विवेचन सारांश
समाज ऋण से मुक्ति के योग्य कर्म
प्रार्थना, दीप प्रज्वलन व गुरु वन्दना से तीसरे अध्याय का विवेचन प्रारम्भ हुआ। तीसरे अध्याय का नाम है कर्मयोग। भगवान इस अध्याय में कर्म के महत्व के बारे में बताते हैं। अगर हम अच्छा कर्म करते हैं तो उसका अच्छा फल मिलता है और अगर बुरा कर्म करते हैं तो उसका बुरा फल मिलता है। हर कर्म यज्ञ की तरह है। हम सभी ने यज्ञ, पूजा-पाठ हवन इत्यादि देखा है उसमें जैसे कुछ आहुतियाँ डाली जाती है और फिर मन्त्र पढ़े जाते हैं। वैसे ही हर कार्य में एक ध्यान आवश्यक है। चाहे हम खेलकूद की प्रक्रिया में व्यस्त है या व्यञ्जन बनाने की प्रक्रिया में व्यस्त हैं। हमें अच्छे मन से पूरे ध्यान लगाकर उस कार्य को करना है तो वह कार्य यज्ञ ही बन जाता है। अगर हम विद्यार्थी हैं और हम पढ़ाई करते हैं तो हमें अच्छे मन से पढ़ाई करनी चाहिए। पढ़ाई करते समय अगर हमारा ध्यान रसोई में या इधर-उधर की बातों में या बीच में कभी उठकर सैर करने में या खेलकूद में लग जाता है तो हम अच्छे मन से पढ़ाई नहीं कर रहे हैं। विद्यार्थी अगर अच्छे मन से पढ़ाई करता है तो फिर किसी भी विधा के आने पर अगर उसके अङ्क अच्छे नहीं भी आते तो उसे कम से कम इस बात की प्रसन्नता हमेशा रहेगी कि उसने पढ़ाई अच्छी तरह से की है।
कोविड के दिनों में पढ़ाई करते हुए कितने सारे यन्त्रों पर निर्भरता रही, बच्चों ने बहुत अच्छी पढ़ाई भी की परन्तु अगर इन्टरनेट नहीं चला और वह कक्षा से बाहर हो गए। परीक्षा देते समय अगर बिजली चली गई या परीक्षा के समय इन्टरनेट बन्द हो गया और कक्षा से बाहर हो गए और फिर दोबारा कक्षा के अन्दर नहीं जा सके तो परीक्षा में कम अङ्क आए। इन निर्भरताओं के साथ कोई न कोई ऐसी विधा या व्यवधान बन जाने से चाहे अङ्क कम आए परन्तु अच्छी तरह से पढ़ाई की तो उसकी मन को सन्तुष्टि रहती है। अगर हमने अच्छी तरह से ध्यान लगाकर पढ़ाई नहीं की तो उसका फल हमें अच्छा नहीं मिलेगा। अपेक्षायें हमेशा हमें हताश करती है व दु:ख देती है। बहुत अच्छा पढ़ने पर भी अगर अङ्क कम आए तो हमें ऐसा लगता है भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया परन्तु भगवान कहते हैं कि कर्मों के साथ किसी भी तरह का जुड़ाव दु:ख का कारण है जो लोग कर्मों के साथ नहीं जुड़ते और फल की इच्छा नहीं करते वे मुक्ति को प्राप्त करते हैं। हम व्यर्थ में ही कर्मों के फल की इच्छा रखते हैं। हमें केवल अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए जैसे कि श्रीमद्भगवद्गीताजी के श्लोक में कहा गया है-
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करना ही है। कर्मों के फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। अतः तुम निरन्तर कर्म के फल पर मनन मत करो और अकर्मण्य भी मत बनो।
श्रीभगवान कहते हैं कि मनुष्य का काम है कर्म करना कर्म की सफलता हुई तो भी बहुत प्रसन्न न होना, यदि कर्म सफल रहा तो उसके लिए हरि इच्छा समझकर उसे छोड़ देना- इसी में मनुष्य की भलाई है। अगर विद्यार्थी को कोई परीक्षा अच्छी नहीं हुई तो उसको बार-बार सोचते रहने से अगले परीक्षा पर भी उसका असर होगा इसलिए अपने पूरे ध्यान से पढ़ाई करके परीक्षा देना विद्यार्थी का कर्म है लेकिन उसका फल मिलना उसके हाथ में नहीं है इसलिए अगली परीक्षा की तैयारी में लग जाना चाहिए। हम एक समाज में रहते हैं, किसान खेती करते हैं तो हमें अनाज मिलता है,अध्यापक हमें पढ़ाते हैं तो हमें बुद्धि मिलती है। बहुत तरह के लोग अलग-अलग कर्म करते हैं तो हम यहाँ पर सुख-चैन से बैठ पा रहे हैं। क्या हम इसी प्रकार बैठे ही रहेंगे और किसी और की भलाई के लिये कुछ भी कार्य नहीं करेंगे? तो काम नहीं चलेगा। हमारे पास जो भी है उसमें से दूसरों की आदत डालें, जैसे हमारी माता गाय को रोटी देती हैं, पक्षियों के लिये दाना पानी देती हैं। इस लिये हमें भी एवं सभी मनुष्य को कर्म की सफलता और सफलता पर ध्यान देने के स्थान पर अपने कर्म को करने पर ही ध्यान देना चाहिए फल की इच्छा करने से आशाएं बढ़ती हैं जो कि निराशा का कारण बनती है।
कोविड के दिनों में पढ़ाई करते हुए कितने सारे यन्त्रों पर निर्भरता रही, बच्चों ने बहुत अच्छी पढ़ाई भी की परन्तु अगर इन्टरनेट नहीं चला और वह कक्षा से बाहर हो गए। परीक्षा देते समय अगर बिजली चली गई या परीक्षा के समय इन्टरनेट बन्द हो गया और कक्षा से बाहर हो गए और फिर दोबारा कक्षा के अन्दर नहीं जा सके तो परीक्षा में कम अङ्क आए। इन निर्भरताओं के साथ कोई न कोई ऐसी विधा या व्यवधान बन जाने से चाहे अङ्क कम आए परन्तु अच्छी तरह से पढ़ाई की तो उसकी मन को सन्तुष्टि रहती है। अगर हमने अच्छी तरह से ध्यान लगाकर पढ़ाई नहीं की तो उसका फल हमें अच्छा नहीं मिलेगा। अपेक्षायें हमेशा हमें हताश करती है व दु:ख देती है। बहुत अच्छा पढ़ने पर भी अगर अङ्क कम आए तो हमें ऐसा लगता है भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया परन्तु भगवान कहते हैं कि कर्मों के साथ किसी भी तरह का जुड़ाव दु:ख का कारण है जो लोग कर्मों के साथ नहीं जुड़ते और फल की इच्छा नहीं करते वे मुक्ति को प्राप्त करते हैं। हम व्यर्थ में ही कर्मों के फल की इच्छा रखते हैं। हमें केवल अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए जैसे कि श्रीमद्भगवद्गीताजी के श्लोक में कहा गया है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करना ही है। कर्मों के फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। अतः तुम निरन्तर कर्म के फल पर मनन मत करो और अकर्मण्य भी मत बनो।
