विवेचन सारांश
वृक्षरूपी संसार की संरचना

ID: 6930
हिन्दी
रविवार, 04 मई 2025
अध्याय 15: पुरुषोत्तमयोग
1/2 (श्लोक 1-5)
विवेचक: गीता प्रवीण ज्योति जी शुक्ला


राष्ट्र वन्दना, कर्णप्रिय मधुराष्टक, श्रीहनुमान चालीसा पाठ के साथ दीप प्रज्ज्वलन करते हुये आज के सत्र का शुभारम्भ हुआ। बच्चों को उत्साहित करके उन्हें एकाग्रचित्त करने हेतु उनकी कुशलता पूछी गयी जिसका लगभग सभी बच्चों ने उत्तर दिया। इससे कक्षा के प्रति बच्चों के लगाव का पता चला। उन्हें यह बताया गया कि श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने से उन्हें बहुत अच्छे अनुभव प्राप्त होंगे।

अभी तक सभी ने बारहवाँ अध्याय पढ़ा।

प्रश्न : बारहवें अध्याय में कितने श्लोक हैं?
उत्तर : बीस (20)

प्रश्न : बारहवें अध्याय का नाम क्या है-
पुरुषोत्तमयोग/ भक्तियोग/ कर्मयोग/ साङृख्ययोग।
उत्तर : नवासी प्रतिशत (89%) बच्चों ने 'भक्तियोग' बताया।

इन सभी बच्चों का उत्साहवर्धन किया गया और जिनके उत्तर ठीक नहीं थे उन्हें और ध्यान देने के लिये कहा गया।

भक्तियोग में हमने भक्त के लक्षण देखे, सगुण एवम् निर्गुण उपासक के बारे में पढ़ा। अगर हमें ईश्वर का प्रिय बनना है तो हमें स्वयं में किन गुणों की वृद्धि करनी है? यह हमें इस अध्याय में ज्ञात होता है। जिस प्रकार हमें अपनी कक्षाध्यापिका (Class teacher) का प्रिय बनने हेतु कई अच्छे कार्य करने पड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार ईश्वर का प्रिय बनने हेतु भी हमें कई अच्छे कार्य करने पड़ते हैं। यह सब हमने बारहवें अध्याय में देखा था।

प्रश्न : हमने बारहवें अध्याय में भक्त के कितने लक्षण देखे थे?
उत्तर : उनतालीस (39)।

हमने प्रश्नोतरी की थी, जिसमें सभी बच्चों ने भाग लिया था। सभी के अच्छे अङ्क आये थे। बारहवें अध्याय में भक्त (devotee) के सारे लक्षण हमने देखे थे। आज हम पन्द्रहवाँ अध्याय देखेंगे जिसका नाम है- 

पुरुषोतमयोग

पुरुषोत्तम का अर्थ है-
पुरुषों में उत्तम अर्थात् सबसे अच्छा, ज्ञान से परिपूर्ण। हमें अपने जीवन में उत्तम बनने के लिये क्या करना चाहिए? यह हम इस अध्याय में देखेंगे। उत्तम बनने हेतु हमें सारे कार्य भी उत्तम ही करने पड़ते हैं। यहाँ तक कि हमारा नाम भी चयन करके उत्तम ही रखा जाता है। क्या आपने कभी किसी का नाम शूर्पणखा सुना है? रावण सुना है? नहीं! सभी लोग राम, श्याम, सीता, गीता, ये नाम रखते हैं, क्योंकि हम जब अच्छा देखते हैं तो हमारे मस्तिष्क में अच्छे विचार आते हैं और वैसे ही हमारे कार्य भी होते हैं।
हमारे विचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

आप मोबाइल या टीवी पर जो दिनभर देखेंगे वैसा ही विचार करने लगेंगे‌ इसलिये जो भी देखें अर्थपूर्ण और अच्छा देखें। आप सभी को सावधानीपूर्वक इस अध्याय के श्लोकों को सुनना होगा, क्योंकि पुरुषोत्तम बनने के गुणों को समझना थोड़ा कठिन हो सकता है।

यहाँ श्रीभगवान् बताते हैं कि यह संसार कैसा है?
जब तक हम संसार की संरचना (Structure) को नहीं समझेंगे तब तक हम यह नहीं समझ सकेंगे कि यहाँ रहना कैसे है?

