विवेचन सारांश
सत्त्व, रज, तम और गुणातीत के लक्षण
श्रीभगवान् की अतिशय मङ्गलमय कृपा से हम लोगों का ऐसा सद्भाग्य जाग्रत हुआ है कि हम लोग अपने इस मानव जीवन को सफल करने के लिए, उत्तम बनाने के लिए, जीवन के हर क्षेत्र में विजय प्राप्त करने के लिए, अपने इहलोक और परलोक का कल्याण करने के लिए प्रवृत्त हो गये हैं। अपने इस जीवन में श्रीमद्भगवद्गीता जी का अध्ययन करने लगे हैं।
श्रीभगवान् ने इस अध्याय में तीनों गुणों का वर्णन किया है- सत, रज एवं तमो गुण।
श्रीभगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि में जो हम देखते हैं, समझते हैं, जानते हैं, कल्पना करते हैं, सभी इन तीन गुणों से बनी है। सारे ग्रह, तारे, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी लोक जिसमें नाना प्रकार के जीव, जड़ पदार्थ, नदी, जलचर, नभचर, थलचर देखते हैं। स्त्री-पुरुष, काला-गोरा, अच्छा बुरा सब कुछ इन तीन गुणों से निर्मित हैं।
- C - Cyan
- Y - Yellow
- M - Magenta
- K - Black
- R - Red (লাল)
- G - Green (हरा)
- B - Blue (नीला)
श्रीभगवान् की सम्पूर्ण प्रकृति विविधता से भरी है। सारी विविधता इन तीन गुणों के कारण है। आकर्षण, नाम, रूप की भिन्नता का एकमात्र कारण सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ही हैं।
जिसके जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता होगी, वह श्रीभगवान् समान, देवता समान लगेगा। देख कर ही कहते हैं अरे! कितना सन्त है, जैसे पूज्य स्वामी जी।
- सत्त्वगुणी- शान्त स्वभाव के होंगे।
- रजोगुणी- हिलते-डुलते रहते हैं, अधिक बोलते हैं, इधर-उधर घूमते रहते हैं।
- तमोगुणी - पड़े रहते हैं। सोते ही रहते हैं।
14.11
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्, प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं(म्) यदा तदा विद्याद्, विवृद्धं(म्) सत्त्वमित्युत॥14.11॥
आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
मन, बुद्धि, चित्त और अहं ये अन्त:करण चतुष्टय हैं।
इन इन्द्रियों से मैं क्या देखता हूँ? क्या सुनता हूँ? क्या बोलता हूँ? यह स्पष्ट होना चाहिए।
The more satvik you are, the more active you are.
उसके पास जाने पर वह प्रश्नों का तुरन्त उत्तर देगा।
राजस, तमस अपनी गलती नहीं मानते। दूसरे को दोषी ठहराते हैं। वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति को कारण बताते हैं-
- अपनी गलती के लिए स्वयं को दोषी मानना सत्त्व है।
- अपनी गलती के लिए बहाने बनाना रजस है।
- अपनी गलती के लिए दूसरे को दोषी ठहराना तम है।
लोभः(फ्) प्रवृत्तिरारम्भः(ख्), कर्मणामशमः(स्) स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥
1. काम,
2. क्रोध,
3. लोभ,
4. मोह,
5. अहङ्कार।
1. लोभ,
2. प्रवृत्ति,
3. कर्मों का आरम्भ,
4. अशान्ति,
5. स्पृहा।
लोभ-
जितना रजोगुण होगा उतना और अधिक पाने का लोभ बढ़ेगा।
मोबाइल का नया मॉडल दिखेगा, नए वस्त्र दिखेंगे, घर के लिए नया सामान दिखेगा, इस बार दीवारों पर ऐसा रङ्ग करवाऊँगा। मनुष्य नाना प्रकार की कल्पनाएँ करता रहता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
जिमि अति लाभ लोभ अधिकाई।
वास्तव में धन बढ़ने पर धन का महत्त्व कम हो जाना चाहिए। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता, जिसके पास कम धन होता है उसके लिए धन का महत्त्व कम होता है।
हम ऐसा कहते है अमुक व्यक्ति इसलिए दरिद्र है क्योंकि उसके लिए धन का मूल्य नहीं है। उसे सौ रुपये दिए, वह सौ रुपये खर्च करके आ गया।
- हमारे जीवन में कम धन है और धन का महत्त्व भी कम होता है।
- हमारे जीवन में धन अधिक है लेकिन जीवन-मूल्य कम होता हैं।
