विवेचन सारांश
समर्पण से आराध्य की प्राप्ति

ID: 7035
Hindi - हिन्दी
रविवार, 18 मई 2025
अध्याय 5: कर्मसंन्यासयोग
2/2 (श्लोक 10-29)
विवेचक: गीता व्रती जाह्णवी जी देखणे


गुरु वन्दना एवं दीप प्रज्वलन के साथ आज के विवेचन सत्र का प्रारम्भ हआ। बच्चों से पूछा गया-

आज के अध्याय का नाम क्या है?
आनन्द की प्राप्ति कैसे करनी है?
हम गीता जी क्यों पढ़ते हैं?
हम श्रीभगवान् को प्रणाम क्यों करते हैं?

यही बात श्रीभगवान् इस अध्याय में बताने वाले हैं कि जो योगी लोग होते हैं, उनके विचार कैसे होते हैं? उन्हें परमानन्द की प्राप्ति कैसे होती है। जैसे मुझे यदि ऋषिकेश जाना है तो कई प्रकार के मार्ग हैं, जिनसे मैं जा सकती हूँ। हवाई जहाज से, रेल या कार से। कौन सा साधन लेना है? यह निर्भर करेगा कि मेरे पास पैसे कितने हैं? समय है तो आराम से गाड़ी से जाऊँगी।

जैसी अपनी क्षमता है, वैसे ही अपना रास्ता चुनते हैं।

आप कर्मयोग, भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग सभी से जा सकते हैं। यदि हम जीवित हैं तो कोई न कोई कर्म तो करते ही रहते हैं। योगी जो कार्य करते हैं, उनका ध्यान हमेशा श्रीभगवान के ऊपर ही होता है। भक्ति करते समय, कोई भी कार्य करते समय, वे भक्ति में लीन रहते हैं। लेकिन यदि हम कोई भी काम करते हैं तो हमारा ध्यान फल प्राप्त करने की तरफ होता है।

योगी भी हर काम करते हैं पर
वे श्रीभगवान् को ध्यान मे रखकर करते हैं। 

5.10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि, सङ्गं(न्) त्यक्त्वा करोति यः꠰
लिप्यते न स पापेन, पद्मपत्रमिवाम्भसा॥5.10꠱

जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके (और) आसक्ति का त्याग करके (कर्म) करता है, वह जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता।

विवेचन- जो भी विचार मेरे मन में है, मैं उनके अनुसार कार्य करूँगी। हमारे मन में सारे कर्मों का आधार श्रीभगवान् ही होते हैं। जो योगी श्रीभगवान् में लीन हो जाते हैं, वे सभी कार्य श्रीभगवान् को ध्यान में रखकर करते हैं। इसलिए वे जो भी कर्म करते हैं, उनके सभी कर्म एकदम पवित्र होते हैं।

जब परीक्षा में हमारे नम्बर (मार्क्स) आते हैं तो किसी के पिचहत्तर प्रतिशत, किसी के पिचासी प्रतिशत आते हैं। हमसे परीक्षा में कुछ कमी रह जाती है तो हमारे नम्बर (मार्क्स) कम आ जाते हैं। लेकिन यदि हम मेहनत से पढ़ते हैं, तब हमें अच्छे नम्बर आते हैं।

इसी तरह से जो समर्पण से श्रीभगवान के कार्य करते हैं उन्हें भी पाप नहीं लगता।

जो योगी होते हैं, उनका पूरा ध्यान श्रीभगवान् पर ही रहता है। वे जो भी कर्म करते हैं श्रीभगवान् को समर्पित करते हुए करते हैं। वे इस संसार में ऐसे रहते हैं, जैसे पानी के अन्दर कमल का फूल और पत्ता रहता है। कमल पानी के ऊपर रहता है और पानी के ऊपर ही उसका पत्ता तैरता है। पानी की बूँद उसके ऊपर आते हुए भी वह पत्ता गीला नहीं होता है। 

 हमने यदि कोई अच्छा कार्य किया, दसवीं तक अच्छे से पढ़ाई की, लेकिन आगे नहीं की तो हमें अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे। बारहवीं में सौ प्रतिशत नहीं ला पाएँगे। यदि ग्यारहवीं के लिए पढ़ाई नहीं की तो हम ग्यारहवीं और बारहवीं  में अच्छे नम्बर नहीं ला पाएँगे। इसलिए हमें हमेशा मेहनत करनी है।  
 अच्छे परिणाम आते है, लोग प्रशंसा करते हैं।

