विवेचन सारांश
निष्काम भक्ति है परमगति का मार्ग

ID: 7277
हिन्दी
शनिवार, 21 जून 2025
अध्याय 8: अक्षरब्रह्मयोग
3/3 (श्लोक 17-28)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


भारतीय सनातन परम्परा का पालन करते हुए आज का विवेचन सत्र गीता परिवार के सुमधुर भजन, शिरोमणि भक्त हनुमान जी की स्तुति, हनुमान चालीसा पाठ, दीप प्रज्वलन, श्रीकृष्ण वन्दन एवं गुरु वन्दना से आरम्भ हुआ। 

श्रीभगवान् की अतिशय मङ्गलमय कृपा से पवित्र योगिनी एकादशी के दिन योग के चिन्तन का सुअवसर हम सब को प्राप्त हुआ। भगवद्कृपा का यह जीवन्त प्रमाण है कि हम सब श्रीमद्भगवद्गीता को जानने, पढ़ने और सीखने लग गये हैं। कई साधक उन्हें कण्ठस्थ करने का प्रयास कर रहे हैं और कई उनके सूत्रों को समझ उनकी सीख को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा भी कर रहे हैं। पता नहीं, हमारे इस जन्म के कोई पुण्य कर्म हैं या पूर्व जन्म के पुण्य कर्म, अन्यथा हमारे पूर्वजों के सुकृत अथवा किसी सन्त-महात्मा की कृपा दृष्टि हम पर हो गई, जिस कारण हमारा ऐसा भाग्योदय हुआ कि हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिए चुन लिए गए। 
अक्षरब्रह्मयोग अति विशिष्ट अध्याय है, जिसमें श्रीभगवान् ने अपने दिव्य स्वरूप का वर्णन किया। अर्जुन ने श्रीभगवान् से सात प्रश्न पूछे और उन्हीं प्रश्नों के उत्तर हेतु श्रीभगवान् ने इस अध्याय का विस्तार किया। 

श्रीभगवान् ने सोलहवें श्लोक में चौदह लोकों का वर्णन किया। भूलोक के ऊपर के छ: लोक विलक्षण आनन्द के साधनों से परिपूर्ण हैं और उनमें रहने की अवधि भी दीर्घ होती है, परन्तु वहाँ के असीम सुख भोगकर अन्त में पृथ्वीलोक में पुनः आकर कर्म की गति को दोहराना ही पड़ता है। चौरासी लाख योनियों में एकमात्र मनुष्य योनि को ही कर्म का अधिकार है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसलिए कहा - 
बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।

कर्म का अधिकार प्राप्त होने के कारण ही मनुष्य योनि को यह वरदान है कि वह निष्काम भाव से कर्म कर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। इस वरदान के लिए तो देवता भी आकुल हैं। केवल मानव जीवन में ही हमें कर्म का अद्भुत साधन प्राप्त हुआ है जिसका उत्तम प्रयोग कर हम ईश्वर के परम धाम को प्राप्त कर जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो सकते हैं। 
मामुपेत्य तु कौन्तेय, पुनर्जन्म न विद्यते।

आत्म तत्त्व के मूल तत्त्व में विलीन हो पाने का स्वर्णिम अवसर केवल मनुष्य योनि को ही सुलभ है, अतः विवेकी मनुष्य स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक अथवा पितृलोक की कामना नहीं करता, वह तो श्रीमद्भगवद्गीता से अनमोल सत्य को पहचान कर परम धाम की प्राप्ति को ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य बनाता है। 

8.17

सहस्रयुगपर्यन्तम्, अहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं(म्) युगसहस्रान्तां(न्), तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ 8.17॥

जो मनुष्य ब्रह्मा के एक हजार चतुर्युगी वाले एक दिन को (और) एक हजार चतुर्युगी वाली एक रात्रि को जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्मा के दिन और रात को जानने वाले हैं।

विवेचन - भारतीय संस्कृति में काल की गणना अति सूक्ष्म है। लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों द्वारा की गयी काल की सूक्ष्मतम व्याख्या अतुलनीय है। आधुनिक विज्ञान अभी तक उस स्तर को प्राप्त नहीं कर पाया है। 
परमाणु, अणु, त्रसरेणु - ये तीनों ऊर्जा (energy), पदार्थ (matter) और समय (Time) की इकाई भी हैं। 

तीन अणु का एक त्रसरेणु होता है।
दस त्रसरेणु का एक त्रुटि होता है।
दस त्रुटि का एक प्राण होता है।
दस प्राण का एक वेद होता है।

