सुमधुर प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, एवम् गुरु वन्दना के साथ आज के सत्र का प्रारम्भ हुआ। दैवीय गुण अर्थात् नायक के गुण जो श्रीभगवान् में गुण होते हैं, वे गुण। आसुरी या राक्षसी गुणों के बारे में भी हमने पिछले सत्र में जाना था। बाल संस्करण होने के कारण सत्र संवादपरक रहा। बच्चों से पूछा गया- We should have these Godly Qualities or not?
निम्न दैवीय गुणों के बारे में विस्तार से जानने के बाद पुनः संक्षेप में उनकी चर्चा करते हुए सत्र को आरम्भ किया गया।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।।
उपरोक्त बीस गुणों के बाद शेष छ: गुणों की चर्चा आरम्भ हुई।
तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर भाव का न होना (और) मान को न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन ! (ये सभी) दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के (लक्षण) हैं।
विवेचन- पहला गुण है तेज, प्रभावशाली व्यक्ति में तेज होता है। दैवी गुण दिखाई देते हैं, जिसे बहुत ज्ञान है उनका व्यवहार बहुत अच्छा होता है। जब कोई सन्त पुरुष महात्मा कुछ कहते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि हम उन्हें सुनते ही रहें क्योंकि वह तेजस्वी हैं। उनकी बातों के प्रभाव से अज्ञानियों में भी बदलाव आ जाता है। वह उनके तेज के कारण होता है। कोई हमारे मित्र हमारे साथ गलत व्यवहार करते हैं तो उन्हें क्षमा कर देना है, बदले की भावना नहीं रखनी है। मन में भी उनके बुरे व्यवहार के बारे में नहीं सोचना है, उनके बुरे व्यवहार को मन से भी निकाल देना है यह अर्थ होता है क्षमा करना ( forgive and forget) (neither we should think about the revenge and nor we should try to take revenge) कोई हमें चिढ़ाता है, हमसे बुरा व्यवहार करता है तो उसे क्षमा कर देना। अगला दैवीय गुण है धैर्य।
हमने गीता जी में पढ़ा है कि गीता जी पढ़ने से परमात्मा की प्राप्ति होती है तो क्या? आज ही हमें ईश्वर के दर्शन हो जाऍंगे? नहीं ऐसा नहीं होता है। हमें धैर्य (patience) रखना होता है। बहुत लम्बे समय तक साधना करनी पड़ती है। पढ़ाई करते समय पूरा ध्यान पढ़ाई पर होना चाहिए। अन्तिम क्षणों तक हमारा प्रयास होना चाहिए उसे कहते हैं धैर्य। पढ़ते समय चाहे भूख लगे, गर्मी लगे थकान हो सब बातों को भूलकर पढ़ाई पर ही ध्यान होना चाहिए।
दम इन्द्रियों का दमन या नियन्त्रण अभी छुट्टियाॅं है तो सारे दिन टीवी ही नहीं देखना है या खेलते ही नहीं रहना है। We should not waste our time simply watching TV in holidays. कुछ समय निकाल कर कुछ अच्छी पुस्तक पढ़ना आरम्भ कीजिए। रामायण की कहानियाॅं, महाभारत आदि। हमारे सन्तों के बारे में महान नायकों के बारे में जिससे हमें प्रेरणा मिलती है।
शौचम्, प्रतिदिन स्नान करना सफाई रखना, स्वयं की भी और घर की भी। विद्यालय से आने के बाद अपनी वस्तुओं को निश्चित स्थान पर रखना। Keep your things properly. Your uniform, your shoes, your tiffin, bottle, bag extra.