श्रीभगवान कहते हैं कि मनुष्य का काम है कर्म करना कर्म की सफलता हुई तो भी बहुत प्रसन्न न होना, यदि कर्म सफल रहा तो उसके लिए हरि इच्छा समझकर उसे छोड़ देना- इसी में मनुष्य की भलाई है। अगर विद्यार्थी को कोई परीक्षा अच्छी नहीं हुई तो उसको बार-बार सोचते रहने से अगले परीक्षा पर भी उसका असर होगा इसलिए अपने पूरे ध्यान से पढ़ाई करके परीक्षा देना विद्यार्थी का कर्म है लेकिन उसका फल मिलना उसके हाथ में नहीं है इसलिए अगली परीक्षा की तैयारी में लग जाना चाहिए। हम एक समाज में रहते हैं, किसान खेती करते हैं तो हमें अनाज मिलता है,अध्यापक हमें पढ़ाते हैं तो हमें बुद्धि मिलती है। बहुत तरह के लोग अलग-अलग कर्म करते हैं तो हम यहाँ पर सुख-चैन से बैठ पा रहे हैं। क्या हम इसी प्रकार बैठे ही रहेंगे और किसी और की भलाई के लिये कुछ भी कार्य नहीं करेंगे? तो काम नहीं चलेगा। हमारे पास जो भी है उसमें से दूसरों की आदत डालें, जैसे हमारी माता गाय को रोटी देती हैं, पक्षियों के लिये दाना पानी देती हैं। इस लिये हमें भी एवं सभी मनुष्य को कर्म की सफलता और सफलता पर ध्यान देने के स्थान पर अपने कर्म को करने पर ही ध्यान देना चाहिए फल की इच्छा करने से आशाएं बढ़ती हैं जो कि निराशा का कारण बनती है।
3.9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र, लोकोऽयं(ङ्) कर्मबन्धनः।
तदर्थं(ङ्) कर्म कौन्तेय, मुक्तसङ्गः(स्) समाचर॥3.9॥
यज्ञ (कर्तव्य पालन) के लिये किये जाने वाले कर्मों से अन्यत्र (अपने लिये किये जाने वाले) कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है, (इसलिये) हे कुन्तीनन्दन ! तू आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञ के लिये (ही) कर्तव्य कर्म कर।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि जब भी हम कोई कार्य करते हैं तो फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अच्छा कर्म है तो अच्छा ही फल मिलेगा और बुरा कर्म है तो उसका भी फल मिलना निश्चित है। जैसे कोई विद्यार्थी है तो पढ़ाई करना उसका कर्म है और वह अपने माता-पिता से कहे कि अगर मैं पढ़ाई करूँगा तो आप मुझे क्या दिलाओगे। इस बात का यह अर्थ है कि वह अपने ही निर्देशानुसार उनको चलाना चाहता है। वह बिना शर्तों के कार्य नहीं करना चाहता है और फल की इच्छा रखता है। अगर कोई विद्यार्थी है तो पढ़ाई करना उसका कर्तवय है उसका कारण है फल की इच्छा रखने का तो कोई अर्थ ही नहीं है मुझे क्या दिलाओगे इस वाक्य का कोई अर्थ ही नहीं रहता तो फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। उसका कर्तव्य है कि वह पढ़ाई करें पूरा मन लगाकर पढ़ाई करें अच्छा परिणाम ही आएगा।
उसके लिए पढ़ना ही यज्ञ है अगर वह अच्छे तरीके से पढ़ाई करता है तो फिर परिणाम कुछ भी आए उसने अपने काम को अच्छे से किया इस बात की उसके मन में प्रसन्नता रहेगी।
अगर कोई भी कार्य हम भगवान को अर्पण किए बिना करते हैं तब हम केवल अपने लिए कार्य करने के लिए विवश होंगे। जब हम किसी कार्य को समर्पण की भावना से सम्पन्न करते हैं तो वह यज्ञ ही है।
उसके लिए पढ़ना ही यज्ञ है अगर वह अच्छे तरीके से पढ़ाई करता है तो फिर परिणाम कुछ भी आए उसने अपने काम को अच्छे से किया इस बात की उसके मन में प्रसन्नता रहेगी।
अगर कोई भी कार्य हम भगवान को अर्पण किए बिना करते हैं तब हम केवल अपने लिए कार्य करने के लिए विवश होंगे। जब हम किसी कार्य को समर्पण की भावना से सम्पन्न करते हैं तो वह यज्ञ ही है।
सहयज्ञाः(फ्) प्रजाः(स्) सृष्ट्वा, पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वम्, एष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥3.10॥
प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदिकाल में कर्तव्य कर्मों के विधान सहित प्रजा (मनुष्य आदि) की रचना करके (उनसे प्रधानतया मनुष्यों से) कहा कि (तुम लोग) इस कर्तव्य के द्वारा सबकी वृद्धि करो (और) यह (कर्तव्य कर्मरूप यज्ञ) तुम लोगों को कर्तव्य-पालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।
विवेचन- प्रश्न- श्रीभगवान् ने सृष्टि की रचना करने की आज्ञा किसे दी?
