विवेचन सारांश
कर्मों की गहनता
गीता परिवार के सुमधुर गीत, हनुमान चालीसा पाठ, प्रार्थना, दीप प्रज्वलन एवं श्रीकृष्ण वन्दना के साथ आज के विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ।
पिछले सप्ताह हमने दस श्लोकों का विवेचन पूर्ण कर लिया था। आज ग्यारहवें श्लोक से प्रारम्भ करेंगे।
प्रारम्भ करने से पहले चौथे अध्याय का नाम क्या है, यह कौन बताएगा?
सामी दीदी- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग।
एक छोटा-सा प्रश्न और है- चौथे अध्याय में कुल कितने श्लोक हैं?
उत्तर- बयालीस।
प्रारम्भ के श्लोकों में हमने देखा था कि श्रीभगवान अर्जुन को बता रहे हैं, ऐसा नहीं है कि गीता का ज्ञान सबसे पहले उन्होंने अर्जुन को ही दिया, इससे पहले भी यह ज्ञान वे सूर्य को दे चुके हैं, सूर्य ने मनु को दिया, मनु ने इक्ष्वाकु को दिया, इस तरह कई लोगों को यह ज्ञान प्राप्त हुआ, फिर अर्जुन को मिला।
इस तरह श्लोक छ: से लेकर दस श्लोक तक श्रीभगवान ने अपना वर्णन किया। श्रीभगवान के क्या-क्या गुण हैं? क्या-क्या शक्तियाँ हैं? आदि। आगे के श्लोकों में हम कर्म को समझेंगे कि कर्म क्या है? कहते हैं न कि कर्म का सिद्धान्त बहुत ही गहन होता है।
पिछले सप्ताह हमने दस श्लोकों का विवेचन पूर्ण कर लिया था। आज ग्यारहवें श्लोक से प्रारम्भ करेंगे।
प्रारम्भ करने से पहले चौथे अध्याय का नाम क्या है, यह कौन बताएगा?
सामी दीदी- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग।
एक छोटा-सा प्रश्न और है- चौथे अध्याय में कुल कितने श्लोक हैं?
उत्तर- बयालीस।
प्रारम्भ के श्लोकों में हमने देखा था कि श्रीभगवान अर्जुन को बता रहे हैं, ऐसा नहीं है कि गीता का ज्ञान सबसे पहले उन्होंने अर्जुन को ही दिया, इससे पहले भी यह ज्ञान वे सूर्य को दे चुके हैं, सूर्य ने मनु को दिया, मनु ने इक्ष्वाकु को दिया, इस तरह कई लोगों को यह ज्ञान प्राप्त हुआ, फिर अर्जुन को मिला।
इस तरह श्लोक छ: से लेकर दस श्लोक तक श्रीभगवान ने अपना वर्णन किया। श्रीभगवान के क्या-क्या गुण हैं? क्या-क्या शक्तियाँ हैं? आदि। आगे के श्लोकों में हम कर्म को समझेंगे कि कर्म क्या है? कहते हैं न कि कर्म का सिद्धान्त बहुत ही गहन होता है।
4.11
ये यथा मां(म्) प्रपद्यन्ते, तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते, मनुष्याः(फ्) पार्थ सर्वशः॥11॥
हे पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि जो भक्त जिस भाव से मेरी शरण लेता है, मैं भी उसे उसी भाव से आश्रय देता हूॅं। जैसे भक्त श्रीभगवान को गुरु मानता है तो वे श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं, माता वात्सल्य से लड्डू गोपाल को पुत्रवत् मान लेती है तो वे भी पुत्रवत् हो जाते हैं, कोई मित्र बना लेता है, तो वे मित्र बन जाते हैं, अर्थात् हम जिस भी भाव से श्रीभगवान को भजते हैं, श्रीभगवान भी उसी भाव से स्वीकार कर लेते हैं।
एक बार की बात है भगवान श्रीकृष्ण गहरे ध्यान में डूबे हए थे, अर्जुन ने पूछा कि हे माधव! आप किसके ध्यान में खोए हुए थे, जो बार-बार मेरे द्वारा आपको पुकारने पर भी सुन नहीं रहे थे, तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मेरा ध्यान करते हैं, मैं भी उनका ध्यान करता हूॅं।