पहले दस हजार रुपये वेतन था। फिर पचास हज़ार हुआ और अब एक लाख रुपए है। जब दस हजार वेतन था तो कोई EMI नहीं थी। पचास हजार होने से EMI पर सामान आने लगा। एक लाख के वेतन पर डर लगता है कि नौकरी गई तो EMI कैसे देंगे? तनाव में रहते हैं और तनाव से बीमार हो जाते हैं। जब वेतन दस हजार था तब कोई तनाव नहीं था, बीमारी भी नहीं थी।
धन का अर्जन किस लिए करते हैं। धन का उपयोग सुख-शान्ति के लिए है, किन्तु हम सुख-शान्ति देकर धन खरीदते हैं। उसके लिए झगड़ा भी करते हैं, यह रजोगुण है।
पर्याप्त कमाई है फिर भी धन का अभाव है, यह तमोगुण है।
अपवाद हो सकते है।
धन बढ़ता गया वासनाएँ(इच्छाएँ) बढ़ती गईं।
1. यश का लोभ,
2. धन का लोभ,
3. साधनों का लोभ।
कामना बुरी नहीं है। लोभ बुरा है।
- लोभवश, अन्यायपूर्वक कामनाओं की पूर्ति करना अनुचित है।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
अर्थात्
श्रीभगवान् कहते हैं कि अर्जुन युद्ध में मारे गए तो स्वर्ग को भोगना और जीते तो धरती पर राज्य करना।
श्रीभगवान् भोगों के लिए मना नहीं करते। श्रीभगवान् कहते है कि न्यायपूर्वक धन अर्जित करो, दूसरों के अधिकार का हनन नहीं होना चाहिए।
प्रवृति-
रजोगुण बढ़ने से लोभ बढ़ता है। जितना रजोगुण बढ़ेगा, मनुष्य की क्रियाशीलता बढ़ेगी।
प्रवृत्ति बढ़ती है तो वह कुछ-न-कुछ हरकत करता रहेगा, बैठा है तो पैर हिलाता रहेगा, साड़ी का पल्लू लपेटता रहेगा, बालों में हाथ फिराता रहेगा, घास उखाड़ता रहेगा, इधर-उधर घूमता रहेगा। उसे हर जानकारी चाहिए। काम वाली बाई के आने पर उसे सारे मोहल्ले की जानकारी चाहिए। वह प्रवृत्तिशील है। सब कुछ पता होना चाहिए। बहुत दिन हो गए तो तुमसे बात कर लेते हैं।
कर्मणाम्-
आवश्यकता नहीं होने पर भी कुछ करना।
नए-नए कर्मों का आरम्भ करना है।
अशम-
इन्द्रियों पर, मन पर नियन्त्रण नहीं रहता। मन बेहद चञ्चल होता है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं होता।
रजोगुणी व्यक्ति चञ्चल होता है। जो व्यक्ति जितना रजोगुणी होगा उतना अधिक चञ्चल होगा। उसकी दृष्टि उतनी ही चञ्चल होगी, अस्थिर होगी। यह चञ्चलता उस की आँखों में दिखती है। कोई व्यक्ति चञ्चल है या नहीं, यह उसकी आँखें देखकर बताया जा सकता है।
सतोगुणी व्यक्ति की दृष्टि स्थिर होगी, एक स्थान पर टिकी होगी।
रजोगुणी व्यक्ति की दृष्टि चारों ओर घूमती रहती है। स्कैनर की तरह काम करती है। जिसके नेत्र जितने चञ्चल होते हैं उसका मन उतना चञ्चल होता है। कुछ लोग जैसे ही कहीं जाते हैं, उनकी दृष्टि चारों ओर घूमकर स्कैनर की तरह काम करती है। घर कितना बड़ा है, किराया कितना होगा, पर्दे कैसे लगे हैं? अच्छी हो या बुरी मन में हलचल होती है।
जितना मन शान्त उतना सत्त्व प्रधान।
रजोगुण का सबसे बडा लक्षण है स्पृहा।
जिस विषय को देखा उसकी प्रवृत्ति तुरन्त उससे चिपक जाएगी। बड़ा मोबाइल, घर अच्छा है, गाड़ी कितनी अच्छी है, ऐनक सुन्दर है। फेसबुक पर कितनी अच्छी पोस्ट साझा की है, वह हर जगह चिपकता है।
लड्डू खाया तो बोले अरे वाह लड्डू कहाँ से आए? लड्डू तो खा लिया, पर मन लड्डू से चिपक गया। अमुक जगह गया था तो वहाँ बहुत अच्छे लड्डू खाए थे। जब दोबारा जाऊँगा तो फिर से लड्डू खाऊँगा। पाँच साल बाद भी लड्डू की बात आने पर फिर से किस्सा दोहराया जाएगा। पाँच साल बाद भी लड्डू का स्वाद याद है।
समस्या लड्डओं में नहीं उनसे चिपकने में है।
किसी की पोशाक देखकर चिपक गए। कहाँ से ली? किस ब्राण्ड की है?
जिस क्षेत्र में रुचि, मनुष्य वहीं चिपक कर जाता है।
iphone लेना था, iphone ले लिया। किसी ने बोला अरे pro वाला लेना था। iphone pro ले लिया। उसके बाद किसी अन्य ने बोला अरे अब तो नया version आ गया है वह लेना। मन चिपकता रहता है। किसी ने iphone लेने के लिए अपनी किडनी (kidney) बेच दी। उसे समझ नहीं आया कि फिर से नया माडल आने पर क्या होगा?