उत्तर- इस कार्य को करने के लिए ब्रह्मा जी को आज्ञा दी। लालन-पालन विष्णु जी को और सृष्टि के संहार की आज्ञा शिव जी को दी। सृष्टि के Generator, Operator and Destroyer ब्रह्माजी, विष्णुजी व शिवजी हैं ।
सृष्टि का निर्माण करते हुए उन्होंने ब्रह्मा जी को जीवन की कार्यशैली को चलाने के लिए कुछ नियमावली भी दी। यह नियमावली हमारे वेदों और शास्त्रों में भी दी गई है जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को अपने जीवन को जीने का मार्गदर्शन किया गया है गीता जी में भी अध्याय सोलह में दैवीय और आसुरी शक्तियों के गुणों का वर्णन बताया जाता है-
अर्थात पाखण्ड, दम्भ, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता आसुरी प्रकृति वाले लोगों के गुण हैं। आसुरी शक्तियों का प्रतीक है।
गीता जी में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ-साथ समस्त प्राणियों को जीवन जीने के नियमों के बारे में बताते हैं मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इसका बहुत अच्छा ज्ञान हमें गीता जी से भी मिलता है। ब्रह्मा जी को भगवान् ने इस कर्तव्यशैली से सभी मनुष्यों का मार्गदर्शन करने और अच्छे मार्ग पर अग्रसर होने की आज्ञा दी।
उत्तर- इस कार्य को करने के लिए ब्रह्मा जी को आज्ञा दी। लालन-पालन विष्णु जी को और सृष्टि के संहार की आज्ञा शिव जी को दी। सृष्टि के Generator, Operator and Destroyer ब्रह्माजी, विष्णुजी व शिवजी हैं ।
सृष्टि का निर्माण करते हुए उन्होंने ब्रह्मा जी को जीवन की कार्यशैली को चलाने के लिए कुछ नियमावली भी दी। यह नियमावली हमारे वेदों और शास्त्रों में भी दी गई है जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को अपने जीवन को जीने का मार्गदर्शन किया गया है गीता जी में भी अध्याय सोलह में दैवीय और आसुरी शक्तियों के गुणों का वर्णन बताया जाता है-
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥16: 4॥
अर्थात पाखण्ड, दम्भ, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता आसुरी प्रकृति वाले लोगों के गुण हैं। आसुरी शक्तियों का प्रतीक है।
गीता जी में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ-साथ समस्त प्राणियों को जीवन जीने के नियमों के बारे में बताते हैं मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इसका बहुत अच्छा ज्ञान हमें गीता जी से भी मिलता है। ब्रह्मा जी को भगवान् ने इस कर्तव्यशैली से सभी मनुष्यों का मार्गदर्शन करने और अच्छे मार्ग पर अग्रसर होने की आज्ञा दी।
देवान्भावयतानेन, ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं(म्) भावयन्तः(श्), श्रेयः(फ्) परमवाप्स्यथ॥3.11॥
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम् कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
विवेचन- श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यज्ञ करते हुए प्राणी देवताओं को प्रसन्न करते हैं और देवता भी बदले में उनको वर्षा व अन्य आशीष देते हैं। जब तुम्हारे द्वारा सम्पन्न किए गए यज्ञों से देवता प्रसन्न होंगे तब मनुष्यों और देवताओं के इस सम्बन्ध के परिणाम-स्वरूप सभी को सुख समृद्धि प्राप्त होगी। यज्ञ करते हुए तो हम सब ने देखा है उसमें अग्नि जलाई जाती है और फिर उसमें कुछ ना कुछ सामग्री की आहुति डाली जाती है। यज्ञ अग्नि को अर्पित किए हुए भोग को हम देवताओं तक पहुँचाते हैं। अग्नि इन सब देवताओं के प्रसाद पहुँचाने का मार्ग है। अग्नि जैसे मुख है और वह सब देवताओं को उनका नैवेद्य बाँट देती है। इसके बदले में वे सभी देवता प्रसन्न होते हैं और वे मानव का कल्याण करते हैं। अगर कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है तो वह गोली खाता है और ऊपर से पानी पी लेता है पेट में चली जाती है मुख के जरिए से गई हुई गोली पेट में जाकर पिघलती है और फिर वहाँ से रक्त के साथ शरीर के दूसरे हिस्सों में पहुँच जाती है जैसे ही वह गोली रक्त के साथ किसी भी हिस्से में पहुँचती है जहाँ पर कोई कष्ट है तो उस शरीर के भाग को आराम मिलता है। इसी तरह अग्नि मुख का कार्य करती है और प्रसाद को सभी देवताओं तक पहुँचा देती है हमारे कार्य में कहीं दोष है तो उसका सही फल हमें मिले इसलिए उस दोष का निवारण करते हुए उन देवताओं तक उसे प्रसाद को पहुँचा देती है, जैसे कभी वर्षा नहीं हुई तो इन्द्रदेव की पूजा से वर्षा होगी ऐसा मानना है।