यदि गीता जी के अध्याय याद करके प्रशंसा प्राप्त कर ली और हम रुक गए तो जीवन में हम अच्छे काम नहीं कर पाएँगे। प्रशंसा से हमें रुकना नहीं है। कार्य के फल में स्वयम् को नहीं रखना है।

5.11

कायेन मनसा बुद्ध्या, केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः(ख्) कर्म कुर्वन्ति, सङ्गं(न्) त्यक्त्वात्मशुद्धये॥5.11॥

कर्मयोगी आसक्ति का त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धि के द्वारा केवल अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं।

विवेचन- इस पूरे अध्याय में योगी वही माना गया है जो कि श्रीभगवान् में लीन हो गया।

श्रीभगवान् इतने सुन्दर हैं। मधुराष्टक में हम श्रीभगवान् का वर्णन पाते हैं कि भगवान के अधर एकदम सुन्दर हैं। श्रीभगवान् के मुख पर सुन्दर मुस्कान है। यह सारी बातें हम सुनते हैं और सोचते हैं। योगी यह बातें देखते हैं। उन्हें इन सभी बातों का अनुभव होता है। उन्हें ध्यान में सब दिखाई देता है। वह किसी को दिखाने के लिए काम नहीं करते हैं।

प्रतिस्पर्धा में कुछ अच्छा नहीं होता, इसलिए दिखावा एवं प्रतिस्पर्धा नहीं करना चाहिए। यदि हम नहीं करते तो अच्छी बात है, लेकिन नहीं करना चाहिए।

योगी को पता है कि जो भी कर्म मैं करूँगा, उसमें मेरा मन लगता जाएगा। हमें सोचना चाहिए कि मैं गीता जी के अध्याय, गीता जी का ज्ञान किसी को दिखाने के लिए नहीं गाऊँगी। मुझे अच्छे कर्म करने की बुद्धि आएगी, इसलिए मैं इस कक्षा से जुड़ी हूँ।

जब मेरा मन शुद्ध होगा, तब बुद्धि अपने-आप आती जाएगी। इसी से हमें आत्मशुद्धि प्राप्त होती है।

5.12

युक्तः(ख्) कर्मफलं(न्) त्यक्त्वा, शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्꠰ अयुक्तः(ख्) कामकारेण, फले सक्तो निबध्यते॥5.12॥

कर्मयोगी कर्म फल का त्याग करके नैष्ठिकी शान्ति को प्राप्त होता है। (परन्तु) सकाम मनुष्य कामना के कारण फल में आसक्त होकर बँध जाता है।

विवेचन- योगी काम करते हैं, और फल को त्याग देते हैं। हम बोलते हैं मैं तो प्रतिदिन गीता जी के अध्याय पढ़ती हूँ, भगवान मुझे परीक्षा में अच्छे नम्बर दिलवा दो। आरती करते हैं तब भी हम बोलते हैं-
 सुख, सम्पत्ति घर आए, कष्ट मिटे तन का।

तब भी हम फल को माँगते हैं। अच्छा कार्य किया तो अच्छा फल आपको मिलना ही है।

योगियों के कार्य भगवान की प्राप्ति के लिए ही होते हैं। सन्त ज्ञानेश्वर महाराज जी ने जब ज्ञानेश्वरी ग्रन्थ लिखा, तब उनके चारों भाई-बहनों ने अत्यन्त कष्ट के साथ जीवन यापन किया।

ज्ञानेश्वरी के अन्त में, सारे विश्व को जिसको जो भी चाहिए, उन्हें वही मिल जाए, यह लिखा गया है।
हमें सबके लिए अच्छा सोचना है।
हमने किसी को कुछ गलत बोला तो वाणी का तप चला जाएगा। 
हमें पूरे विश्व के कल्याण के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।

5.13

सर्वकर्माणि मनसा, सन्न्यस्यास्ते सुखं(म्) वशी।
नवद्वारे पुरे देही, नैव कुर्वन्न कारयन्॥5.13॥

जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में हैं, (ऐसा) देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले (शरीर रूपी) पुर में सम्पूर्ण कर्मों का (विवेक पूर्वक) मन से त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ (और) न करवाता हुआ सुख पूर्वक (अपने स्वरूप में) स्थित रहता है।