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च, प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥
तमोगुण सत्त्वगुण का विपरीत है।
सत्त्वगुणी सही बात को सही और अनुचित को अनुचित मानता है।
जो करना चाहिए उसे टाल देता है।
नींद बहुत आती है। बस पड़े रहते हैं। स्नान करने को कहो तो भी अच्छा नहीं लगता। कहता है, शेरों ने भी कभी मुँह धोया है। भाँति-भाँति के बहाने ढूँढ लेता है। सुबह उठता है, कठिनाई से खाता है, फिर जाकर पड़ जाता है। पूछने पर कि ग्यारह बजे तो सोकर उठा है अब फिर सो गया। वह कहता है कि थक गया, कुछ देर लेटने दो।
बन्दर और मगरमच्छ दोनों दोस्त थे। बन्दर प्रतिदिन मगरमच्छ को जामुन खिलाता था। वह अपनी पत्नी के लिए भी जामुन लेकर जाता था। एक बार मगरमच्छ ने यह बात अपनी पत्नी को बताई। मगरमच्छ की पत्नी ने कहा कि बन्दर जामुन के वृक्ष पर रहता है उसका कलेजा कितना मीठा होगा। मुझे उसका कलेजा खाना है। उसने बन्दर का कलेजा खाने की ठान ली। मगरमच्छ ने बन्दर को अपने घर आने का न्योता दिया। जब मगरमच्छ बन्दर को ले जा रहा था तो बीच रास्ते में उसने बन्दर को सच्ची बात बताई।
मगरमच्छ में तमोगुण है, मोह है, मूढ़ता है।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु, प्रलयं(म्) याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां(म्) लोकान्, अमलान्प्रतिपद्यते॥14.14॥
श्रीभगवान् ने सोचा कि अर्जुन पूछेंगे कि इनकी गति क्या होगी?
श्रीभगवान् अर्जुन से कहते हैं कि जब मनुष्य में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है और सत्त्वगुण की प्रधानता में वह मृत्यु को प्राप्त होता है।
अर्थात्
मृत्यु के समय जिसका सत्त्वगुण प्रधान होता है, वह जीव उत्तम कर्म करने वाले दिव्य, उत्तम, निर्मल स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होता है।
रजसि प्रलयं(ङ्) गत्वा, कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि, मूढयोनिषु जायते॥14.15॥
श्रीभगवान् कहते हैं कि रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्य को कर्मों में आसक्ति वाली मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ता है।
तमोगुण की वृद्धि होने पर मरने वाला मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है।
कर्मणः(स्) सुकृतस्याहुः(स्), सात्त्विकं(न्) निर्मलं(म्) फलम्।
रजसस्तु फलं(न्) दुःखम्, अज्ञानं(न्) तमसः(फ्) फलम्॥14.16॥
श्रीभगवान् अर्जुन से कहते हैं कि-
चञ्चलता अधिक है, तब रजोगुण प्रधान है।
आलस्य के कारण यूँ ही पड़े रहते हैं, तब तमोगुण प्रधान है।
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं(म्), रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो, भवतोऽज्ञानमेव च॥14.17॥
श्रीभगवान् कहते हैं कि
- सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है।
- रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है।
- तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान उत्पन्न होते हैं।
ऊर्ध्वं(ङ्) गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था, अधो गच्छन्ति तामसाः॥14.18॥
श्रीभगवान् कहते हैं कि-
- सत्त्व गुण में स्थित मनुष्य स्वर्ग आदि उच्च लोकों को जाते हैं।
- रजोगुण में स्थित मनुष्य, मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं।
- तमोगुण में अर्थात् निद्रा, प्रमाद, आलस्य में रहने वाले तामसिक वृत्ति वाले मनुष्य कीट, पशु, नीच योनियों को प्राप्त करते हैं। भूत-पिशाच आदि योनियों में भी जाते हैं। अधोगति को प्राप्त होते हैं।
नान्यं(ङ्) गुणेभ्यः(ख्) कर्तारं(म्), यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं(म्) वेत्ति, मद्भावं(म्) सोऽधिगच्छति॥14.19॥
श्रीभगवान् कहते हैं कि अर्जुन! जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्त्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से परे मेरे गुणातीत सच्चिदानन्द स्वरूप को जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्, देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखै:(र्), विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥14.20॥
श्रीभगवान् कहते हैं कि अर्जुन! मनुष्य इन तीनों गुणों का उल्लङ्घन करके जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था, व्याधि, सब प्रकार के सुख-दुःख से रहित होकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त हो जाता है।
अर्जुन उवाच
कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणानेतान्, अतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः(ख्) कथं(ञ्) चैतांस्, त्रीन्गुणानतिवर्तते॥14.21॥
अर्जुन ने श्रीभगवान् से पीएचडी के स्तर का प्रश्न किया। श्रीभगवान् ने अर्जुन को कहा कि गुणातीत के लक्षण समझ लेना किन्तु इनका प्रयोग दूसरों पर नहीं करना। यह सिद्धों की, योगियों की बात है। यह सिद्ध स्थिति की बात है।
एक बार भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों को उपदेश दे रहे थे। गोपियों ने कहा कि आप उपदेश तो बड़े-बड़े करते हो किन्तु स्वयं कैसा आचरण करते हो? माखन चुरा कर खाते हो, परेशान करते हो।
श्रीभगवान् को लगा कि गोपियों को शिक्षा देनी पड़ेगी। अगले दिन भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपियों से कहा कि यमुना जी के पार दुर्वासा ऋषि पधारे हैं।
दुर्वासा ऋषि केवल दूर्वा का भक्षण करते थे इसलिए उनका नाम दुर्वासा पड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपियों से कहा कि तुम दुर्वासा ऋषि के लिए छप्पन प्रकार का भोग बनाकर ले जाओ। यदि वे प्रसन्न हो गए तो तुम्हें आशीर्वाद देंगे। गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण का आदर करती थीं इसलिए वे भाँति-भाँति के व्यञ्जन बनाकर जब यमुना जी के किनारे पहुँची तो देखा यमुना जी का जलस्तर बढ़ा हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाकर उन्होंने पूछा कि हमने दुर्वासा ऋषि के लिए भोजन तैयार किया है पर यमुना जी का जलस्तर बड़ा हुआ है, कैसे जाएँ?