कोई व्यक्ति बोलने में बहुत मीठा बोलता है तो हम कहते हैं कि उस पर सरस्वती की बड़ी कृपा है। किसी व्यक्ति के पास बहुत धन दौलत है तुम मानते हैं कि उसे पर लक्ष्मी माता बहुत प्रसन्न है। कोई व्यक्ति बलवान है तो उस पर श्री हनुमान जी प्रसन्न है ऐसा मानना है। देवता प्रसन्न होते हैं और बदले में मानव कल्याण करते हैं। कोई अगर प्रसाद के रूप में हम सामग्री तैयार करते हैं तो बहुत मन से उस पर कार्यरत रहते हैं क्योंकि प्रसाद बहुत अच्छा होना चाहिए ऐसा हमारा मानना होता है सत्यनारायण की पूजा के समय जब माताजी भोग बनाती हैं तो उसमें बहुत सारा घी, सूजी, तुलसी पत्र, दूध, बादाम और अन्य सामग्री डालते हैं जिससे वह प्रसाद बहुत ही स्वादिष्ट बनता है। देवताओं को अर्पित करने वाला प्रसाद माताजी अत्यन्त ध्यान लगा कर बनाती है। भगवान को अर्पित करने के लिए किसी भी वस्तु का हमें बहुत ही ध्यान से अर्पण करना है। कोई विद्यार्थी अगर पढ़ने में एक घण्टा लगाता है और उसमें भी इधर-उधर घूमता रहता है या रसोई की तरफ ध्यान रहता है तो इसका अर्थ यह है कि उसने बहुत ध्यान से काम नहीं किया। कोई भी काम अगर हम मन लगाकर करते हैं उसका फल अच्छा ही होता है और अगर हम काम को अच्छे मन से नहीं करते तो उस काम को करने से अपना मन ही सन्तुष्ट नहीं होता और अच्छे फल की प्राप्ति भी नहीं होती।
ऐसे ही पढ़ाई के साथ-साथ अगर हम अपने आसपास का भी ध्यान रखते हैं जैसे किसी दोस्त की किताब गुम हो गई है उसको कुछ पढ़ने में सहायता चाहिए और हम उसे अपनी किताबें वह कॉपियाँ देते हैं। इस तरह बाँट कर परस्पर भाव से जो हम कार्य करते हैं उससे हमें खुशी भी प्राप्त होती है और हम अच्छे परिणाम भी कहते हैं।
दूसरों के लिए कार्य करने से हमें खुशी प्राप्त होती है जैसे आजकल कितना प्रदूषण है और अगर हम कहीं बाहर जा रहे हैं तो किसी तरह से गाड़ी में जाने की जगह अगर हम पैदल जाते हैं थोड़े से अन्तर पर गाड़ी का इस्तेमाल नहीं करते पेड़ लगाकर हम समाज का कार्य करते हैं जो हमें समाज ऋण से मुक्त करता है। रेल या सड़क मार्ग से सफर करते हुए हम नदी, नाले शहर वन और कहीं सूखे प्रदेश से निकलते हैं। अगर हम नदी के पास से गुजरते हैं तो हमें अपने साथ कुछ बीज ले जाने चाहिए। ये बहुत ही उपजाऊ जगह होती है। नदी किनारे बीज फेंकने से जल्दी उगते हैं जिससे कि समाज का कल्याण होता है। मन्दिर जाते हुए या पार्क के आसपास खेलते हुए हमें कहीं से कूड़ा कचरा मिलता है तो हमें उसे कूड़े दान में डालकर उस स्थान को साफ रखना चाहिए। चिप्स खाते हुए उसका लिफाफा हमेशा कूड़ेदान में ही डालना चाहिए। इस तरह से हम छोटे-छोटे कार्यों से भी समाज का भला कर सकते हैं।
कोई व्यक्ति बोलने में बहुत मीठा बोलता है तो हम कहते हैं कि उस पर सरस्वती की बड़ी कृपा है। किसी व्यक्ति के पास बहुत धन दौलत है तुम मानते हैं कि उसे पर लक्ष्मी माता बहुत प्रसन्न है। कोई व्यक्ति बलवान है तो उस पर श्री हनुमान जी प्रसन्न है ऐसा मानना है। देवता प्रसन्न होते हैं और बदले में मानव कल्याण करते हैं। कोई अगर प्रसाद के रूप में हम सामग्री तैयार करते हैं तो बहुत मन से उस पर कार्यरत रहते हैं क्योंकि प्रसाद बहुत अच्छा होना चाहिए ऐसा हमारा मानना होता है सत्यनारायण की पूजा के समय जब माताजी भोग बनाती हैं तो उसमें बहुत सारा घी, सूजी, तुलसी पत्र, दूध, बादाम और अन्य सामग्री डालते हैं जिससे वह प्रसाद बहुत ही स्वादिष्ट बनता है। देवताओं को अर्पित करने वाला प्रसाद माताजी अत्यन्त ध्यान लगा कर बनाती है। भगवान को अर्पित करने के लिए किसी भी वस्तु का हमें बहुत ही ध्यान से अर्पण करना है। कोई विद्यार्थी अगर पढ़ने में एक घण्टा लगाता है और उसमें भी इधर-उधर घूमता रहता है या रसोई की तरफ ध्यान रहता है तो इसका अर्थ यह है कि उसने बहुत ध्यान से काम नहीं किया। कोई भी काम अगर हम मन लगाकर करते हैं उसका फल अच्छा ही होता है और अगर हम काम को अच्छे मन से नहीं करते तो उस काम को करने से अपना मन ही सन्तुष्ट नहीं होता और अच्छे फल की प्राप्ति भी नहीं होती।
ऐसे ही पढ़ाई के साथ-साथ अगर हम अपने आसपास का भी ध्यान रखते हैं जैसे किसी दोस्त की किताब गुम हो गई है उसको कुछ पढ़ने में सहायता चाहिए और हम उसे अपनी किताबें वह कॉपियाँ देते हैं। इस तरह बाँट कर परस्पर भाव से जो हम कार्य करते हैं उससे हमें खुशी भी प्राप्त होती है और हम अच्छे परिणाम भी कहते हैं।
दूसरों के लिए कार्य करने से हमें खुशी प्राप्त होती है जैसे आजकल कितना प्रदूषण है और अगर हम कहीं बाहर जा रहे हैं तो किसी तरह से गाड़ी में जाने की जगह अगर हम पैदल जाते हैं थोड़े से अन्तर पर गाड़ी का इस्तेमाल नहीं करते पेड़ लगाकर हम समाज का कार्य करते हैं जो हमें समाज ऋण से मुक्त करता है। रेल या सड़क मार्ग से सफर करते हुए हम नदी, नाले शहर वन और कहीं सूखे प्रदेश से निकलते हैं। अगर हम नदी के पास से गुजरते हैं तो हमें अपने साथ कुछ बीज ले जाने चाहिए। ये बहुत ही उपजाऊ जगह होती है। नदी किनारे बीज फेंकने से जल्दी उगते हैं जिससे कि समाज का कल्याण होता है। मन्दिर जाते हुए या पार्क के आसपास खेलते हुए हमें कहीं से कूड़ा कचरा मिलता है तो हमें उसे कूड़े दान में डालकर उस स्थान को साफ रखना चाहिए। चिप्स खाते हुए उसका लिफाफा हमेशा कूड़ेदान में ही डालना चाहिए। इस तरह से हम छोटे-छोटे कार्यों से भी समाज का भला कर सकते हैं।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा, दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो, यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥3.12॥
यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है।
विवेचन- श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों से प्रसन्न होकर देवता तुम्हें सुख सुविधा प्रदान करते हैं किन्तु जो प्राप्त वस्तुओं को उन्हें अर्पित किये बिना भोगते हैं, वे वास्तव में चोर हैं। जो व्यक्ति समाज के लिए अर्पित करने के बाद सुख सुविधाओं को भोगता है वह सन्त है। माताजी जब रसोई बनाती हैं तो सबसे पहले गौ माता के लिए रोटी निकलती है अगर गौ माता बाहर नहीं है तो उसके लिए रखे हुए बर्तन में डालने को कहती है ऐसे ही घर में आए हुए किसी भी अतिथि को पहले भोजन करवाते हैं घर की स्त्रियाँ अतिथि के घर भर पेट भोजन करने के बाद ही भोजन करती हैं, सबको सुख मिले और बदले में हमें भी सुख मिले ऐसा मानती हैं।
जब भी हमें आय मिलती है उसमें से हम कुछ न कुछ खरीदना चाहते हैं कोई कपड़ा खरीदना चाहता है कोई जूते खरीदना चाहता है पर अपने ऊपर खर्च करने से पहले समाज के लिए आय में से कुछ हिस्सा निकालना बहुत आवश्यक है दूसरों के लिए कार्य करने के बाद ही भोजन करने का हमें अधिकार है इसी से ही हम समाज के ऋण से मुक्त होते हैं समाज के लिए कुछ भी कार्य न करने से हम समाज के दोषी होते हैं बहुत अमीर होना या बहुत विद्वान होना आवश्यक नहीं है, समाज के लिए कार्यरत होना ज्यादा आवश्यक है। समाज के लिए छोटे-छोटे कार्य होते हैं जैसे पशु-पक्षियों के लिए जल रखना, पेड़ लगाना, कचरा गलत जगह पर न फेंकना, बुजुर्गों का कहना मानना, कभी उनको जल पिलाना, उनसे बातचीत करना यह सब समाज कल्याण के कार्य हैं। गीता जी के श्लोक पढ़ना और पढाना भी समाज कल्याण का कार्य है। ऐसे कार्य हमें समाज ऋण से मुक्त करते हैं और जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता वह चोर है।
जब भी हमें आय मिलती है उसमें से हम कुछ न कुछ खरीदना चाहते हैं कोई कपड़ा खरीदना चाहता है कोई जूते खरीदना चाहता है पर अपने ऊपर खर्च करने से पहले समाज के लिए आय में से कुछ हिस्सा निकालना बहुत आवश्यक है दूसरों के लिए कार्य करने के बाद ही भोजन करने का हमें अधिकार है इसी से ही हम समाज के ऋण से मुक्त होते हैं समाज के लिए कुछ भी कार्य न करने से हम समाज के दोषी होते हैं बहुत अमीर होना या बहुत विद्वान होना आवश्यक नहीं है, समाज के लिए कार्यरत होना ज्यादा आवश्यक है। समाज के लिए छोटे-छोटे कार्य होते हैं जैसे पशु-पक्षियों के लिए जल रखना, पेड़ लगाना, कचरा गलत जगह पर न फेंकना, बुजुर्गों का कहना मानना, कभी उनको जल पिलाना, उनसे बातचीत करना यह सब समाज कल्याण के कार्य हैं। गीता जी के श्लोक पढ़ना और पढाना भी समाज कल्याण का कार्य है। ऐसे कार्य हमें समाज ऋण से मुक्त करते हैं और जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता वह चोर है।
यज्ञशिष्टाशिनः(स्) सन्तो, मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं(म्) पापा, ये पचन्त्यात्मकारणात्॥3.13॥
यज्ञशेष- (योग-) का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पाप का ही भक्षण करते हैं।
विवेचन- श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो व्यक्ति समाज के कार्य करने के बाद शेष बचे हुए धन-धान्य से अपने लिए भोजन निकालता है वह सन्त है। ऐसे प्रयत्न करने वाले लोग पाप-मुक्त हो जाते हैं। ऐसा आचरण करने वाले लोग दूसरों के बारे में सोचते हैं। दूसरों का भला करके वह समाज ऋण से मुक्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति अनुसरणीय है और उनका अनुसरण करने से कोई भी मनुष्य सन्त हो जाता है।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि, पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो, यज्ञः(ख्) कर्मसमुद्भवः॥3.14॥
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मों से सम्पन्न होता है।
3.14 writeup
कर्म ब्रह्मोद्भवं(व्ँ) विद्धि, ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं(म्) ब्रह्म, नित्यं(य्ँ) यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥3.15॥
कर्मों को (तू) वेद से उत्पन्न जान (और) वेद को अक्षरब्रह्म से प्रकट हुआ (जान)। इसलिये (वह) सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य कर्म) में नित्य स्थित है।
