विवेचन सारांश
समर्पण से आराध्य की प्राप्ति
आज के अध्याय का नाम क्या है?
आनन्द की प्राप्ति कैसे करनी है?
हम गीता जी क्यों पढ़ते हैं?
हम श्रीभगवान् को प्रणाम क्यों करते हैं?
यही बात श्रीभगवान् इस अध्याय में बताने वाले हैं कि जो योगी लोग होते हैं, उनके विचार कैसे होते हैं? उन्हें परमानन्द की प्राप्ति कैसे होती है। जैसे मुझे यदि ऋषिकेश जाना है तो कई प्रकार के मार्ग हैं, जिनसे मैं जा सकती हूँ। हवाई जहाज से, रेल या कार से। कौन सा साधन लेना है? यह निर्भर करेगा कि मेरे पास पैसे कितने हैं? समय है तो आराम से गाड़ी से जाऊँगी।
आप कर्मयोग, भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग सभी से जा सकते हैं। यदि हम जीवित हैं तो कोई न कोई कर्म तो करते ही रहते हैं। योगी जो कार्य करते हैं, उनका ध्यान हमेशा श्रीभगवान के ऊपर ही होता है। भक्ति करते समय, कोई भी कार्य करते समय, वे भक्ति में लीन रहते हैं। लेकिन यदि हम कोई भी काम करते हैं तो हमारा ध्यान फल प्राप्त करने की तरफ होता है।
वे श्रीभगवान् को ध्यान मे रखकर करते हैं।
5.10
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि, सङ्गं(न्) त्यक्त्वा करोति यः꠰
लिप्यते न स पापेन, पद्मपत्रमिवाम्भसा॥5.10꠱
जब परीक्षा में हमारे नम्बर (मार्क्स) आते हैं तो किसी के पिचहत्तर प्रतिशत, किसी के पिचासी प्रतिशत आते हैं। हमसे परीक्षा में कुछ कमी रह जाती है तो हमारे नम्बर (मार्क्स) कम आ जाते हैं। लेकिन यदि हम मेहनत से पढ़ते हैं, तब हमें अच्छे नम्बर आते हैं।
इसी तरह से जो समर्पण से श्रीभगवान के कार्य करते हैं उन्हें भी पाप नहीं लगता।
जो योगी होते हैं, उनका पूरा ध्यान श्रीभगवान् पर ही रहता है। वे जो भी कर्म करते हैं श्रीभगवान् को समर्पित करते हुए करते हैं। वे इस संसार में ऐसे रहते हैं, जैसे पानी के अन्दर कमल का फूल और पत्ता रहता है। कमल पानी के ऊपर रहता है और पानी के ऊपर ही उसका पत्ता तैरता है। पानी की बूँद उसके ऊपर आते हुए भी वह पत्ता गीला नहीं होता है।
हमने यदि कोई अच्छा कार्य किया, दसवीं तक अच्छे से पढ़ाई की, लेकिन आगे नहीं की तो हमें अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे। बारहवीं में सौ प्रतिशत नहीं ला पाएँगे। यदि ग्यारहवीं के लिए पढ़ाई नहीं की तो हम ग्यारहवीं और बारहवीं में अच्छे नम्बर नहीं ला पाएँगे। इसलिए हमें हमेशा मेहनत करनी है।
अच्छे परिणाम आते है, लोग प्रशंसा करते हैं।
यदि गीता जी के अध्याय याद करके प्रशंसा प्राप्त कर ली और हम रुक गए तो जीवन में हम अच्छे काम नहीं कर पाएँगे। प्रशंसा से हमें रुकना नहीं है। कार्य के फल में स्वयम् को नहीं रखना है।
कायेन मनसा बुद्ध्या, केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः(ख्) कर्म कुर्वन्ति, सङ्गं(न्) त्यक्त्वात्मशुद्धये॥5.11॥