प्रतिदिन करेंगे तो हमारी आदत बन जाएगी। इसीलिए कहा भी गया है। Practice makes a man perfect. कुछ लोगों में बचपन से ही दैवीय गुण होते हैं। हम अपने शत्रु को कष्ट देते हैं तो हमारे शत्रु भी नहीं होने चाहिए।
अद्रोह का अर्थ होता है किसी को भी कष्ट नहीं पहुॅंचाना।
अतिमानिता अर्थात् जो दिखावा नहीं करते हैं। जैसे बच्चों में आदत होती है कोई चीज हो तो दूसरों को ईर्ष्या या जलन के लिए दिखावे के लिए उन्हें चिढ़ाने के लिए दिखाते हैं तो ऐसा नहीं करना चाहिए। बचपन से ही हमें दैवीय गुण होते हैं तो बड़े होने पर हम देश के एक अच्छे नागरिक बनते हैं।
हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना और अभिमान करना, क्रोध करना तथा कठोरता रखना और अविवेक का होना भी - (ये सभी) आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के (लक्षण) हैं।
विवेचन- आसुरी गुण है तो कम लेकिन यह बहुत नुकसानदायक होते हैं। इस श्लोक में परमात्मा आसुरी, राक्षसी गुणों के बारे में बता रहे हैं।
दम्भ, अर्थात् show off करना, उदाहरण के लिए मैं प्रतिदिन दो मिनट प्रार्थना करती हूॅं लेकिन दिखाने के लिए जब मेरे यहाॅं कोई मेहमान आए तो मैं बहुत देर तक, बीस मिनट/आधे घण्टे तक भगवान् के सामने खड़े होकर जोर-जोर से गीता जी का बारहवें अध्याय का पठन कर रही हूॅं या कर रहा हूॅं। केवल दिखाने के लिए कि मुझे बहुत आता है। वास्तविकता में आता बहुत कम है।
अभिमान (Ego) मैं कक्षा में प्रथम आई हूॅं। मेरे पास यह है, अपने कोई अच्छे गुणों का अभिमान, पैसे का अभिमान। दर्प, मेरा मेरा करना मेरी वस्तु, मेरी गाड़ी, मेरा घर, माता-पिता। हमें स्वयं अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।
अक्रोध- दैवीय गुण है और क्रोध है आसुरी गुण। हमें क्रोध तब आता है जब हमारी इन्द्रियाॅं हमारे नियन्त्रण में नहीं होती है। हमारे क्रोध के व्यवहार से घर के दूसरे सदस्य भी परेशान होते हैं। माताजी को भी लगता है कि मैं कितना ही करूॅं बच्चे कभी खुश नहीं होते हैं। हमने अपने माता-पिता से कोई वस्तु माॅंगी और वह उस समय न ला पाए तो हमें क्रोध आ जाता है। बचपन की यह आदतें बड़े होने पर और बढ़ती जाती हैं, फिर बीपी बढ़ता है, बीमारियाॅं हो जाती है। क्रोध कब करना है- जब कोई हमारे धर्म, हमारे देश के लिए बुरा कहे माता-पिता के बारे में बुरा कहे।
Try to speak softly.
पारुष्य, कठोर स्वभाव वाले। यह आसुरी गुण है।
हमारी मधुर वाणी होनी चाहिए
“कोमल वाणी दे दो राम” हम ऐसा भजन भी गाते हैं।
आपके शिक्षक आप पर क्रोध करें तो आपको इग्नोर (ignore) करना है। हमें किसी की निन्दा, किसी से तुलना नहीं करनी चाहिए। हमें हमारी एक-एक बुरी आदतों, बुरे गुणों को दूर करना है। हमें दूसरों से तुलना नहीं करनी है। उन्हें जज नहीं करना है, हमें अपनी बुरी आदतों को सुधारना है।
अज्ञान अर्थात् जिन्हें यह नहीं पता है कि क्या सत्य है क्या असत्य है? अधर्म क्या है? धर्म क्या है? जो बुरे काम करते हैं उनको वही काम सही लगता है। अज्ञानी लोग उल्टा ही सोचते हैं। दम्भ, अहङ्कार, पारुष्य, क्रोध, अज्ञान। श्रीभगवान् अर्जुन को बता रहे हैं कि यह सब आसुरी प्रवृत्ति वालों के गुण होते हैं। श्रीभगवान् कहते हैं हे पार्थ! जो इन गुणों के साथ जन्म लेते हैं, वे आसुरी प्रवृत्ति के होते हैं।
16.5
दैवी सम्पद्विमोक्षाय, निबन्धायासुरी मता। मा शुचः(स्) सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।
दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये (और) आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! (तुम) दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, (इसलिये तुम) शोक (चिन्ता) मत करो।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! जो दैवीय गुणों वालो होते हैं उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है। जो आसुरी गुणों वाले होते हैं वे जन्म मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं।
They will get stuck in the cycle of birth and death .