विवेचन- हम अपने मन को अपने वश में कर लें तो मन में कोई गलत भावना नहीं होगी। कोई गलत विचार हमारे मन में आएँगे ही नहीं।

जो हमारी आत्मा होती है; समझो कि हमारी शरीर एक बड़ा सा शहर है और आत्मा उसके मध्य में स्थित है। हमारे शरीर में आँख, नाक, कान और मुँह होता है, जिसके कारण हम सुन पा रहे हैं, देख पा रहे हैं, वाणी से बोल पा रहे हैं।

हमारे शरीर में नौ द्वार हैं। इन्हीं नौ द्वारों के माध्यम से हम और हमारा शरीर यह सब कुछ सीख पा रहा है। हमारे शरीर में हमारी एक आत्मा रहती है, जिसके कारण हम परमात्मा से मिल पा रहे हैं।

कभी बारिश हो जाती है, कभी धूप हो जाती है। रात होती है, दिन होता है। कभी आकाश में बादल आ जाते हैं। इतना कुछ होते हुए भी आकाश में कुछ बदलाव नहीं हो रहा है। आकाश तो वैसा ही है। इसी प्रकार योगी भी अपने कर्तव्य कर्म का त्याग नहीं करते। जिसने मन से सारे कर्मों के फलों का संन्यास कर लिया, उन्हें सुख की प्राप्ति होगी ।

आप जो काम करते हो, वह आपका योग है।

5.14

न कर्तृत्वं(न्) न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं(म्), स्वभावस्तु प्रवर्तते॥5.14॥

परमेश्वर मनुष्यों के न कर्तापन की, न कर्मों की (और) न कर्मफल के साथ संयोग की रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव (ही) बरत रहा है।

विवेचन- भगवान कहते हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि मैंने बनाई है, लेकिन उसका श्रेय मैं नहीं ले रहा हूँ।

बच्चों से प्रश्न पूछा गया कि पिछले सत्र में तीन गुण बताए थे, वे क्या थे?
बच्चों ने उत्तर दिया सत्त्वगुण, तमोगुण और रजोगुण।

आप जो भी कर्म करते हैं इन तीनों गुणों के आधार पर करते हैं। सुबह हम जल्दी उठ गए तो पढ़ाई करने बैठ जाते हैं। पढ़ाई कर ली तो हमारा परिणाम अच्छा होता है।

भगवान कहते हैं कि मैं किसी को कुछ नहीं देता। जो भी  विचार हम करेंगे, वैसा ही हमारा स्वभाव बन जाएगा। 

5.15

नादत्ते कस्यचित्पापं(न्), न चैव सुकृतं(म्) विभुः। अज्ञानेनावृतं(ञ्) ज्ञानं(न्), तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥5.15॥

सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पाप कर्म को और न शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है; (किन्तु) अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब जीव मोहित हो रहे हैं।

विवेचन- हमारे कर्मों के फल का परिणाम हमारे मन पर नहीं होना चाहिये। यह जो ज्ञान वेदों में, गीता जी में दिया गया है, वह हमारे अन्दर भी है। मन के ऊपर जो धूल है, योगी उसको साफ कर देते हैं, जिससे ज्ञान प्रकाशित हो जाता है।

हम सभी में वह क्षमता है, लेकिन हमारे मन को आज्ञान ने ढक लिया है।जैसे कि हम चश्मा पहने हुए हैं। यदि मैं नीले रङ्ग या लाल रङ्ग का चश्मा पहनता हूँ तो मुझे पूरी दुनिया लाल दिखने लगेगी। हमें लगेगा कि पूरा संसार नीला है या लाल है।

5.16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं(म्), येषां(न्) नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं(म्), प्रकाशयति तत्परम्॥5.16॥

परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञान के द्वारा उस अज्ञान का नाश कर दिया है, उनका वह ज्ञान सूर्य की तरह परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।

 विवेचन- यह जो अज्ञान है वह ज्ञान के द्वारा ही जाएगा।

खिड़की के एक झरोखे में से छोटा सा प्रकाश आ रहा है। जितना प्रकाश आएगा, उतना ही उजाला होगा। अभी हम‌ खिड़की पूरी खोलने जाएँ तो एक समय पूरा कमरा प्रकाशित हो जाएगा।

अन्धकार क्या होता है? यह सूर्य भगवान को पता नहीं होता। जो आप सभी को प्रकाश दे रहे हैं, उन्हें कैसे पता होगा कि अन्धकार क्या है?