दुर्वासा जी को प्रणाम करके उन्होंने कहा कि हमें भगवान् श्रीकृष्ण ने आपको भोजन देने को कहा है। दुर्वासा ऋषि ने कहा वैसे तो मैं दूर्वा के अतिरिक्त कुछ नहीं खाता लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा कहा है तो उन्होने प्रसन्नतापूर्वक पन्द्रह थाली भोजन खा लिया। दुर्वासा ऋषि को सन्तुष्ट करके, उन्हें प्रणाम कर, आशीर्वाद लेकर वापस गोपियाँ यमुना जी के पास पहुँची। वहाँ देखा कि यमुना जी का जलस्तर अभी भी बड़ा हुआ है।
यमुना जी को पार करके घोर आश्चर्य से भरी गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के पास पहुँचीं। भगवान् श्रीकृष्ण ने पूछा कि दुर्वासा ऋषि को भोजन कराया? उन्होंने क्या कहा? और तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे। गोपियों ने कहा कि हे कृष्ण! पहले हमारी शङ्का का समाधान करो कि वह कृष्ण कौन हैं, जिन्होंने स्त्री मुख नहीं देखा और दुर्वासा कौन हैं? जिन्होंने हमारे सामने भोजन किया? जिन्होंने हमें यमुना जी को रास्ता देने का उपाय बताया था। तुम तो दिन भर हमारे साथ रहते हो, हमें देखते हो और दुर्वासा ऋषि ने हमारे सामने ही भोजन किया था। हम यह सब सत्य कैसे मानें।
यदि आँखें होते हुए भी मन भोगों को स्पर्श नहीं करता तो वह नहीं देखने के समान है।
दुर्वासा ऋषि ने तुम्हारे देखते-देखते भोजन खा लिया लेकिन उस भोजन को खाने पर उनके मन में आसक्ति नहीं थी। उनका मन उसमें नहीं लगा था। परिणामस्वरूप खाने के बाद भी वह भोजन उन्होंने नहीं खाया था।
इसलिए दोनों बार यमुना मैया ने तुम्हें रास्ता दे दिया।
हम भी हवाई जहाज में यात्रा करते हैं और पूज्य स्वामी जी भी वायुयान में चलते हैं। जब हम वायुयान में बैठते हैं तो हमारे मन में एक विशिष्ट भाव रहता है जबकि पूज्य स्वामी जी के मन में ऐसा कोई भाव नहीं होता।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं(ञ्) च प्रवृत्तिं(ञ्) च, मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि, न निवृत्तानि काङ्क्षति॥14.22॥
दुर्वासा ऋषि के सामने थाली आ गई तो उन्होंने थाली से भोजन कर लिया। कभी नहीं कहा कि मैं तो दूर्वा खाता हूँ, भोजन नहीं करता। उनको यह भाव नहीं है कि मैंने आज भोजन किया है तो कल भी मुझे भोजन ही चाहिए।
न तो उनकी प्रवृत्ति है न कर्म से निवृत्ति ।
उदासीनवदासीनो, गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव, योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥14.23॥
जो भौतिक गुणों की इन समस्त प्रतिक्रियाओं से निश्चल तथा अविचलित रहता है एवं यह जानकर कि मात्र गुण ही क्रियाशील हैं, उदासीन तथा दिव्य बना रहता है, जो अपने आप में स्थित है।
गुणातीत योगी- ऋषि दुर्वासा
दुर्वासा ऋषि बैठे हैं। भोजन आ गया है। आँखें भोजन को देखती हैं, हाथ भोजन को उठाता है, मुख भोजन को चबाता है, गला उसे निगल लेता है और पेट भोजन को पचा देता है। दुर्वासा ऋषि कहते हैं कि मैं भोजन नहीं करता। सारे काम शरीर के विभिन्न अङ्गों द्वारा हो रहे हैं, मैं कुछ नहीं करता। गुण ही गुणों में रम गए हैं।
वह साक्षी के सदृश सभी बातों को देखता है और ऐसा समझते हुए परमात्मा में स्थित रहता है।
समदुःखसुखः(स्) स्वस्थः(स्), समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीर:(स्), तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥14.24॥
श्रीभगवान् कहते हैं, जो निरन्तर परमात्मा में स्थित रहता है, वह धीर मनुष्य है। वह सुख-दु:ख में समान रहने वाला, मित्र-शत्रु में समान भाव रखने वाला, ज्ञानी, प्रिय-अप्रिय को एक समान मानने वाला है।
हम लोग सुख आने पर फेसबुक पर लिख देते हैं। फिर देखते हैं किसने पसन्द किया? किसने उस पर टिप्पणी की? थोड़ा उदास हो जाने पर या मन की न हो तो दर्द भरे गीत लगा लेते हैं।
किसी में प्रीति नहीं लगाता।
मानापमानयोस्तुल्य:(स्), तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः(स्) स उच्यते॥14.25॥
