विवेचन सारांश
दोनों सेनाओं के प्रमुख योद्धा

ID: 7670
हिन्दी
रविवार, 17 अगस्त 2025
अध्याय 1: अर्जुन विषाद योग
1/4 (श्लोक 1-13)
विवेचक: गीता विशारद श्री श्रीनिवास जी वर्णेकर


गीता परिवार के मङ्गलमय गीत, भक्तिमय भजन, हनुमान चालीसा, दीप प्रज्वलन, प्रार्थना एवं गुरु चरणों की वन्दना के साथ आज के विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ।

श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन करते-करते हम आज पहले अध्याय पर पहुॅंच गए। गीताजी का अभ्यास करने के लिए पूज्य स्वामी जी ने कुछ क्रम निश्चित किया है। जो पढ़ने के लिए आसान हों, ऐसे अध्यायों से प्रारम्भ किया जाता है और धीरे-धीरे कठिन अध्यायों की तरफ हम बढ़ते हैं। इस तीसरे स्तर में अभी हम पहले अध्याय का अध्ययन करेंगे।

महाभारत में क्या हुआ यह भी जान लेना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश श्रीभगवान् ने जब किया, उसके पूर्व क्या-क्या बातें हुईं, उन बातों को समझ लेना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उस समय की परिस्थिति क्या थी? अर्जुन की मनःस्थिति क्या थी? यह हम जब तक ठीक से नहीं समझेंगे, गीता जी को समझना कठिन हो जाएगा। इसलिए अर्जुन की मनःस्थिति और उस समय की स्थिति जिस समय में श्रीमद्भगवद्गीता बताई गई, यह सब कुछ बताने वाला अध्याय- यह पहला अध्याय है। 

हम अर्जुन जैसा  बनने का जब प्रयास करेंगे तब श्रीमद्भगवद्गीता हमें समझ में आने लगेगी। इसलिए ज्ञानेश्वर महाराज भी कहते हैं-

ओंकार रूपी गीता, वेदांचा सार
तिचे वर्णन करीन, कृपा करी नारायणाचार।

जय देव जय देव जय पांडुरंग
जयतु जयतु श्रीमद्भगवद्गीता संग।

ज्ञानदेव म्हणे हे ग्रंथराज गीता
जगी जाहली सर्वशास्त्रांची व्याख्या।

अर्जुन की पङ्क्ति में बैठने के लिए जो योग्य हो जायेंगे अर्थात् हम सभी लोग क्योंकि हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने लगे हैं। श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने की कृपा तभी होती है जब श्रीभगवान् हमें योग्य समझते हैं और हमें श्रीभगवान् ने योग्य समझा है, इसलिए हम श्रीभगवान् के श्रीचरणों में वन्दन करेंगे।

आज जन्माष्टमी के पर्व पर श्रीभगवान् के प्राकट्य दिवस के समय श्रीमद्भगवद्गीता का चिन्तन करना अहोभाग्य का क्षण है। भगवान् श्रीकृष्ण को समझना है तो श्रीमद्भगवद्गीता समझना अति महत्वपूर्ण है। श्रीभगवान् की लीलाएँ हम पढ़ते हैं, सुनते हैं, उसमें आनन्द भी लेते हैं लेकिन श्रीभगवान् ने जो ज्ञान दिया, वह ज्ञान श्रीभगवान् की ज्ञान-मुद्रा है-

प्रपन्नपारिजाताय तोत्त्रवेत्रैकपाणये।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः।।

श्रीभगवान् जब ज्ञान-मुद्रा में श्रीमद्भगवद्गीता बताते हैं-  गीतामृत दुहे अर्थात् गीतारूपी अमृत का दोहन करके हमें पिला रहे हैं। गाय कौन सी है?

सर्वोपनिषदो गावों दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थों वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।

हमारा सम्पूर्ण ज्ञान वेदों में है और सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान उपनिषदों में आता है। उपनिषदों की यदि हम कल्पना करें कि उपनिषद यानी गायें हैं तो गायों का दोहन करके, उनके अर्थ को अर्जुन को श्रीभगवान् पिला रहे हैं। श्रीभगवान् गोपालनन्दन है। नन्द के घर में श्रीभगवान् आनन्द लेकर आए हैं। उपनिषद रूपी गाय का दोहन करके उसका दुग्धामृत श्रीभगवान् अर्जुन को पिलाते हैं। केवल अर्जुन को नहीं पिलाते, अर्जुन को निमित्त मात्र बनाकर हम सबको श्रीभगवान् पिला रहे हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में श्रीभगवान् हमारे सामने हैं क्योंकि यह श्रीभगवान् का ही वाङ्मयी रूप है।

हमारे जीवन में यदि ऐसा प्रसङ्ग आता है तो हमें उपदेश कौन करेगा? तो श्रीमद्भगवद्गीता श्रीभगवान् का वाङ्मयी रूप है।

जयतु जयतु गीता भगवद्गीता ।
भवतु मम सुखाय भवतु मम हिताय ॥
जयतु जयतु गीता विषमस्थिते ।
जयतु जयतु गीता मम हृद्गते ॥

आज जन्माष्टमी के अवसर पर हमें श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान श्रीभगवान् से प्राप्त होने वाला है। श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में, इस आनन्द में चिन्तन करना प्रारम्भ करते हैं ।

प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक धृतराष्ट्र की वाणी से निकलता है। धृतराष्ट्र कौन हैं? हम सब जानते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का एक अंश है। महाभारत को पञ्चम वेद कहा गया है। सारे वेदों में जो ज्ञान है, समग्र विश्व में जो भी ज्ञान है, वह समग्र ज्ञान महाभारत में है लेकिन महाभारत का अध्ययन करना इतना आसान नहीं है। एक लाख श्लोकों का अध्ययन कब करेंगे और कब हम वह सब समझ पाएँगे? इसलिए श्रीभगवान् इस बात को जानते हैं कि एक समय ऐसा भी आएगा जब लोगों के पास पढ़ने के लिए समय नहीं रहेगा, इसलिए महाभारत का सम्पूर्ण सार