वेद को समय की आरम्भिक इकाई माना जाता है इसलिए हमारे यहाँ जो कालगणनाशालाएँ (astronomical observatories) हैं, उन्हें वेदशाला कहते हैं।

तीन वेद का एक लव होता है।
तीन लव का एक निमिष होता है।
हमारी पलक को झपकने में जो समय लगता है, वह एक निमिष होता है।
तीन निमिष का एक क्षण होता है जिसे हम एक सेकेण्ड कहते हैं।
पाँच क्षण अर्थात्‌ पाँच सेकेण्ड की एक काष्ठा होती है और पन्द्रह काष्ठाओं का एक दण्ड होता है।

दो दण्ड का एक मुहूर्त होता है।
अड़तालीस मिनट का एक मुहूर्त होता है और एक दिन में तीस मुहूर्त होते हैं।

ऐसी ही पन्द्रह दिन और पन्द्रह रात का एक पक्ष होता है। 
एक मास में दो पक्ष होते हैं- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष।
मनुष्यों का एक मास पितरों का एक दिन होता है।

दो मास की एक ऋतु होती है।
तीन ऋतुओं का एक अयन - दक्षिणायन और उत्तरायण।
दो अयनों का एक वर्ष और मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन और एक रात होता है, इसलिए उत्तरायण में देवता जगे होते हैं और दक्षिणायन में सो जाते हैं। 

मनुष्य, देवताओं और ब्रह्माजी की आयु सौ वर्ष की मानी जाती है परन्तु तीनों के वर्ष की अवधि में अन्तर है। देवताओं का एक दिन हमारे तीन सौ पैंसठ दिन का है, अतः उनकी आयु हमसे उतनी गुना बढ़ गयी। 

हमारे चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का एक कलियुग कहलाता है, जिसमें हम जी रहे हैं।
आठ लाख चौसठ हजार वर्ष का द्वापरयुग,
बारह लाख छियानवें हजार वर्ष का त्रेतायुग
सोलह लाख अठ्ठाईस हजार वर्ष का सतयुग होता है
इन चारों युगों - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलियुग, को मिलाने पर एक चतुर्युग या महायुग होता है। एक चतुर्युगी तैन्तालीस लाख बीस हजार वर्ष का होता है।

ऐसे इकहत्तर महायुगों को एक मन्वन्तर (मनु का काल) अर्थात्‌ एक मनु के सौ वर्ष कहा जाता है। वर्तमान मनुकाल वैवस्वत मनु का है। 
ब्रह्मा जी के एक दिन में चौदह मन्वन्तर होते हैं।
ब्रह्मा जी का एक दिन विष्णु जी और शिवजी की एक निमिष है।

चौदह मन्वन्तर का एक कल्प माना जाता है। ब्रह्मा जी जब जागते हैं तो पूरी सृष्टि की रचना करते हैं और जब सोते हैं तो सब समाप्त हो जाता है, इसलिए कहते हैं कि कल्पक्षय हो गया या प्रलय आ गई।

इस प्रकार ब्रह्मा जी की सौ दिव्य वर्ष की आयु है। उसके बाद ब्रह्मा जी अपने सब लोकों और देवताओं सहित शान्त हो जाते हैं। ब्रह्मा जी का एक वर्ष इकतीस खरब चालीस करोड़ मनुष्य वर्ष के बराबर है और इस प्रकार ब्रह्मा जी की आयु सौ दिव्य वर्ष (इकत्तीस नील दस खरब चालीस अरब वर्ष ) की होती है। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी भी अपने लोक के साथ शान्त हो जायेंगे। 

8.18

अव्यक्ताद्व्यक्तयः(स्) सर्वाः(फ्), प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते, तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके ॥ 8.18॥

ब्रह्मा के दिन के आरम्भ काल में अव्यक्त (ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर) से संपूर्ण शरीर पैदा होते हैं (और) ब्रह्मा की रात के आरंभकाल में उस अव्यक्त नाम से नाम वाले (ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर) में ही (संपूर्ण शरीर) लीन हो जाते हैं।

8.18 writeup

8.19

भूतग्रामः(स्) स एवायं(म्), भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः(फ्) पार्थ, प्रभवत्यहरागमे ॥ 8.19॥

हे पार्थ! वही यह प्राणी समुदाय उत्पन्न हो- होकर प्रकृति के परवश हुआ ब्रह्मा के दिन के समय उत्पन्न होता है (और) ब्रह्मा की रात्रि के समय लीन होता है।

8.19 writeup

8.20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः (स्) स सर्वेषु भूतेषु, नश्यत्सु न विनश्यति ॥ 8.20॥

परंतु उस अव्यक्त (ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर) से अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यंत श्रेष्ठ भाव रूप जो अव्यक्त (ईश्वर) है, वह संपूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।