मान लीजिये हम जिस घर में रहते हैं, उसकी संरचना हमें ज्ञात नहीं है तो हमें उस में रहने में कठिनाई होगी। इसी प्रकार से जिस संसार में हम रहते हैं यदि उसका ज्ञान हमें नहीं होगा तो हम ईश्वर तक नहीं पहुँच पायेंगे। फिर पुरुषोतम भी नहीं बन पायेंगे। 
 
इस अध्याय में श्रीभगवान् ने इस गहरे ज्ञान को एक वृक्ष (Tree) के माध्यम से समझाया है जो कि उल्टा है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और पत्तियाॅं नीचे की ओर हैं। इसे समझने के लिये आप एक पन्ने पर वृक्ष का चित्र बनाइए और उसे उलट कर देखिये। अभी आपको जैसा वृक्ष दिखायी देता है वैसा ही श्रीभगवान् हमें संसार वृक्ष के बारे में बताते हैं।

प्रश्न : आप सब वृक्ष के बारे में क्या जानते हैं?
उत्तर : पत्तियाँ, जड़, तना, शाखायें, फूल, फल।

सभी बच्चों ने शीघ्रता से उत्तर दिये।

प्रश्न : हम वृक्ष के कौन-कौन से भाग खाते हैं?
उत्तर : मटर-बीज के रूप में खाते हैं।

प्रश्न : किस-किस वृक्ष की पत्तियों को खाते हैं?
उत्तर : नीम, तुलसी, पालक, मेथी, पुदीना।

प्रश्न : फूल कौन सा खाते हैं?
उत्तर : फूलगोभी।

प्रश्न : फल कौन से खाते हैं?
उत्तर : सेब, केला इत्यादि।

प्रश्न : जड़ कौन-कौन सी खाते हैं?
उत्तर : आलू, गाजर, मूली, शलजम।

पेड़ की लकड़ी घर बनाने के कार्य में आती है। अर्जुन ने पूछा कि यह संसार कैसा है? तो श्रीभगवान् ने उन्हें बताया कि उल्टे वृक्ष जैसा, जिसकी जड़ें आकाश की ओर तथा शाखाएँ भूमि की ओर हैं।

15.1

श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः(श्) शाखम्, अश्वत्थं(म्) प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि, यस्तं(व्ँ) वेद स वेदवित्॥15.1॥

श्रीभगवान् बोले – ऊपर की ओर मूल वाले (तथा) नीचे की ओर शाखा वाले (जिस) संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को (प्रवाह रूप से) अव्यय कहते हैं (और) वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार-वृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है।

विवेचन- श्रीभगवान् प्रारम्भ के दो श्लोकों में संसार की मूल संरचना के बारे में बताते हैं।

यह संसार वृक्षरूपी है, जिसकी जड़ें (roots) ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ तथा पत्तियाँ नीचे की ओर हैं।

अश्वत्थ के दो अर्थ हैं-
एक पीपल का वृक्ष तथा दूसरा निरन्तर परिवर्तनशील। (Continuous changing) यह संसार निरन्तर बदलता रहता है। नदी का जल निरन्तर बहता रहता है। यदि हम उसमें डुबकी लगाने जाते हैं तो हम एक ही जल में पुनः डुबकी नहीं लगा सकते, क्योंकि एक बार हमने जिस जल में डुबकी लगायी थी वह जलधारा तो आगे निकल गयी है।

पीपल का पत्ता सबसे ज्यादा अस्थिर होता है। जब वातावरण में वायु का बहाव नहीं भी होता है, तब भी पीपल का पत्ता हल्का-हल्का हिलता ही रहता है।

दो वस्तु-
एक तो पीपल का पत्ता और हमारा मन दोनों ही अति चञ्चल होते हैं। हम बैठे-बैठे ही अपने मन के द्वारा कहीं भी पहुँच सकते हैं। आप जहाँ जाने के बारे में सोचते हैं, शीघ्रता से हमारा मन उस स्थान की कल्पना करने लगता है।

मान लीजिए आपसे आपकी आयु पूछी जाये और आप बतायें कि मैं बारह साल, चार महीने, सात दिन और बारह घण्टे का हूँ। एक घण्टे के बाद पूछने पर आपकी आयु बारह साल, चार महीने, सात दिन और तेरह घण्टे हो जायेंगे अर्थात् आपकी आयु में भी प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है