श्रीभगवान् कहते हैं अर्जुन तुम डरो मत, तुम चिन्ता मत करो। तुममें तो यह सभी दैवीय गुण पहले से ही विद्यमान हैं और अर्जुन तो श्रीभगवान् के सबसे प्रिय मित्र और भक्त है। हम भी उन्हीं लोगों को पसन्द करते हैं जिनमें अच्छे गुण होते हैं, जो प्यार से बात करते हैं। हम उनसे मित्रता करना चाहते हैं।
इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि है -- दैवी और आसुरी। दैवी को तो (मैंने) विस्तार से कह दिया, (अब) हे पार्थ! (तुम) मुझसे आसुरी को (विस्तार) से सुनो।
विवेचन- पूरी सृष्टि में यही दो गुण वाले मनुष्य होते हैं। आसुरी गुण वाले और दैवीय गुण वाले। सभी मनुष्यों में सभी दैवी गुण नहीं होते लेकिन हम साधना करके प्रयास करके हममें जो आसुरी गुण है उन्हें कम कर सकते हैं। मैंने तुम्हें सभी दैवीय गुणों को विस्तार से बता दिया है। अब मैं तुम्हें आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों का व्यवहार कैसा होता है। वे क्या करते हैं? उन्हें क्या फल मिलता है? वह बताता हूॅं तुम सुनो।
16.7
प्रवृत्तिं(ञ्) च निवृत्तिं(ञ्) च, जना न विदुरासुराः। न शौचं(न्) नापि चाचारो, न सत्यं(न्) तेषु विद्यते।।16.7।।
आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य किस में प्रवृत होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये (इसको) नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है।
विवेचन- प्रवृति अर्थात् अच्छे गुण, अच्छे व्यवहार, अच्छा आचार। निवृत्ति retired जो बुरी आदत है, बुरे गुण हैं, उन्हें कम करना है अर्थात् बुरी आदतों, बुरे गुणों को अपने जीवन में से निकालना है। यदि बहुत अधिक क्रोध आता है तो उसे धीरे-धीरे कम करने का प्रयास करना है। शौच अर्थात् साफ सफाई। आसुरी गुण वाले साफ सफाई नहीं रखते। हमें शुचित्व का पालन करना है। मन्दिर जाते समय हमें भारतीय परिधानों को धारण करना चाहिए। यदि आप प्रतिदिन पूजा पाठ नहीं कर रहे हैं तो आज से ही प्रयास कीजिए कि प्रतिदिन थोड़ा समय पूजा, पाठ, आराधना, जाप करेंगे।
First of all, thanks to your parents who have enrolled you in this Geeta class.