8.20 writeup

8.21

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्त:(स्), तमाहुः(फ्) परमां(ङ्) गतिम् ।
यं(म्) प्राप्य न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं(म्) मम ॥ 8.21॥

उसी को अव्यक्त (और) अक्षर ऐसा कहा गया है (तथा उसी को) परम गति कहा गया है (और) जिसको प्राप्त होने पर (जीव) फिर लौटकर (संसार में) नहीं आते, वह मेरा परमधाम है।

विवेचन - इन चार श्लोकों में श्रीभगवान् सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य खोल रहे हैं। ब्रह्माजी द्वारा निर्मित सृष्टि में व्याप्त सभी लोक और चराचर सन्तति दिन में ब्रह्मा जी के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और रात्रिकाल में उसी सूक्ष्म शरीर में विलीन हो जाते हैं, अर्थात् सब शून्य हो जाता है जिसे हम प्रलय कहते हैं और पुनः सृजन होता है।

हमारे शास्त्रों में चार तरह के प्रलय बताए गए हैं -

नित्य प्रलय - हर क्षण यह ब्रह्माण्ड अपना रूप बदलता है, सिकुड़ता है या फैलता है। यह प्रतिपल का बदलाव नित्य प्रलय है। 
आत्यन्तिक प्रलय- जिसने परम सिद्धि प्राप्त कर ली और योगी बन गया, वह प्रलय के चक्र से मुक्त हो जाता है। 
नैमित्तिक प्रलय- जो ब्रह्मा जी की रात्रिकाल में होता है।
प्राकृत प्रलय-  ब्रह्मा जी के सौ वर्ष पूरे होने पर जो प्रलय होता है।

अव्यक्त स्थिति -अव्यक्त से व्यक्त और पुनः व्यक्त से अव्यक्त की स्थिति को समझना अनिवार्य है। तकनीक की सहायता से यह तथ्य सरलता से समझ आता है। ज़ूम तकनीक की सुविधा से हम कई विवेचन सत्रों में जुड़ पाते हैं। यदि हम मध्य में सभा से निकल जाते हैं तो स्क्रीन पर जो विस्तृत दर्शन था वह लुप्त हो जाता है। जब हम पुनः उसी सभा से जुड़ें तो वही दर्शन फिर सजीव हो जाता है। सृष्टि के भेद को भी ऐसे ही समझा जा सकता है। 

अन्य उदाहरणों से इसको और स्पष्टता से समझते हैं। किसी आदिवासी या पिछड़ी जनजाति के लोग जिन्हें टेलीविज़न का ज्ञान नहीं, यदि वे प्रथम बार टेलीविज़न के स्क्रीन पर हाथी देखें तो अचम्भित रह जायेंगे और टीवी के पीछे झाँकेंगे। वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि इतने पतले टीवी में यह विशालकाय जानवर कैसे घुस सकते हैं। अब आप यदि चैनल बदल दें और दूसरे चैनल पर यदि बड़े-बड़े पहाड़ों के विषय में कुछ चर्चा है तो ऐसा दृश्य तो इन लोगों के लिए चमत्कार ही प्रतीत होगा। ऐसा ही कुछ प्रकृति में भी निरन्तर घटित होता है। हर पल नव ब्रह्माण्ड निर्मित होते हैं और प्रलय द्वारा भस्म होते हैं। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड और प्रत्येक ब्रह्माण्ड का एक ब्रह्मा। सृष्टि की विस्तृतता का सम्पूर्ण ज्ञान तो केवल श्रीभगवान् को ही है। वे ही कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं। 

यदि हम अपने मोबाइल का उदाहरण लें तो मानेंगे कि उसमें निजी आवश्यकता अनुसार विभिन्न डेटा पैक उपलब्ध हैं। यदि हम ने अपने मोबाइल में अब श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय, उनके विवेचन आदि सब भर दिए तो क्या हमारा मोबाइल भारी हो जायेगा? हम जब-जब विवेचन से जुड़ेंगे, सब लोगों के ऑनलाइन दर्शन होंगे और सभा समाप्त होने पर वे हमें दिखने बन्द हो जायेंगे। वे सब अपने-अपने स्थानों पर उपस्थित हैं, केवल हम नहीं देख पा रहे। 

इसी प्रकार ब्रह्माजी नित नये जीव का निर्माण नहीं करते। उनकी रात्रि में उनके साथ सम्पूर्ण सृष्टि सो जाती है या विलुप्त हो जाती है और उनकी सुबह के साथ ही नव निर्मित होती है या पुनः प्रकट होती है। ऐसा ही चक्र अनगिनित वर्षों से चलायमान है।