गजेन्द्र मोक्ष की एक कहानी है। एक गजेन्द्र नाम का बहुत ही सुन्दर व शक्तिशाली हाथी था। बहुत सारी हथिनियाँ उससे प्रेम करती थी, उनके कई छोटे-छोटे बच्चे भी थे। एक दिन सभी नहाने जा रहे थे। गजेन्द्र ने सभी हथिनियों से सभी बच्चों का ध्यान रखने के लिए कहा, क्योंकि तालाब में मगरमच्छ बहुत थे। तालाब के बीचों-बीच बहुत सारे कमल के पुष्प खिले हुए थे। जिन्हें देखकर बच्चे माता हथिनी से हठ करने लगे कि हमें कमल के पुष्प ही चाहिए। बच्चों की इच्छा पूरी करने के लिए हथिनी ने गजेन्द्र से कहा कि आप तो शक्तिशाली हो और हम सभी आपकी सहायता करेंगे, आप जाकर कमल के पुष्प ले आइए। सभी ने एक दूसरे को सूण्ड़ से जकड़ लिया ताकि कोई सङ्कट हो तो सभी मिलकर गजेन्द्र को खींच लेंगे, लेकिन जैसे ही गजेन्द्र फूलों के पास पहुॅंचता है तो मगरमच्छ आकर मजबूती से गजेन्द्र के पैर को अपने जबड़े में जकड़ लेता है। हथिनी और सभी बच्चे सूण्ड से खींचते हैं लेकिन छुड़ा नहीं पाते और एक-एक कर सभी गजेन्द्र को अकेला छोड़कर चले जाते हैं। गजेन्द्र विचार करने लगता है कि जिन बच्चों व हथिनियों के लिए वह पुष्प लेने आया था, सङ्कट पड़ने पर सभी ने साथ छोड़ दिया। इस पुष्प को श्रीभगवान को अर्पण करते हुए वह आर्त भाव से उनको पुकारता है। वही आर्त भाव से निकला स्त्रोत गजेन्द्र मोक्ष कहलाता है। श्रीभगवान उसकी आर्त पुकार सुन कर तुरन्त ही प्रकट हो जाते हैं और उसे सङ्कट से मुक्ति दिलाते हैं।
एक बार की बात है भगवान श्रीकृष्ण गहरे ध्यान में डूबे हए थे, अर्जुन ने पूछा कि हे माधव! आप किसके ध्यान में खोए हुए थे, जो बार-बार मेरे द्वारा आपको पुकारने पर भी सुन नहीं रहे थे, तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि जो मेरा ध्यान करते हैं, मैं भी उनका ध्यान करता हूॅं।
गजेन्द्र मोक्ष की एक कहानी है। एक गजेन्द्र नाम का बहुत ही सुन्दर व शक्तिशाली हाथी था। बहुत सारी हथिनियाँ उससे प्रेम करती थी, उनके कई छोटे-छोटे बच्चे भी थे। एक दिन सभी नहाने जा रहे थे। गजेन्द्र ने सभी हथिनियों से सभी बच्चों का ध्यान रखने के लिए कहा, क्योंकि तालाब में मगरमच्छ बहुत थे। तालाब के बीचों-बीच बहुत सारे कमल के पुष्प खिले हुए थे। जिन्हें देखकर बच्चे माता हथिनी से हठ करने लगे कि हमें कमल के पुष्प ही चाहिए। बच्चों की इच्छा पूरी करने के लिए हथिनी ने गजेन्द्र से कहा कि आप तो शक्तिशाली हो और हम सभी आपकी सहायता करेंगे, आप जाकर कमल के पुष्प ले आइए। सभी ने एक दूसरे को सूण्ड़ से जकड़ लिया ताकि कोई सङ्कट हो तो सभी मिलकर गजेन्द्र को खींच लेंगे, लेकिन जैसे ही गजेन्द्र फूलों के पास पहुॅंचता है तो मगरमच्छ आकर मजबूती से गजेन्द्र के पैर को अपने जबड़े में जकड़ लेता है। हथिनी और सभी बच्चे सूण्ड से खींचते हैं लेकिन छुड़ा नहीं पाते और एक-एक कर सभी गजेन्द्र को अकेला छोड़कर चले जाते हैं। गजेन्द्र विचार करने लगता है कि जिन बच्चों व हथिनियों के लिए वह पुष्प लेने आया था, सङ्कट पड़ने पर सभी ने साथ छोड़ दिया। इस पुष्प को श्रीभगवान को अर्पण करते हुए वह आर्त भाव से उनको पुकारता है। वही आर्त भाव से निकला स्त्रोत गजेन्द्र मोक्ष कहलाता है। श्रीभगवान उसकी आर्त पुकार सुन कर तुरन्त ही प्रकट हो जाते हैं और उसे सङ्कट से मुक्ति दिलाते हैं।
काङ्क्षन्तः(ख्) कर्मणां(म्) सिद्धिं(म्), यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं(म्) हि मानुषे लोके, सिद्धिर्भवति कर्मजा॥12॥
