता है। श्रीभगवान् कहते हैं, मनुष्य यह सोचता है कि मैं (परमात्मा) सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त हूँ पर वह यह नहीं मानता कि मैं उसमें भी हूँ। हम यह समझते हैं कि श्रीभगवान् अलग हैं और मैं अलग हूँ।
हमनें यह कहानी सुनी है कि जब श्रीकृष्ण बाल रूप में थे और अपनी लीला बता रहे थे तो खेलते-खेलते बालकृष्ण ने अपने मुख में मिट्टी डाल ली। सब बाल सखाओं ने कहा, "कान्हा मिट्टी न खाओ, मिट्टी न खाओ" पर वे किसी की बात मान ही नहीं रहे थे। मित्रों ने यशोदा मैया से कहा, "मैया, कान्हा मिट्टी खा रहे हैं, मान नहीं रहे हैं और जब यशोदा मैया ने कान्हा से पूछा तो कान्हा जी ने मना कर दिया, नहींं! मैं मिट्टी नहीं खा रहा। मैया ने कहा "मुख खोल कर बताओ" तो जब कान्हाजी ने मुख खोला उसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन मैया यशोदा को करा दिए।
कान्हाजी के उत्तर के पीछे अलग ही उद्देश्य होता था। वे झूठ नहीं बोलते थे। इस सृष्टि में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो वे (परमात्मा) खा सकें। श्रीभगवान् कहते हैं, "मैं तो पूरी सृष्टि में ही हूँ। ऐसा कुछ नहीं है जो मेरे लिए अलग है, सब मैं ही हूँ। सब मुझ में है और मैं सब में हूँ।" मैं तुझमें और तुम मुझमें, कुछ भी अलग-अलग नहीं है। जब हमारा दृष्टिकोण ऐसा होने लगे तब हमें यह ब्रह्म विद्या या ब्रह्म ज्ञान समझ आने लगेगा और इसका अनुभव होने लगेगा। यह चिन्तन-मनन से होता है।
समुद्र में कुछ लहरें होती हैं। हम यह नहीं कहते कि लहरें ही समुद्र है। जैसे लहरें समुद्र का एक भाग है उसी तरह हम जीव श्रीभगवान् का अंश मात्र हैं। हमारे उपनिषद कहते हैं, हमें कम से कम सौ वर्ष तक जीवित रहना चाहिए। हम यह समझते हैं कि श्रीभगवान् हममें ही हैं, पर वे उससे भी अधिक हैं, वे सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैैं।
हम तो कुछ समय के लिए ही जीवित रहते हैं। श्रीभगवान् तो अनन्त, अनादि हैं, उससे भी अधिक हैं। वे सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं।
सात्त्विक भोजन करना चाहिए, व्यायाम करना चाहिए, जप करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए जिससे हमारा मन और शरीर सुदृढ़ रहे। हम निरोगी रहें और दीर्घायु हों।
यथाकाशस्थितो नित्यं(व्ँ), वायुः(स्) सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि, मत्स्थानीत्युपधारय॥9.6॥
जैसे सब जगह विचरने वाली महान् वायु नित्य ही आकाश में स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं - ऐसा तुम मान लो।
विवेचन:- पृथ्वी से ऊपर आकाश है। आकाश से ऊपर कई प्रकार की गैस हैं- हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन। जिसके कारण हम श्वास ले पाते हैं। आकाश इतना सा ही नहीं है, उसके ऊपर भी है जिसे हम स्पेस कहते हैं। जैसे आकाश में वायु स्थित होता है, उसी प्रकार से यह सारे भूत मात्र अर्थात् प्राणी, मनुष्य, जीव-जन्तु, कीट-पतङ्ग परमात्मा में रहते हैं। हम अपने ग्रन्थों में पढ़ते आ रहे हैं। अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड है। अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड अर्थात् (infinite universe), आज के वैज्ञानिक भी पता नहीं कर पाए कि कितने यूनिवर्स (universe) हैं? कितने ब्रह्माण्ड हैं? इस ब्रह्माण्ड के जो स्वामी हैं, वे हमारे श्रीभगवान् हैं / परमात्मा हैं। इस बात को समझने के लिए हमें धीरे-धीरे ध्यान और धारणा करना पड़ेगी। इसके बारे में हम और जानने का प्रयास करेंगे।
हरि नाम सङ्कीर्तन के साथ आज के सत्र का समापन हुआ।
हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम्
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्त्ता- जीविका दीदी
प्रश्न- मैं बहुत छोटी-छोटी बातों पर चिढ़ जाती हूँ। मुझे कोई ऐसा सुझाव दें?