हम धीरे-धीरे अच्छे बनने लगते हैं। अभी हम गीता जी के श्लोक पढ़ने लगे हैं। उनके अर्थों का विवेचन सुनते हैं। हमें समझ में आने लगता है। अब आप गीता परिवार के ध्येय वाक्य गीता पढ़ें, पढाएं और जीवन में लाएं की ओर अग्रसर हैं। आप धीरे-धीरे यह आदत बनाऍं। कुछ समय स्वाध्याय के लिए भी निकालें। हमें श्रीभगवान् को धन्यवाद कहना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमें हमारी आवश्यकताओं की सारी वस्तुऍं प्रदान की हैं। आसुरी गुण वाले व्यक्ति कभी सत्य नहीं बोलते। हमें दैवीय गुणों का विकास करना है तो हम कभी भी झूठ नहीं बोलेंगे। अगर गृहकार्य (home work) नहीं किया तो भी झूठ नहीं बोलेंगे। थोड़ी सी डाॅंट पड़ेगी, कोई बात नहीं।
वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, बिना मर्यादा के (और) बिना ईश्वर के अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। (इसलिये) काम ही इसका कारण है, इसके सिवाय और क्या कारण है? (और कोई कारण हो ही नहीं सकता।)
विवेचन- आसुरी गुण वाले व्यक्ति श्रीभगवान् के अस्तित्व को नहीं मानते वे अपने आप को ही सब कुछ समझते हैं। वे यह मानते हैं कि मैं ही पैसे वाला हूॅं मुझे किसी की आवश्यकता नहीं है।जो धनवान है, बड़े व्यक्ति हैं। वे यह बात भूल जाते हैं कि जब वे छोटे थे तो उनके माता-पिता ने ही तो पाल पोसकर इतना बड़ा किया है।
एक प्रसङ्ग आता है वैज्ञानिक एडिसन का। एक बार वह रेल से यात्रा करते समय बाइबल पढ़ रहे थे। उनके साथ कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिक यात्रा कर रहे थे। उन्होंने कहा यह बाइबल पढ़ने से कुछ नहीं होगा इसमें कुछ नहीं है यदि तुम्हारे कुछ प्रश्न हैं, शङ्का है तो तुम हमसे पूछ सकते हो। हम तुम्हें उत्तर देंगे।
दूसरे दिन एडिसन की प्रयोगशाला में वे वैज्ञानिक आए। प्रयोगशाला (Lab) में एक बहुत ही सुन्दर प्रतिरूप (model) रखा था। वैज्ञानिक ने पूछा यह इतना अच्छा (Model) प्रतिरूप किसने बनाया है? किसी ने तो बनाया होगा न। पता करो इतना सुन्दर (Model) मॉडल किसने बनाया। जिस तरह कोई एक प्रतिरूप मॉडल बना सकता है तो यह पूरी सृष्टि जिसमें हम निवास कर रहे हैं उसे भी किसी न किसी ने तो बनाया ही होगा। यह सृष्टि परमपिता परमात्मा की रचना है। आसुरी गुण वाले स्वयं को ही ईश्वर मानते हैं।
बच्चों से पूछा गया उनके पसन्दीदा (favourite) भगवान् कौन हैं? बच्चों ने उत्साह पूर्वक उत्तर दिये- महादेव, श्रीकृष्ण, श्रीराम । हम सभी के प्रिय भगवान् हैं क्योंकि हम उनके अस्तित्व को मानते हैं।
इस (पूर्वोक्त) (नास्तिक) दृष्टि का आश्रय लेने वाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूप को नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्र कर्म करने वाले (और) संसार के शत्रु हैं, उन मनुष्यों की सामर्थ्य का उपयोग जगत का नाश करने के लिये ही होता है।
विवेचन- आसुरी प्रवृत्ति वालों की बुद्धि मन्द होती है। अल्प बुद्धि होने के कारण यह लोग वे कर्म करते हैं जो नहीं करने चाहिए। गलत काम करते हैं, झूठ बोलते हैं दूसरों को सताते हैं। इनका उद्देश्य होता है सारे जगत का नाश करना। ईश्वर ने जब हमें मनुष्य जन्म दिया है तो हमारा उद्देश्य, स्वयं का विकास, हमारे राष्ट्र का विकास होना चाहिए।
कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहने वाले (तथा) अपवित्र व्रत धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण दुराग्रहों को धारण करके (संसार में) विचरते रहते हैं।
विवेचन- आसुरी गुण वाले लोगों की कामनाऍं अनन्त होती हैं।
हमारे पालक (parents) हमारे जन्मदिन पर हमसे पूछते हैं कि हमें क्या चाहिए हमारी ज्यादा कामनाऍं नहीं होती है तो हम एक या दो गिफ्ट्स (gifts) की ही माॅंग करते हैं।
आसुरी प्रवृत्ति वालों को तो प्रतिदिन नई वस्तु चाहिए होती है। उनके विचार (thought process) उल्टे ही चलते हैं। हम धर्म को मानते हैं तो वे धर्म को नहीं मानते। हम सत्य के मार्ग पर चलेंगे तो आसुरी स्वभाव वाले असत्य के मार्ग पर चलते हैं। उनका व्यवहार आचरण भ्रष्ट होता है।
(वे) मृत्यु पर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहने वाले और 'जो कुछ है, वह इतना ही है' - ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं।
विवेचन-आसुरी प्रवृत्ति वालों की इच्छाऍं, उनकी कामनाऍं कभी समाप्त नहीं होती। ऐसे लोग हमेशा चिन्ता में रहते हैं। कामनाऍं पूरी हो गईं तो भी चिन्ता और न हो तो भी चिन्ता। उनके शत्रु भी अधिक होते हैं। वे कभी सुखी या तृप्त नहीं होते हैं।
(वे) आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्याय पूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं।
विवेचन- आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों की आशाऍं बहुत होती है। कभी तृप्त नहीं होते इसलिए वे उससे बॅंधे होते हैं।
They have infinite wants and desires.