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में श्रीभगवान् ने सात सौ श्लोकों में केवल हमारे हाथ में दिया है।

पूज्य स्वामी जी कहते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का सार है या ऐसा भी कह सकते हैं कि महाभारत श्रीमद्भगवद्गीता का विस्तागर है। श्रीमद्भगवद्गीता का विस्तार अर्थात समग्र ज्ञान है।

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारम्भ होता है धृतराष्ट्र की वाणी से। धृतराष्ट्र ने अपने नाम के अनुसार वह राष्ट्रभूमि हड़प ली है जो पाण्डु की है। महाभारत का युद्ध होने का कारण धृतराष्ट्र ही है। वे केवल आँखों से अन्धे नहीं हैं। उनके ज्ञान चक्षु भी बन्द हो गए क्योंकि पुत्र प्रेम से वे मोहित हो गए। महाभारत का युद्ध नहीं होना चाहिए, इसके लिए बहुत सारे प्रयास किए गए लेकिन दुर्योधन ने जब कहा कि सुई के नोक जितनी भूमि देने को तैयार नहीं हूँ, तब तो युद्ध करना आवश्यक हो गया। युद्ध रोकने का प्रयास होने के पश्चात अब दोनों सेनाएँ आमने-सामने आकर खड़ी हैं। धृतराष्ट्र यह सब जानना चाहते हैं कि वहाॅं युद्ध भूमि पर क्या चल रहा है? क्या हुआ है? सञ्जय जो धृतराष्ट्र के सारथी हैं, सेवक हैं, से धृतराष्ट्र पहला प्रश्न करते हैं। यहाॅं से श्रीमद्भगवद्गीता प्रारम्भ होती है।

1.1

धृतराष्ट्र उवाच:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, समवेता युयुत्सवः।
मामकाः(फ्) पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।

धृतराष्ट्र बोले - हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

विवेचन- धृतराष्ट्र सञ्जय से पूछ रहे हैं-
"हे सञ्जय! कुरुक्षेत्र नाम का जो धर्मक्षेत्र है, पवित्रक्षेत्र है, उस पवित्र भूमि को युद्ध करने के लिए चुना गया है। वहाॅं पर युद्ध होगा, यह निश्चित हुआ है। दोनों सेनाऍं आमने-सामने आकर खड़ी हो गई हैं। मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने वहाॅं एकत्र होकर क्या किया?"

यहाॅं पर धृतराष्ट्र का अज्ञान या ममत्व प्रकट होने लगता है। सम्भावित युद्धक्षेत्र स्नेह सम्मेलन नहीं है। युद्ध के लिए उत्सुक होकर वहाॅं पर एकत्र हुए लोगों में मेरे और पराए का भाव, "मेरे और पाण्डु के पुत्र" से श्रीमद्भगवद्गीता प्रारम्भ होती है। यह भाव क्यों आता है? यह अज्ञान के कारण आता है।

अयं निजःपरोवेति गणना लघुचेतसाम्
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम्।। 

जो अज्ञानी होते हैं, वे कहते हैं "मेरा और पराया"। यह भाव कम बुद्धि के कारण, अज्ञान के कारण होता है और यह धृतराष्ट्र का भाव है। इस एक ही श्लोक में  जो सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र ने बोला है और उसमें उनका भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

धृतराष्ट्र सञ्जय को सम्बोधित कर रहे हैं कि उन्होंने क्या किया? उस युद्ध भूमि पर सञ्जय, भगवान् वेदव्यास जी के शिष्य हैं और अपने गुरु की कृपा से उन्हें यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है कि वहाॅं युद्धभूमि में चलने वाली प्रत्येक गतिविधि को वह देख सकते हैं, सुन सकते हैं। आज की भाषा में जिसको हम टेलीविजन कहते हैं, वैसी दृष्टि उनको प्राप्त हुई है। अपने सदगुरु की कृपा से, धृतराष्ट्र महाराज को युद्ध की जानकारी देने के लिए सञ्जय नियुक्त किए गए और सञ्जय से धृतराष्ट्र पूछ रहे हैं।

अब देखिए! पढ़ने वाले की दृष्टि, पढ़ने वाले का स्तर कैसा है? इस पर बहुत सारी बातें निर्भर होती हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारम्भ का शब्द क्या है? 
श्रीमद्भगवद्गीता धर्म शब्द से प्रारम्भ होती है। 
श्रीमद्भगवद्गीता का अन्तिम शब्द मम है।

इन दो शब्दों के बीच में जो समायी हुई है, वह श्रीमद्भगवद्गीता है। मेरा धर्म क्या है? धर्म शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत है, विशाल है, गहरा है। अलग-अलग सन्दर्भ के अनुसार उसका अर्थ लिया जाता है लेकिन धर्म का जो अनुवाद अङ्ग्रेजी में किया जाता है-रिलिजन (religion), वह सही नहीं है। रिलिजन शब्द सम्प्रदाय के लिए हो सकता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में मुख्य रूप से धर्म शब्द आता है। मातृधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, राष्ट्रधर्म, प्रजाधर्म आदि का प्रयोग करते हैं तो वह कर्त्तव्य के रूप में है, जैसे माता का कर्त्तव्य, पिता का कर्त्तव्य, भाई का कर्त्तव्य। इस धर्म और मम दो शब्दों में आने वाली श्रीमद्भगवद्गीता हमें क्या सिखाती है? "मेरा धर्म क्या है? मेरा कर्त्तव्य क्या है? किस समय किस भूमिका में मेरा क्या कर्त्तव्य होना चाहिए और किस कर्त्तव्य को मुझे प्रधानता देनी चाहिए?"