श्रीभगवान् कहते हैं कि जो मान-अपमान में सम रहता है, जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ से कर्ताभाव से मुक्त है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।
गुणत्रयविभागयोग गुणत्रय सत्त्व, रज तम का अध्याय है। सम्पूर्ण प्रकृति पदार्थ और क्रिया का परिणाम है इसीलिए ये दोनों तीनों गुणों से आच्छादित हैं।
उपनिषद् के अनुसार-
व्यक्ति तदनुसार लक्षणम्, लक्षणम तदनुसार व्यक्ति:।
जैसा व्यक्ति होता है उसके अनुसार उसके लक्षण होते हैं या जैसे लक्षण होते हैं उनके अनुसार उसका व्यक्तित्व होता है।
सात्त्विक व्यक्ति का व्यवहार सात्त्विक होगा या सात्त्विक लक्षणों वाला व्यक्ति सात्त्विक होगा। एक ही बात है।प्रत्येक पदार्थ व क्रिया इन तीनों गुणों से आच्छादित होती है, बात केवल प्रधानता की है। हम अपने को सत्त्वगुणी मानते हैं तो क्या हमारे भीतर वैसे लक्षण हैं? यदि लक्षण नहीं हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम सत्त्वगुणी नहीं हैं। तथा ऐसे में अपने को रजोगुणी मानें या तमोगुणी? हम पूरे दिन में कभी सतोगुणी होते हैं, कभी रजोगुणी और कभी तमोगुणी होते हैं।
अब हम आत्म मूल्याङ्कन के लिए गुणत्रय- सत्त्व, रज, तम को देखते हैं। ये सारे हमें दूसरों पर लागू नहीं करने हैं।
गुणत्रय- सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के निम्न लक्षण होते हैं।
1. व्यवहार -
सात्त्विक- सन्तुष्ट
सत्त्वगुणी किसी भी प्रकार की परिस्थिति में सन्तुष्ट रहता है। वह सदा श्रीभगवान् को धन्यवाद करता है। उसके जीवन में शिकायतें कम होती हैं।
भगवान् श्रीराम ने माता शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान देते समय आठवीं भक्ति के विषय में कहा–
आठव जथा लाभ सन्तोषा।
श्रीमद्भगवद्गीता जी के बारहवें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं –
सन्तुष्टो येन केन चित्त्।।
जो जैसा है, मैं सन्तुष्ट हूँ, मुझे कोई परिवर्तन नहीं चाहिए।
मैं तो सन्तुष्ट हूँ पर मेरे आस-पास वाले लोग मुझसे सन्तुष्ट हैं या नहीं? मेरे आस-पास वाले लोग, मेरे साथ रहने वाले लोग मुझसे असन्तुष्ट तो नहीं? सतोगुणी इसका भी ध्यान रखता है।
परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन जयदयाल जी गोयन्दका की कोलकाता में गद्दी थी। वे वहाँ व्यापार करते थे। एक बार कोलकाता में ज्वार का मूल्य बढ़ गया तो उन्होंने राजस्थान से कई ट्रक ज्वार, कम मूल्य पर मँगवा लिया। उनके ऐसा करते ही बाजार में ज्वार की कीमत कम हो गई। शाम को व्यापारियों ने सेठ जी के आगे जाकर अपनी बात कही कि इससे उन्हें हानि होगी क्योंकि उन्होंने अधिक मूल्य पर ज्वार खरीदा था। यह सुनकर सेठ जी की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा कि मेरा यह आशय नहीं था कि किसी का नुकसान हो। उन्होंने सारा ज्वार उसी रास्ते से ही वापस भिजवा दिया। जहाँ तक हो सके मेरे आस-पास के लोग किसी भी प्रकार से दुःखी न हों। मेरे सही करने से भी दूसरों का कष्ट हो रहा हो तो मुझे वह कार्य नहीं करना है।
सात्त्विक व्यक्ति स्वयं हानि उठाकर भी दूसरों का लाभ करता है।
राजसिक – असन्तुष्ट
रजोगुणी यही कहता है कि यदि मेरा अमुक काम हो जाए तो मैं सन्तुष्ट हो जाऊँ। सारा दिन इसी काम में माथापच्ची करता है। होना तो सन्तोषी चाहता है पर कामनाएँ समाप्त नहीं होतीं। जीवन भर सन्तोष की दौड़ में भागता रहता है।
तामसिक – आलस्य से सन्तुष्ट
देखने में सतोगुणी के जैसा ही लगता है। काम करने की प्रवृत्ति नहीं है। अपने से कुछ लेना-देना नहीं। दूसरे से असन्तुष्ट रहता है। पड़ोसी ऐसा क्यों कर रहा है? वैसा क्यों कर रहा है? मौज में क्यों रह रहा है? इतनी सम्पत्ति कैसे अर्जित कर ली? अपने को मिले या न मिले, पर दूसरे की प्रगति से जलता है। वह आलस में सन्तुष्ट रहता है पर उसे दूसरों की प्रगति से असन्तोष होता है।
2. वाणी -
सात्त्विक -
सत्य बोलता है और सबसे प्रिय बात करता है। जिसकी वाणी धीमी है है(Volume और speed दोनों कम हैं)- वह सतोगुणी है।
श्रीभगवान् ने कहा
वाक्यं सत्यं प्रियहितं च।