इसमें जानने योग्य एक और विशेष बात है कि सभी प्राणियों के कर्म फल उनके साथ ही जुड़े रहते हैं। उसमें विकार या परिवर्तन नहीं होता, अतः इसमें कुछ संशय नहीं कि काल का चक्र सभी के साथ न्याय ही करेगा, जैसी करनी वैसी भरनी, यह सत्य अविचलित रहता है और हम सब अपने-अपने कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न लोकों में, अनेक योनियों में करोड़ों वर्षों से घूम रहे हैं -

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इस चक्र को भेदकर परम गति को प्राप्त करना ही मानव जीवन का ध्येय है। 

श्रीभगवान् ने एक और नई विशिष्ट बात कही है अव्यक्तसंज्ञक। श्रीभगवान् ने कहा कि ब्रह्मा जी की आयु सौ वर्ष की है, जब ब्रह्मा जी की आयु पूरी हो गई और ब्रह्मा जी भी शान्त हो गए तब यह व्यक्त से अव्यक्त, प्रलय से सृजन का क्रम कैसे बढ़ेगा? ऊपर दिए गए उदाहरण के अनुरूप अब तो डेटा की पेन ड्राइव ही बन्द हो गयी तो क्या होगा?  इस स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीभगवान् ने एक महत्वपूर्ण सत्य को उजागर किया। इस परिस्थिति में नव ब्रह्मा की उत्पत्ति के पूर्व वह सारा डेटा एक (preform) में अर्थात् 'अव्यक्तसंज्ञक' के रूप में श्रीभगवान् के संरक्षण में जमा रहता है। 

जब सब नष्ट हो जाता है, ब्रह्मा जी भी नहीं रहे, सब लोक भी समाप्त हो गए पर जो सदैव विद्यमान हैं, वे ही श्रीभगवान् हैं -  
यः (स्) स सर्वेषु भूतेषु, नश्यत्सु न विनश्यति। 

भगवद्भक्ति, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्य, निर्वाण, मोक्ष इत्यादि स्थितियों पर अनेक गोष्ठियाँ होती हैं और उनकी प्राप्ति के लिए अनेक उपाय सुझाये जाते हैं। श्रीभगवान् कहते हैं कि -
व्यक्तोऽक्षर इत्युक्त:(स्), तमाहुः(फ्) परमां(ङ्) गतिम् ।
यं(म्) प्राप्य न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं(म्) मम ॥

इस ब्रह्मलोक के चक्रव्यूह से निकलकर, व्यक्त अव्यक्त के जञ्जाल
को छोड़, व्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः भाव में जब पहुँचोगे तब मेरे धाम तक पहुँच पाओगे और फिर कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। वही तो परम और अन्तिम धाम है।  

8.22

पुरुषः(स्) स परः(फ्) पार्थ, भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि, येन सर्वमिदं(न्) ततम् ॥ 8.22॥

हे पृथानन्दन अर्जुन! संपूर्ण प्राणी जिसके अंतर्गत हैं (और) जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य हैं।

विवेचन - श्रीभगवान् ने इस श्लोक में ज्ञानयोग के सूक्ष्म तथ्यों से निकलकर कर भक्तियोग का मार्ग अपनाया है। इससे पूर्व श्लोकों में जब वे व्यक्त और अव्यक्त के रहस्य का प्रतिपादन कर रहे थे तो वह ज्ञानियों का विषय था। इस श्लोक में श्रीभगवान् जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने का एक ही मार्ग बताते हैं - भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। 

श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक बार श्रीभगवान् ने ज्ञान और भक्ति के द्वन्द्व में भक्ति को श्रेष्ठ बताया है। अन्य कई ग्रन्थों में ज्ञान मार्ग की श्रेष्ठता स्थापित है। श्रीभगवान् ने उस भ्रम को तोड़ा है। 

यहाँ अनन्य भक्ति को समझना भी अनिवार्य है, क्योंकि अनेक लोगों को यह स्पष्ट नहीं है। अनन्य का अर्थ यह नहीं कि यदि कोई शिव का भक्त है तो श्रीराम की भक्ति कैसे करे।

अनन्य का अर्थ है कि मुझे इस संसार में केवल ईश्वर चाहिए अन्य कुछ नहीं!
तेरे रूप अनेक, तेरे नाम अनेक, पर तू एक ही।
मुझे तेरा हर स्वरूप भाता है, तू ही गणेश, तू ही शिव, तू ही माता में झलकता है। 