श्रीभगवान् इतने सुन्दर हैं। मधुराष्टक में हम श्रीभगवान् का वर्णन पाते हैं कि भगवान के अधर एकदम सुन्दर हैं। श्रीभगवान् के मुख पर सुन्दर मुस्कान है। यह सारी बातें हम सुनते हैं और सोचते हैं। योगी यह बातें देखते हैं। उन्हें इन सभी बातों का अनुभव होता है। उन्हें ध्यान में सब दिखाई देता है। वह किसी को दिखाने के लिए काम नहीं करते हैं।
प्रतिस्पर्धा में कुछ अच्छा नहीं होता, इसलिए दिखावा एवं प्रतिस्पर्धा नहीं करना चाहिए। यदि हम नहीं करते तो अच्छी बात है, लेकिन नहीं करना चाहिए।
योगी को पता है कि जो भी कर्म मैं करूँगा, उसमें मेरा मन लगता जाएगा। हमें सोचना चाहिए कि मैं गीता जी के अध्याय, गीता जी का ज्ञान किसी को दिखाने के लिए नहीं गाऊँगी। मुझे अच्छे कर्म करने की बुद्धि आएगी, इसलिए मैं इस कक्षा से जुड़ी हूँ।
जब मेरा मन शुद्ध होगा, तब बुद्धि अपने-आप आती जाएगी। इसी से हमें आत्मशुद्धि प्राप्त होती है।
युक्तः(ख्) कर्मफलं(न्) त्यक्त्वा, शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्꠰ अयुक्तः(ख्) कामकारेण, फले सक्तो निबध्यते॥5.12॥
सुख, सम्पत्ति घर आए, कष्ट मिटे तन का।
तब भी हम फल को माँगते हैं। अच्छा कार्य किया तो अच्छा फल आपको मिलना ही है।
योगियों के कार्य भगवान की प्राप्ति के लिए ही होते हैं। सन्त ज्ञानेश्वर महाराज जी ने जब ज्ञानेश्वरी ग्रन्थ लिखा, तब उनके चारों भाई-बहनों ने अत्यन्त कष्ट के साथ जीवन यापन किया।
ज्ञानेश्वरी के अन्त में, सारे विश्व को जिसको जो भी चाहिए, उन्हें वही मिल जाए, यह लिखा गया है।
हमने किसी को कुछ गलत बोला तो वाणी का तप चला जाएगा।
हमें पूरे विश्व के कल्याण के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।
सर्वकर्माणि मनसा, सन्न्यस्यास्ते सुखं(म्) वशी।
नवद्वारे पुरे देही, नैव कुर्वन्न कारयन्॥5.13॥
जो हमारी आत्मा होती है; समझो कि हमारी शरीर एक बड़ा सा शहर है और आत्मा उसके मध्य में स्थित है। हमारे शरीर में आँख, नाक, कान और मुँह होता है, जिसके कारण हम सुन पा रहे हैं, देख पा रहे हैं, वाणी से बोल पा रहे हैं।
हमारे शरीर में नौ द्वार हैं। इन्हीं नौ द्वारों के माध्यम से हम और हमारा शरीर यह सब कुछ सीख पा रहा है। हमारे शरीर में हमारी एक आत्मा रहती है, जिसके कारण हम परमात्मा से मिल पा रहे हैं।
कभी बारिश हो जाती है, कभी धूप हो जाती है। रात होती है, दिन होता है। कभी आकाश में बादल आ जाते हैं। इतना कुछ होते हुए भी आकाश में कुछ बदलाव नहीं हो रहा है। आकाश तो वैसा ही है। इसी प्रकार योगी भी अपने कर्तव्य कर्म का त्याग नहीं करते। जिसने मन से सारे कर्मों के फलों का संन्यास कर लिया, उन्हें सुख की प्राप्ति होगी ।
न कर्तृत्वं(न्) न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं(म्), स्वभावस्तु प्रवर्तते॥5.14॥
बच्चों से प्रश्न पूछा गया कि पिछले सत्र में तीन गुण बताए थे, वे क्या थे?