मैं किसी का पिता हूॅं, मैं किसी का पुत्र हूॅं, मैं किसी का भाई हूॅं, मैं किसी का पति हूॅं, अलग-अलग भूमिका में हमारे अलग-अलग कर्त्तव्य होते हैं तो अलग-अलग भूमिका में जो मेरा धर्म है वह मम धर्म। मेरा धर्म, ऐसा बताने वाली श्रीमद्भगवद्गीता धर्मग्रन्थ है, तो यह हमारा कर्त्तव्य बताने वाला ग्रन्थ भी है। देवी अहिल्याबाई होल्कर का नाम सभी जानते है। देवी अहिल्याबाई होल्कर जी को जब श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने की इच्छा हुई तब उनको गीताजी पढ़ाने के लिए किसी पण्डित की नियुक्ति की गई।

जैसा पहले कहा जा चुका है कि किसी व्यक्ति का स्तर उसकी ग्रहण करने की शक्ति से पता चलता है। देवी अहिल्याबाई होल्कर जी को जब श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाना प्रारम्भ किया तो उन्होंने पहले दो शब्द उच्चारण किये-धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे‌। दो शब्दों से केवल ज्ञान का प्रकाश जागृत हो गया। उन्होंने कह दिया कि मेरे ध्यान में आ गया कि श्रीमद्भगवद्गीता में क्या कहा गया है? पहले दो शब्द पढ़ते ही श्रीमद्भगवद्गीता में क्या कहा है, यह ध्यान में कैसे आया? उन्होंने कहा- 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे अर्थात्  क्षेत्रे क्षेत्रे धर्मं कुरु। 
यही श्रीमद्भगवद्गीता का सार है ।

अपने-अपने कार्य क्षेत्र में, अपने-अपने शरीर में रहते हुए शरीर का भी अर्थ क्षेत्र है। तेरहवें अध्याय में शरीर को भी क्षेत्र कहा गया है-

"जो तुम्हारे कार्य का क्षेत्र है, उस कार्य क्षेत्र में कार्य करते हुए
कर्त्तव्य का पालन करो।"

श्रीमद्भगवद्गीता हमें अपने कर्त्तव्य का पालन करना सिखाती है।श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम दो शब्दों में ही गीताजी का सार आ गया-  
क्षेत्रे क्षेत्रे धर्मंकुरु। 

यह देवी अहिल्याबाई जी की प्रतिभा है। श्रीमद्भगवद्गीता में हम यही देखते हैं। सञ्जय ने अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया। उसने युद्धभूमि में क्या हो रहा है, यह बताना प्रारम्भ किया।

1.2

सञ्जय उवाच: दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं(व्ँ), व्यूढं(न्) दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य, राजा वचनमब्रवीत्॥1.2॥

संजय बोले - उस समय व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।

विवेचन- सञ्जय पाण्डवों की सेना देखकर द्रोणाचार्य के पास जाकर कह रहे हैं।
दृष्टवा अर्थात्
देखकर। जब सेना खड़ी होती है तो व्यूह-रचना में होती है। सभी सैनिक अपने-अपने स्थान पर अनुशासन में खड़े रहते हैं। सभी योद्धाओं का स्थान निश्चित किया जाता है जिसे व्यूह-रचना कहते हैं।

यहाँ सञ्जय ने शब्द प्रयोग किया है-
 राजा दुर्योधन
वास्तव में दुर्योधन राजा नहीं है। सञ्जय दुर्योधन को युवराज कह सकते हैं, लेकिन युवराज को भी कभी-कभी राजा कहने की पद्धति हो गई है और यह तो राजा होने वाला है। सञ्जय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं कि राजा दुर्योधन युद्धभूमि में पाण्डवों की सेना की व्यूह-रचना देखकर अपने आचार्य द्रोण के पास गए और उनको यह कहा-
अब दुर्योधन ने क्या कहा, यह सञ्जय बता रहे हैं-

1.3

पश्यैतां(म्) पाण्डुपुत्राणाम्, आचार्य महतीं(ञ्) चमूम्। व्यूढां(न्) द्रुपदपुत्रेण, तव शिष्येण धीमता।।1.3।।

हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहकार खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।

विवेचन- "हे आचार्य! पाण्डवों की इस महान सेना को देखिए।"
वास्तव में सेना किसकी बड़ी है? सात अक्षौहिणी पाण्डवों की सेना है और कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना है।

उस सेना में कितने घोड़े हैं, कितने रथ हैं, कितने हाथी हैं, कितने पैदल सैनिक हैं, यह सारी सङ्ख्या पर निर्भर करता है। एक अक्षौहिणी अर्थात् इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर रथ, इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर हाथी। जितने रथ हैं, उतने ही हाथी है, पैंसठ हजार छह सौ दस घोड़े और एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास पैदल सैनिक। ऐसे दो लाख अट्ठारह हजार सात सौ सैनिकों की एक अक्षौहिणी सेना। ऐसी ग्यारह अक्षौहिणी सेना कौरवों के पास है और पाण्डवों के पास सात अक्षौहिणी सेना है।

वास्तव में कौरवों की सेना बड़ी है लेकिन दुर्योधन शब्द प्रयोग कर रहा है-

"पाण्डवों की बड़ी सी सेना देखिए।"

थोड़ा उपहासत्मक शब्द प्रयोग किया है जबकि उनकी सेना, पाण्डवों की सेना से डेढ़ गुना से भी अधिक है। 

"इसकी व्यूह-रचना द्रुपद-पुत्र ने की है।"
यहाँ पर दुर्योधन धृष्टद्युम्न भी कह सकता था, लेकिन दुर्योधन जो शब्द प्रयोग  कर रहा है, उसके पार्श्व में राजनीति है। द्रुपद राजा के यहाँ आचार्य द्रोण का बहुत अपमान हुआ है और वह अपमानित होकर कुरुवंश के पास आए थे और वहाँ वे राजपुत्रों को पढ़ाने का कार्य करने लगे।