उत्तर- क्रोध पर काबू पाने के लिए कुछ लोग सौ की उल्टी गिनती गिनते हैं। कोई स्रोत में से अच्छा श्लोक याद है तो उसे बोलना शुरू कर दें। श्रीभगवान् की मूर्ति पर ध्यान केन्द्रित कर 'जय श्री कृष्ण' बोलें। क्रोध धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाएगा। जब शान्त हों तब इस बात पर मनन करें कि क्रोधित होना आवश्यक नहीं होता। किसी भी बात को आराम से शान्त भाव से भी कहा जा सकता है ।अभ्यास करने से सब कुछ सम्भव है
प्रश्नकर्त्ता- संकीर्तणा श्रीवात्सन दीदी
प्रश्न- नवम् अध्याय में कितने श्लोक हैं?
उत्तर- नवम् अध्याय में 34 श्लोक हैं।
प्रश्नकर्त्ता- हिरल दीदी
प्रश्न- श्रीकृष्ण सदैव सिर पर मोर पंख धारण क्यों करते हैं?
उत्तर- मोर ने एक बार श्री रामजी की मदद की थी जिस कारण से श्रीकृष्ण सदैव सिर पर मोर पंख धारण करते हैं।
प्रश्नकर्त्ता- गीत सोनी दीदी
प्रश्न - यदि किसी व्यक्ति के पाप और पुण्य एक जितने हैं, जितने पाप हैं उतने ही उसके पुण्य हैं तो उसे स्वर्ग मिलेगा या नरक?
उत्तर- यदि किसी व्यक्ति ने पाप किया भी है और वह उसका पश्चाताप कर लेता है तो उसे अपने पाप कर्म से मुक्ति मिलती है। यदि व्यक्ति स्वर्ग में भी है तो वह निरन्तर वहाँ नहीं रह सकता। उस स्थान पर रहकर अपने पुण्यों के फलों को भोगने के बाद दोबारा अपने कर्म करने के लिए धरती पर आता है।
प्रश्न- दीदी, क्या स्वर्ग को पाकर व्यक्ति श्रीभगवान् को भूल जाता है?
उत्तर- सुख के अनुभव में अक्सर व्यक्ति स्वयम् को उस सुख का अधिकारी समझने लगता है। जबकि स्वर्ग में रहते हुए अपने पुण्य के फलों को भोगने के बाद व्यक्ति को पुन:अपने कार्यों को करने के लिए धरती पर आना पड़ता है। जैसे होटल में जितनी देर के लिए आपकी व्यवस्था है उसके बाद आपको वापस आना ही होता है।
प्रश्न- हमें मोक्ष की प्राप्ति ज्यादा उत्तम है या सत्सङ्ग में ज्यादा आनन्द है?
उत्तर- स्वर्ग व सत्सङ्ग में हमें हमेशा आनन्द का अनुभव रहेगा। बहुत से सिद्ध महात्मा हैं, जैसे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी, तुकाराम महाराज जी, तुलसीदास जी व मीरा बाई जी। ये सभी सिद्ध आत्माएँ हैं। ऐसा नहीं है कि इन सब ने मोक्ष में आनन्द प्राप्त नहीं किया बल्कि मोक्ष प्राप्त करने के बाद अपने कार्य के लिए दोबारा जन्म लिया और इस दुनिया में अपने कार्य को समाप्त करने के लिए मनुष्य जीवन में आए। इन सब का जीवन हम सब का उद्धार करने के लिए हुआ। श्रीभगवान् जो भी कार्य हमसे करवाएँगे वह करना है।
प्रश्नकर्त्ता- आरोही भगोरिया दीदी
प्रश्न- उपासक दो प्रकार के होते हैं सगुण व निर्गुण रूप के उपासक। अगर कोई उपासक पहाड़ियों में जाकर श्रीभगवान् की मूर्ति पर ध्यान केन्द्रित करना चाहे, तो क्या वह कर सकता है?