मैं तो सच बोलता हूँ, दूसरे को बुरा लगे तो लगे। ऐसा सुनाया एक हफ्ते तक नींद नहीं आएगी।
नीतिशास्त्र में कहा गया है -
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।
श्रीभगवान् ने कहा कि सत्य को प्रिय ढङ्ग से बोलना चाहिए। जिस सत्य को प्रिय ढङ्ग से बोलना सम्भव न हो तो चुप हो जाएँ।
हम उल्टा करते हैं, सच बोलने के बहाने जो किसी को बुरा लगे, वह पहले बोलते हैं। चुप रहिए। दूसरे को बुरा लगे वह मत बोलिए। जब तक बहुत आवश्यक ना हो तब तक नहीं बोलना चाहिए। यदि बोलना भी हो तो उस अप्रिय बात को चाशनी में लपेटकर बोलना चाहिए।
सच को मीठी चाशनी में लपेटकर बोलने वाला सात्त्विक है।
इनका मानना है -
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
राजसिक-
दम्भी होते है, जोर-जोर से बोलने वाले होते हैं। अपने को बड़ा दिखाने का प्रयास करता है। वाणी का Volume और speed दोनों तीव्र हैं। अपनी बात सिद्ध करने के लिए तीव्र ध्वनि से बोलता है और झगड़ा करता है। रास्ते में जा रही गाड़ी को देखकर ही चिल्लाने लगता है, अरे! अभी गाड़ी लग जाती तो क्या होता? एक्सीडेंट हो जाता तो क्या होता? तुम्हारी गाड़ी से दूसरे का पैर टूट जाता।
वह सदा दूसरों को ज्ञान देता है, उत्तेजित होकर बोलता है। अपने को सही साबित करने के लिए जोर से बोलता है। कटाक्ष करता है, उपहास और व्यङ्गय करता है। अवसर मिलने पर दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करता है।
इनका मानना है -
ऐसी वाणी बोलिए, सबसे झगड़ा होए।
लेकिन उससे झगड़ा न करें, जो तुमसे तगड़ा होए।।
तामसिक- विवेकहीन
तमोगुणी हर किसी से झगड़ा कर लेता है। बिना कारण अपशब्द बोलता है। ऐसे लोगों को चुप कराना पड़ता है। किसी का ध्यान नहीं करता, चाहे अपनी हानि हो जाए। हितैषी को भी उल्टा बोल देता है। उल्टी बात करता है। विवेकहीन होता है। दूसरों को कष्ट देने वाला होता है। अपने लाभ करने वाले को वह भी कष्ट देता है। अपनी हानि करता है।
सात्त्विक
भूख के अनुसार भोजन करता है। जितनी भूख लगी है उतना ही भोजन करता है। क्षुधा पूर्ति के लिए प्रसन्नता पूर्वक भोजन करता है।
राजसिक
स्वाद के लिए भोजन करता है। भोजन का समय होने पर पसन्द का भोजन मिल गया तो खा लिया। यदि पता चला कि आज अच्छा खाना नहीं बना है तो बाहर से मँगा लिया। वह भोजन में स्वाद ढूँढ़ता है।
तामसिक
अशुद्ध मादक भोजन करता है।
भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार नहीं करता। मांस-मदिरा का सेवन करता है। सात्त्विक भोजन अच्छा नहीं लगता। मन का कुछ आ गया, पसन्द का मिल गया तो खा लिया। पेट भरा होने पर भी खा लेता है।
4. वस्त्र
सात्त्विक -
श्वेत, हल्के रङ्ग के, सूती, आरामदायक, सुविधाजनक होते हैं, फैशनेबल नहीं होते ।
राजसिक
चटक रङ्गो के, फैशनेबल, रङ्गीन, सुन्दर, नवीन।
तामसिक
मैले, असुविधाजनक, असभ्य, उल्हे, पुल्टे, मैले कुचले, बिना धुले हुए, जीन्स लेगा ताकि मैली होने पर मैली दिखाई न दें।
5. आवास
सात्त्विक-
शुद्ध, स्वच्छ, व्यवस्थित, हवादार, भगवान के सुन्दर चित्रों से युक्त होगा
राजसिक-
विलासितापूर्ण घर में कीमती फर्नीचर, कीमती सजावटी सामान, कृत्रिम प्रकाश, छोटी-छोटी खिडकियाँ होंगी।
तामसिक -
घर अव्यवस्थित होगा, धूल जमी होगी, कपड़े अव्यवस्थित होंगे जाले लगे होंगे। अलमारियाँ गन्दी होंगी ।
6. निवेश
सात्त्विक -
सुरक्षित निवेश में विश्वास करता है, जहाँ खतरा नहीं है। दान-पुण्य में पैसा लगाता है, जिससे उसका आगे का जन्म सफल हो। वह अपने धन को सुरक्षित रखने के लिए किसान विकास पत्र, एफ डी, पी.पी.एफ.और एल.आई.सी में भी पैसा लगाता है।
राजसिक-
अपना पैसा म्यूचुअल फण्ड, शेयर या सट्टे में लगाता है, जिससे अधिक पैसै आएँ।
तामसिक-
अपना पैसा जुए, लॉटरी में उड़ाता है। दस रूपये के सौ रूपये बन जाएँ या एक बार में पैसे दुगुना हो जाएं। उसके मन में हर समय यही विचार चलता है।
7. कार्य
सात्त्विक
कर्त्तव्य के रूप में कार्य करता है। उसका क्या कर्त्तव्य है, वह अपने श्रेय का ध्यान रखता है।
What are my duties? What everyone os expecting out of me?