आचार्य द्रोण इतने ज्ञानी होकर अधर्म के साथ क्यों खड़े रहे? बहुत से लोग यह प्रश्न करते हैं। इसका उत्तर स्वयं आचार्य द्रोण देते हैं-
"अर्थस्य पूरूषो दासा"

वे कुरुवंशियों के दास बन गए क्योंकि उनके यहाँ सेवा ले ली। इसलिए उनको कौरवों के पक्ष में खड़ा होना पड़ा। जब कोई व्यक्ति किसी के अधीन कोई कार्य करता है तो वह अर्थ के कारण उसका दास बन जाता है।
"मैं उनका दास हूँ इसलिए उनकी सेवा में खड़ा हूँ।"

दुर्योधन उनको याद दिलाते हैं कि आपके मित्र, जिससे आप अपमानित हुए थे, उस राजा द्रुपद के पुत्र ने पाण्डवों की सेना में व्यूह की रचना की, यह देख लो एक बार। राजा द्रुपद, जिनके यहाँ से द्रोणाचार्य अपमानित हुए लेकिन राजा द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न, जिसने आपसे ही विद्याएँ सीखी हैं। यह भी आचार्यों की परम्परा रही है कि अपने पास जो सीखने के लिए आया है उसे शिक्षा देनी है। इसलिए उन्होंने अपने शत्रु के पुत्र को विद्या पढ़ाई क्योंकि वह पढ़ने के लिए योग्य है। 

यह सब बातें आती हैं कि एकलव्य को क्यों नहीं पढ़ाया?

वह जो पाठशाला है, वहाँ राजपुत्रों की शिक्षा होती थी। उसके अनुसार उसको वहाँ पर प्रवेश नहीं मिल पाया। यह शाला राजपुत्रों के लिए है। देहरादून में पब्लिक स्कूल है, वहाँ पर देखिए कैसा होता है? अभी तो समय बदल गया है लेकिन उस समय वहाँ सभी को प्रवेश नहीं मिलता था। यह देखिए! बोलने की भाषा राजनीतिक होती है कि कैसे एक शब्द का प्रयोग किया जाता है।

1.4

अत्र शूरा महेष्वासा, भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च, द्रुपदश्च महारथः।।1.4।।

यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, (जिनके) बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा (जो) युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं। (उनमें) युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद (भी हैं)।

1.4 writeup

1.5

धृष्टकेतुश्चेकितानः(ख्), काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च, शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।1.5।।

धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज (भी हैं)। पुरुजित् और कुन्तिभोज – (ये दोनों भाई) तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य (भी हैं)।

1.5 writeup

1.6

युधामन्युश्च विक्रान्त, उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च, सर्व एव महारथाः।।1.6।।

पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा (भी हैं)। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र (भी हैं)। (ये) सब के सब महारथी हैं।

विवेचन- इन तीनों श्लोकों में पाण्डवों की सेना के योद्धाओं की विस्तृत सूची दी गयी है। दुर्योधन आचार्य द्रोण को बता रहे हैं, यह बात सञ्जय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं।

अत्र शूरा  महेश्वासा
अर्थात् यहाँ पाण्डव-सेना में धनुष धारण करने वाले बड़े-बड़े शूरवीर हैं। 

भीमार्जुनसमा युधि 
जो भीम और अर्जुन के समान शूरवीर हैं। यहाँ भी दुर्योधन के मन का भाव निकल ही गया है। भीम ने उसको द्वन्द्व-युद्ध में कई बार परास्त किया है। आचार्य द्रोण ने प्रशिक्षित किया, इसलिए भी उनके मन में द्वेषभाव उत्पन्न करने का दुर्योधन का उद्देश्य था। भीम और अर्जुन का युद्ध-कौशल, दोनों के प्रति मन में डर है।

शत्रुपक्ष का सूक्ष्म निरीक्षण अर्थात् उनके विषम स्थान कौन से हैं? कमजोरी कौन सी है? उनके बल-स्थान कौन से हैं? यह भी देखा जाता है। तो शत्रु के बल-स्थान क्या-क्या हैं? यह दुर्योधन आचार्य द्रोण को बता रहे हैं।

युद्ध में भीम और अर्जुन के जैसा पराक्रम करने वाले महारथी युयुधान हैं, धृष्टकेतु शिशुपाल के पुत्र हैं, चेकितान है, बलवान काशीराज है। राजा विराट हैं जिनके यहाँ पाण्डवों ने अज्ञातवास पूर्ण किया था। वे पाण्डवों के पक्ष में खड़े हुए हैं। उनकी एक अक्षौहिणी सेना है। युयुधान अर्थात् सात्यकि जो अर्जुन के शिष्य हैं। इन्होंने अर्जुन से धनुर्विद्या सीखी है। महारथी राजा द्रुपद हैं, पुरुजित और कुन्भोतिज दोनों कुन्ती माता के भाई है।

शिवि देश के राजा शैब्य जो युधिष्ठिर महाराज के श्वसुर हैं। योद्धाओं में भी यह श्रेष्ठ योद्धा हैं। युधामन्यु विक्रान्त अर्थात् विक्रम करने वाले, पराक्रम करने वाले और उत्तमौजा यह दोनों भी हैं जो अर्जुन के रथ के रक्षक हैं और इनका अर्जुन के रथ के साथ रहना अपेक्षित है।

सौभद्र
अर्थात सुभद्रा का पुत्र। जिस प्रकार कुन्ती के पुत्र को कौन्तेय  कहते हैं, वैसे ही सुभद्रा के पुत्र को सौभद्र कहेंगे।

द्रोपदी के पुत्रों को द्रौपदेयाः कहेंगे, प्रतिविंध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन द्रौपदी के पाँच पुत्र हैं। ये पाँचों भी युद्ध के लिए आए हैं, सारे श्रेष्ठ योद्धा हैं। सुभद्रा का पुत्र वीर अभिमन्यु भी श्रेष्ठ योद्धा है। 

दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के सामने सभी श्रेष्ठ योद्धाओं की सूची बताई। ये सभी श्रेष्ठ योद्धा हैं, ये शत्रुपक्ष के बल-स्थान हैं। दुर्योधन आगे बताते हैं कि हमारी सेना में कौन-कौन से श्रेष्ठ योद्धा हैं वह भी तो जान लीजिए।

1.7

अस्माकं(न्) तु विशिष्टा ये, तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य, संज्ञार्थं(न्) तान्ब्रवीमि ते।।1.7।।

हे द्विजोत्तम! हमारे पक्ष में भी जो मुख्य (हैं), उन पर भी (आप) ध्यान दीजिये। आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के (जो) नायक हैं, उनको (मैं) कहता हूँ।

विवेचन- दुर्योधन आचार्य द्रोण से कहते हैं-
"हे द्विजोत्तम अर्थात् श्रेष्ठ बाह्मण!

आचार्य द्रोण दुर्योधन के गुरु भी हैं। दुर्योधन ने उन्हीं से शिक्षा प्राप्त की है,

"मेरी सेना में जो विशिष्ट मुख्य योद्धा हैं, उनको भी आप जान लीजिए।'

नायका मम सैन्यस्य
अर्थात् मेरी सेना के नायक देखिए। सेना राष्ट्र की होती है न कि व्यक्ति-विशेष की सेवा के लिए होती है लेकिन यहाँ दुर्योधन का शब्द-प्रयोग देखिए, "मेरी सेना, मैंने एकत्र की है।" इसमें उसका अहङ्कार दृष्टिगोचर  होता है। 

जिस प्रकार हम किसी जानकारी के लिए लिखते हैं कि "आपकी जानकारी के लिए मैं यह लिख रहा हूॅं," वैसे ही दुर्योधन बता रहे हैं, "आपकी जानकारी के लिए मैं आपको बता रहा हूॅं कि मेरी सेना में कौन-कौन हैं एवं उनके नाम क्या हैं?"

1.8

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च, कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च, सौमदत्तिस्तथैव च।।1.8।।

आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।

विवेचन- भवान् भीष्मश्च
अर्थात् आप और भीष्म भी हैं। हमारी सेना में  यह दो सबसे प्रमुख हैं।" कर्ण है, दुर्योधन ने अङ्गप्रदेश का राजा उसे बनाया है। इसलिए वह दुर्योधन के साथ खड़ा है। "आचार्य कृपाचार्य भी हैं जो युद्ध में हमेशा विजयी होने वाले हैं, जिनकी कभी पराजय नहीं हुई, वे हमारे साथ में है।"

आचार्य कृपाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा, विकर्ण  हैं और यह विकर्ण ऐसे हैं कि जब द्रौपदी को दाँव पर लगाया गया था, उस समय इन्होंने उसका प्रखर विरोध किया था लेकिन अभी कौरवों की सेना में है। ऐसे कौरवों की सेना के सेनापतियो के नाम भी दुर्योधन ने आचार्य द्रोण को बताए।

1.9

अन्ये च बहवः(श्), शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः(स्), सर्वे युद्धविशारदाः।।1.9।।

इनके अतिरिक्त बहुत से शूरवीर हैं, (जिन्होंने) मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है और जो अनेक प्रकार के -शस्त्रास्त्रों को चलाने वाले हैं (तथा जो) सब के सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।

विवेचन- जब युद्ध के लिए कोई आता है तो प्राणोत्सर्ग का भाव लेकर जाना पड़ता है, अपने जीवन को समर्पित करने के लिए। युद्ध में क्या होगा कुछ कह नहीं सकते, यह सारे युद्ध के लिए आए हुए हैं, अपने प्राणों को अर्पण करने की तैयारी से आए हैं।

इसमें दुर्योधन का अहङ्कार भी फिर से एक बार झलकता है। वास्तव में प्राण का त्याग करने की भावना से ही युद्ध के लिए जाते हैं। हम राष्ट्र के लिए मर-मिटने के लिए तैयार होते हैं। सैनिक व्यक्ति के लिए नहीं होते। एक बात यह भी सत्य है कि यह सब दुर्योधन के कारण युद्ध में उपस्थित हुए हैं। दुर्योधन के सारे अवगुण तो हमें ज्ञात हैं लेकिन एक बात हमें यहाँ समझनी चाहिए कि किसी में कोई अच्छा गुण है।

दुर्योधन का एक गुण है कि वह किसी के साथ मैत्री बड़ी जल्दी कर लेता है और दूसरे को प्रभावित करके अपने पक्ष में ले लेना उसको अच्छे से आता है। अपने पक्ष में किसी को ले लेना, इतनी बड़ी सेना, खड़ी करना, इतने राजाओं को अपने साथ लेना, यह दुर्योधन ने किया है और इसलिए यह इसका अहङ्कार भी है और यह थोड़ा सत्य भी है।

यह दुर्योधन द्वारा एकत्र की हुई सेना है। यह सब प्राण अर्पण करने के लिए आए हैं। 

नानाशस्त्रप्रहरणाः
अलग-अलग प्रकार के अपने-अपने शस्त्र प्रहरण करके आए हैं, सारे अस्त्र-शस्त्र लेकर यहाँ आए हैं।

पहलगाम की घटना होने के पश्चात जो सर्जिकल स्ट्राइक हुआ, उसके पश्चात पाकिस्तान को चीन ने और तुर्किस्तान ने सहायता की तो उनके अस्त्र-शस्त्र से उन्होंने सहायता की। वे सारे ही युद्धकला जानने वाले हैं। 

1.10

अपर्याप्तं(न्) तदस्माकं(म्), बलं(म्) भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं(न्) त्विदमेतेषां(म्), बलं(म्) भीमाभिरक्षितम्।।1.10।।

भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी यह सेना वह सेना स प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों कि यह सेना जीतने में सुगम है।

विवेचन- द्रोणाचार्य को चुप देखकर दुर्योधन के मन में विचार चल रहा है, कल्पना कीजिए यह सारे योद्धा पाण्डवों के पक्ष के योद्धा, कौरवों के पक्ष के योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर सामने खड़े हैं। अब युद्ध प्रारम्भ होने जा रहा है, ऐसी स्थिति है बस एक सङ्केत होने की आवश्यकता है। युद्ध प्रारम्भ हो जाएगा और दुर्योधन पाण्डवों की सेना का और अपनी सेना का आकलन कर रहे हैं। वे आचार्य द्रोण को यह बता रहे हैं और यह आगे कहते हैं-

"हमारी सेना, हमारा बल अपर्याप्त है।

इस शब्द का प्रयोग हम साधारणतः पर्याप्त नहीं के लिए करते हैं। पर्याप्त का अर्थ है मर्यादित तथा अपर्याप्त अर्थात् अमर्यादित। यह इनका जो बल है, उनकी सेना मर्यादा में है। हमारी सेना बड़ी है तो इसमें भी दोनों प्रकार के भाव हो सकते हैं।

हमारी सेना के नायक पितामह भीष्म हैं। दुर्योधन के मन में यह भय है कि युद्ध में क्या होगा? कैसे होगा? लेकिन पाण्डवों की सेना के प्रति उसके मन में भय है इसलिए अपने भय को छिपाने के लिए कहना, इसका एक भाव है कि उनकी सेना में तो बड़े-बड़े योद्धा हैं। यह दोनों भाव से कहता है कि इनकी सेना पर्याप्त है और भीम द्वारा रक्षित है। दोनों सेनाओं का आकलन करने के पश्चात आगे क्या हुआ? सञ्जय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं कि इस प्रकार से दुर्योधन ने आचार्य द्रोण से बात की।

1.11

अयनेषु च सर्वेषु, यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु, भवन्तः(स्) सर्व एव हि।।1.11।।

आप सब के सब लोग सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह दृढ़ता से स्थित रहते हुए ही निश्चित रूप से पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करें।

विवेचन- व्यूह-रचना में जो प्रमुख स्थान होते हैं उनको अयन द्वार कहा जाता है। जैसे कोई प्लाटून कमाण्डर का एक निश्चित स्थान है, कोई कम्पनी है तो कम्पनी प्रमुख का निश्चित स्थान होता है, उसे अयन कहते हैं।

दुर्योधन कहता है-
"जहाँ आपका स्थान नियत किया गया है, वहाँ पर स्थित रहना है।"

आज भी जब परेड होती है तो यह कमाण्ड दी जाती है (आफिसर्स ऑन देयर प्लेस) वैसे ही दुर्योधन ने आज्ञा दी।

"अपने-अपने स्थान पर आप खड़े हो जाइए और सेना प्रमुख भीष्म पितामह की रक्षा करनी है।"

दुर्योधन ने अपने राजाओं को आज्ञा दी कि युद्ध प्रारम्भ होने जा रहा है, अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाओ। उसके पश्चात क्या हुआ, अगले श्लोक में देखते हैं।

1.12

तस्य सञ्जनयन्हर्षं(ङ्), कुरुवृद्धः(फ्) पितामहः।
सिंहनादं(व्ँ) विनद्योच्चैः(श्), शङ्खं(न्) दध्मौ प्रतापवान्॥1.12॥

उस (दुर्योधन) के (हृदय में) हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवों में वृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्म ने सिंह के समान गरज कर जोर से शंख बजाया।

विवेचन- महान प्रतापी भीष्म पितामह की आयु उस समय डेढ़ सौ वर्ष थी। उस समय के पाँच हजार वर्ष पूर्व का कालखण्ड आयु एवं बल के मान में श्रेष्ठ था। कुछ सौ वर्ष पूर्व भी हमारे महाराणा प्रताप जी जो वस्त्र धारण करते थे, अस्त्र-शस्त्र और युद्ध के लिए और उनके तलवार उनका खड्ग आदि का वजन कितना अधिक है कि यदि वह हम धारण करेंगे तो गिर पड़ेंगे। हमारा बल कम होता जा रहा है।

तस्य सञ्जन्यनहर्षं
दुर्योधन के मन में हर्ष का निर्माण करते हुए उसको आनन्दित करने के लिए पितामह भीष्म, जो महा पराक्रमी हैं, उन्होंने उच्च स्वर में सिंहनाद किया।

जब भी कोई युद्ध होता है तो उच्च स्वर में गर्जना की जाती है जिससे योद्धाओं का जोश बढ़ता है, शक्ति का संचार  होता है, जैसे छत्रपति शिवाजी महाराज के योद्धा हर हर महादेव, महाराणा प्रताप के योद्धा जय कलिङ्गजी का उद्घोष किया करते थे, वैसे ही पितामह भीष्म ने ऐसी गर्जना करके अपना शङ्ख बजाया।

शङ्ख बजाने का अर्थ है कि अब युद्ध प्रारम्भ हो गया है, अब यह युद्ध टल ही नहीं सकता। इसका अर्थ है कि हमने शङ्खनाद किया है, हम युद्ध के लिए तैयार हैं।

1.13

ततः(श्) शङ्खाश्च भेर्यश्च, पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त, स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।1.13।।

उसके बाद शंख और भेरी (नगाड़े) तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे। (उनका) वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।