उत्तर- बिल्कुल, अगर कोई उपासक पहले से ही श्रीभगवान् के सगुण रूप की उपासना करता है तो उसके मन में श्रीभगवान् की मूर्ति बन चुकी है और पहाड़ में जाने का अर्थ यह नहीं है कि वह सगुण या निर्गुण रूप में परिवर्तन कर लेता है बल्कि एकान्त को चुनने का अर्थ है वहाँ एकान्त में केवल दुनिया के शोरगुल से दूर आराम से भक्ति कर सके।
प्रश्नकर्त्ता- सरगुण मित्तल दीदी
प्रश्न- दीदी, गीताजी के आखिरी पन्ने पर अर्जुन ऐसे बैठे हैं जैसे बहुत बोर हो रहे हैं, ऐसे क्यों है?
उत्तर- अर्जुन उदास हो गए हैं क्योंकि वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस युद्ध को लड़ने के बाद यह छोटा सा राज्य ही मिलना है और इस युद्ध में अपनों की बहुत बड़ी हानि होगी तो इसे क्यो करना है। वे यह तो जानते ही थे कि अगर वे युद्ध लड़ेंगे तो युद्ध को जीत ही जाएँगे पर उस युद्ध में उनके सारे अपने उनसे छूट जाएंँगे, जिस कारण वे उदास हो गए।
यह सब हम प्रथम अध्याय में पढेंगे कि अर्जुन रथ से क्यों उतर गए और उन्होंने श्रीकृष्ण को दु:खी मन से क्या कहा?
प्रश्न- क्या श्रीकृष्ण से बात करके अर्जुन को मजा आ रहा था?
उत्तर- जब दो दोस्त आपस में बात करते हैं, जैसे अगर आप अपने दोस्त से बात कर रहे हैं तो आपको मजा आता है ऐसे ही श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन की बहुत गहरी मित्रता थी, इसलिए अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने मन की बात कर रहे हैं और श्रीकृष्ण उन्हें उनके धर्म के बारे में बता रहे हैं। यह ब्रह्म ज्ञान श्रीकृष्ण ने केवल अपने सखा अर्जुन को दिया जो कि अब गीताजी के द्वारा हम सब को मिला है।
प्रश्नकर्त्ता- प्रज्ञा श्री दीदी
प्रश्न- हनुमानजी चिरञ्जीवी कैसे हो गए?
उत्तर- हनुमानजी को वरदान मिला था जिसके कारण वे चिरञ्जीवी हो गए और आज भी उसी देह में हैं, जिस देह में वे श्री रामजी से मिले थे।
प्रश्नकर्त्ता- लवण्या दीदी
प्रश्न- पहली बार होली किसने खेली थी?
उत्तर- मेरी जानकारी के अनुसार तो पहली बार होली श्रीकृष्ण ने अपनी गोपियों के सङ्ग खेली थी
प्रश्न- श्रीकृष्ण को मुरली इतनी प्रिय क्यों है?
उत्तर- श्रीकृष्ण को वह हर बात प्रिय है जिसमें सात्त्विक आनन्द आता है और होली मनाने से भी उनको सात्त्विक आनन्द की अनुभूति होती है इसलिए उनको रङ्गों का त्योहार होली और मुरली दोनों प्रिय हैं और थोड़ा चिन्तन करके अगर सोचा जाए तो ये सब होली के रङ्ग वैसे ही है जैसे गीता जी में हमें सदगुण बताए गए। सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोक में आपको सद्गुण बताए गए है। ये छब्बीस सद्गुण रङ्गों की तरह हैं। जैसे-जैसे यह हमारे अन्दर रङ्ग चढ़ते जाएँगे, हम श्रीभगवानि के प्रिय होते जाएँगे
प्रश्नकर्त्ता- स्नेहल पटनायक दीदी
प्रश्न- दीदी, पाण्डव कितने भाई थे?