इस संसार के पार जाने के लिए अनन्य भक्ति की आवश्यकता है। हम किसी भी मन्दिर में जाएँ पर कामना केवल अपने इष्ट की ही करें, यह कहलाती है अनन्य भक्ति, परन्तु हम संसारी मनुष्य श्रीभगवान् के दरबार में उपस्थित होकर भी श्रीभगवान् को नहीं माँगते, संसार की सुख सुविधाओं के लिए प्रार्थना करते हैं।
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई
जब तक यह भावना उजागर नहीं होती तब तक ईश्वर प्राप्ति नहीं हो सकती। 

8.23

यत्र काले त्वनावृत्तिम्, आवृत्तिं(ञ्) चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं(ङ्) कालं(म्), वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ 8.23॥

परन्तु, हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात् मार्ग में शरीर छोड़कर गए हुए योगी अनावृत्ति को प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौट कर नहीं आते और (जिस मार्ग में गए हुए) आवृत्ति को प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौट कर आते हैं, उस काल को अर्थात् दोनों मार्गों को मैं कहूँगा।

8.23 writeup

8.24

अग्निर्ज्योतिरहः(श्) शुक्लः(ष्), षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति, ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ 8.24॥

प्रकाश स्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता, और छः महीनों वाले उत्तरायण का अधिपति देवता है,उस मार्ग से (शरीर छोड़कर) गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर पीछे ब्रह्मा के साथ) ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं।

8.24 writeup

8.25

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः(ष्), षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं(ञ्) ज्योति:(र्), योगी प्राप्य निवर्तते ॥ 8.25॥

धूम का अधिपति देवता, रात्रि का अधिपति देवता, कृष्ण पक्ष का अधिपति देवता, और छह महीनों वाले दक्षिणायन का अधिपति देवता है, (शरीर छोड़कर) उस मार्ग से गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात जन्म- मरण को प्राप्त होता है।

8.25 writeup

8.26

शुक्लकृष्णे गती ह्येते, जगतः(श्) शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिम्, अन्ययावर्तते पुनः ॥ 8.26॥

क्योंकि शुक्ल और कृष्ण यह दोनों गतियाँ अनादि काल से जगत (प्राणीमात्र) के साथ सम्बन्ध रखने वाली मानी गई है। इनमें से एक गति में जाने वाले को लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गति में जाने वाले को पुनः लौटना पड़ता है।

विवेचन - श्रीभगवान् ने श्लोक तेईस, चौबीस, पच्चीस और छब्बीस में काल के व्यवहार और क्रिया का निरूपण किया है। ये अत्यन्त गूढ़ कथन हैं जिनका तात्पर्य किसी ज्ञानी महापुरुष के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि सामान्य रूप से पढ़ने में तो ऐसा प्रतीत होगा कि जो उत्तरायण में शरीर त्याग कर जाएगा, वह परम गति को प्राप्त हो जाएगा और जो दक्षिणायण में शरीर त्यागेगा, वह परम गति को प्राप्त नहीं होगा।
एक सरल उदाहरण द्वारा चित्रों की प्रस्तुति से इस तथ्य को समझते हैं। 



















हम सबने लाल रङ्ग की पत्र पेटिका (letter Box) अपने निवास स्थान के आसपास में किसी चौराहे पर अवश्य देखी होगी। उस पेटिका के ऊपर, किस समय डाकिया उसे खोल चिठ्ठी निकालेगा अङ्कित होता है। आपने चिठ्ठी किस समय डाली वह मान्य नहीं है, अपितु डाकिये ने आपकी चिठ्ठी कब निकाली, वह अधिक मान्य है। 

उसी प्रकार कौन व्यक्ति किस समय मृत्यु को प्राप्त हुआ, यह महत्त्वपूर्ण नहीं, अपितु मृत्यु का दूत उसे कब यमराज जी के पास लेकर जाता है? यह महत्त्व रखता है। जैसे डाकिया बिना यह विचार किए, कि उन चिट्ठियों को कहाँ जाना है, उन्हें लेकर आगे अपने पोस्ट ऑफिस चला जाता है। ये हुए हमारे प्रथम देवता। फिर ये देवता इन सभी पत्रों को अपने अगले डाकिए अर्थात्‌ दूसरे देवता को देंगे। यह देवता इन पत्रों की छँटनी करेगा और उन्हें दो भागों में विभाजित करेगा। 