विवेचन- जैसे ही पितामह भीष्म ने शङ्खनाद किया, उसके पश्चात बहुत सारे शङ्ख बजने आरम्भ हो गये। सभी योद्धाओं ने अपने शङ्ख बजाना आरम्भ किया। इन रणवाद्यों के बजाने से उत्साह निर्माण हो जाता है। आपने कभी सुने नहीं होंगे तो एक बार निश्चित रूप से सुनिए। इन रण वाद्ययन्त्र को सुनने से शक्ति का सञ्चार हमारे भीतर होता है। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक सङ्घ के घोष में सारे रणवाद्य होते हैं, इनके घोष अवश्य सुनिएगा। किसी कार्यक्रम में या विजयदशमी के कार्यक्रम में नगाड़े होते हैं, बड़े-बड़े ढोल बजते हैं, पणवान बड़ा ढोल होता है। उसको दोनों ओर से बजाया जाता है। उसे प्रणव कहते हैं, अनक जो कमर में लटकाया जाता है और सारिका द्वारा बजाया जाता है, गोमुख शङ्ख की तरह ही होता है। 

इसकी ध्वनि बहुत जोर से हो रही है। शब्द का अर्थ है नाद। अत्यन्त भयङ्कर नाद हुआ, लाखों की सेना है और उसमें बजने वाले कितने सारे सैनिक होंगे सारे रणवाद्य बजने लगे तो उसकी ध्वनि बहुत भयङ्कर थी। जो सच्चा योद्धा होता है, उसके मन में उत्साह निर्माण हो जाता है और जो भीरु होता है, उसके मन में भय निर्माण हो जाता है।

यह दोनों काम करता है- शत्रुपक्ष में भय निर्माण करना और अपनी सेना में उत्साह होता है। ऐसी अवस्था में आकर हम विराम लेते हैं।

आगे की स्थिति में क्या होता है? अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण हमारी श्रीमद्भगवद्गीता के जो दो प्रमुख नायक हैं, उनका आगमन अगले श्लोक से होता है जो हम अगले सप्ताह में करेंगे।

जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर श्रीकृष्ण के चरणों में आज के अभ्यास को अर्पण एवं वन्दन करते हुए आज का विवेचन सत्र समापन हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ। 
प्रश्नोत्तर 

प्रश्नकर्ता- दयानन्द गौतम भैया
प्रश्न- श्लोक क्रमाङ्क एक धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे में धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र का अर्थ धर्मराज का क्षेत्र और कौरवों का क्षेत्र, क्या ऐसा नहीं होना चाहिए?
उत्तर- आप व्याकरण में विशेषण विशेष्य की दृष्टि से देखेंगे तो इसका अर्थ धर्मक्षेत्र जो कुरुक्षेत्र है, वैसा ही है। लेकिन यदि आप शाब्दिक अर्थ से भी अर्थ लेंगे तो गीताजी के उपदेश का अर्थ बदलेगा नहीं। महारानी अहिल्याबाई होल्कर जी के जीवन का एक प्रसङ्ग है। अहिल्याबाई होल्कर जी ने कितना सारगर्भित अर्थ किया है! उन्होंने पहले ही कुछ शब्दों में गीताजी का सार समझ लिया। उन्होंने पहले दो शब्दों में ही गीता के सार का वर्णन किया- 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे‌ अर्थात्
क्षेत्रे क्षेत्रे धर्मम् कुरु।

क्षेत्र का यहाँ अर्थ है कोई भी क्षेत्र। किसी भी क्षेत्र में आप कार्यरत हैं, कर्त्तव्य-कर्म कर रहे हैं तो उस ही क्षेत्र में अपने धर्म को करो। यही गीताजी का सार भी है। जहाँ-जहाँ भी धर्म का पालन नहीं होता, उसी क्षेत्र में कुरुक्षेत्र होता है। श्रीमद्भगवद्गीता को हम जितनी बार भी पढ़ेंगे, उतनी ही बार कोई न कोई नया ज्ञान हमें समझने को मिलेगा। गीताजी में एक ऐसा ज्ञान का भण्डार है जिसे व्यक्ति अपने दृष्टिकोण के अनुसार ग्रहण करता है। अगर कोई व्यक्ति वैज्ञानिक है, कोई व्यक्ति डॉक्टर है या कोई व्यक्ति कला से जुड़ा है, हर व्यक्ति गीताजी को अपने ही दृष्टिकोण से पढ़ता है और निश्चित रूप से अपने ही ढङ्ग से उनके ज्ञान का अनुभव करता है। किसी भी तरह से इसका अर्थ करें लेकिन हमें यहाॅं केवल यही समझना है कि गीताजी के उपदेश से पहले, जब, अब युद्ध टल नहीं सकता तो युद्ध भूमि में किस तरह का वातावरण बना हुआ है? वहाॅं की परिस्थितियाॅं क्या हैं? अर्जुन की मन:स्थिति क्या है? इत्यादि। पाण्डवों से उनकी भूमि ही छीन ली गई है इसीलिए तो युद्ध हो रहा है। जिस प्रकार से तिब्बत के प्रमुख, दलाई लामा जी के राज्य को चीन ने हड़प लिया है। ठीक उसी प्रकार से दुर्योधन ने पाण्डवों की भूमि को हड़प लिया है और सूई के अग्रभाग जितनी भूमि देने से भी मना कर दिया है तो युद्ध होना तो निश्चित हो गया है। अर्थ आप जिस तरह से भी करें लेकिन आपको युद्ध के सन्दर्भ को अच्छी तरह से समझना है।
 
प्रश्नकर्ता- सुजाता दीदी
प्रश्न- जो लोग उदर-निर्वाह के लिए मछली आदि पकड़ने का व्यवसाय करते हैं तो क्या यह धर्म के विरुद्ध है?
उत्तर- यह उनका धर्म है और वे अपने धर्म का पालन कर रहे हैं। जब तक हम श्रीभगवान् के अनुसन्धान में रहते हुए अपने धर्म का, अपने कर्त्तव्य कर्म का पालन करते हैं तो हमें किसी तरह का भी पाप नहीं लगता। जिस प्रकार से जल्लाद फाॅंसी देता है और अपने कर्त्तव्य-कर्म का पालन करता है तो उसे किसी भी तरह का कोई पाप नहीं लगता। श्रीभगवान् ने स्वयं कहा है-