विवेचन- एक छोटी सी पानी की बूँद भी भाप बनकर बादल में बदल जाती है जिससे वर्षा होती है यह प्रक्रिया भी यज्ञ की तरह ही है। यज्ञ के कारण से ही वरुण देव प्रसन्न होते हैं और सृष्टि के उद्धार के लिए वर्षा करते हैं। हमारे छोटे-छोटे कारण जैसे पेड़ लगाना, पशु पक्षियों के लिए जल देना, गाड़ी का प्रयोग कम करना, यह सब कार्य समाज हित के हैं और एक छोटा सा हमारा सहयोग बहुत बड़ा हो सकता है। महाभारत में भी कहा गया है कि एक पेड़ काटने से पहले यह ध्यान दें कि दस पेड़ लगाये और वह दस पेड़ चलते रहें। यह भी जरूर ध्यान रखें कि कहीं किसी पेड़ को गाय न खा जाए या कोई पशु-पक्षी तोड़ न दे जो पेड़ चल जाए ऐसे दस पेड़ लगाने से एक पेड़ काटने के अधिकारी होते हैं। पेड़ काटना एक दोषपूर्ण कर्म है जिस काम को करने से ग्लोबल वार्मिंग होती है जब हमारे कर्म निर्दोष होते हैं तो हम उनमें सन्तुलन बना सकते हैं। हमें सन्तुलन जरूर बना कर रखना चाहिए जिससे कि समाज को सही दिशा मिल सके। सृष्टि का निर्माण करते हुए ब्रह्मा जी ने मानव जाति के लिए यह नियमावली भी रखी है जो हमें वेद-शास्त्रों में मिलती है। मनुष्य को कैसे कार्य करने चाहिए और कैसे कार्य नहीं करने चाहिए यह ज्ञान हमें अपने वेदों से प्राप्त होता है। एक बूँद अगर बारिश का कारण बन सकती है तो हमारे छोटे-छोटे कर्मों का सञ्चय भी हमारे लिए मुक्ति का मार्ग हो सकता है।
छोटे-छोटे दर्पण खरीद कर अगर हम उनकी धूल साफ नहीं करेंगे तो हमें अपनी छवि कभी भी साफ नहीं दिखेगी, फिर हम कितने भी दर्पण खरीद ले।अगर हम उन आइनों को साफ करते हैं तो हमें अपनी छवि साफ दिखाई देती है। इस प्रतिबिम्ब के स्वच्छ होने का कारण आईने का साफ होना नहीं है बल्कि हमारा अपना कर्म है कि हम उसे आईने को साफ रख रहे हैं। इसी तरह से हमारा अपना शरीर है अन्तर्मन है जिसे निरन्तर हमें स्वच्छ रखने की आवश्यकता होती है जिससे कि हमें एक दिन हम अपने आप का ज्ञान हो सके। प्रकृति के नियमानुसार यह मानव शरीर विशेष रूप से आत्म-साक्षात्कार के लिए मिला है। भगवान का दर्शन हमें तभी होगा अगर हमारा अन्तर्मन साफ होगा और आत्ममन्थन होगा। भगवान के साक्षात्कार के लिए अपने मन को साफ रखना बहुत आवश्यक है। कई बार छोटे बच्चों को यह लगता है कि हम समाज के कार्य को करने के लिए सामर्थ्य नहीं है न तो हम इतने विद्वान है कि हम किसी को पढ़ा सके, न ही इतने धनवान है कि हम किसी को धन दे सके तो बच्चों को भी अपनी उम्र के हिसाब से छोटे-छोटे ऐसे कार्य करते रहना चाहिए जैसे गीता जी के श्लोक पढ़ना, फिर स्मरण करना, पेड़ लगाना, बड़ों का कहना मानना आदि। इससे भी वे बहुत अच्छे समाज का निर्माण कर सकते हैं।
छोटे-छोटे दर्पण खरीद कर अगर हम उनकी धूल साफ नहीं करेंगे तो हमें अपनी छवि कभी भी साफ नहीं दिखेगी, फिर हम कितने भी दर्पण खरीद ले।अगर हम उन आइनों को साफ करते हैं तो हमें अपनी छवि साफ दिखाई देती है। इस प्रतिबिम्ब के स्वच्छ होने का कारण आईने का साफ होना नहीं है बल्कि हमारा अपना कर्म है कि हम उसे आईने को साफ रख रहे हैं। इसी तरह से हमारा अपना शरीर है अन्तर्मन है जिसे निरन्तर हमें स्वच्छ रखने की आवश्यकता होती है जिससे कि हमें एक दिन हम अपने आप का ज्ञान हो सके। प्रकृति के नियमानुसार यह मानव शरीर विशेष रूप से आत्म-साक्षात्कार के लिए मिला है। भगवान का दर्शन हमें तभी होगा अगर हमारा अन्तर्मन साफ होगा और आत्ममन्थन होगा। भगवान के साक्षात्कार के लिए अपने मन को साफ रखना बहुत आवश्यक है। कई बार छोटे बच्चों को यह लगता है कि हम समाज के कार्य को करने के लिए सामर्थ्य नहीं है न तो हम इतने विद्वान है कि हम किसी को पढ़ा सके, न ही इतने धनवान है कि हम किसी को धन दे सके तो बच्चों को भी अपनी उम्र के हिसाब से छोटे-छोटे ऐसे कार्य करते रहना चाहिए जैसे गीता जी के श्लोक पढ़ना, फिर स्मरण करना, पेड़ लगाना, बड़ों का कहना मानना आदि। इससे भी वे बहुत अच्छे समाज का निर्माण कर सकते हैं।
एवं(म्) प्रवर्तितं(ञ्) चक्रं(न्), नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो, मोघं(म्) पार्थ स जीवति॥3.16॥
हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोक में इस प्रकार (परम्परा से) प्रचलित सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला अघायु (पापमय जीवन बिताने वाला) मनुष्य (संसार में) व्यर्थ ही जीता है।
