विवेचन सारांश
संसार वृक्ष का वर्णन

ID: 7278
हिन्दी
शनिवार, 21 जून 2025
अध्याय 15: पुरुषोत्तमयोग
1/2 (श्लोक 1-5)
विवेचक: गीता प्रवीण ज्योति जी शुक्ला


गीता परिवार के भक्तिपूर्ण गीत, हनुमान चालीसा, दीप प्रज्वलन, मङ्गलमय प्रार्थना एवं गुरु चरणों की वन्दना के साथ आज के विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ।

अभी तक हमने बारहवें अध्याय भक्तियोग को सुना, जिसमें भक्ति की चर्चा की थी। जिसमें हमने जाना कि एक उत्तम भक्त के क्या-क्या लक्षण होते हैं। श्लोको का उच्चारण करना, यहाँ हम सीख रहे हैं। आज हम पुरुषोत्तम योग के विषय में जानेंगे। 

नामों का महत्व 

पुरुषोत्तम योग अर्थात् ऐसा ज्ञान जिसको जानकर हम सभी नायक बन सकते हैं, जैसे हम चलचित्र में देखते हैं, जिसमें नायक एवं खलनायक होते हैं। महाभारत में जो नायक है, वह अर्जुन हैं और जो खलनायक है, वह दुर्योधन है। यदि आपसे प्रश्न पूछा जाए कि आप क्या बनना चाहते हैं तो प्रायः सभी का उत्तर होगा, नायक बनना।

ऐसा बहुत ही कम देखने में आता है कि जिन्होंने बुरे कार्य किए हैं उनके नाम के ऊपर ही हम लोगों के नाम रखे जाए, जैसे रावण या कंस उनके नाम पर ही कोई अपना नाम रखता हो। जिन्होंने अच्छे कार्य किए हैं, उनके नाम पर हम अपना नामकरण करते हैं क्योंकि जिन्होंने अच्छे कार्य किये है, उनका नाम लेने से उनके उत्तम कार्य हमें स्मरण हो जाते हैं और हम भी अच्छे कार्य करने की दिशा में प्रेरित होते हैं।

जैसे सीता जी का नाम लेने से हमें एक आदर्श नारी का स्मरण होने लगता है। किसी का नाम राम होता है, किसी का नाम श्याम होता है। इसके पीछे उद्देश्य यही होता है कि जितनी बार भी हम नाम लेंगे उनके गुणों एवं कार्यों का अनुसरण करने को प्रेरित होंगे।

कई लोग भगवान के नाम पर भी अपने बच्चों का नामकरण  करते हैं ताकि जितनी बार भी नाम लें, उतनी ही जीवन में सात्विकता बढ़ती जाए क्योंकि जब हम अच्छा बोलेंगे तो हमारे विचार भी अच्छे होंगे और हमारे सारे कार्य सरलता से होने प्रारम्भ हो जाएंगे। हम भगवान के प्रिय होते जाएंगे।

अगर हमें नायक बनना है तो पुरुषों में उत्तम अर्थात् पुरुषोत्तम योग को जानना होगा। इसमें श्रीभगवान् ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया है, वह ज्ञान हमें समझना होगा, थोड़ा कठिन अवश्य है, लेकिन जैसे-जैसे सुनते जाएंगे, समझ में  आता जाएगा।

जब हम भौतिक विज्ञान अथवा रसायन शास्त्र पढ़ते हैं तो सरलता से समझ नहीं आता। लेकिन धीरे-धीरे प्रयास करने पर हम समझने लगते हैं इस प्रकार पुरुषोत्तम योग भी कठिन अवश्य है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे और अधिक स्पष्टता से समझने भी लगेंगे।

सृष्टि में विद्यमान विभिन्न प्रकार के वृक्षों की जानकारी 

आज एक पेड़ के बारे में हम समझेंगे। सभी ने पेड़ देखे हैं। चित्र भी बना सकते हो, यदि आपसे पूछा जाए कि वृक्ष का चित्र बनाने में कितना समय लगेगा?
किसी को दस मिनट, किसी को पाँच मिनट का, किसी को दो मिनट का समय लग सकता है।

श्रीभगवान् द्वारा वर्णित वृक्ष के बारे में जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि आपको वृक्ष के बारे में क्या-क्या पता हैं ?