धीरे-धीरे छोटे-छोटे  झरोखों से ज्ञान की किरणें मन के अन्दर आती जाएँ।
हम गीता जी के अध्याय पढ़ते जाएंगे तो हम भी थोड़े-थोड़े श्रीभगवान के चिन्तन करने के योग्य होते जाएँगे।

5.17

तद्बुद्धयस्तदात्मान:(स्), तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं(ञ्), ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥5.17॥

जिनका मन तदाकार हो रहा है, जिनकी बुद्धि तदाकार हो रही है, जिनकी स्थिति परमात्म तत्व में है, (ऐसे) परमात्म परायण साधक ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर अपुनरावृत्ति (परमगति) को प्राप्त होते हैं।

विवेचन- यदि किसी कपड़े को हमने धो लिया तो वह स्वच्छ हो जाता है। वैसे ही हमारा मन है।

हम सभी को  सोचना होगा कि हमें अपने माता पिता के प्रति, उनकी सेवा के प्रति और देश के प्रति कुछ करना है। जिस तरह अभी युद्ध चला था तब सेना ने पूरी मेहनत से लड़ाई लड़ी।  

मैं रहूँ या ना रहूँ, यह भारत रहना चाहिए।
 
देश को कैसे बचाएँ? सैनिकों का इस समय केवल इसी पर ध्यान था। उनका देशवासियों और राष्ट्र पर ध्यान था, न कि अपने घर पर।

योगी भी उसी प्रकार से श्रीभगवान पर ध्यान केन्द्रित करते हैं न कि दुनिया पर। ऐसे ही सेना के जवान भी योगियों के समान रहते हैं।

5.18

विद्याविनयसम्पन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः(स्) समदर्शिनः॥5.18॥

ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनय युक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी (एवं) कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।

विवेचन- यह जो सारे सन्त महात्मा होते हैं, उनकी दृष्टि हर व्यक्ति के लिए, हर संसारी जीव के लिए एक समान होती है। उनकी दृष्टि में विद्या विनय युक्त व्यक्ति और साधारण व्यक्ति में कोई अन्तर नहीं होता।

श्रीभगवान कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति हाथी, गौ माता और कुत्ता सभी में ईश्वर को देखते हैं। वह सभी को सम दृष्टि से देखते हैं। सभी से नम्रता का व्यवहार करते हैं।

एक दिन नामदेव महाराज खाना खा रहे थे। उनके पास दो रोटी थी। तभी एक कुत्ता आता है और रोटी लेकर भाग जाता है। हम होते तो उस कुत्ते को एक डण्डा तो लगा देते। नामदेव महाराज ने कहा कि रोटी को घी तो लगाकर जाइए।

सामने कोई भी हो, योगी के मन में सन्तुष्टि रहती है। हमें भी सब के प्रति समान भाव रखना चाहिए। यदि हम शत्रु को मार भी रहे हैं तो उसके अन्दर भी श्रीभगवान् है।

श्रीराम ने जब रावण का जब वध किया तो उसका अन्तिम संस्कार विभीषण नहीं कर रहे थे। श्रीराम भगवान ने  विभीषण से ही करवाया क्योंकि उनके मन में रावण के प्रति गलत भाव नहीं था।

5.19

इहैव तैर्जितः(स्) सर्गो, येषां(म्) साम्ये स्थितं(म्) मनः। निर्दोषं(म्) हि समं(म्) ब्रह्म, तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥5.19॥

जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है; अर्थात् वे जीवन्मुक्त हो गये हैं, क्योंकि ब्रह्म निर्दोष (और) सम है, इसलिये वे ब्रह्म में (ही) स्थित हैं।

विवेचन- ऐसा जो समानता का भाव होता है, ऐसे भाव में वह योगी नित्य स्थित होते हैं। इन योगियों को हर पल भगवान के दर्शन होते रहते हैं।

वे आसपास के लोगों में दोष नहीं देखते। इस दुनिया में कोई भी सम्पूर्ण नहीं है। कोई अच्छा पढ़ता है, कोई अच्छा खेलता है, कोई अच्छा गाता है। हम सब में कोई न कोई अच्छाई ही है। हम सब में कमियाँ देखते रहते हैं।हमारी कमियाँ कोई न देखे, पर मैं तो सब की कमियाँ ही देखूँगा। हमारे मन में यही भाव रहता है।

यह बहुत सुस्वादु खाना बनाती है। यह बहुत अच्छी रङ्गोली बनाती है। कोई बहुत सुन्दर होता है। उनकी तरफ हम ध्यान क्यों नहीं देते?

ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति  निर्दोष दृष्टिवाले हों, इसलिए श्रीभगवान् हमें गीता जी का ज्ञान बता रहे हैं। 

5.20

न प्रहृष्येत्प्रियं(म्) प्राप्य, नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो, ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥5.20॥

(जो) प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, (वह) स्थिर बुद्धि वाला, मूढ़ता रहित (ज्ञानी) (तथा) ब्रह्म को जानने वाला मनुष्य ब्रह्म में स्थित है।

विवेचन- प्रिय वस्तु हो या अप्रिय हो, हमें दोनों को ही समान दृष्टि से देखना है। हम जो कुछ भी काम करते हैं, उसे समभाव से करना चाहिए।कभी हमारे मन के अनुसार परीक्षा में नम्बर आते हैं, कभी नहीं आते। तो हमें विचलित नहीं होना है। इस भावना से जो हमारे अच्छे कर्म होते हैं उन्हें भी हम बिगाड़ देते हैं।

किन्तु योगी छोटी-छोटी बातों से विचलित नहीं होते हैं। श्रीभगवान का ज्ञान होना सबसे अच्छी बात है।

5.21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा, विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा, सुखमक्षयमश्नुते॥5.21॥

बाह्य स्पर्श (प्राकृत वस्तुमात्र के सम्बन्ध) में आसक्ति रहित अन्तःकरण वाला साधक अन्तःकरण में जो (सात्विक) सुख है, (उसको) प्राप्त होता है। (फिर) वह ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित मनुष्य अक्षय सुख का अनुभव करता है।

विवेचन- हमें ऐसा नहीं करना चाहिए कि कभी बहुत खुश हो गए और कभी बहुत दुःखी। श्रीभगवान् के खाते में सब लिखा जाता है। पार्टी करना हमारे सुख की परिभाषा नहीं होनी चहिए। अच्छा-अच्छा खाना ही हमारे सुख की परिभाषा नहीं होनी चाहिए।

गाना, सिनेमा यह सब, कुछ समय के लिए अच्छा लगता है। क्या खुशी हमेशा रहने वाली है? इसके बारे में भी सोचना चाहिए। कभी दुःख भी मिल सकता है हमें सोचना चाहिए।

ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति सुख और अक्षय है। अक्षय मतलब कभी न समाप्त होने वाला। अक्षय सुख क्या हमारे लिए सम्भव है? यह हमारे लिए सम्भव है तभी तो श्रीभगवान हमें इसको प्राप्त करने के विषय में बता रहे हैं।

5.22

ये हि संस्पर्शजा भोगा, दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः(ख्) कौन्तेय, न तेषु रमते बुधः॥5.22॥

क्योंकि हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्त वाले (और) दुःख के ही कारण हैं। (अतः) विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।

विवेचन- हमारे सुख आरम्भ होते हैं और समाप्त होते हैं। कहीं से आनन्द प्राप्त होता है तो और दुःख समाप्त हो जाता है।

हम बाहर जाते हैं और सुखों को ढूँढते हैं। बहुत अच्छी गाड़ी, नौकरी हमारी सुख की परिभाषा होती है। इसी के कारण हम दुःखी होते जाते हैं। एक सुख की प्राप्ति के बाद दूसरा साधन चाहिए।

इच्छा कभी समाप्त नहीं होती, लेकिन योगी हर परस्थिति में प्रसन्न रहते हैं।

5.23

शक्नोतीहैव यः(स्) सोढुं(म्), प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं(म्) वेगं(म्), स युक्तः(स्) स सुखी नरः॥5.23॥

इस मनुष्य-शरीर में जो कोई (मनुष्य) शरीर छूटने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर योगी है (और) वही सुखी है।

विवेचन- अच्छे सुख का मतलब क्या है? यह सुख स्वर्ग प्राप्ति के बाद मिलेगा, बैकुण्ठ में मिलेगा, कहाँ मिलेगा?