उत्तर- पाण्डव पाँच भाई थे- धर्मराज, युधिष्ठिर, भीम अर्जुन, नकुल और सहदेव।
प्रश्न- दीदी, अर्जुन क्या काम करते थे?
उत्तर- अर्जुन एक योद्धा थे।
प्रश्न- गीता जी में श्लोक कौन बोलते थे?
उत्तर- गीता जी श्रीकृष्ण और अर्जुन की वार्ता है जो गीत में कही गई है। इस वार्ता में कहीं-कहीं श्रीकृष्ण बोलते हैं और कहीं पर अर्जुन प्रश्न पूछते हैं व श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का बहुत विस्तार से उत्तर देते हैं।
प्रश्न- शान्त रहने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर- शान्त रहने के लिए हमें अध्ययन करना चाहिए, विवेचन सुनने चाहिए और उनका मनन करना चाहिए। जैसे-जैसे हम श्रीकृष्ण का मनन करेंगे हमारा मन शान्त होता जाएगा।
प्रश्नकर्त्ता- प्रज्ञा श्री दीदी
प्रश्न- अर्जुन श्लोक बोलते हैं और प्रश्न करते हैं तो उसका श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं। कितने श्लोक हैं जिनके बहुत बड़े उत्तर हैं।
उत्तर- अर्जुन प्रश्न पूछते हैं व श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का बहुत विस्तार से उत्तर देते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को ब्रह्म ज्ञान दे रहे हैं तो वह एक पंक्ति में तो नहीं हो सकता और गुरु तो ऐसा ही होना चाहिए कि किसी भी बच्चे के प्रश्न का इतना विस्तार में उत्तर दें कि उसका कोई भी संशय न रहे। अच्छे गुरु के यही लक्षण होते हैं
They make sure that you learn everything and no doubts left.
प्रश्नकर्त्ता- गीत सोनी दीदी
प्रश्न- क्या धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से बात की थी? महाभारत में कहीं भी ऐसी बात नहीं आती कि धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से बात की हो?
उत्तर- श्रीकृष्ण हस्तिनापुर आए थे ताकि युद्ध किसी तरह से टल जाए। तब उन्होंने सभी कौरवों को समझने की चेष्टा की थी। धृतराष्ट्र से वेदव्यास जी ने दिव्यदृष्टि देने की बात की थी क्योंकि धृतराष्ट्र देख नहीं सकते थे और युद्ध से पहले जब वेदव्यास जी ने धृतराष्ट्र से कहा कि वह उन्हें दिव्यदृष्टि प्रदान कर सकते हैं तो उन्होंने दृष्टि लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें युद्ध नहीं देखना था और उन्होंने वह दिव्यदृष्टि सञ्जय को देने के लिए कहा और सञ्जय के द्वारा किये गये वर्णन से ही उन्होंने महाभारत के युद्ध को देखा।
प्रश्न- गान्धारी के साथ विवाह के बाद क्या धृतराष्ट्र का पाण्डु से स्नेह कम हो गया था, जिस कारण महाभारत हुआ?
उत्तर- नहीं, धृतराष्ट्र का अपने भाई पाण्डु से बहुत प्रेम था। उनकी मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र केवल उनके पुत्र युधिष्ठिर के राज्य सिंहासन पर बैठने तक के लिए राज्य सम्भाल रहे थे। वे केवल उसे राज्य की देखभाल के लिये राजा बनाये गये थे, परन्तु उन्होंने उस राज्य को अपना ही समझ लिया और अपने पुत्र को राजा बनाने की इच्छा की, जिस कारण से यह युद्ध हुआ।
प्रश्न- क्या यह युद्ध सिंहासन के लिए हुआ।?
उत्तर- यह युद्ध सिंहासन के लिए नहीं था बल्कि एक धर्म युद्ध था जो कि इसलिए लड़ा गया कि किसी आसन पर बैठने वाला व्यक्ति धर्म परायण व धर्मशील होना चाहिए। जिस व्यक्ति की अपने ही परिवार के लोगों से निष्ठा नहीं है वह पूरे राज्य को कैसे सम्भाल सकता है।
प्रश्न- इसका अर्थ यह हुआ कि शकुनि महाभारत का कारण थे?