प्रश्न- एक वृक्ष में क्या-क्या होता है?
उत्तर- जड़, तना, पत्ते, फल, फूल, बीज आदि।

प्रश्न- पत्ते वाली तरकारी में क्या-क्या आता है? 
उत्तर- मेथी, पुदीना, धनिया, पालक आदि।

प्रश्न- जड़ में क्या-क्या होता है?
उत्तर- आलू, मूली, गाजर आदि।

प्रश्न- फूल में क्या-क्या होता है?
उत्तर- गोभी।

प्रश्न- फल में क्या-क्या होता है?
उत्तर- आम, जामुन, अनार आदि।

वृक्ष हमारे जीवन में बहुत उपयोगी है। हम जिस वृक्ष की बात कर रहे हैं, वह साधारण वृक्ष नहीं है। साधारणतः वृक्ष की जड़ भूमि से नीचे की ओर होती है एवं तना आसमान की ओर, यह हमें ज्ञात हैं। यहाँ श्रीभगवान् जिस वृक्ष के विषय मे बता रहे हैं, उसकी जड़ तो आकाश की ओर तथा तना भूमि की ओर है। यही हम अगले श्लोक में जानेंगे कि श्रीभगवान् वृक्ष की तुलना किससे कर रहे हैं, हमें वह क्या सीख दे रहे हैं?

15.1

श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः(श्) शाखम्, अश्वत्थं(म्) प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि, यस्तं(व्ँ) वेद स वेदवित्॥15.1॥

श्रीभगवान् बोले – ऊपर की ओर मूल वाले (तथा) नीचे की ओर शाखा वाले (जिस) संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को (प्रवाह रूप से) अव्यय कहते हैं (और) वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार-वृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है।

विवेचना- 

श्रीभगवान् द्वारा वर्णित आध्यात्मिक वृक्ष में जीवों की स्थिति 

श्रीभगवान् कह रहे हैं कि यह संसार रूपी वृक्ष ऊपर की ओर मूल वाला है। इसकी उत्पत्ति और इसका विस्तार परमात्मा से ही हुआ है। वृक्ष के मूल से ही तना, शाखाएँ, कोपले निकलती है इसी प्रकार परमात्मा से ही सम्पूर्ण जगत उत्पन्न होता है, उन्हीं से विस्तृत होता है और उन्हीं में स्थित रहता है।

संसार वृक्ष की प्रधान शाखा ब्रह्मा जी है। श्रीभगवान् इस वृक्ष की तुलना पीपल के वृक्ष से करते हैं। जब हमें कुछ जानना होता है, तो उसके ढाँचे को समझना आवश्यक होता है। किसी वस्तु को समझने के लिए हम उसका किसी अन्य वस्तु से तुलनात्मक अध्ययन करते हैं।

जब हमें कक्षा में अध्यापक किसी विषय को समझाते हैं तो वह उदाहरण के द्वारा अन्य चीजों से जोड़कर समझाते हैं जिससे हम सरलता से समझ लेते हैं। यहाँ पर श्रीभगवान् भी संसार की  एक उल्टे पेड़ से तुलना कर हमें समझा  रहे हैं। पीपल का वृक्ष सदैव चलायमान रहता है। यह संसार भी चलायमान है, प्रति क्षण बदलता रहता है, कुछ भी स्थिर नहीं है। 

मान लो गङ्गाजी में स्नान करना है और कोई आपसे कहे कि एक ही जल की धारा में दो बार डुबकी लगाकर दिखाइए, तो क्या आप कर पाएंगे? दूसरी बार डुबकी लगाने जाएंगे तो क्या जल वही रहेगा? कदापि नहीं वह तो बह जाएगा।

संसार की विविधता को समझने हेतु एक कथा- जीव के विवेक द्वारा निर्धारित सांसारिक पदार्थों की पहचान तथा उसमें निहित ज्ञान 

संसार के किसी भी पदार्थ को नष्ट नहीं किया जा सकता। इस ज्ञान को जो जान लेता है, वह विद्वान होता है। एक कहानी सुनते हैं-
पाँच अन्धे थे। एक दिन गुरुजी महावत के साथ हाथी देखने ले जाते हैं। लौटते समय हाथी के बारे में बातें करते, उन्हीं अन्धों के सामने से निकलते हैं। उनकी बातें सुनकर अन्धों को भी हाथी देखने की जिज्ञासा होती है, वह महावत से कहते हैं कि हमें भी हाथी देखना है। महावत उन्हें हाथी दिखाने ले जाता है।

सभी हाथों से छूकर देखते हैं। एक के हाथ में पूँछ आती है तो वह कहता है कि यह हाथी रस्सी के सदृश है। एक पैर को छूकर देखता है, तो उसे लगता है कि हाथी खम्बे की तरह है। अन्य उसके उदर को स्पर्श करता है तो उसे छत के तरह लगता है। एक कान को छूकर देखता है तो उसे सूप की तरह लगता है। सभी ने अलग-अलग चीजों को स्पर्श किया और अलग-अलग अनुभव प्राप्त किया। इसी बात को लेकर आपस में झगड़ने लगे। सभी गुरुजी के पास आते हैं, वे उन्हें सारी बात बताते हैं उसके पश्चात गुरुजी उन्हें समझाते हैं।