श्रीभगवान् कह रहे हैं कि सुख हमें यहीं पर मिलेगा। इसी संसार में मिलेगा। ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं कि हो सकता है कि यह जो समस्या हमें बड़ी लगती है, वह इतनी बड़ी न हो।

काम और क्रोध का जो वेग है, वह छोटी-छोटी बातों पर दुःखी होने के कारण है। छोटे से खिलौने के लिए बच्चे रोने लगते हैं। मैं कालेज में जा रहा हूँ तो मुझे गाड़ी चाहिए। नहीं मिली तो हमें क्रोध आता है।

काम, क्रोध से जो भाव उत्पन्न होता है, यदि हमने उसे पर नियन्त्रण कर लिया, तो  हमारे अन्दर दैवीय गुण आ जएँगे। दैवीय गुण को जैसे-जैसे अपनाते जाएँगे दैवीय गुण वैसे-वैसे बढ़ते जाएँगे।
 
जो व्यक्ति काम क्रोध के इस वेग को नियन्त्रित कर सके, वही व्यक्ति सुखी रह सकता है। इस प्रकार का परमानन्द योगी प्राप्त करते हैं। उसको हम भी प्राप्त कर सकते हैं।

5.24

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामः(स्), तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं(म्), ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥5.24॥

जो मनुष्य (केवल) परमात्मा में सुख वाला (और) (केवल) परमात्मा में रमण करने वाला है तथा जो केवल परमात्मा में ज्ञान वाला है, वह ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करने वाला ब्रह्मरूप बना हुआ सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होता है।

विवेचन- इन सारे सुखों को बाहर ढूँढने से अच्छा है, हमें इन्हें अपने अन्दर ही ढूँढना चाहिए। परीक्षा में अच्छे नम्बर (मार्क्स) आने पर किसी ने चॉकलेट दी और छोटी-छोटी बातों से हमें आनन्द होता है।

अगर श्रीभगवान की प्राप्ति मन में हो गई तो हमें सबसे ज्यादा आनन्द प्राप्त होगा।

यदि हम श्रीभगवान् में अपना ध्यान रखेंगे, अन्तर्ज्योति पर हमारा ध्यान होगा तो ऐसा करते-करते हम योगी के सामान बन पाएँगे। तब श्रीभगवान् ही हमें सम्भालेंगे। बाद में श्रीभगवान् इच्छा करेंगे कि यह मेरा भक्त कभी मुझसे अलग न हो।

5.25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः(स्), सर्वभूतहिते रताः॥5.25॥

जिनका शरीर मन, बुद्धि, इन्द्रियों सहित वश में है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

विवेचन- हमें देखना चहिए कि कैसे हम इस वेग को शान्त कर सकते हैं। दैवीय गुणों की ओर प्रेरित होकर साधना के मार्ग से ही धीरे-धीरे योगी बनते हैं।

धर्म की प्राप्ति हो गई तो हम ऋषि बन जाते हैं। योगी मतलब सारा ज्ञान हमें मिल जाता है। श्रीभगवान् का दर्शन हमें हो जाता है।

आर्यभट्ट एवं अन्य वैज्ञानिकों ने अनेक खोज कीं। पाइथागोरस ने प्रमेय कैसे बनाए? यह योगी भी साधना से बन गए और योगी से बन गए ऋषि। ऋषि जो होते हैं वे भगवान के प्रिय होते हैं। सारे संसार में सबके लिए वे कल्याणकारी कार्य करते हैं। सबके हित के लिए हमेशा कार्य करते हैं।

हमारे स्वामी श्री ज्ञानेश्वर महाराज की हर पल किसी न किसी रूप में कथा चलती रहती थी। रात भर भी उनकी कथा चलेगी और दूसरे दिन भी अगला उद्बोधन उसी ऊर्जा से देंगे। 

5.26

कामक्रोधवियुक्तानां(म्), यतीनां(म्) यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं(म्), वर्तते विदितात्मनाम्॥5.26॥

काम-क्रोध से सर्वथा रहित, जीते हुए मन वाले (और) स्वरूप का साक्षात्कार किये हुए सांख्ययोगियों के लिये सब ओर से (शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद) निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है।

विवेचन- जिनको ज्ञान हो गया, उनका छोटी-छोटी बातों का मोह नष्ट हो जाता है। अक्षय सुख उन्हें प्राप्त हो जाता है। ऐसे योगी श्रेष्ठ हैं।
 