जब आसुरी प्रवृत्ति वालों की कामनाऍं पूरी नहीं होती है तो वे दु:खी होते हैं, उन्हें क्रोध आता है। फिर वे अपनी इच्छा अन्यायपूर्वक पूरी करने का प्रयास करते हैं।
16.13
इदमद्य मया लब्धम्, इमं(म्) प्राप्स्ये मनोरथम्। इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।
वे इस प्रकार के मनोरथ किया करते हैं कि - इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं (और अब) इस मनोरथ को प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना (धन) फिर भी हो जायगा।
विवेचन- आसुरी प्रवृत्ति के लोग जब अन्याय पूर्वक धन संग्रह करते हैं या अपनी इच्छाऍं पूरी करते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि यह सब कुछ कितना सरलता से आसानी से प्राप्त हो जाता है। तो फिर वे उसी सिद्धान्त पर आगे कार्य करते रहते हैं।
वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और (उन) दूसरे शत्रुओं को भी (हम) मार डालेंगे। हम ईश्वर (सर्व समर्थ) हैं। हम भोग भोगने वाले हैं।हम सिद्ध हैं, (हम) बड़े बलवान (और) सुखी हैं।
विवेचन- आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग किसी को मार कर, किसी से छीन कर, हड़प कर धन एकत्रित करते हैं। इसलिए उनके शत्रु अधिक होते हैं और इस बात पर भी गर्व भी करते हैं और सब कुछ प्राप्त होने पर उन्हें लगता है कि मैं ही ईश्वर हूॅं। वे सोचते हैं कि मेरे पास जितना पैसा है और किसी के पास नहीं है। मैं ही सबसे बड़ा धनवान हूॅं। मैं ही बलशाली हूॅं, मैं ही सुखी हूॅं। ऐसा वे मानते हैं।
बच्चों से पूछा गया।
हिरण्यकश्यप किसके पिता थे?