सभी वस्तुएँ निरन्तर परिवर्तित हो रही हैं।
कुछ भी स्थिर नहीं है,
इसलिए पीपल के पत्ते से संसार की तुलना की गयी है।

 प्राहुरव्ययम्- अव्ययम् का अर्थ है जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता।

आप सभी इस कागज़ के टुकड़े को देखें। आप इसे कितने समय में नष्ट कर दोगे? यदि इसे जलाकर नष्ट करना चाहें तो भी इसकी राख बच ही जायेगी। इसका मात्र रूप परिवर्तित होगा। श्वेत कागज़ पत्र से राख में इसका रूप परिवर्तित होगा। इसी प्रकार से यह संसार अविनाशी है।

ब्रह्माजी इस वृक्ष का तना हैं और इसके पर्ण अर्थात्‌ पत्ते वेद हैं। जिस प्रकार हम वृक्ष के पत्तों को नहीं गिन सकते हैं उसी प्रकार से वेदों का ज्ञान भी अनन्त है। जो व्यक्ति इनकी संरचना को समझ लेता है, वह वेदवित् कहलाता है।

पाँच अन्धों की कथा।
 
एक शिक्षक के पास पाँच अन्धे छात्र रहते थे। शिक्षक ने एक दिन उनको बताया कि वे एक हाथी देख कर आ रहें हैं। उन अन्धों ने भी हाथी को देखना चाहा। महावत को बुला कर, उनको हाथी देखने भेज दिया गया। वो देख तो पाते नहीं थे। सभी ने छूकर अनुभव किया। एक ने हाथी की पूँछ पकड़ ली और बोलने लगा कि हाथी तो रस्सी जैसा है। एक ने सूँड़ पकड़ ली तो उसने कहा, हाथी साँप जैसा है। एक ने पैर पकड़ लिया तो बोला हाथी तो खम्भे जैसा है, एक अन्धा थोड़ा क़द में छोटा था, हाथी के नीचे जाकर पेट का स्पर्श कर के बोला, हाथी छत की तरह है, एक अन्धा लम्बा था तो हाथी के कान का स्पर्श कर के बोला हाथी सूप जैसा (अनाज फटकने वाला उपकरण) जैसा है।

शिक्षक ने पूछा हाथी कैसा था?
एक ने बताया- रस्सी जैसा, एक ने बताया- खम्भे जैसा, एक ने बताया- छत के जैसा, एक ने सर्प के जैसा बताया। सभी अपने को सही मान कर लड़ने लगे। जीवन में भी ऐसा ही होता है। हम जितना जानते है उतना ही सही मानते हैं। शिक्षक ने कहा, तुम सभी सही हो। तुम सबने पूरा हाथी नहीं देखा, एक-एक हिस्से को देखा है।

हमें पूर्ण ज्ञान अर्जित करना है। जब हम गीता जी पढ़ेंगे तो हमें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जायेगा।

15.2

अधश्चोर्ध्वं(म्) प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।2।।

उस संसार वृक्ष की गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई (तथा) विषय रूप कोंपलों वाली शाखाएँ नीचे, (मध्य में) और ऊपर (सब जगह) फैली हुई हैं। मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाले मूल (भी) नीचे और (ऊपर) (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।

विवेचन- हमने पहले श्लोक में उल्टे वृक्ष की संरचना को समझा। क्या आपने वास्तविकता में ऐसा वृक्ष देखा है? नहीं, क्योंकि वास्तव में ऐसा वृक्ष नहीं होता है।

इस वृक्ष में सबसे ऊपर जड़ में श्रीभगवान् हैं। उसके तने में ब्रह्मा जी हैं जो संसार को सम्भाले हुये हैं, फिर पत्तियाँ (ज्ञान) हैं। ज्ञान ईश्वर के बाद ही आता है इसलिये ईश्वर से नीचे है।

सामान्य वृक्ष जल और उर्वरक से बढ़‌ता है किन्तु यह वृक्ष- सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों से बढ़ता है।


सत्त्व का अर्थ है - Goodness,
रज का अर्थ है - activeness.
तम का अर्थ है - Badness.