हम सभी को अच्छे कार्य करने हैं। यदि हम छोटी-छोटी बातों से दुःखी होंगे तो हम अच्छे कार्य नहीं कर पाएँगे।

हम सभी को घर चाहिए। मैं कुछ भी नहीं करूँगा और श्रीभगवान् का नाम लेते रहूँगा। ऐसा तो नहीं होता। हमें संसार में रहना है। अच्छे और बुरे लोगों के बीच में रहना है।

हमें सोचना चाहिए कि हमारा आराध्य क्या है? हमारा केन्द्र बिन्दु श्रीभगवान् ही रहें। आगे चलकर देश की सेवा, समाज की सेवा, श्रीभगवान् की सेवा हमें करनी है। ये सारी बातें हमारे मन में होनी चाहिए।

5.27

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्, चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा, नासाभ्यन्तरचारिणौ॥5.27॥

बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों के बीच में (स्थित करके) (तथा) नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके,

विवेचन- हमारे शरीर में नौ द्वार हैं, इन द्वारों का उपयोग प्राण और अपान वायु के द्वारा साँसों पर नियन्त्रण करके दो प्रकार से हो सकता है।
 
हमें कान किसके लिए दिए गए हैं? ज्ञान की बातें सुनने के लिए या पार्टी करने के लिए? आँखें किसलिए दी गई हैं? पिक्चर देखने के लिए या अच्छा पढ़ने के लिए? जो ज्ञान के उपयोग से इन्द्रियों पर संयम कर लेता है, वही योगी कहलाता है। 

हम जो अच्छे काम करेंगे, अच्छी बातें सुनेंगे, अच्छी बातें सोचेंगे तो इसका मतलब है कि ज्ञान के द्वारा हमारा अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण हो गया है। हमारे स्वास्थ्य पर हमारा नियन्त्रण हो जाएगा। यदि स्वास्थ्य पर नियन्त्रण हो गया तो मन पर नियन्त्रण हो जाता है।

5.28

यतेन्द्रियमनोबुद्धि:(र्), मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो, यः(स्) सदा मुक्त एव सः॥5.28॥

जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वश में हैं, जो (केवल) मोक्षपरायण है (तथा) जो इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।

विवेचन- जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश मे होती हैं उसे धीरे-धीरे भय और क्रोध से मुक्ति हो जाती है। ऐसा व्यक्ति सदा भयमुक्त हो जाता है।

 जो गुण हैं, ये हमें रस्सी से बाँध कर रखते हैं। योगी और मुनि व्यक्ति हमें भगवान से बाँधते हैं। हम श्रीभगवान् की भक्ति में बँधने वाले योगी कैसे बन पाएँगे? यह हम आगे के अध्याय में देखेंगे। ध्यान का आसन कैसा होना चाहिए? क्यों सीधे बैठना चहिए? यह हम  अगले सत्र में सीखेंगे।

5.29

भोक्तारं(म्) यज्ञतपसां(म्), सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं(म्) सर्वभूतानां(ञ्), ज्ञात्वा मां(म्) शान्तिमृच्छति॥5.29॥

मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर (तथा) सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद् (स्वार्थ रहित, दयालु और प्रेमी) जानकर (भक्त) शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन- यह जो सभी काम हैं, विवेचन सुनना हो, गीता जी को पढ़ना हो। छोटे से छोटा और बड़े से बड़े कर्मों का भोग भगवान ले रहे हैं। यदि आप भोग नहीं चढ़ाते होंगे तो श्रीभगवान को भोग लगाइए नवें अध्याय में श्रीभगवान ने कहा है-


पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतापत्रंत्मनः ||

जो कोई मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल भी भक्ति से अर्पण करता है, मैं उस शुद्ध हृदय वाले व्यक्ति की भक्तिपूर्वक दी गई इस भेंट को स्वीकार करता हूँ। सारे कर्मों को भगवान लेते हैं। शुद्ध कर्म करने चाहिए।

मित्र कैसा होता है? हम दोनों आपस मे अच्छा-अच्छा व्यवहार कर रहे हैं। आपका विचार भी अच्छा होगा। बिना किसी फल की इच्छा के हम अच्छा ही सोचते हैं।