राजसिक
मन के लिए करता है। वह श्रेय को जानता है, परन्तु उसकी दृष्टि प्रेय पर होती है। वह वही करता है जो उसका मन करता है, कर्त्तव्य हो या न हो।
तामसिक -
जबरदस्ती कुछ करवा लिया जाए तो विवश होकर वह कुछ काम कर देता है। उसका ध्येय है-
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥
मुझे क्यों काम करना है, मैं क्यों करूँ जिसे करना हो वह करें।
उसे न श्रेय से प्रयोजन है न प्रेय से।
8. भाव
सात्त्विक -
जो करता है वह दूसरों के हित के लिए करता है।
लङ्काकाण्ड में जब सेना समुद्र पार पहुँच गई तो भगवान् श्रीराम ने अङ्गद को शान्ति दूत बनाकर भेजा। अङ्गद ने रामजी से पूछा कि मुझे वहाँ क्या कहना है? इस पर श्रीरामजी ने कहा-
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥
शत्रु से वे ही बातें करना, जिससे हमारा काम हो जाये और उसका भी कल्याण हो। हमारा काम भी बन जाए और उसका भी हित हो जाए।
राजसिक -
रजोगुणी के लिए अपना स्वार्थ साधना सर्वोपरि होता है।
कई बार तो मन्दिर में जाने वाले भी कुछ ऐसे ही करते हैं। एक आदमी ने अपनी चप्पल की जगह बनाने के लिए वहाँ पड़ी सारी चप्पलों को पैर से हटा कर एक ओर कर दिया और अपनी चप्पल उतार कर अन्दर चला गया। चाहे बाद में अन्य लोगों को अपनी चप्पलें ढूँढने में कितनी ही कठिनाई क्यों न हो।
रजोगुणी का तो यही ध्येय वाक्य रहता है-
अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।
तामसिक-
अपना भी नाश करता है दूसरों का भी नाश करता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
जिमि हिमि उपल कृषी दलि गरही।
वे दूसरों का धन बर्बाद करके, खुद भी नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके, ओला स्वयं भी नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार ओले फसल को नुकसान पहुँचाते हैं और खुद भी नष्ट हो जाते हैं। तमोगुणी व्यक्ति अपने हित का विचार नहीं करता और दूसरों के भी हित का विचार नहीं करता है।
9. रुचि
सात्त्विक-
धर्म, कार्य और सेवा में रुचि रहती है। समाज में कोई अच्छा काम हो और उसमें मेरा भी योगदान हो जाए।
राजसिक-
दम्भ और मान में रुचि रहती है। वह नाम, यश, लोभ बढ़ाने के लिए सारा दिन काम करता है, दिखावा करता है। लोग मुझे जानें, मुझे मानें, अच्छा मानें।
तामसिक-
सदैव अधर्म की बातें करता है और विपरीत काम करता है। अधर्म में रुचि रखता है।
10. इच्छाएँ
सात्त्विक-
आवश्यकताओं को महत्त्व देता है।
Needs और wants के अन्तर को जानता है।
राजसिक-
इच्छाओं को आवश्यकता बना लेता है।
शादियों के मौसम में स्त्रियाँ अपने कपड़े और अलङ्करण दिखाने की चाह में ठण्ड में सिकुड़ती रहती हैं लेकिन गर्म वस्त्र नहीं पहनतीं। इच्छा पूर्ति के लिए आवश्यकता का त्याग कर देती हैं।
तामसिक-
दूसरों की कामनाओं में बाधा बनता है। अपनी इच्छा की परवाह नहीं लेकिन दूसरों का काम नहीं बनना चाहिए।
11. सङ्ग
सात्त्विक-
सज्जनों का सङ्ग करता है, उसे अच्छे लोगों के साथ रहना पसन्द है।
राजसिक-
सदैव धनी व बड़े लोगों का सङ्ग करता है। उच्च पदस्थ का सङ्ग, धनी, प्रभावशाली व्यक्तियों का सङ्ग करता है।
तामसिक-
अच्छे लोगों से दूर रहता है।
सङ्ग के महत्त्व को बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
धूल यदि वायु का सङ्ग करती है तो आकाश में जाती है लेकिन जल के सङ्ग में कीचड़ बनकर जमीन पर फैल जाती है। हम वायु का सङ्ग करके अपने को ऊपर ले जाते हैं और कीचड़ का सङ्ग करके, अपने जीवन को कीचड़ बना देते हैं।
सङ्ग और कुसङ्ग जीवन को बनाने, बिगाड़ने का कार्य करते हैं।
एक बार गाँधी जी के पास एक व्यक्ति बारह तेरह पृष्ठों का पत्र लेकर गया। उसमें उनकी बड़ी आलोचनाएँ लिखी थीं, अपेक्षित कार्य पद्धति लिखी थी। गाँधी जी ने पढ़कर उस में लगी पिन को निकालकर अपने पास रख ली और वह पत्र उसी व्यक्ति को लौटा दिया। व्यक्ति के पूछने पर गाँधी जी ने कहा कि जो काम का था वह मैंने अपने पास रख लिया और बिना काम का आपको दे दिया। हम में से कोई होता तो चिट्ठी पढ़कर चिढ़ जाता। ऐसे ही हमें भी अपने काम की बातें रख लेनी चाहिए और बाकी छोड़ देनी चाहिए।