हर शहर में दो रेलगाड़ी होती हैं - एक अप और दूसरी डाउन, अर्थात् एक जो पश्चिम की ओर जाएगी और दूसरी वह जो पूर्व की ओर जाएगी। कौन सी चिट्ठी अप ट्रेन से जाएगी और कौन सी डाउन ट्रेन से जाएगी, उन्हें यहाँ अलग-अलग कर लिया जाता है, अतः हम किस समय मृत्यु को प्राप्त हुए यह महत्त्व नहीं रखता परन्तु हम अपने कर्मफल अनुसार उत्तरायण के देवता के पास जायेंगे या दक्षिणायन के देवता के पास यह विचार योग्य है। यही कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की रेलगाड़ियाँ हैं। अगर हम अप रेलगाड़ी को उत्तरायण की  मान लें तो यह शुभ है। वह हमें स्वर्ग या मोक्ष की ओर ले जाएगी और इसमें वे योगी भी होंगे जो ब्रह्म लोक को भी लाङ्घ कर आगे चले जाएँगे। डाउन वाली रेलगाड़ी अशुभ है, नरक और अलग-अलग प्रकार की योनियों की है। देवतागण अब इन रेलगाड़ियों में आने वाली चिट्ठियों को छाँटते हैं। किसको किस स्टेशन में उतारना है, कौन सा पुण्य, कौन सा पाप भुगताना है, किसको स्वर्ग लोक भेजना है, किसको गन्धर्व लोक, किसको पितृलोक, किसको ब्रह्मलोक, किसको परमलोक भेजना है, आदि का निर्णय लिया जाता है और इन दोनों रेलगाड़ियों में छाँट-छाँट कर चढ़ा दिया जाता है।

शुक्ल पक्ष के देवता तीन गतियों के स्वामी हैं। एक स्वर्ग, दूसरी नरक और तीसरी अपवर्ग। स्वर्ग से तात्पर्य है अच्छे फल, नरक का अर्थ है बुरे फल और जो स्वर्ग और नरक को पार करके मोक्ष पा गए, वे अपवर्ग में आते हैं। कृष्ण पक्ष के देवता केवल नरक और स्वर्ग की गतियों के स्वामी हैं। 
श्रीभगवान् अर्जुन को और विस्तार से समझाते हैं कि जब कोई उत्तरायण की ट्रेन में सवार है तो उस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि के अभिमानी देवता, उत्तरायण के अभिमानी देवता, शुक्ल पक्ष के अभिमानी देवता, और दिन के अभिमानी देवता उपस्थित हैं। ये देवता हमें कर्मानुसार विभिन्न लोकों में पहुँचाते हैं। उन लोकों के सुख-दुःख भोगकर हम पुनः भूलोक पर लौट आते हैं। उत्तरायण का अभिमानी देवता उन परम जीव आत्माओं को मोक्ष के गन्तव्य पर ले जाते हैं, जिन्होंने अपने सद्कर्मों द्वारा ब्रह्मलोक को भी पार कर परम धाम को प्राप्त कर लिया है।

दक्षिणायन की ट्रेन में सवार जीवात्माओं के मार्ग दर्शक, दक्षिणायन के अभिमानी देवता, कृष्ण पक्ष के अभिमानी देवता और रात्रि के अभिमानी देवता हैं। उस मार्ग से शरीर छोड़कर गये हुए योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर अपने शुभ-अशुभ कर्मों को भोगकर मनुष्य योनि में पुनः लौट आते हैं।

अर्थात् हमारी मृत्यु किसी काल में भी हुई हो, मृत्यु के देवता हमें किस देवता को सौंपते हैं, हम उत्तरायण या दक्षिणायन, शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष के स्वामियों को सौंपे जाते हैं, हमारी गति का सत्य वे निर्धारित करते हैं। 

इन श्लोकों में वर्णित सत्यता को जानने के पश्चात् यह भ्रान्ति अवश्य दूर हो जाएगी कि भीष्मपितामह ने प्राण त्यागने के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा मोक्ष प्राप्ति के लिए नहीं अपितु मकर सङ्क्रान्ति के सूर्य देवता के दर्शन के लिए की थी। 

8.27

नैते सृती पार्थ जानन्, योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु, योगयुक्तो भवार्जुन ॥ 8.27॥

हे पृथानन्दन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता।अतः हे अर्जुन! तू() सब समय में योगयुक्त, (समता में) स्थित हो जा।

विवेचन -  श्रीभगवान् कहते हैं कि हे पृथानन्दन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता, अतः हे अर्जुन! तुम सब समय में योगयुक्त, समता में स्थित हो सब कार्य करो।"

श्रीभगवान् ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा -
मामनुस्मर युध्य च। 
हम कोई भी कार्य करें, ईश्वर को समर्पित हों, उनका चिन्तन करते हुए करें। वे अर्जुन को अच्छा मानव बनने की सीख नहीं दे रहे, भगवद्प्राप्ति के मार्ग की कुञ्जी समझा रहे हैं और अर्जुन के माध्यम से सम्पूर्ण मानव जाति को भी यह सन्देश पहुँचा रहे हैं। 