कर्मों की सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।
विवेचन- कर्मों की सिद्धि के लिए मनुष्य अलग-अलग देवताओं की उपासना करते हैं, जैसे धन प्राप्ति के लिए लक्ष्मी जी की, शक्ति के लिए दुर्गा जी की व हनुमान जी की, अग्नि देवता, वरुण देवता आदि की अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए उपासना करते हैं। श्रीभगवान कहते हैं कि यह तो ठीक है, लेकिन इनकी पूजा के साथ-साथ श्रीभगवान की पूजा भी करनी चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों ही भगवान हैं, शेष सभी देव हैं।
श्रीभगवान की भक्ति हमें केवल अपनी कामना पूर्ति के लिए नहीं अपितु हमारे अन्दर सद्गुणों की वृद्धि हो एवं सारे विकार दूर हो जाएँ, इस भाव से करनी चाहिए। श्रीभगवान की भक्ति में हमारी बुद्धि लगी रहे, हमें ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए।
श्रीभगवान की भक्ति हमें केवल अपनी कामना पूर्ति के लिए नहीं अपितु हमारे अन्दर सद्गुणों की वृद्धि हो एवं सारे विकार दूर हो जाएँ, इस भाव से करनी चाहिए। श्रीभगवान की भक्ति में हमारी बुद्धि लगी रहे, हमें ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए।
चातुर्वर्ण्यं(म्) मया सृष्टं(ङ्), गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां(म्), विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥13॥
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस(सृष्टि रचना आदि) का कर्ता होने पर भी तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो।
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि इस सृष्टि में मेरे द्वारा गुण और कर्म के अनुसार वर्णों की रचना ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इन चार रूपों में की गई है। इनका विभाजन कर्मों के अनुसार किया गया है, जैसे जिन्हें ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा हो वे ब्राह्मण, वीरता पूर्ण कार्यों में जिनकी रुचि हो वे क्षत्रिय, जिन्हें व्यवसाय में रुचि हो वे वैश्य एवं जो सेवा करने का भाव रखते हैं, वे शूद्र कहलाये। इनमें कहीं भी किसी वर्ण को श्रेष्ठ या निम्न नहीं कहा गया है। सभी वर्ण समान हैं।
जैसे हम कोई परीक्षा देने जाते हैं तो उसके लिए कुछ आवश्यक योग्यताएँ होना आवश्यक है। वैसे ही इन वर्णों के लिए भी जिसमें जो योग्यता है, उसके अनुसार ही उसका वर्ण है।त्र
जैसे हम कोई परीक्षा देने जाते हैं तो उसके लिए कुछ आवश्यक योग्यताएँ होना आवश्यक है। वैसे ही इन वर्णों के लिए भी जिसमें जो योग्यता है, उसके अनुसार ही उसका वर्ण है।त्र
न मां(ङ्) कर्माणि लिम्पन्ति, न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां(म्) योऽभिजानाति, कर्मभिर्न स बध्यते॥14॥
कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि कर्त्ता होते हुए भी मैं अकर्त्ता हूॅं, सम्पूर्ण कर्मों को करते हुए भी मैं उन कर्मों से सर्वथा निर्लिप्त हूँ, क्योंकि कर्म फल में मेरी कोई स्पृहा नहीं है, मुझे कर्म लिप्त नहीं करते और इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह फिर कर्मों में नहीं बँधता।
एवं(ञ्) ज्ञात्वा कृतं(ङ्) कर्म, पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं(म्), पूर्वैः(फ्) पूर्वतरं(ङ्) कृतम्॥15॥
पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर कर्म किये हैं, इसलिये तू भी पूर्वजों के द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही (उन्हीं की तरह) कर।
विवेचन- श्रीभगवान अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! जो पूर्व काल में मुमुक्षु था, (अर्थात् मोक्ष की इच्छा रखने वाला) जिसने श्रीभगवान के परमधाम को प्राप्त कर लिया हो, वह जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त होने वाला है। मोक्ष उन्हें ही प्राप्त होता है जिनके पाप एवं पुण्य शून्य हो जाते हैं, अर्थात् सम हो जाते हैं। यहाँ श्रीभगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि तुम्हारे पूर्वजों ने पूर्व काल में जो कर्म किए हैं, तुम भी उनकी तरह उनके कर्मों का अनुसरण करो।
अभी तक तो हमने कर्मों को जाना कि कर्म क्या हैं, कर्त्ता भाव को जान लिया, कर्म फल से विमुक्त होना जान लिया। कर्मों को और भी अधिक सूक्ष्म रूप में हम सोलहवें श्लोक से समझेंगे।
अभी तक तो हमने कर्मों को जाना कि कर्म क्या हैं, कर्त्ता भाव को जान लिया, कर्म फल से विमुक्त होना जान लिया। कर्मों को और भी अधिक सूक्ष्म रूप में हम सोलहवें श्लोक से समझेंगे।
किं(ङ्) कर्म किमकर्मेति, कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि, यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥16॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है - इस प्रकार इस विषय में विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अतः वह कर्म-तत्त्व मैं तुम्हें भली भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ (संसार-बन्धन) से मुक्त हो जायगा।
विवेचन- इस श्लोक में श्रीभगवान बता रहे हैं कि कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में विद्वान अर्थात् ज्ञानीजन भी मोहित हो जाते हैं। ज्ञानीजन भी इनमें फँस जाते हैं और त्रुटियाँ कर देते हैं। श्रीभगवान कहते हैं कि कर्म, अकर्म और विकर्म इन तीनों को मैं भली-भाँति कहूँगा, जिन्हें जानकर तुम इस संसार बन्धन से मुक्त हो जाओगे, अर्थात् तुम्हें मोक्ष मिल जाएगा।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं(म्), बोद्धव्यं(ञ्) च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं(ङ्), गहना कर्मणो गतिः॥17॥
कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है।
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि हमें कर्म को भी जानना चाहिए, अकर्म को भी जानना चाहिए तथा विकर्म को भी अच्छे से जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति अत्यन्त गहन होती है। जीवन में कुछ चीजें ऐसी घटित होती हैं कि हमें पता भी नहीं होता और वह पाप हमसे हो जाता है, जैसे हम चलते हैं तो अनजाने में अनेक सूक्ष्म जीव हमारे पैरों से दबकर मर जाते हैं।
कर्म- वही होते हैं जो कार्य हम करते हैं। फल की इच्छा से किया गया कार्य, कर्म कहलाता है।
अकर्म- अर्थात् वह कार्य जिसमें फल की इच्छा नहीं रहती, परिणाम चाहे कुछ भी हो हमने अपना कर्म पूर्ण निष्ठा से किया है, समर्पित भाव से किया है, यही अकर्म है।
विकर्म- जो कार्य हमें नहीं करना चाहिए। जैसे झूठ नहीं बोलना चाहिये, निन्दा नहीं करनी चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए आदि। सभी बुरे कार्य विकर्म कहलाते हैं।