बच्चों ने उत्तर दिया भक्त प्रहलाद के पिता का नाम हिरणकश्यप था।
हिरणकश्यप अमर होना चाहते थे। पर ऐसा नहीं है जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु तो निश्चित ही है। हिरण्यकश्यप ने बहुत अधिक तप कर भोलेनाथ को प्रसन्न कर यह वरदान माॅंगा कि मेरी मृत्यु न तो स्त्री से हो, न पुरुष से, न सुबह हो न शाम को हो, न घर के अन्दर हो न घर के बाहर हो न पृथ्वी पर हो न जल में हो। इसलिए श्रीभगवान् नरसिंह अवतार लेकर आए और हिरण्यकश्यप का वध किया। अपने पैरों पर लिटा कर, घर की दहलीज पर अपने नाखूनों से उनके पेट को चीर कर उनका वध किया।
हम धनवान हैं, बहुत से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान दूसरा कौन है? (हम) खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे (और) मौज करेंगे - इस तरह (वे) अज्ञान से मोहित रहते हैं।
विवेचन- आसुरी गुण वाले सोचते हैं कि मैं ही बलवान हूॅं, मैं ही धनवान हूॅं मेरे समान कोई नहीं है। उन्हें ऐसा लगता है कि मैं ही केवल दान देता हूॅं। यज्ञ करता हूॅं। केवल दिखावा करने के लिए वे ऐसा करते हैं।
ऐसे लोग यज्ञ दान तो करते हैं लेकिन उसमें श्रद्धा भक्ति नहीं होती है और न ही ऐसे दान शास्त्र अनुसार होते हैं। इसलिए ऐसे दान और यज्ञ का कोई मूल्य नहीं होता, उसका कोई फल उन्हें नहीं मिलता। केवल दिखावा करने के लिए वह ऐसा करते हैं।
(कामनाओं के कारण) तरह-तरह से भ्रमित चित्त वाले, मोह-जाल में अच्छी तरह से फँसे हुए (तथा) पदार्थों और भोगों में अत्यन्त आसक्त रहने वाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं।
विवेचन- अज्ञान के कारण इनका चित्त, मन भ्रमित होता है। वे मोह के जाल में फॅंसे होते हैं। आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों का व्यवहार, आचरण, विचार अच्छे नहीं होते तो उन्हें कोई पसन्द नहीं करता। उनका कोई आदर भी नहीं करता। जीवित अवस्था में भी एकाकी जीवन, नकारात्मक विचार के कारण भी नरक ही भोगते हैं और मरने के पश्चात भी नरक में ही जाते हैं।
अपने को सबसे अधिक पूज्य मानने वाले, अकड़ रखने वाले (तथा) धन और मान के मद में चूर रहने वाले वे मनुष्य दम्भ से अविधिपूर्वक नाममात्र के यज्ञों से यजन करते हैं।
विवेचन- आसुरी स्वाभाव वाले व्यक्ति अपने आप को ही सब कुछ मानते हैं। वे अहङ्कारी होते हैं। मैं ही ईश्वर हूॅं ऐसा मानते हैं। यज्ञ केवल दिखावे के लिए करते हैं। वे यज्ञ शास्त्र अनुसार नहीं करते हैं।
16.18
अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(ञ्) च संश्रिताः । मामात्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।
(वे) अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोध का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में (रहने वाले) मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं (तथा) (मेरे और दूसरों के गुणों में) दोष दृष्टि रखते हैं।
विवेचन- आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों में सारे आसुरी गुण ही होते हैं। अनाचार से बड़े व्यक्ति बन गए हैं, बहुत पैसा कमा लिया है। दूसरों की निन्दा करते हैं, दूसरों को सताते हैं दूसरों की वस्तुओं को हड़प करते हैं, गलत तरीके से पैसा कमाते हैं। अज्ञानता के कारण यह लोग यह नहीं समझते कि दूसरे मनुष्य या दूसरों के हृदय में ईश्वर ही निवास करते हैं।
“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति”
“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।
श्रीभगवान् कहते हैं कि सभी के हृदय में मैं ही निवास करता हूॅं। जब ऐसे लोग दूसरों को सताते हैं तो वह मुझे ही सताते हैं क्योंकि सभी के हृदय में मैं ही निवास करता हूॅं।
उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले (और) संसार में महानीच, अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता ही रहता हूँ।
विवेचन- जो आसुरी प्रवृत्ति के होते हैं, वे दूसरों को सताते हैं। बुरे कर्म करते हैं। यह लोग नराधमान् होते हैं। वे अधम हैं। क्रूर होते हैं। हमें मनुष्य जन्म परमात्मा की आराधना, उपासना करने के लिए प्राप्त हुआ है। पूरी श्रद्धा से पूजा आराधना करनी है। आसुरी लोग ऐसा नहीं करते हैं।
If human being has not properly utilised his life so in next birth they will not born again as a human.
अगले जन्म में आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग पशु, पक्षी, कीट पतङ्ग की योनि में जन्म लेते हैं। अब हमें पता चल रहा है कि यदि हम बुरे कर्म करेंगे तो हमारा अगला जन्म किस योनि में होगा। इसीलिए हमें दैवीय गुणों को अपने आप में बढ़ाना है और उसी के अनुसार कर्म करने हैं।
हे कुन्तीनन्दन ! (वे) मूढ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, (फिर) उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयंकर नरकों में चले जाते हैं।
विवेचन- बच्चों से पूछा गया कौन्तेय किसका नाम है?