विवेचन- श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ कर्म के इस चक्र का पालन नहीं करते, वे केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए जीवित रहते हैं। वास्तव में जो मनुष्य दूसरों का विचार नहीं करते वे स्वयम् पर ही अपना सब धन वैभव खर्च करते हैं उनका जीवन व्यर्थ है। उनका सारा ज्ञान स्वयम् पर ही केन्द्रित रहता है ऐसा मनुष्य जीवन में मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। मानव जीवन हमें कर्तव्य कर्म करने के लिए प्राप्त हुआ है। इसमें केवल स्वयम् के लिए नहीं बल्कि समाज के लिए भी हमें कार्यरत रहना चाहिए। समाज में कुछ ऐसे लोग हैं जो मज़दूरी करते है और थोड़े से पैसे कमाते हैं। उनके घर में अगर वह दिहाड़ी न करें तो बच्चों के लिए भोजन नहीं बन सकता। हम उनसे फिर भी कहीं अच्छे हैं ऐसा सोचकर हमें उन लोगों के लिए कुछ न कुछ कार्य करना चाहिए। जो लोग मजदूरी करते हैं या गरीब है और अपना दो वक्त का खाना नहीं चला सकते उनके लिए कुछ न कुछ काम करना चाहिए जिससे कि उनका जीवन भी थोड़ा सरल हो सके।
यस्त्वात्मरतिरेव स्याद्, आत्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्ट:(स्), तस्य कार्यं(न्) न विद्यते॥3.17॥
परन्तु जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने वाला और अपने आप में ही तृप्त तथा अपने-आप में ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
विवेचन- सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि श्रीभगवान ने हमें आँखें, कान, हाथ, पाँव दिए हैं तो हमें उनका धन्यवाद करना चाहिए।
हम भगवान से और कई सारी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करते रहते हैं। सांसारिक कामनाएँ उत्पन्न होती हैं जब हम स्वयं को शरीर मानते हैं।
जब हम मन्दिर जाते हैं तो हम भगवान से यह माँगे कि वह हमारे साथ रहे। हमारे मित्र बनकर रहे। हमारा साथ दे। हमें अच्छे कार्यों में जोड़ें। हमें ऐसे मित्रों का साथ मिले जो हमें अच्छे मार्ग की ओर ले जायें। हम समाज के लिए कुछ कार्य कर सके। सन्तों का साथ मिले।
स्वामी गोविंददेव गिरि जी महाराज भ्रमण करते हैं। समाज में विचरते है। गीता जी का पाठ करते हैं। रामायण जी की कथा करते हैं। शिवाजी की कथा करते हैं। कितना आनन्दमयी अनुभव है। वे यह कार्य समाज के लोगों के सुधार के लिये करते हैं।
भगवान सन्तों से अपेक्षा नहीं करते बल्कि हमसे अपेक्षा करते हैं क्योंकि उनका कर्म तो पहले ही सही है। स्वामी विवेकानन्द जी, तुलसीदास जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी ये सभी सन्त उदाहरण है।
नैव तस्य कृतेनार्थो, नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु, कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥3.18॥
उस (कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष) का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन (रहता है और) न कर्म न करने से ही (कोई प्रयोजन रहता है) तथा सम्पूर्ण प्राणियों में (किसी भी प्राणी के साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता।
विवेचन- कभी किसी महापुरुष से मिले तो आपको अनुभव होगा कि वे हर व्यक्ति से एक ही भाव से मिलते हैं स्वामी जी से वार्तालाप करें तो वह हमेशा आपको ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आप बहुत बार उनसे मिल चुके हैं, और बार-बार मिलने का मन करेगा। उनका व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान होगा।
स्वामी ज्ञानेश्वर जी की कथा तो आपने सुनी होगी। आजकल ज्ञानेश्वर जी के स्थान से पालकी निकालने के दिन है जो कि विट्ठल जी के स्थान पर जाकर विराम करेगी। उनका जीवन अत्यन्त कष्टमय था। वे चारों भाई-बहन जिस गाँव में रहते थे उस गाँव के लोगों ने उनको बहुत कष्ट दिए। फिर भी ज्ञानेश्वरी के पसायदान में सन्त ज्ञानेश्वर जी ने सारे विश्व के कल्याण की मंगल कामना करते हुए अपने गाँव के लोगों की भी मंगल कामना की।
सन्त सभी के लिए समान सोचते हैं, वह अन्तःमन से सन्त होते हैं और किसी का भी बुरा नहीं चाहते क्योंकि उनको यह ज्ञान होता है कि मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण कई बार गलत व्यवहार करते हैं। सन्त हमेशा सबको समान समझते हैं और उनके साथ समान व्यवहार करते हैं।
स्वामी ज्ञानेश्वर जी की कथा तो आपने सुनी होगी। आजकल ज्ञानेश्वर जी के स्थान से पालकी निकालने के दिन है जो कि विट्ठल जी के स्थान पर जाकर विराम करेगी। उनका जीवन अत्यन्त कष्टमय था। वे चारों भाई-बहन जिस गाँव में रहते थे उस गाँव के लोगों ने उनको बहुत कष्ट दिए। फिर भी ज्ञानेश्वरी के पसायदान में सन्त ज्ञानेश्वर जी ने सारे विश्व के कल्याण की मंगल कामना करते हुए अपने गाँव के लोगों की भी मंगल कामना की।
आतां विश्वात्मकें देवें । येणे वाग्यज्ञे तोषावें। 'तोषोनि मज द्यावें । पसायदान हें