यह संसार इन तीन गुणों से बढ़ता है। इन तीनों गुणों की आवश्यकता और महत्त्व होता है। अगर हममें सात्त्विक व राजासिक गुण ही होंगे तो हम सो नहीं पायेंगे क्योंकि सोना तामसिक गुण है।

संसार की वृद्धि इन तीनों गुणों के संयोग से होती है। यदि इन तीनों में से कोई एक गुण भी न हो तो संसार सुचारू रूप से नहीं चल पायेगा।

इन तीनों गुणों के संयोग से तीन योनियों का निर्माण होता है-

देव योनि, मनुष्य योनि तथा तिर्यक् योनि।
हम मनुष्य योनि में हैं। हमसे ऊपर देवयोनि तथा हमसे नीचे तिर्यक् योनि होती हैं। तिर्यक् योनि में जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़े आते हैं।

अहंता, ममता, वासना-
ये भावनाएँ हैं, जिनके कारण हम संसार में संलग्न (attach) हो जाते हैं। हमारे हृदय में 'यह मेरा है' की भावना इन्हीं के कारण आती है। यह भावना सम्पूर्ण संसार में फैली हुई होती है। अहङ्कार की भावना, आकाङ्क्षा (desire) प्रेम, मोह ये सब इन्हीं के कारण है।

इनके मोह से बाहर आने के लिये हमें ईश्वर को समझना होगा, ज्ञान अर्जित करना होगा तभी हम ईश्वर को प्राप्त कर सकेंगे।

15.3

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं(म्) सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।3।।

इस संसार वृक्ष का (जैसा) रूप (देखने में आता है), वैसा यहाँ (विचार करने पर) मिलता नहीं; (क्योंकि इसका) न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्गता रूप शस्त्र के द्वारा काटकर –

विवेचन- यहाँ श्रीभगवान् अर्जुन से कह रहे हैं, यह मत समझना कि जैसा मैंने बताया, वैसा ही यह संसार है। यह तो मैंने केवल तुम्हें कुछ अनुमान (idea) लगे इसलिये समझाने के लिए संसार को उल्टा वृक्ष बताया है। यह केवल एक कल्पना (imagination)है। ऐसा न हो कि कल हम उद्यान (park) में जाकर इसे ढूँढने लगें।

हमने अभी संसार की रचना (structure) थोड़ी-थोड़ी समझ ली।
सबसे ऊपर श्रीभगवान् हैं।
फिर ब्रह्माजी हैं,
फिर देव हैं तथा
फिर मनुष्य हैं।

तीन गुण होते हैं जिनसे हम सारे कार्य (activities) कर पाते हैं। इन तीन गुणों के कारण ही हम संसार में रह पाते हैं। अगर गुण नहीं होंगे तो हम आधे काम तो कर ही नहीं पाएँगे।

श्रीभगवान् ने हमें बताया है कि संसार का न तो आदि (starting point) है, न अन्त (ending ) है। किसी को भी नहीं पता होता है कि संसार का आरम्भ कब हुआ था या यह कब बना था और कब नष्ट (destroy) होगा?

यह बात हमें किसी पुस्तक (book) में भी नहीं मिलेगी। हम यह नहीं जानते हैं इसलिये श्रीभगवान् हमें बता रहे हैं। श्रीभगवान् बताते हैं कि हमारे साथ बहुत सारी इच्छाएँ, आसक्तियाँ (attachments) होती हैं जैसे ‘यह मेरी कॉपी है, यह मेरा पेन है, यह मेरी फ्रॉक (dress) है’ आदि। हम जो ‘मेरा-मेरा' करते हैं इसका अर्थ है कि हम उन चीजों के प्रति आसक्त (attached) हैं। हमें धीरे-धीरे इन्हें कम करना है। हम इन्हें दूर कैसे करेंगे? वह जब श्रीभगवान् से जुड़ते जाएँगे तो यह धीरे-धीरे कम होगा। यह वैराग्य के शस्त्र (weapon) से दूर होगा।

वैराग्य का अर्थ है किसी वस्तु को छोड़ देना।
वैराग्य रूपी शस्त्र से हम आसक्ति से छूट सकते हैं।

मान लीजिए हमारे अन्दर कोई बुरी आदत है और हमें वह कार्य करना अच्छा लगता है तो इसका अर्थ यही है कि हम उससे आसक्त (attached) हैं। अगर हम चाहें कि इस बुरी आदत को छोड़ देंगे, कल से यह कार्य नहीं करेंगे तो एकदम से वह आदत नहीं छूटेगी, किन्तु धीरे-धीरे छूट जाएगी।