ये सारी बातें हम में हैं। कहीं पर परिस्थति विशेष में सतोगुणी भी तमोगुणी वाले कार्य करता दिखता है। किसके जीवन में किसकी प्रधानता है। यह दिखाता है कि किसका जीवन अधिकांशतः सतोगुणी है, रजोगुणी है या तमोगुणी है।
एक घटना या कार्य, जीवन को बिगाड़ती नहीं है। दूसरे का अवलोकन करना है तो पूरा जीवन देखना चाहिए। एक अच्छी बात बोली तो व्यक्ति अच्छा नहीं होगा और एक अनुचित बात बोली तो व्यक्ति बुरा नहीं होता। एक काम त्रुटिपूर्ण हो गया तो व्यक्ति ठीक नहीं हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। एक अच्छे काम से मनुष्य अच्छा नहीं होता।
कभी-कभी उत्तम व्यक्ति से एक अनुचित काम हो जाता है तो हम उसकी जीवन भर आलोचना करते रहते हैं।
पूरे जीवन का अवलोकन करना ही उचित होता है, किसी के प्रति अपने मत का निर्धारण करने से पूर्व।
मां(ञ्) च योऽव्यभिचारेण, भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥14.26॥
श्रीभगवान् कहते हैं कि जो व्यक्ति अव्यभिचारिणी भक्तियोग के द्वारा मुझको भजता है वह भली-भाँति जानता है कि वह भी मेरे गुणातीत सच्चिदानन्द रूप को प्राप्त होगा।
हमें संसार और श्रीभगवान् एक साथ चाहिए। ऐसा सम्भव नहीं है।
जो संसार के प्रति वैराग्य करके श्रीभगवान् का भजन करते हैं। वे अव्यभिचारिणी भक्ति करते हैं।
मुझे आपके अतिरिक्त कुछ और नहीं चाहिए। मैं आपसे कुछ और नहीं माँगता, यह वृत्ति अव्यभिचारिणी है।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्, अमृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य, सुखस्यैकान्तिकस्य च॥14.27॥
अर्थात्
प्रश्नोत्तर सत्र
प्रश्नकर्ता- निशा गर्ग दीदी।
प्रश्न- कभी-कभी हमारे जीवन में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। जिसके कारण हमें किन्हीं दो पक्षों के समक्ष वह सत्य बोलना पड़ता है जो एक पक्ष हेतु तो सत्य है परन्तु अन्य पक्ष हेतु असत्य। ऐसी स्थिति में हम क्या कर सकते हैं? मेरा मार्ग दर्शन कीजिए।
उत्तर- ये परिस्थितियाँ यदा-कदा हम सभी के जीवन में आ ही जाती हैं। जब हमें किसी एक मार्ग का चयन करना पड़ता है। जीवन में आने वाली इन विषम परिस्थितियों में भी श्रीमद्भगवद्गीता जी के माध्यम से श्रीभगवान् हम सभी का मार्ग दर्शन करते हुए कहते हैं कि-
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ||
इस श्लोक के द्वारा श्रीभगवान् यह वर्णित करते हैं कि मानव जीवन में कैसी भी परिस्थितियाँ उत्पन्न हों, प्रत्येक मनुष्य को सत्य के पथ का ही अनुसरण करना चाहिए, परन्तु जब किसी मनुष्य के समक्ष कोई सत्य प्रस्तुत किया जाए तब वह उस व्यक्ति को पीड़ा पहुँचाने वाला या उसका अहित करने वाला नहीं होना चाहिए।
सात्त्विकता को जीवन में धारण करने हेतु सत्य को कदापि न त्यागें तथा जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति में सत्य का साथ आवश्यक है।
प्रश्नकर्ता- शीला मुराका दीदी।
प्रश्न- जब हम शान्ति पाठ करते हैं तब ॐ शान्ति तीन बार उच्चारित करते हैं। मैंने किसी आलेख का अध्ययन किया तथा उसके अनुसार तीन बार ॐ शान्ति का उच्चारण आध्यात्मिक, अधिदैविक, अधिभौतिक शक्तियों की शान्ति हेतु किया जाता है। आध्यात्मिक का तो मुझे ज्ञान है परन्तु अधिदैविक एवं अधिभौतिक से मैं अनभिज्ञ हूँ। यह क्या हैं?
उत्तर- मनुष्य को तीन प्रकार के दुख या ताप होते हैं, जिन्हें त्रिविध ताप कहा जाता है। वे हैं- आध्यात्मिक ताप, आधिभौतिक ताप और अधिदैविक ताप।
आध्यात्मिक ताप- मन और शरीर को कष्ट होने वाला दु:ख, जैसे कि अविद्या, राग, द्वेष, मूर्खता, बीमारी आदि।
अधिभौतिक ताप-अन्य जीवों या बाहरी तत्वों से होने वाला दु:ख, जैसे कि जङ्गली जानवर, सर्प, या दुश्मन।
अधिदैविक ताप- देवी-देवताओं या कर्मों से होने वाला दु:ख, जैसे कि प्राकृतिक आपदाएँ या भाग्य के कारण होने वाले कष्ट।
ये तीनों ताप ही मनुष्य के समाप्त हो जाएँ, इस हेतु ॐ शान्ति को तीन बार उच्चारित किया जाता है।
।।ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय:।।