सन्त सभी के लिए समान सोचते हैं, वह अन्तःमन से सन्त होते हैं और किसी का भी बुरा नहीं चाहते क्योंकि उनको यह ज्ञान होता है कि मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण कई बार गलत व्यवहार करते हैं। सन्त हमेशा सबको समान समझते हैं और उनके साथ समान व्यवहार करते हैं।
तस्मादसक्तः(स्) सततं(ङ्), कार्यं(ङ्) कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म, परमाप्नोति पूरुषः॥3.19॥
इसलिये (तू) निरन्तर आसक्ति रहित (होकर) कर्तव्य कर्म का भली भाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति रहित (होकर) कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
विवेचन- श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हमें कर्म में लिप्त नहीं होना चाहिए। कर्मों में उलझने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। अच्छे कर्म का फल अच्छा मिलेगा व बुरे कर्म का फल बुरा मिलेगा। निष्काम भाव से कर्म को करने से हम भगवान के प्रिय बन जाते हैं और भगवान को प्राप्त कर लेते हैं। निष्काम भाव से किया हुआ कर्म भगवत् प्रिय बनाता है।
कर्मणैव हि संसिद्धिम्, आस्थिता जनकादयः।
लोकसङ्ग्रहमेवापि, सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥3.20॥
राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्मयोग) के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए थे। (इसलिये) लोक संग्रह को देखते हुए भी (तू) (निष्काम भाव से) कर्म करने ही के योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये।
विवेचन- श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि लोगों के कल्याण से सन्त भगवान को प्राप्त करते हैं। जब भी सन्तों ने पुण्य कर्म करके जीवन यापन किया तो लोगों ने उनका अनुसरण किया। जो लोग सन्तों के मार्ग पर चलकर उनका अनुसरण करते हुए जीवन यापन करते हैं वह भी मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
यद्यदाचरति श्रेष्ठ:(स्), तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं(ङ्) कुरुते, लोकस्तदनुवर्तते॥3.21॥
श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।
विवेचन- जो लोग श्रेष्ठ हैं वे अनुकरण के योग्य है उनका अनुसरण करना चाहिए। जो लोग हमसे बड़े हैं जैसे हमारे माता-पिता, गुरुजन, सन्त महात्मा वे जैसे कार्य करते हैं हमें भी वैसे ही कार्य करना चाहिए। कई बार हम वैसा ही अनुसरण करना शुरू कर देते हैं जैसा हम अपने परिवारों में देखते हैं जैसे दादा-दादी जैसा कार्य करते हैं पिताजी वैसा ही कार्य करते हैं। ऐसा कई बार घर में मेहमान आए हुए हमारे बुआ और अन्य सम्बन्धी बताते हैं। पिताजी, दादाजी जैसे ही हैं क्योंकि उन्होंने उनके साथ समय बिताया है। अनुसरण करते समय वह बातें जो हम परिवार में देखते हैं हमारे अपने अन्दर स्वयं ही आ जाती हैं। हम चाहे हॉस्टल में रहते हो लेकिन अगर हमने अपने माताजी को सुबह पूजा करते देखा है तो हम वहाँ रहकर भी सुबह उठकर पूजा करेंगे। समाज में जो भी कोई श्रेष्ठ हैं उसका अनुसरण करना चाहिए जैसे स्वामी विवेकानन्द जी, शिवाजी महाराज हमारे आदर्श (रोल मॉडल) होने चाहिए। फिल्मों के हीरो या हीरोइन हमारे रोल मॉडल नहीं होने चाहिए। समाज वैसा ही होगा जैसा हम उसे बनाना चाहेंगे और हम जैसे श्रेष्ठ लोगों के अनुसरण से बनते हैं समाज वैसा ही बन जाता है। अच्छे लोगों का अनुसरण करने से हम अच्छे समाज की रचना करते हैं और इस तरह समाज ऋण से मुक्त हो सकते हैं।
प्रश्न- वेद किसने लिखें?
उत्तर- वेद किसी एक व्यक्ति ने नहीं लिखा। वेद हमेंशा से उपस्थित थे, आज भी हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने जब तप किया तब समाधि अवस्था में उन्हें उनका दर्शन हुआ, इसीलिये उन्हें दर्शन शास्त्र भी कहा जाता है। जैसे हम क्लाउड से डाउनलोड करते हैं, वैसे ही हमारे ऋषियों ने उन्हें अपने अन्दर डाउनलोड कर लिया। बाद में वेदव्यास भगवान ने सबसे लेकर लिखा।
प्रश्नकर्ता- अर्नब भैया
प्रश्न- आज शाम सात बजे क्या होगा?
उत्तर- आज सात बजे बांग्ला भाषा में आओ गीता सेवी बनें कार्यक्रम का आयोजन होगा।
प्रश्नोत्तर सत्र
प्रश्नकर्ता- काव्या दीदीप्रश्न- वेद किसने लिखें?
उत्तर- वेद किसी एक व्यक्ति ने नहीं लिखा। वेद हमेंशा से उपस्थित थे, आज भी हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने जब तप किया तब समाधि अवस्था में उन्हें उनका दर्शन हुआ, इसीलिये उन्हें दर्शन शास्त्र भी कहा जाता है। जैसे हम क्लाउड से डाउनलोड करते हैं, वैसे ही हमारे ऋषियों ने उन्हें अपने अन्दर डाउनलोड कर लिया। बाद में वेदव्यास भगवान ने सबसे लेकर लिखा।
प्रश्नकर्ता- अर्नब भैया
प्रश्न- आज शाम सात बजे क्या होगा?
उत्तर- आज सात बजे बांग्ला भाषा में आओ गीता सेवी बनें कार्यक्रम का आयोजन होगा।