बच्चों ने उत्तर दिया सत्त्वगुण, तमोगुण और रजोगुण।
आप जो भी कर्म करते हैं इन तीनों गुणों के आधार पर करते हैं। सुबह हम जल्दी उठ गए तो पढ़ाई करने बैठ जाते हैं। पढ़ाई कर ली तो हमारा परिणाम अच्छा होता है।
भगवान कहते हैं कि मैं किसी को कुछ नहीं देता। जो भी विचार हम करेंगे, वैसा ही हमारा स्वभाव बन जाएगा।
नादत्ते कस्यचित्पापं(न्), न चैव सुकृतं(म्) विभुः। अज्ञानेनावृतं(ञ्) ज्ञानं(न्), तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥5.15॥
हम सभी में वह क्षमता है, लेकिन हमारे मन को आज्ञान ने ढक लिया है।जैसे कि हम चश्मा पहने हुए हैं। यदि मैं नीले रङ्ग या लाल रङ्ग का चश्मा पहनता हूँ तो मुझे पूरी दुनिया लाल दिखने लगेगी। हमें लगेगा कि पूरा संसार नीला है या लाल है।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं(म्), येषां(न्) नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं(म्), प्रकाशयति तत्परम्॥5.16॥
खिड़की के एक झरोखे में से छोटा सा प्रकाश आ रहा है। जितना प्रकाश आएगा, उतना ही उजाला होगा। अभी हम खिड़की पूरी खोलने जाएँ तो एक समय पूरा कमरा प्रकाशित हो जाएगा।
अन्धकार क्या होता है? यह सूर्य भगवान को पता नहीं होता। जो आप सभी को प्रकाश दे रहे हैं, उन्हें कैसे पता होगा कि अन्धकार क्या है?
धीरे-धीरे छोटे-छोटे झरोखों से ज्ञान की किरणें मन के अन्दर आती जाएँ।
हम गीता जी के अध्याय पढ़ते जाएंगे तो हम भी थोड़े-थोड़े श्रीभगवान के चिन्तन करने के योग्य होते जाएँगे।
तद्बुद्धयस्तदात्मान:(स्), तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं(ञ्), ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥5.17॥
हम सभी को सोचना होगा कि हमें अपने माता पिता के प्रति, उनकी सेवा के प्रति और देश के प्रति कुछ करना है। जिस तरह अभी युद्ध चला था तब सेना ने पूरी मेहनत से लड़ाई लड़ी।
योगी भी उसी प्रकार से श्रीभगवान पर ध्यान केन्द्रित करते हैं न कि दुनिया पर। ऐसे ही सेना के जवान भी योगियों के समान रहते हैं।
विद्याविनयसम्पन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः(स्) समदर्शिनः॥5.18॥
श्रीभगवान कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति हाथी, गौ माता और कुत्ता सभी में ईश्वर को देखते हैं। वह सभी को सम दृष्टि से देखते हैं। सभी से नम्रता का व्यवहार करते हैं।
एक दिन नामदेव महाराज खाना खा रहे थे। उनके पास दो रोटी थी। तभी एक कुत्ता आता है और रोटी लेकर भाग जाता है। हम होते तो उस कुत्ते को एक डण्डा तो लगा देते। नामदेव महाराज ने कहा कि रोटी को घी तो लगाकर जाइए।
सामने कोई भी हो, योगी के मन में सन्तुष्टि रहती है। हमें भी सब के प्रति समान भाव रखना चाहिए। यदि हम शत्रु को मार भी रहे हैं तो उसके अन्दर भी श्रीभगवान् है।
श्रीराम ने जब रावण का जब वध किया तो उसका अन्तिम संस्कार विभीषण नहीं कर रहे थे। श्रीराम भगवान ने विभीषण से ही करवाया क्योंकि उनके मन में रावण के प्रति गलत भाव नहीं था।
इहैव तैर्जितः(स्) सर्गो, येषां(म्) साम्ये स्थितं(म्) मनः। निर्दोषं(म्) हि समं(म्) ब्रह्म, तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥5.19॥
वे आसपास के लोगों में दोष नहीं देखते। इस दुनिया में कोई भी सम्पूर्ण नहीं है। कोई अच्छा पढ़ता है, कोई अच्छा खेलता है, कोई अच्छा गाता है। हम सब में कोई न कोई अच्छाई ही है। हम सब में कमियाँ देखते रहते हैं।हमारी कमियाँ कोई न देखे, पर मैं तो सब की कमियाँ ही देखूँगा। हमारे मन में यही भाव रहता है।
यह बहुत सुस्वादु खाना बनाती है। यह बहुत अच्छी रङ्गोली बनाती है। कोई बहुत सुन्दर होता है। उनकी तरफ हम ध्यान क्यों नहीं देते?
ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति निर्दोष दृष्टिवाले हों, इसलिए श्रीभगवान् हमें गीता जी का ज्ञान बता रहे हैं।
न प्रहृष्येत्प्रियं(म्) प्राप्य, नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो, ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥5.20॥
किन्तु योगी छोटी-छोटी बातों से विचलित नहीं होते हैं। श्रीभगवान का ज्ञान होना सबसे अच्छी बात है।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा, विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा, सुखमक्षयमश्नुते॥5.21॥
गाना, सिनेमा यह सब, कुछ समय के लिए अच्छा लगता है। क्या खुशी हमेशा रहने वाली है? इसके बारे में भी सोचना चाहिए। कभी दुःख भी मिल सकता है हमें सोचना चाहिए।
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति सुख और अक्षय है। अक्षय मतलब कभी न समाप्त होने वाला। अक्षय सुख क्या हमारे लिए सम्भव है? यह हमारे लिए सम्भव है तभी तो श्रीभगवान हमें इसको प्राप्त करने के विषय में बता रहे हैं।
ये हि संस्पर्शजा भोगा, दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः(ख्) कौन्तेय, न तेषु रमते बुधः॥5.22॥
इच्छा कभी समाप्त नहीं होती, लेकिन योगी हर परस्थिति में प्रसन्न रहते हैं।
शक्नोतीहैव यः(स्) सोढुं(म्), प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं(म्) वेगं(म्), स युक्तः(स्) स सुखी नरः॥5.23॥
श्रीभगवान् कह रहे हैं कि सुख हमें यहीं पर मिलेगा। इसी संसार में मिलेगा। ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं कि हो सकता है कि यह जो समस्या हमें बड़ी लगती है, वह इतनी बड़ी न हो।
काम और क्रोध का जो वेग है, वह छोटी-छोटी बातों पर दुःखी होने के कारण है। छोटे से खिलौने के लिए बच्चे रोने लगते हैं। मैं कालेज में जा रहा हूँ तो मुझे गाड़ी चाहिए। नहीं मिली तो हमें क्रोध आता है।
काम, क्रोध से जो भाव उत्पन्न होता है, यदि हमने उसे पर नियन्त्रण कर लिया, तो हमारे अन्दर दैवीय गुण आ जएँगे। दैवीय गुण को जैसे-जैसे अपनाते जाएँगे दैवीय गुण वैसे-वैसे बढ़ते जाएँगे।
जो व्यक्ति काम क्रोध के इस वेग को नियन्त्रित कर सके, वही व्यक्ति सुखी रह सकता है। इस प्रकार का परमानन्द योगी प्राप्त करते हैं। उसको हम भी प्राप्त कर सकते हैं।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामः(स्), तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं(म्), ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥5.24॥
अगर श्रीभगवान की प्राप्ति मन में हो गई तो हमें सबसे ज्यादा आनन्द प्राप्त होगा।
यदि हम श्रीभगवान् में अपना ध्यान रखेंगे, अन्तर्ज्योति पर हमारा ध्यान होगा तो ऐसा करते-करते हम योगी के सामान बन पाएँगे। तब श्रीभगवान् ही हमें सम्भालेंगे। बाद में श्रीभगवान् इच्छा करेंगे कि यह मेरा भक्त कभी मुझसे अलग न हो।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः(स्), सर्वभूतहिते रताः॥5.25॥
धर्म की प्राप्ति हो गई तो हम ऋषि बन जाते हैं। योगी मतलब सारा ज्ञान हमें मिल जाता है। श्रीभगवान् का दर्शन हमें हो जाता है।
आर्यभट्ट एवं अन्य वैज्ञानिकों ने अनेक खोज कीं। पाइथागोरस ने प्रमेय कैसे बनाए? यह योगी भी साधना से बन गए और योगी से बन गए ऋषि। ऋषि जो होते हैं वे भगवान के प्रिय होते हैं। सारे संसार में सबके लिए वे कल्याणकारी कार्य करते हैं। सबके हित के लिए हमेशा कार्य करते हैं।