बच्चों ने उत्तर दिया कौन्तेय अर्जुन का नाम है।
कुन्ती का पुत्र होने के कारण श्रीभगवान् अर्जुन को कौन्तेय कहकर सम्बोधित करते हैं। श्रीभगवान् कहते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों को घोर नरक भोगना पड़ता है। अगर हमें बुरी योनियों में जन्म नहीं लेना है तो उसका क्या उपाय है? यह अगले श्लोक में श्रीभगवान् बता रहे हैं।
काम, क्रोध और लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।
विवेचन- अर्जुन दैवी गुणों से सम्पन्न थे। श्रीभगवान् अर्जुन के माध्यम से हम सबको यह बात बता रहे हैं। नरक के तीन द्वार हैं। वे है काम, क्रोध और लोभ। यदि हमें बहुत क्रोध आता है, बहुत सारी कामनाऍं हैं हम में, जो भी दूसरों के पास देखते हैं वही हमें भी चाहिए उसे पाने की इच्छा रखते हैं तो वह कामनाऍं (greed) कहलाती हैं। थोड़ा बहुत गुस्सा, क्रोध चलता है पर सदैव नहीं। मुझे क्रोध आ गया क्योंकि मम्मी ने मेरे पसन्द का भोजन नहीं बनाया। ऐसा नहीं करना चाहिए। कभी-कभी मम्मी को घर के अन्य सदस्यों के पसन्द का भोजन भी बनाना पड़ता है। माॅं जो भी भोजन बनाए उसे बड़ी प्रसन्नता से श्रीकृष्णार्पणमस्तु करते हुए भगवान् को भोग लगाकर ग्रहण करना है तो वह भी प्रसाद बन जाता है। माॅं को पता है कि मेरे बच्चों को क्या पसन्द है और वे बहुत प्यार से भोजन बनाती हैं। अगर हम काम, क्रोध, लोभ ये मिटा देते हैं तो हमें नरक में नहीं जाना पड़ता है। हमारे माॅंगने पर हमें वस्तु मिल गई तो ठीक हमें अधिक जिद नहीं करना चाहिए। लोभ अर्थात् हर चीज चाहिए अधिक मात्रा में चाहिए, ऐसा नहीं करना है।
हे कुन्तीनन्दन ! इन नरक के तीनों दरवाजों से रहित हुआ (जो) मनुष्य अपने कल्याण का आचरण करता है, (वह) उससे परम गति को प्राप्त हो जाता है।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि है अर्जुन! यदि इन तीन नरक के द्वारों अर्थात् (काम, क्रोध, लोभ) इन से मुक्त हो गए, अगर यह तीन अवगुण हममें नहीं है तो हम बहुत अच्छे व्यक्ति बन जाऍंगे। हमारे श्रेयस का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। हम परम पद प्राप्त कर सकते हैं।
16.23
यः(श्) शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति , न सुखं(न्) न परां(ङ्) गतिम् ।।16.23।।
जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को (और) न परमगति को (ही) प्राप्त होता है।
विवेचन- इस श्लोक में श्रीभगवान् शास्त्र में बताई गई बातों के अनुसार कार्य करने की बात करते र्है। अब शास्त्र क्या है? वह देखते हैं जैसे गीताजी। काम, क्रोध, लोभ, कठोर वाणी, बुरा व्यवहार यह सब त्याग देना हमें गीताजी में बताया गया है। वेद हैं, उपनिषद, महाभारत, पुराण यह सब शास्त्र ही हैं। इन सब ग्रन्थो में बहुत अच्छी-अच्छी बातें बताई गई हैं। उन्हीं का हमें पालन करना चाहिए। अब हमें शास्त्रों के बारे में नहीं पता तो हमारे जो बड़े कहते हैं। दादा-दादी, मम्मी पापा उनकी बात सदैव माननी चाहिए। श्रीभगवान् बता रहे हैं कि जो व्यक्ति शास्त्र अनुसार कार्य नहीं करेगा उसे कोई सिद्धि प्राप्त नहीं होगी। परम गति भी नहीं मिलेगी, सुख भी प्राप्त नहीं होगा।
अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र (ही) प्रमाण है - (ऐसा) जानकर (तू) इस लोक में शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।
विवेचन- हमें क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए? इस बात का चिन्तन हमेशा शास्त्र के अनुसार बताई गई बातों का पालन करते हुए करना चाहिए। इस तरह हमने इस अध्याय में छब्बीस दैवीय गुणों के बारे में जाना। अब उसके अनुसार अपने में दैवीय गुणों को बढ़ाते हुए, आसुरी गुणों को कम करते हुए अच्छे व्यक्ति बनने का प्रयास करना है।
पुष्पिका अर्थात् श्रीमद्भगवद्गीता भी उपनिषद का सार ही है और श्रीकृष्ण अर्जुन के बीच का संवाद है। अर्जुन को निमित्त मानकर हम सबको यह ज्ञान प्रदान किया है। हम भाग्यशाली हैं कि हम गीता परिवार से जुड़ सके, हम अपने जीवन को महान बनाने का प्रयास करेंगे।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु के साथ सत्र का समापन हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर-
प्रश्नकर्ता- स्वरा दीदी
प्रश्न- महर्षि दुर्वासा अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध हैं तो फिर इस अध्याय में बताए अनुसार क्या उन्हें नरक प्राप्त हुआ या स्वर्ग?
उत्तर- हाॅं, यह सच है कि उन्हें अपने क्रोध के कारण कुछ कष्ट अवश्य सहन करने पड़े होंगे किन्तु वे बहुत ज्ञानवान थे। उनमें दैवीय गुणों की अधिकता होने के कारण उनका यह स्वभाव भी उन गुणों के द्वारा ढ़क जाता है।
प्रश्न 2- नरक के तीन द्वार कौन-कौन से बताए गए हैं?
उत्तर- काम (desire), क्रोध (anger) और लोभ (greed ) तीनों को ही नरक के द्वार कहा गया है।
प्रश्नकर्ता- बी. भूनेश भैया
प्रश्न- आपने बताया कि हमें अपनी माॅं से कुछ अधिक माॅंगना नहीं है तो फिर किससे माॅंगे?
उत्तर- बालकों को जीवन में आगे बढ़ने के लिए जो भी चाहिए उन्हें अपने माता-पिता से ही माॅंगना होगा, लेकिन माॅंगने के साथ-साथ उसके लिए अधिक जिद नहीं करनी चाहिए कि हमारी यह इच्छा अभी के अभी पूर्ण की जाए, ऐसी अपेक्षा से बचना चाहिए।
प्रश्नकर्ता- भव्या गुप्ता दीदी
प्रश्न- नरक के तीन द्वार होते हैं। काम के द्वार का क्या अर्थ है?
उत्तर- इसका अर्थ यह है कि आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों की इच्छाऍं ऐसी होती है कि कभी समाप्त ही नहीं होती और बढ़ती ही जाती हैं और इस तरह उनके पतन का कारण भी बन जाती हैं।
प्रश्नकर्ता- शिवश्री यादव दीदी
प्रश्न- इस अध्याय के नाम का क्या अर्थ है
उत्तर- अध्याय का नाम है- दैवासुरसम्पद्विभागयोग और इसका अर्थ है दैवीय और आसुरी सम्पदा वाले लोगों के गुणों और अवगुणों का क्रमशः उल्लेख एवं वर्णन।
प्रश्नकर्ता- राम भैया
प्रश्न- महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन और भगवान् श्री कृष्ण की क्या आयु थी?
उत्तर- अर्जुन की आयु बयासी वर्ष और भगवान् श्री कृष्ण की आयु नवासी वर्ष बताई जाती है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:।।
इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘देवासुरसम्पदविभाग योग’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।