उत्तर- बिल्कुल शकुनि महाभारत का कारण बने। बहुत सारे लोग हमें बहुत सारी बातें कहते हैं लेकिन हमारी अपनी भी एक विवेक बुद्धि होती है जिससे हमें काम लेना चाहिए। कौरवों ने अपनी विवेक बुद्धि से काम नहीं लिया। क्या सही है क्या गलत है? यह जानना विवेक बुद्धि है और यह हमें गीता जी के अध्ययन से मिलती है।
प्रश्न- दीदी ने कहा था कि हमें किसी के साथ ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, अगर कोई परीक्षा में हमसे भी अच्छे अङ्क लेकर आता है तो हमें उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। अगर हमें पता है कि उसने वह अङ्क नकल मार कर लिए हैं तो क्या फिर भी हमें उसकी प्रशंसा करनी चाहिए?
उत्तर- हमें किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। ऐसे समय में जब हमें बोलना जरूरी नहीं है और अगर हमें पता है कि किसी ने नकल मारकर ज्यादा अङ्क लिए हैं तो हमें चुप रहना चाहिए। प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए, किन्तु ईर्ष्या कभी नहीं करनी चाहिए।
प्रश्नकर्त्ता- मोनिका राउत दीदी
प्रश्न- श्रीकृष्ण को बाँसुरी प्रिय क्यों है?
उत्तर- क्योंकि श्रीकृष्ण को सङ्गीत प्रिय है। श्रीकृष्ण बहुत मधुर बाँसुरी बजाते थे और बहुत सारे पशु-पक्षी आकर उनके आसपास उस मधुर सङ्गीत को सुनते थे। मुरली वैसे भी मनुष्य जीवन को एक बहुत बड़ा सन्देश देती है कि भीतर से जब हम अपने आप को बिल्कुल स्वच्छ कर लेते हैं खाली कर लेते हैं तो फिर उसमें से मधुर वाणी बोली जाए, ऐसा सम्भव है।
हरि नाम सङ्कीर्तन के साथ आज के सत्र का समापन हुआ।
हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम्
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्त्ता- जीविका दीदी
प्रश्न- मैं बहुत छोटी-छोटी बातों पर चिढ़ जाती हूँ। मुझे कोई ऐसा सुझाव दें?
उत्तर- क्रोध पर काबू पाने के लिए कुछ लोग सौ की उल्टी गिनती गिनते हैं। कोई स्रोत में से अच्छा श्लोक याद है तो उसे बोलना शुरू कर दें। श्रीभगवान् की मूर्ति पर ध्यान केन्द्रित कर 'जय श्री कृष्ण' बोलें। क्रोध धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाएगा। जब शान्त हों तब इस बात पर मनन करें कि क्रोधित होना आवश्यक नहीं होता। किसी भी बात को आराम से शान्त भाव से भी कहा जा सकता है ।अभ्यास करने से सब कुछ सम्भव है
प्रश्नकर्त्ता- संकीर्तणा श्रीवात्सन दीदी
प्रश्न- नवम् अध्याय में कितने श्लोक हैं?
उत्तर- नवम् अध्याय में 34 श्लोक हैं।
प्रश्नकर्त्ता- हिरल दीदी
प्रश्न- श्रीकृष्ण सदैव सिर पर मोर पंख धारण क्यों करते हैं?
उत्तर- मोर ने एक बार श्री रामजी की मदद की थी जिस कारण से श्रीकृष्ण सदैव सिर पर मोर पंख धारण करते हैं।
प्रश्नकर्त्ता- गीत सोनी दीदी
प्रश्न - यदि किसी व्यक्ति के पाप और पुण्य एक जितने हैं, जितने पाप हैं उतने ही उसके पुण्य हैं तो उसे स्वर्ग मिलेगा या नरक?