आप सभी के सुहृद बन जाते हैं। आप अच्छा करें, तब भी और आप अच्छा नहीं करें तब भी, वह आपके सुहृद बनें। इसलिए सभी कर्म के फल श्रीभगवान् को अर्पण करने के भाव से करना चाहिएं।

यह ज्ञान यदि समझ लिया तो शान्ति प्राप्त हो जाएगी और श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेंगे।

अन्त में श्रीभगवान् का स्मरण करते हुए, श्रीभगवान् की प्रसन्न मूर्ति को सोचते हुए हरि भजन के साथ- 

हरि शरणम् हरि शरणम् 
हरि शरणम् हरि शरणम् 

गोपालकृष्ण भगवान की जय बोलते हुए, इस सुन्दर अध्याय के विवेचन का समापन हुआ। इसके उपरान्त प्रश्न उत्तर प्रारम्भ हुए।

प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता- सिन्धुजा दीदी
 प्रश्न- मुझे नौवें श्लोक का पहला चरण समझ नहीं आया है, क्या आप कृपया दोबारा से समझा देंगी?
उत्तर- नौवाँ श्लोक है- 
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्, नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु, वर्तन्त इति धारयन्॥5:9॥

इस श्लोक के प्रथम चरण में श्रीभगवान् हमारे प्रतिदिन के कर्मों के बारे में बता रहे हैं। हम नित्य प्रति जो दिन भर में कर्म करते हैं, उसकी सूची बताते हुए श्रीभगवान् कह रहे हैं कि हम जो भी बात बोल रहे हैं, उनमें से कुछ बातें हम भूल जाते हैं, कुछ हम ग्रहण करते हैं, अर्थात कुछ ही हमें याद रहती हैं।

जब हम पलक झपकाते हैं तो कभी आँखों को खोलते हैं और कभी बन्द करते हैं। यह सभी कार्य बहुत सहजता से होते हैं और हमें पता भी नहीं चलता। इसी प्रकार जो योगी होते हैं, उनका कर्मों के करने पर ध्यान नहीं होता उनका पूरा ध्यान-केन्द्र (focus) श्रीभगवान के ऊपर रहता है। उनके द्वारा सब क्रियाएँ अपने आप घटती रहती हैं और वे किसी भी कर्म को अपने द्वारा किया हुआ नहीं समझते।

देखना, सुनना, सोना, श्वास लेना, भोजन करना, आना, जाना, बोलना आदि यह सब कार्य हम दिनभर करते रहते हैं। वास्तव में ये सब कार्य हमारी इन्द्रियों द्वारा स्वमेव हो रहे हैं।

प्रश्नकर्ता- सानवी दीदी 
प्रश्न- हम पुष्पिका क्यों बोलते हैं? क्या श्रीभगवान ने भी ऐसे ही बोला है या हमें समझाने के लिए ऐसा कहा जाता है?
उत्तर- यह श्रीमद्भगवद्गीता जी श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन जी का संवाद है। यह दोनों आपस में बातचीत कर रहे हैं, जिस तरह से हम और आप कर रहे हैं। जब यह संवाद बोला गया, तब कोई अध्याय नहीं थे। सारी वार्ता एक साथ हुई थी।

 बाद में श्री वेदव्यास भगवान ने इसकी रचना करते समय इसका अध्याय अनुसार वर्णन किया। इसको विभिन्न तरीके से सूचीबद्ध किया है। यह श्री वेदव्यास महाराज जी ने हमें विषयवार (Subject vise) समझाने के लिए किया है। जिससे हमें पता चल जाए कि आज पाँचवाँ अध्याय प्रारम्भ हो रहा है या आज नौवाँ अध्याय प्रारम्भ हो रहा है। 

जैसे आप लोगों के स्कूल की बुक में चैप्टर के नाम रहते हैं, वैसे ही यहाँ अध्यायों के नाम हमें समझाने के लिए लिखे गए हैं।

ॐ श्री परमात्मने नमः 

जब कोई अच्छा काम शुरू करते हैं तो हम श्रीभगवान् का नाम लेते हैं। गणेशजी भगवान का नाम लेते हैं, वैसे ही यहाँ पर श्रीभगवान् का नाम लेकर अध्याय शुरू करते हैं।

उसके उपरान्त श्री हनुमान चालीसा पाठ के साथ आज के सुन्दर विवेचन सत्र का समापन हुआ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘कर्मसन्यासयोग’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।