इसी तरह संसार में बहुत सारा ज्ञान है, वेदों के अध्ययन मात्र से मनुष्य, वेदों का विद्वान तो हो सकता है पर यथार्थ वेदवेत्ता नहीं।

15.2

अधश्चोर्ध्वं(म्) प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।2।।

उस संसार वृक्ष की गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई (तथा) विषय रूप कोंपलों वाली शाखाएँ नीचे, (मध्य में) और ऊपर (सब जगह) फैली हुई हैं। मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाले मूल (भी) नीचे और (ऊपर) (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि संसार वृक्ष की मुख्य शाखा अर्थात् तना ब्रह्म है। ब्रह्म से सम्पूर्ण देव, मनुष्य एवं तिर्यक आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है। इसलिए ब्रह्मलोक से पाताल लोक, जितने भी लोक हैं तथा उनमें रहने वाले देव, मनुष्य और कीट जैसे जो प्राणी हैं, वे सभी इस वृक्ष की शाखाएँ हैं।






जिस प्रकार जल के द्वारा सिञि्चत, वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती है उसी प्रकार चूँकि प्रकृति त्रिगुणात्मक है अत: गुण रूपी जल के द्वारा, संसार वृक्ष की शाखाएँ बढ़ती हैं अर्थात् इस सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों से रहित हो, गुणातीत हो

15.3

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं(म्) सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।3।।

इस संसार वृक्ष का (जैसा) रूप (देखने में आता है), वैसा यहाँ (विचार करने पर) मिलता नहीं; (क्योंकि इसका) न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्गता रूप शस्त्र के द्वारा काटकर –

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि यह संसार वृक्ष कहाॅं से प्रारम्भ हुआ और उसका मध्य कहाॅं है एवं अन्त कहाॅं होता है? अर्थात् कब से इसका प्रारम्भ हुआ है, कब तक यह रहेगा और कब इसका अन्त होगा? कुछ भी पता नहीं है। 

हमारी आसक्ति सांसारिक वस्तुओं के प्रति अधिक होती है, इनकी ओर हम अधिक प्रवृत्त होते हैं। अध्ययन करने की अपेक्षा हम, टीवी चैनल पर व्यस्त रहते हैं एवं फोन पर घण्टों तक समय व्यर्थ करते हैं। हमें अपनी इस प्रवृत्ति पर ध्यान देने की आवश्यकता है। अभी हमें केवल अध्ययन पर ध्यान देना चाहिए, तभी हम श्रीभगवान के प्रिय बन सकते हैं

15.4

ततः(फ्) पदं(न्) तत्परिमार्गितव्यं(य्ँ) यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं(म्) पुरुषं(म्) प्रपद्ये यतः(फ्) प्रवृत्तिः(फ्) प्रसृता पुराणी॥15.4॥

उसके बाद उस परमपद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त होने पर मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आने वाली (यह) सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, उस आदिपुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ।

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि संसार को अपना मानने से नित्य प्राप्त परमात्मा अप्राप्त होता दिखायी देता है। हम संसार अर्थात् शरीर, परिवार व धन-सम्पदा जो अपनी कभी थी ही नहीं, उनके प्रति आसक्त होकर श्रीभगवान का ध्यान नहीं करते, जबकि परमात्मा सदा से ही अपने हैं अतः परमात्मा का आश्रय लेने से ही उनको प्राप्त किया जा सकता है

हम बहुत कुछ करते हैं लेकिन जिन्होंने हमें भेजा है, उनको हम भूल जाते हैं। माता-पिता जो हमारा इतना ध्यान रखते हैं, वहीं वृद्धावस्था में कुछ लोगों द्वारा उन्हें भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है। उनका ध्यान नहीं रखते, कितनी गलत बात है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे स्वार्थी होते हैं तथा स्वयं के बारे में सोचते हैं और अपने ही माता-पिता को भूल जाते हैं। 

हमें संसार में रहना है, लेकिन ईश्वर को भूलना बिलकुल भी नहीं है। हम जो भी करें हमेशा श्रीभगवान का चिन्तन-मनन मन में करते रहें। धीरे-धीरे प्रयास करेंगे तो हो जाएगा। हम सभी श्रीमद्भगवद्गीता जी से जुड़ गए हैं, हमें  इतना ज्ञान मिल रहा है कि इस ज्ञान को हम अपने जीवन में कैसे और कहाॅं उतारेंगे, इसका हमें प्रयास करना है।

15.5

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः(स्) सुखदुःखसञ्ज्ञै:(र्), गच्छन्त्यमूढाः(फ्) पदमव्ययं(न्) तत्।।5।।

जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टि से) सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं, जो सुख-दुःख नाम वाले द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, (ऐसे) (ऊँची स्थिति वाले) मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं।