उत्तर- यदि किसी व्यक्ति ने पाप किया भी है और वह उसका पश्चाताप कर लेता है तो उसे अपने पाप कर्म से मुक्ति मिलती है। यदि व्यक्ति स्वर्ग में भी है तो वह निरन्तर वहाँ नहीं रह सकता। उस स्थान पर रहकर अपने पुण्यों के फलों को भोगने के बाद दोबारा अपने कर्म करने के लिए धरती पर आता है।
प्रश्न- दीदी, क्या स्वर्ग को पाकर व्यक्ति श्रीभगवान् को भूल जाता है?
उत्तर- सुख के अनुभव में अक्सर व्यक्ति स्वयम् को उस सुख का अधिकारी समझने लगता है। जबकि स्वर्ग में रहते हुए अपने पुण्य के फलों को भोगने के बाद व्यक्ति को पुन:अपने कार्यों को करने के लिए धरती पर आना पड़ता है। जैसे होटल में जितनी देर के लिए आपकी व्यवस्था है उसके बाद आपको वापस आना ही होता है।
प्रश्न- हमें मोक्ष की प्राप्ति ज्यादा उत्तम है या सत्सङ्ग में ज्यादा आनन्द है?
उत्तर- स्वर्ग व सत्सङ्ग में हमें हमेशा आनन्द का अनुभव रहेगा। बहुत से सिद्ध महात्मा हैं, जैसे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी, तुकाराम महाराज जी, तुलसीदास जी व मीरा बाई जी। ये सभी सिद्ध आत्माएँ हैं। ऐसा नहीं है कि इन सब ने मोक्ष में आनन्द प्राप्त नहीं किया बल्कि मोक्ष प्राप्त करने के बाद अपने कार्य के लिए दोबारा जन्म लिया और इस दुनिया में अपने कार्य को समाप्त करने के लिए मनुष्य जीवन में आए। इन सब का जीवन हम सब का उद्धार करने के लिए हुआ। श्रीभगवान् जो भी कार्य हमसे करवाएँगे वह करना है।
प्रश्नकर्त्ता- आरोही भगोरिया दीदी
प्रश्न- उपासक दो प्रकार के होते हैं सगुण व निर्गुण रूप के उपासक। अगर कोई उपासक पहाड़ियों में जाकर श्रीभगवान् की मूर्ति पर ध्यान केन्द्रित करना चाहे, तो क्या वह कर सकता है?
उत्तर- बिल्कुल, अगर कोई उपासक पहले से ही श्रीभगवान् के सगुण रूप की उपासना करता है तो उसके मन में श्रीभगवान् की मूर्ति बन चुकी है और पहाड़ में जाने का अर्थ यह नहीं है कि वह सगुण या निर्गुण रूप में परिवर्तन कर लेता है बल्कि एकान्त को चुनने का अर्थ है वहाँ एकान्त में केवल दुनिया के शोरगुल से दूर आराम से भक्ति कर सके।
प्रश्नकर्त्ता- सरगुण मित्तल दीदी
प्रश्न- दीदी, गीताजी के आखिरी पन्ने पर अर्जुन ऐसे बैठे हैं जैसे बहुत बोर हो रहे हैं, ऐसे क्यों है?
उत्तर- अर्जुन उदास हो गए हैं क्योंकि वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस युद्ध को लड़ने के बाद यह छोटा सा राज्य ही मिलना है और इस युद्ध में अपनों की बहुत बड़ी हानि होगी तो इसे क्यो करना है। वे यह तो जानते ही थे कि अगर वे युद्ध लड़ेंगे तो युद्ध को जीत ही जाएँगे पर उस युद्ध में उनके सारे अपने उनसे छूट जाएंँगे, जिस कारण वे उदास हो गए।
यह सब हम प्रथम अध्याय में पढेंगे कि अर्जुन रथ से क्यों उतर गए और उन्होंने श्रीकृष्ण को दु:खी मन से क्या कहा?
प्रश्न- क्या श्रीकृष्ण से बात करके अर्जुन को मजा आ रहा था?