8.28

वेदेषु यज्ञेषु तपः(स्) सु चैव,
दानेषु यत्पुण्यफलं(म्) प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं(म्) विदित्वायोगी,
परं(म्) स्थानमुपैति चाद्यम् ॥ 8.28॥

योगी (भक्त) इसको (इस अध्याय में वर्णित विषय को) जानकर वेदों में, यज्ञों में, तपों में तथा दान में जो- जो पुण्यफल कहे गए हैं, उन सभी पुण्यफलों का अतिक्रमण कर जाता है और आदिस्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन - योगी पुरुष इस रहस्य को तत्त्व से जानता है और वेदों में उल्लिखित उत्कृष्ट कर्म - यज्ञ, तप, दान, जप, माला, पुण्य कर्म इत्यादि सभी करता है। अन्तर केवल इतना है कि वह यह सब आसक्ति रहित, निष्काम भाव से करते हुए सत्त्व कर्मों का उल्लङ्घन कर उनके भी पार चला जाता है और शुक्लपक्ष के उत्तरायण देवता के द्वारा ब्रह्मलोक को पार कर परमगति को प्राप्त करता है।

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं -
 
एहि तन कर फल विषय न भाई | स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई |
स्वर्ग में कितने ही सुख हों और आयु कितनी ही दीर्घ हो, किन्तु अन्त दु:खदायी होता है, अतः स्वर्ग की कामना न करते हुए भक्ति की कामना करनी चाहिये। 

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।

भागवत में नौ प्रकार की भक्ति के दर्शन हैं। रामायण में भी श्रीराम ने शबरी को नवधा भक्ति बतलाई। हम सब प्रार्थना करें कि नवधा प्रकार से भक्ति करते हुए हम उपास्य मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को कृतार्थ करें। 

ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारण के साथ आज का विवेचन सत्र सम्पूर्णता को प्राप्त हुआ। 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां (म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टमोऽध्यायः।।
ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘अक्षरब्रह्मयोग’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।

हरि शरणम् सङ्कीर्तन के साथ विवेचन सत्र का समापन होने के पश्चात् प्रश्नोत्तर सत्र प्रारम्भ हुआ।

प्रश्नोत्तर- 

प्रश्नकर्ता- मन्जू अग्रवाल दीदी  
प्रश्न- उत्तरायण या दक्षिणायन लिखते समय पीछे अलग-अलग तरह के ण और न हैं। ऐसा क्यों?
उत्तर- वास्तविक शब्द अयन है जिसका अर्थ होता है छ: मास का। सन्धि एवं व्याकरण के नियमों के अनुसार ये अलग-अलग प्रकार के ण और न दिखाई देते हैं।

प्रश्नकर्ता- रजनीश भैया 
प्रश्न- हमें यह ज्ञात है कि कर्मों के अनुसार ही योनि मिलती है और मनुष्य योनि में ही कर्म कर सकते हैं लेकिन यदि बुरे कर्म करके पशु योनि को प्राप्त होते हैं तो फिर से मनुष्य योनि कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
उत्तर- अगर मनुष्य योनि में अच्छे कर्म नहीं किये तो पशु योनि में चले गए और वहाॅं से अपने कर्मों को भोगकर फिर से मनुष्य योनि में आ जाऍंगे। मनुष्य योनि में किये अच्छे, बुरे कर्मों को भोगने के पश्चात फिर से मनुष्य योनि ही प्राप्त होती है।

प्रश्नकर्ता- मृदुल दीदी 
प्रश्न- आजकल के समय में अच्छे गुरु का मिल पाना, उनको प्राप्त करना कठिन है तो अगर हम अपने मन से ही किसी भी मन्त्र का जाप करते हैं तो क्या उसमें कोई बुराई है? 
उत्तर- नहीं, कोई बुराई नहीं है लेकिन अगर आप बिना बन्दूक की गोली को हाथ में लेकर अपने दुश्मन की ओर फेकेंगे तो इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन उस गोली से कोई मरेगा नहीं क्योंकि उस गोली के पास बन्दूक की शक्ति नहीं है। गुरु दीक्षा लेने के बाद गुरु का तपोबल आपसे जुड़ जाता है और आप में बन्दूक की ताकत आ जाती है। चाहे आप उन्हीं दैनिक मन्त्रों का जाप करें लेकिन आपके मन्त्रों का प्रभाव पहले से हजार गुणा बढ़ जाता है। बहुरूपिये गुरु हर काल में थे। रामायण काल में भी कालनेमि नाम का गुरु था जिसे हनुमान जी ने अपना गुरु बनाना चाहा था और आज भी ऐसे बहुरूपिये गुरु हैं लेकिन सद्गुरु को पहचानने के लिए आप चार परीक्षाऍं करके जाॅंचिए और इसे हर कोई कर सकता है:-
 