विवेचन - श्रीभगवान् कहते हैं कि शरीर से अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही मनुष्य शरीर के मान-सम्मान को स्वयं का मान-सम्मान मान लेता हैं, और माया के जाल में फॅंस जाता है। जिन भक्तों को केवल श्रीभगवान में ही अपनापन दिखता है, उनका शरीर में, मैं, मेरापन नहीं रहता अर्थात् वे शरीर के मान-अपमान पर प्रसन्न एवं दुःखी नहीं होते ।

केवल श्रीभगवान के ही शरण में रहने से वे भक्त संसार से विमुख हो जाते हैं और अपना सम्बन्ध केवल भगवान के साही मानते हैं। 

हमारी एक कामना की पूर्ति होती है तो दूसरी अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जाती है और हम उनकी पूर्ति की चेष्टा करने लगते हैं। इसलिए जो कुछ है, श्रीभगवान का है इस प्रकार का भाव मन मे रखना चाहिए

हरि नाम सङ्कीर्तन के साथ आज का विवेचन सत्र यही पूर्ण हुआ।

प्रश्नोत्तर सत्र

प्रश्नकर्ता- अनन्या दीदी।
प्रश्न- भगवान श्रीकृष्ण इच्छा करते तब वे महाभारत का युद्ध होने ही नहीं देते परन्तु ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया?, श्रीभगवान् ने वह युद्ध क्यों करवाया?
उत्तर- दुर्योधन सहित उसके समस्त भाई, सङ्ख्या में सौ थे तथा वे बेहद दुराचारी, क्रूर, कपटी भी थे। दूसरी ओर पाण्डव, सङ्ख्या में मात्र पाँच थे। वे सदैव सत्य एवं धर्म के पथ पर अग्रसर थे। कौरवों ने चूँकि छल से द्यूतक्रीड़ा में पाण्डवों के सम्पूर्ण राज्य पर अवैद्य रूप से अधिकार कर लिया था, जो कि पाण्डवों के प्रति अन्याय था। इन परिस्थितियों में श्रीभगवान् अर्जुन सहित समस्त पाण्डवों के पक्ष में खड़े थे क्योंकि पाण्डव सत्य के अनुगामी थे। श्रीभगवान् ने बुराई पर अच्छाई की विजय हो तथा पाण्डवों को उनका अधिकार प्राप्त हो, इस हेतु महाभारत का युद्ध होने दिया। 

प्रश्नकर्ता- चिन्मय दीदी।
प्रश्न- अध्याय पन्द्रह में श्रीभगवान् द्वारा वर्णित वृक्ष उलटा है परन्तु उसके पत्तों में प्रकाश कहाँ से आ रहा है तथा इस सम्बन्ध में सूर्य की स्थिति क्या है?
उत्तर- अध्याय पन्द्रह में श्रीभगवान् द्वारा वर्णित वृक्ष, एक आध्यात्मिक वृक्ष है। जिसकी रचना श्रीभगवान् द्वारा वर्णित है कि वह वृक्ष उलटा है अर्थात् उसकी टहनियों एवं पत्तियों की गति अधोगामी है जबकि उसकी मूल ऊर्ध्वगामी अर्थात् ऊपर की ओर है। इस आध्यात्मिक वृक्ष की मूल स्वयं श्रीभगवान् द्वारा सिञि्चत है। हमारी आकाशगङ्गा में उपस्थित सूर्य अपनी यथावत् स्थिति में है। इस अध्याय में श्रीभगवान् द्वारा वर्णित यह वृक्ष पूर्णत: काल्पनिक है तथा इस वृक्ष का सूर्य की स्थिति से कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवों की आध्यात्मिक जगत् में उपस्थिति तथा उनकी अवस्था के स्पष्टीकरण हेतु इस पीपल के वृक्ष का वर्णन यहाँ किया गया है।

प्रश्नकर्ता- दुआ दीदी।
प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता जी की रचना किसने की?
उत्तर- आपने महर्षि वेदव्यास का नाम अवश्य श्रवण किया होगा। गुरु पूर्णिमा, जिस दिन गुरुओं का पूजन किया जाता है, उस दिन वेदव्यास जी का जन्म-दिवस होता है। वे महान रचनाकार थे। उन्होंने अनेक वैदिक ग्रन्थों की रचना की। जिसमें महाभारत, श्री भागवत पुराण सहित समस्त पुराण सम्मिलित हैं। श्रीमद्भगवद्गीता जी महाभारत में, उसके मध्य आने वाला एक अंश है।

 वे त्रिकालदर्शी थे। उन्होंने सर्वप्रथम कुरुक्षेत्र में श्रीभगवान् द्वारा उच्चारित श्रीमद्भगवद्गीता जी का श्रवण किया तत्पश्चात् उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता जी रचना की अर्थात् उन्हें लिखित रूप में व्यवस्थित किया।

।।ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।