उत्तर- जब दो दोस्त आपस में बात करते हैं, जैसे अगर आप अपने दोस्त से बात कर रहे हैं तो आपको मजा आता है ऐसे ही श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन की बहुत गहरी मित्रता थी, इसलिए अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने मन की बात कर रहे हैं और श्रीकृष्ण उन्हें उनके धर्म के बारे में बता रहे हैं। यह ब्रह्म ज्ञान श्रीकृष्ण ने केवल अपने सखा अर्जुन को दिया जो कि अब गीताजी के द्वारा हम सब को मिला है।
प्रश्नकर्त्ता- प्रज्ञा श्री दीदी
प्रश्न- हनुमानजी चिरञ्जीवी कैसे हो गए?
उत्तर- हनुमानजी को वरदान मिला था जिसके कारण वे चिरञ्जीवी हो गए और आज भी उसी देह में हैं, जिस देह में वे श्री रामजी से मिले थे।
प्रश्नकर्त्ता- लवण्या दीदी
प्रश्न- पहली बार होली किसने खेली थी?
उत्तर- मेरी जानकारी के अनुसार तो पहली बार होली श्रीकृष्ण ने अपनी गोपियों के सङ्ग खेली थी
प्रश्न- श्रीकृष्ण को मुरली इतनी प्रिय क्यों है?
उत्तर- श्रीकृष्ण को वह हर बात प्रिय है जिसमें सात्त्विक आनन्द आता है और होली मनाने से भी उनको सात्त्विक आनन्द की अनुभूति होती है इसलिए उनको रङ्गों का त्योहार होली और मुरली दोनों प्रिय हैं और थोड़ा चिन्तन करके अगर सोचा जाए तो ये सब होली के रङ्ग वैसे ही है जैसे गीता जी में हमें सदगुण बताए गए। सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोक में आपको सद्गुण बताए गए है। ये छब्बीस सद्गुण रङ्गों की तरह हैं। जैसे-जैसे यह हमारे अन्दर रङ्ग चढ़ते जाएँगे, हम श्रीभगवानि के प्रिय होते जाएँगे
प्रश्नकर्त्ता- स्नेहल पटनायक दीदी
प्रश्न- दीदी, पाण्डव कितने भाई थे?
उत्तर- पाण्डव पाँच भाई थे- धर्मराज, युधिष्ठिर, भीम अर्जुन, नकुल और सहदेव।
प्रश्न- दीदी, अर्जुन क्या काम करते थे?
उत्तर- अर्जुन एक योद्धा थे।
प्रश्न- गीता जी में श्लोक कौन बोलते थे?
उत्तर- गीता जी श्रीकृष्ण और अर्जुन की वार्ता है जो गीत में कही गई है। इस वार्ता में कहीं-कहीं श्रीकृष्ण बोलते हैं और कहीं पर अर्जुन प्रश्न पूछते हैं व श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का बहुत विस्तार से उत्तर देते हैं।
प्रश्न- शान्त रहने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर- शान्त रहने के लिए हमें अध्ययन करना चाहिए, विवेचन सुनने चाहिए और उनका मनन करना चाहिए। जैसे-जैसे हम श्रीकृष्ण का मनन करेंगे हमारा मन शान्त होता जाएगा।
प्रश्नकर्त्ता- प्रज्ञा श्री दीदी
प्रश्न- अर्जुन श्लोक बोलते हैं और प्रश्न करते हैं तो उसका श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं। कितने श्लोक हैं जिनके बहुत बड़े उत्तर हैं।
उत्तर- अर्जुन प्रश्न पूछते हैं व श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का बहुत विस्तार से उत्तर देते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को ब्रह्म ज्ञान दे रहे हैं तो वह एक पंक्ति में तो नहीं हो सकता और गुरु तो ऐसा ही होना चाहिए कि किसी भी बच्चे के प्रश्न का इतना विस्तार में उत्तर दें कि उसका कोई भी संशय न रहे। अच्छे गुरु के यही लक्षण होते हैं
They make sure that you learn everything and no doubts left.
प्रश्नकर्त्ता- गीत सोनी दीदी
प्रश्न- क्या धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से बात की थी? महाभारत में कहीं भी ऐसी बात नहीं आती कि धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से बात की हो?