1.कहीं गुरु स्वयंभू तो नहीं ।
2.उनकी पिछली पीढ़ियों में कोई स्वयंभू गुरु तो नहीं और गुरु किसी आचार्य परम्परा, किसी मठ परम्परा से ही जुड़े होने चाहिऍं। 
3.शास्त्रों को पढ़ने, पढ़ाने वाले होने चाहिऍं। 
4.अपनी पूजा या श्रीभगवान् की पूजा पर अधिक बल देते हैं, इस पर आप ध्यान दीजिए। श्रीभगवान् की पूजा पर बल देने वाला गुरु ही सद्गुरु होता है। 

भारतवर्ष में सद्गुरुओं की कमी नहीं है। केवल आवश्यकता है उन्हें पहचानने की और इस तरह सद्गुरु को पहचान कर आप सद्गुरु की आज्ञा अनुसार जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।

प्रश्नकर्ता- मन्दाकिनी दीदी 
प्रश्न- मेरी ससुराल में गणपति जी और शिवजी की पूजा नहीं की जाती और करने की भी मनाही है लेकिन मेरा मन उनकी आराधना में अधिक लगता है? इसके लिए कोई उपाय बताएँ
उत्तर- मुझे आज तक ऐसे किसी सम्प्रदाय या परम्परा का ज्ञान नहीं है जिसमें इस तरह की मनाही हो, लेकिन हाॅं! अगर आपके घर में इस तरह की कोई परम्परा है तो आपको उसके अनुसार ही चलना चाहिए और अपने स्वविवेक का प्रयोग करना चाहिए। किसी भी देवता के पूजन से आपका कभी भी अकल्याण नहीं होगा, इतना आश्वासन मैं दे सकता हूॅं।

प्रश्नकर्ता- शीला दीदी 
प्रश्न- हमारे सभी पर्व अलग-अलग तिथियों पर आते हैं लेकिन एक मकर सङ्क्रान्ति हमेशा चौदह जनवरी को ही होती है, ऐसा क्यों? 
उत्तर- हमारा भारतीय कैलेण्डर चन्द्रगति पर आधारित है जिसके अनुसार हमारे पर्व अलग-अलग तिथियों पर आते हैं लेकिन एक केवल मात्र मकर सङ्क्रान्ति सूर्य गति पर आधारित पर्व है और यह रोमन कैलेण्डर से भी मिलता है।

प्रश्नकर्ता- प्रेमवीर सिंह भैया 
 प्रश्न- अध्याय का नाम अक्षरब्रह्मयोग है। कृपया इसकी व्याख्या कीजिए?
उत्तर- इस अध्याय में श्रीभगवान् ने अक्षर और अव्यक्त स्वरूप की प्राप्ति का वर्णन ही किया है। अर्जुन के प्रश्न श्रीभगवान् से हैं कि आपके अव्यक्त रूप को किस प्रकार से जान सकते हैं और श्रीभगवान् ने उन्हीं प्रश्नों का उत्तर इस अध्याय में बहुत सुन्दर ढङ्ग से दिया है।

प्रश्नकर्ता- कृष्ण लाल भैया 
प्रश्न- अभिमानी देवता का अर्थ क्या है? 
उत्तर- अभिमानी देवता का अर्थ यहाॅं किसी भी प्रकार के अभिमान से नहीं है, अपितु इसका अर्थ है नियुक्त अथवा (Appointed)।

प्रश्नकर्ता- मेघ भैया 
प्रश्न- स्लाइड नंबर छ: और सात में दक्षिणायन का वर्णन करते समय स्लाइड नम्बर छ: में अशुभ और नरक लिखा है जबकि स्लाइड नम्बर सात में स्वर्ग और नरक लिखा है, कृपया इसके बारे में बताइए? 
उत्तर- अगर आपकी मृत्यु दक्षिणायन में होती है और आपने अपने जीवन में अच्छे कर्म किए हैं तो अशुभ भोगने के बाद भी स्वर्ग का योग है। आपको स्वर्ग भी मिलेगा। उत्तरायण की गाड़ी में बैठने के बाद भी अगर आपने जीवन भर बुरे कर्म किए हैं तो आपको स्वर्ग भोगने के पश्चात नरक की भी प्राप्ति होगी।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां (म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥8॥

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘अक्षरब्रह्मयोग’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।