अध्याय के अन्त में हमारा आनन्दोत्सव भी होगा। उसमें हम सब एक पुरानी और बुरी आदत छोड़ने और एक नयी अच्छी आदत का सङ्कल्प (resolution) ले सकते हैं, जैसे हम अगर बहुत देर तक सोते हैं, टीवी बहुत देखते हैं, फोन बहुत चलाते हैं या बहुत अधिक खेलते हैं। हमें ऐसा नहीं करना है। पढ़ाई (study) के समय पढ़ाई, खेल के समय खेल, टीवी के समय टीवी, इसका अर्थ है कि जिस समय जो काम करना है, उस समय वही काम करना चाहिए। अगर हम पढ़ने के समय खेल रहे हैं या टीवी देख रहे हैं या यूट्यूब चला रहे हैं तो यह बिलकुल अच्छी बात नहीं है। हमें इसे छोड़ना है।

15.4

ततः(फ्) पदं(न्) तत्परिमार्गितव्यं(य्ँ) यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं(म्) पुरुषं(म्) प्रपद्ये यतः(फ्) प्रवृत्तिः(फ्) प्रसृता पुराणी॥15.4॥

उसके बाद उस परमपद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त होने पर मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आने वाली (यह) सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, उस आदिपुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ।

विवेचन- हमने बारहवें अध्याय में भक्त के लक्षणों की बात की थी। बच्चों से प्रश्न पूछा गया-

प्रश्न- बारहवें अध्याय में भक्त के कितने लक्षणों की बात हुयी थी? बच्चों को चार विकल्प दिये गए- उन्नीस (19), उनतालीस (39), छब्बीस (26) या उनचास (49)

चौवन प्रतिशत (54%) बच्चों ने सही उत्तर बताया। इस प्रश्न का सही उत्तर है उनतालीस (39)।

जिन बच्चों को सही उत्तर नहीं पता था, उन्हें विवेचन सत्र ध्यान से सुनने के लिए प्रेरित किया गया। उन्हें समझाया गया कि हमारा मन तथा शरीर, दोनों एक स्थान पर होने चाहिए।

श्रीभगवान् ने हमें संसार में भेजा है पर हम इस संसार में बहुत सारी चीजों से इतना अधिक जुड़ जाते (attached) हैं कि श्रीभगवान् को ही भूल जाते हैं। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। इस श्लोक में श्रीभगवान् ने यही कहा है कि हमें श्रीभगवान् को भूलना नहीं है।

हमें श्रीभगवान् ने यहाँ भेजा है तो हम खाना-पीना, खेल-कूद, पढ़ाई, मस्ती आदि सब तो करेंगे किन्तु श्रीभगवान् को भी नहीं भूलेंगे। हमें श्रीभगवान् की नित्य पूजा करनी चाहिए और उनका स्मरण करना चाहिए। यह भी हमारा कर्त्तव्य है। हमारे माता-पिता हमारे लिए बहुत कुछ करते हैं तो क्या हम अपने माता-पिता को भूलते हैं? बड़े होकर हम बोलें कि हमें तो समय ही नहीं मिलता और हम उन्हें भूल जाएँ तो यह अच्छी बात नहीं है। इसी प्रकार श्रीभगवान् तो सबके माता-पिता हैं, वे हम सबसे श्रेष्ठ (supreme) हैं। हम सब यहाँ उनके कारण ही हैं।

माता पिता की तरह ही श्रीभगवान् को मानकर, उनकी नित्य पूजा करनी चाहिए और उनका स्मरण करना चाहिए। हमें श्रीमद्भगवद्गीता भी पढ़नी चाहिए। ध्यान और भजन आदि भी करना चाहिए। जब हम प्रतिदिन ऐसा करते हैं तो एक दिन हम श्रीभगवान् के बहुत प्रिय (favourite) बन जाते हैं और फिर हमें बार-बार इस संसार में नहीं आना पड़ता। हमें श्रीभगवान् के चरणों में स्थान मिल जाता है।

15.5

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः(स्) सुखदुःखसञ्ज्ञै:(र्), गच्छन्त्यमूढाः(फ्) पदमव्ययं(न्) तत्।।5।।

जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टि से) सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं, जो सुख-दुःख नाम वाले द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, (ऐसे) (ऊँची स्थिति वाले) मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं।