कर्म- वही होते हैं जो कार्य हम करते हैं। फल की इच्छा से किया गया कार्य, कर्म कहलाता है।
अकर्म- अर्थात् वह कार्य जिसमें फल की इच्छा नहीं रहती, परिणाम चाहे कुछ भी हो हमने अपना कर्म पूर्ण निष्ठा से किया है, समर्पित भाव से किया है, यही अकर्म है।
विकर्म- जो कार्य हमें नहीं करना चाहिए। जैसे झूठ नहीं बोलना चाहिये, निन्दा नहीं करनी चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए आदि। सभी बुरे कार्य विकर्म कहलाते हैं।
कर्मण्यकर्म यः(फ्) पश्येद्, अकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु, स युक्तः(ख्) कृत्स्नकर्मकृत्॥18॥
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है, योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में भी कर्म देखता है, पूर्ण निष्ठा एवं श्रेष्ठ भाव के साथ कार्य करता है एवं वह कार्य श्रीभगवान को समर्पित कर देता है तो वह बुद्धिमान है, योगी है और सम्पूर्ण कर्म को करने वाला है।
यस्य सर्वे समारम्भाः(ख्), कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं(न्), तमाहुः(फ्) पण्डितं(म्) बुधाः॥19॥
जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानीजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि जिसके सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ सङ्कल्प और कामना रहित होते हैं, उसके सारे कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में जल जाते हैं। इस ज्ञान रूपी अग्नि से सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् कर्मों में फल देने या बाँधने की शक्ति नहीं रहती है।
बच्चों से कुछ प्रश्न पूछे गये-
प्रश्न- कर्म, अकर्म और विकर्म को कौन समझाएगा?
उत्तर-
कर्म- वह कर्म जिसे फल की इच्छा से किया जाता है।
अकर्म- वह कर्म जिसे फल की इच्छा से नहीं किया जाता है, उसे श्रीभगवान को समर्पित करने के भाव से किया जाता है।
विकर्म- सभी बुरे कार्य।
प्रश्न- पुनर्जन्म क्यों होता है?
उत्तर-(अयांश भैया) क्योंकि पिछले जन्मों में हमने अच्छे कार्य नहीं किए और हमें मोक्ष नहीं मिला इसलिए पुनर्जन्म होता है। हमारे अच्छे और बुरे कार्यों को योग जब तक शून्य अर्थात् सम नहीं हो जाता तब तक मोक्ष नहीं मिलता और यह जीवन-मृत्यु का चक्र चलता रहता है।
प्रश्न- हमारे जीवन का अन्तिम उद्देश्य क्या होना चाहिए?
उत्तर- मनस्वी दीदी- मोक्ष प्राप्ति।
आदि भैया- भगवद् प्राप्ति।
प्रश्न-हम तीन गुणों से पार कैसे हो पाएँगे ?
उत्तर- अमीषा दीदी- अच्छे कार्य करके, जैसे प्रतिदिन पूजा करना, बुराई का त्याग करना, हमारे अन्दर सद्गुणों का विकास करना आदि के माध्यम से हम तीन गुणों से पार हो पाएँगे।
प्रश्न- पुनर्जन्म कष्ट कारक क्यों होता है?
उत्तर- अयांश भैया- पुनर्जन्म कष्ट कारक इसलिए होता है क्योंकि पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम हमें मिलता है।
हरि नाम के सङ्कीर्तन के साथ ही आज के विवेचन सत्र का समापन हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र का आरम्भ हुआ।
प्रश्नकर्ता- अविशा दीदी
प्रश्न- श्रीकृष्ण तो भगवान हैं फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के पैर में तीर लगने से मृत्यु क्यों हुई थी?