उत्तर- श्रीकृष्ण हस्तिनापुर आए थे ताकि युद्ध किसी तरह से टल जाए। तब उन्होंने सभी कौरवों को समझने की चेष्टा की थी। धृतराष्ट्र से वेदव्यास जी ने दिव्यदृष्टि देने की बात की थी क्योंकि धृतराष्ट्र देख नहीं सकते थे और युद्ध से पहले जब वेदव्यास जी ने धृतराष्ट्र से कहा कि वह उन्हें दिव्यदृष्टि प्रदान कर सकते हैं तो उन्होंने दृष्टि लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें युद्ध नहीं देखना था और उन्होंने वह दिव्यदृष्टि सञ्जय को देने के लिए कहा और सञ्जय के द्वारा किये गये वर्णन से ही उन्होंने महाभारत के युद्ध को देखा।
प्रश्न- गान्धारी के साथ विवाह के बाद क्या धृतराष्ट्र का पाण्डु से स्नेह कम हो गया था, जिस कारण महाभारत हुआ?
उत्तर- नहीं, धृतराष्ट्र का अपने भाई पाण्डु से बहुत प्रेम था। उनकी मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र केवल उनके पुत्र युधिष्ठिर के राज्य सिंहासन पर बैठने तक के लिए राज्य सम्भाल रहे थे। वे केवल उसे राज्य की देखभाल के लिये राजा बनाये गये थे, परन्तु उन्होंने उस राज्य को अपना ही समझ लिया और अपने पुत्र को राजा बनाने की इच्छा की, जिस कारण से यह युद्ध हुआ।
प्रश्न- क्या यह युद्ध सिंहासन के लिए हुआ।?
उत्तर- यह युद्ध सिंहासन के लिए नहीं था बल्कि एक धर्म युद्ध था जो कि इसलिए लड़ा गया कि किसी आसन पर बैठने वाला व्यक्ति धर्म परायण व धर्मशील होना चाहिए। जिस व्यक्ति की अपने ही परिवार के लोगों से निष्ठा नहीं है वह पूरे राज्य को कैसे सम्भाल सकता है।
प्रश्न- इसका अर्थ यह हुआ कि शकुनि महाभारत का कारण थे?
उत्तर- बिल्कुल शकुनि महाभारत का कारण बने। बहुत सारे लोग हमें बहुत सारी बातें कहते हैं लेकिन हमारी अपनी भी एक विवेक बुद्धि होती है जिससे हमें काम लेना चाहिए। कौरवों ने अपनी विवेक बुद्धि से काम नहीं लिया। क्या सही है क्या गलत है? यह जानना विवेक बुद्धि है और यह हमें गीता जी के अध्ययन से मिलती है।
प्रश्न- दीदी ने कहा था कि हमें किसी के साथ ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, अगर कोई परीक्षा में हमसे भी अच्छे अङ्क लेकर आता है तो हमें उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। अगर हमें पता है कि उसने वह अङ्क नकल मार कर लिए हैं तो क्या फिर भी हमें उसकी प्रशंसा करनी चाहिए?
उत्तर- हमें किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। ऐसे समय में जब हमें बोलना जरूरी नहीं है और अगर हमें पता है कि किसी ने नकल मारकर ज्यादा अङ्क लिए हैं तो हमें चुप रहना चाहिए। प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए, किन्तु ईर्ष्या कभी नहीं करनी चाहिए।
प्रश्नकर्त्ता- मोनिका राउत दीदी
प्रश्न- श्रीकृष्ण को बाँसुरी प्रिय क्यों है?
उत्तर- क्योंकि श्रीकृष्ण को सङ्गीत प्रिय है। श्रीकृष्ण बहुत मधुर बाँसुरी बजाते थे और बहुत सारे पशु-पक्षी आकर उनके आसपास उस मधुर सङ्गीत को सुनते थे। मुरली वैसे भी मनुष्य जीवन को एक बहुत बड़ा सन्देश देती है कि भीतर से जब हम अपने आप को बिल्कुल स्वच्छ कर लेते हैं खाली कर लेते हैं तो फिर उसमें से मधुर वाणी बोली जाए, ऐसा सम्भव है।