विवेचन- श्रीभगवान् बताते हैं कि हम इस संसार में आते हैं तो क्यों नहीं भगवानजी को स्मरण करते हैं? क्यों नहीं ध्यान लगाते हैं? क्योंकि हम संसार में फँस जाते हैं और जो वस्तु हमें संसार में मिल रही है, उसमें हम आसक्त (attach) हो जाते हैं, उसमें ही रम जाते हैं।

हम कहते हैं कि “यह मेरा घर, मेरी कलम, मेरी पुस्तक, मेरा फोन, मेरा लेपटॉप है।” जब हम एक वस्तु से आसक्त (attach) हो जाते हैं तो दूसरी वस्तु से दूर (detatch) भी तो हो जाते हैं इसलिये हम जितना इस संसार में रम जाते हैं, उतना ही श्रीभगवान् को भूल जाते हैं। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।

जैसे हम विद्यालय जाते हैं तो पहली बैैञ्च पर बैठते हैं, उस पर यदि कोई दूसरा बच्चा बैठ जाता है तो हम उससे झगड़ा करते हैं कि ‘यह तो मेरा स्थान (Seat) है, यहाँ तुम कैसे बैठ गए?’ किसी बच्चे को पहली बैञ्च पर बैठने का शौक होता है तो किसी को बीच की बैञ्च पर और कोई-कोई तो अन्तिम बेैञ्च पर बैठना ही पसन्द करता है। जिनको प्रथम बैञ्च पर बैठना अच्छा लगता है, उन्हें समय से पहले आना पड़ता है और पहली बेैञ्च पर बैठने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है। इसका अर्थ यह है कि हम उस बेैञ्च से भी आसक्त (attach) हैं। हमें उससे भी आसक्त नहीं होना है। जो सीट मिले, उस पर ही बैठ जाएँ।

जो इस आसक्ति (attachment) से दूर होते हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों (senses) पर नियन्त्रण (control) कर लिया है, जो अच्छी बात होने पर बहुत प्रसन्न नहीं होते और कुछ ग़लत होने पर बहुत उदास भी नहीं होते, वे श्रीभगवान् के परम चरणों को प्राप्त कर लेते हैं।

हम अपनी आसक्ति पर नियन्त्रण नहीं कर पाते हैं। हम कहते रहते हैं, ‘यह मेरा है, वह मेरा है' आदि। इसी प्रकार हम भी यदि इन सब पर नियन्त्रण कर लेंगे तो हम भी श्रीभगवान् के प्रिय (favourite) बन जाएँगे।

हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ना शुरू कर ही चुके हैं। धीरे-धीरे यह सब भी हो जाएगा। बहुत सरल तो नहीं है किन्तु यदि हम पहली बेैञ्च पर बैठने के लिए जैसे प्रयास (effort) करते हैं वैसे ही प्रयास करेंगे तो हम भी श्रीभगवान् के प्रिय बन जाएँगे।

जैसे-जैसे हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते जाएँगे, वैसे-वैसे हमें सब समझ में आता जाएगा।

बच्चों से एक और प्रश्न पूछा गया-

प्रश्न- बारहवें अध्याय में हमने उपासकों की बात की थी, तो कितने प्रकार के भक्त होते हैं? इसके विकल्प दिये गये- चार (four), दो (two), तीन (three) छः (six)
उत्तर- छः प्रतिशत बच्चों ने छः, बीस प्रतिशत बच्चों ने तीन, चौबीस प्रतिशत बच्चों ने चार तथा छियालीस प्रतिशत बच्चों ने सही उत्तर बताया। इस प्रश्न का सही उत्तर “दो (two) है।

सही उत्तर बताने वाले बच्चों का उत्साहवर्धन ताली बजा कर किया गया।
इसके उपरान्त हरिनाम सङ्कीर्तन के साथ सत्र समाप्त हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।

विचार-मन्थन (प्रश्नोत्तर)

प्रश्नकर्ता- आरोही जी 
प्रश्न- हमें भगवद्गीता जी क्यों पढ़नी चाहिए?
उत्तर- हमें श्रीभगवान् के प्रिय(favourite) बनना है तो भगवद्गीता जी अवश्य पढ़नी चाहिए।

प्रश्नकर्ता- नन्दिनी जी 
प्रश्न- भगवान् श्रीकृष्ण जी के शङ्ख का क्या नाम था?
उत्तर- भगवान् श्रीकृष्ण जी के शङ्ख का नाम पाञ्चजन्य था।
                        ।। ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।