उत्तर- भगवान श्रीकृष्ण अवतार रूप में प्रकट हुए थे अतः किसी न किसी माध्यम के द्वारा तो उनको मृत्यु को प्राप्त होना ही था। वे अपनी अवतार लीला को पूर्ण करते समय अन्तरर्ध्यान न होकर सामान्य मनुष्य के रूप में ही मृत्यु को प्राप्त हुए।
प्रश्नकर्ता- आदि दीदी
प्रश्न- अपनी पराजय के भय को किस प्रकार दूर करना चाहिए?
उत्तर- जब हमें श्रीभगवान पर पूर्ण विश्वास होता है तो हमें कभी भी डर नहीं लगता है और जब हम गीता पढ़ रहे हैं तो हमें सदैव अभय रहना चाहिए। हमें अपने कर्मों पर ध्यान लगाना चाहिए और परिणाम की चिन्ता नहीं करनी चाहिए उसे श्रीभगवान पर छोड़ देना चाहिए।
बच्चों से कुछ प्रश्न पूछे गये-
प्रश्न- कर्म, अकर्म और विकर्म को कौन समझाएगा?
उत्तर-
कर्म- वह कर्म जिसे फल की इच्छा से किया जाता है।
अकर्म- वह कर्म जिसे फल की इच्छा से नहीं किया जाता है, उसे श्रीभगवान को समर्पित करने के भाव से किया जाता है।
विकर्म- सभी बुरे कार्य।
प्रश्न- पुनर्जन्म क्यों होता है?
उत्तर-(अयांश भैया) क्योंकि पिछले जन्मों में हमने अच्छे कार्य नहीं किए और हमें मोक्ष नहीं मिला इसलिए पुनर्जन्म होता है। हमारे अच्छे और बुरे कार्यों को योग जब तक शून्य अर्थात् सम नहीं हो जाता तब तक मोक्ष नहीं मिलता और यह जीवन-मृत्यु का चक्र चलता रहता है।
प्रश्न- हमारे जीवन का अन्तिम उद्देश्य क्या होना चाहिए?
उत्तर- मनस्वी दीदी- मोक्ष प्राप्ति।
आदि भैया- भगवद् प्राप्ति।
प्रश्न-हम तीन गुणों से पार कैसे हो पाएँगे ?
उत्तर- अमीषा दीदी- अच्छे कार्य करके, जैसे प्रतिदिन पूजा करना, बुराई का त्याग करना, हमारे अन्दर सद्गुणों का विकास करना आदि के माध्यम से हम तीन गुणों से पार हो पाएँगे।
प्रश्न- पुनर्जन्म कष्ट कारक क्यों होता है?
उत्तर- अयांश भैया- पुनर्जन्म कष्ट कारक इसलिए होता है क्योंकि पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम हमें मिलता है।
हरि नाम के सङ्कीर्तन के साथ ही आज के विवेचन सत्र का समापन हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र का आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर सत्र
प्रश्नकर्ता- अविशा दीदी
प्रश्न- श्रीकृष्ण तो भगवान हैं फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के पैर में तीर लगने से मृत्यु क्यों हुई थी?
उत्तर- भगवान श्रीकृष्ण अवतार रूप में प्रकट हुए थे अतः किसी न किसी माध्यम के द्वारा तो उनको मृत्यु को प्राप्त होना ही था। वे अपनी अवतार लीला को पूर्ण करते समय अन्तरर्ध्यान न होकर सामान्य मनुष्य के रूप में ही मृत्यु को प्राप्त हुए।
प्रश्नकर्ता- आदि दीदी
प्रश्न- अपनी पराजय के भय को किस प्रकार दूर करना चाहिए?
उत्तर- जब हमें श्रीभगवान पर पूर्ण विश्वास होता है तो हमें कभी भी डर नहीं लगता है और जब हम गीता पढ़ रहे हैं तो हमें सदैव अभय रहना चाहिए। हमें अपने कर्मों पर ध्यान लगाना चाहिए और परिणाम की चिन्ता नहीं करनी चाहिए उसे श्रीभगवान पर छोड़ देना चाहिए।