हमारे स्वामी श्री ज्ञानेश्वर महाराज की हर पल किसी न किसी रूप में कथा चलती रहती थी। रात भर भी उनकी कथा चलेगी और दूसरे दिन भी अगला उद्बोधन उसी ऊर्जा से देंगे।
कामक्रोधवियुक्तानां(म्), यतीनां(म्) यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं(म्), वर्तते विदितात्मनाम्॥5.26॥
हम सभी को अच्छे कार्य करने हैं। यदि हम छोटी-छोटी बातों से दुःखी होंगे तो हम अच्छे कार्य नहीं कर पाएँगे।
हम सभी को घर चाहिए। मैं कुछ भी नहीं करूँगा और श्रीभगवान् का नाम लेते रहूँगा। ऐसा तो नहीं होता। हमें संसार में रहना है। अच्छे और बुरे लोगों के बीच में रहना है।
हमें सोचना चाहिए कि हमारा आराध्य क्या है? हमारा केन्द्र बिन्दु श्रीभगवान् ही रहें। आगे चलकर देश की सेवा, समाज की सेवा, श्रीभगवान् की सेवा हमें करनी है। ये सारी बातें हमारे मन में होनी चाहिए।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्, चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा, नासाभ्यन्तरचारिणौ॥5.27॥
हमें कान किसके लिए दिए गए हैं? ज्ञान की बातें सुनने के लिए या पार्टी करने के लिए? आँखें किसलिए दी गई हैं? पिक्चर देखने के लिए या अच्छा पढ़ने के लिए? जो ज्ञान के उपयोग से इन्द्रियों पर संयम कर लेता है, वही योगी कहलाता है।
हम जो अच्छे काम करेंगे, अच्छी बातें सुनेंगे, अच्छी बातें सोचेंगे तो इसका मतलब है कि ज्ञान के द्वारा हमारा अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण हो गया है। हमारे स्वास्थ्य पर हमारा नियन्त्रण हो जाएगा। यदि स्वास्थ्य पर नियन्त्रण हो गया तो मन पर नियन्त्रण हो जाता है।
यतेन्द्रियमनोबुद्धि:(र्), मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो, यः(स्) सदा मुक्त एव सः॥5.28॥
जो गुण हैं, ये हमें रस्सी से बाँध कर रखते हैं। योगी और मुनि व्यक्ति हमें भगवान से बाँधते हैं। हम श्रीभगवान् की भक्ति में बँधने वाले योगी कैसे बन पाएँगे? यह हम आगे के अध्याय में देखेंगे। ध्यान का आसन कैसा होना चाहिए? क्यों सीधे बैठना चहिए? यह हम अगले सत्र में सीखेंगे।
भोक्तारं(म्) यज्ञतपसां(म्), सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं(म्) सर्वभूतानां(ञ्), ज्ञात्वा मां(म्) शान्तिमृच्छति॥5.29॥
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतापत्रंत्मनः ||
मित्र कैसा होता है? हम दोनों आपस मे अच्छा-अच्छा व्यवहार कर रहे हैं। आपका विचार भी अच्छा होगा। बिना किसी फल की इच्छा के हम अच्छा ही सोचते हैं।
आप सभी के सुहृद बन जाते हैं। आप अच्छा करें, तब भी और आप अच्छा नहीं करें तब भी, वह आपके सुहृद बनें। इसलिए सभी कर्म के फल श्रीभगवान् को अर्पण करने के भाव से करना चाहिएं।
यह ज्ञान यदि समझ लिया तो शान्ति प्राप्त हो जाएगी और श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेंगे।
अन्त में श्रीभगवान् का स्मरण करते हुए, श्रीभगवान् की प्रसन्न मूर्ति को सोचते हुए हरि भजन के साथ-
हरि शरणम् हरि शरणम्
गोपालकृष्ण भगवान की जय बोलते हुए, इस सुन्दर अध्याय के विवेचन का समापन हुआ। इसके उपरान्त प्रश्न उत्तर प्रारम्भ हुए।
प्रश्नकर्ता- सानवी दीदी
उसके उपरान्त श्री हनुमान चालीसा पाठ के साथ आज के सुन्दर विवेचन सत्र का समापन हुआ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो नाम पञ्चमोऽध्याय:।।