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः(स्), संसिद्धिं(ल्ँ) लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः(स्) सिद्धिं(य्ँ), यथा विन्दति तच्छृणु॥

अपने-अपने कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त कर लेता है।

प्रश्नकर्ता- ललितेश भैया
प्रश्न- धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र एक ही शब्द हैं क्या?
उत्तर- शब्द तो दो हैं- धर्मक्षेत्र पर और कुरुक्षेत्र पर या तो ऐसा कहिए लेकिन व्याकरण की दृष्टि से विशेषण और विशेष्य के अनुसार अर्थ ऐसा हुआ कि धर्मक्षेत्र जो है ऐसे कुरुक्षेत्र पर है। कौरव और पाण्डव दोनों कुरुवंश के ही हैं तो उनका क्षेत्र कुरुक्षेत्र हुआ। एक ही वंश के लोगों में युद्ध हो रहा है और यदि हम धर्म-अधर्म की बात करें तो तमस के कारण कुछ लोगों की बुद्धि ढक जाती है तो उन्हें अधर्म भी धर्म ही लगता है। ऐसा ही यहाॅं भी हुआ है। इन शब्दों में उलझने की आवश्यकता नहीं है। वहाॅं की परिस्थिति कैसी है? युद्ध अब टल नहीं सकता, इतनी बात ही ग्रहण करने की आवश्यकता है। हर व्यक्ति का दृष्टिकोण जीवन में भिन्न होता है और उस दृष्टि के अनुसार ही व्यक्ति, ज्ञान प्राप्त करता है। श्रीमद्भगवद्गीता एक हीरे की तरह है जिसके अनेक पहलू हैं और जिस पहलू से हम देखेंगे, वैसा ही ज्ञान हम लोगों को प्राप्त होगा।
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता पर भगवान् आदिशङ्कराचार्य जी से लेकर आधुनिक ज्ञानियों ने अनेक भाष्य लिखे हैं और जिसकी जैसी दृष्टि रही है, गीताजी से वैसा ही ज्ञान उनको प्राप्त भी हुआ है। भगवान् आदि शङ्कराचार्य जी को तो गीताजी से ज्ञान ही प्राप्त हो गया। किसी को गीताजी में भक्ति ही भक्ति दिखाई देती है। किसी को गीता जी में ज्ञान-विज्ञान दिखाई देता है तो यह सब उनके अपने दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है।

प्रश्नकर्ता- प्रियंका दीदी
प्रश्न- ऐसा कहा जाता है कि हमें बिना पूछे किसी को ज्ञान नहीं देना चाहिए लेकिन मेरे जीवन में कुछ ऐसा भी घटित हुआ कि मुझे कहा गया कि अगर आपको पहले पता था तो आपने सहायता क्यों नहीं की और हमसे यह ज्ञान की बात साझी क्यों नहीं की? ऐसे में क्या सही है?
उत्तर- अगर आपको आवश्यकता दिखाई दे कि उस व्यक्ति की सहायता करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है तो आपको उसे ज्ञान अवश्य दे देना चाहिए। अपने मित्र, अपने प्रियजन को सही मार्ग दिखाने के लिए उन्हें सजग करना आपका कर्त्तव्य है। श्रीभगवान भी अर्जुन को कहते हैं-

विमृश्यैतदशेषेण, यथेच्छसि तथा कुरु॥

यह गुह्य से भी गुह्यतर ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। अब तू इस पर अच्छी तरह से विचार करके जैसा चाहता है, वैसा कर।

तो अपना ज्ञान देने के बाद आप भी उनसे कह सकते हैं कि अब आपकी जैसी इच्छा है वैसा कीजिए। मैंने आपको जो बताना था, वह बता दिया।

प्रश्नकर्ता- प्रियंका दीदी 
प्रश्न- क्या हम उपहार स्वरूप किसी को गीता जी भेंट कर सकते हैं?
उत्तर- अवश्य कर सकते हैं। सद्ग्रन्थ का उपहार देना बहुत अच्छा होता है क्योंकि ऐसे सद्ग्रन्थों की एक अपनी शक्ति होती है जो वे स्वयं से प्रसारित करते रहते हैं। जिस घर में भी ये होते हैं, वहाॅं के लोगों को स्वयं से इनसे जुड़ने और इनको पढ़ने की प्रेरणा होने लगती है। ऐसा उपहार देना बहुत शुभ माना जाता है।

 प्रश्नकर्ता- नवनीत भैया
प्रश्न- गीताजी में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद महत्त्वपूर्ण है तो यहाँ धृतराष्ट्र और सञ्जय की क्या भूमिका है?
उत्तर- बिल्कुल सही बात है लेकिन जब तक हमें सन्दर्भ का ज्ञान नहीं होगा तो हमें गीताजी का अर्थ भी अच्छे से समझ नहीं आएगा। युद्ध के समय क्या परिस्थिति थी? अर्जुन की मन:स्थिति कैसी थी? अर्जुन की मन:स्थिति कैसे बदल गई? और श्रीभगवान ने कब अर्जुन को ज्ञान देना प्रारम्भ किया? यह सब जानना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसको एक उदाहरण से समझते हैं-
एक बार पोप न्यूयॉर्क घूमने के लिए गये तो पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया और एक पत्रकार ने उनसे पूछा-
"Are you going to visit brothels in New York?"
क्या आप न्यूयॉर्क में वेश्यालयों में भी जाएँगे?
तो पोप ने सहज में पूछ लिया-
"Are there brothels in New York?"
क्या न्यूयॉर्क में वेश्यालय हैं?
तो अगले दिन सभी समाचार पत्रों की प्रमुख सूचना यह बन गईं-
Pope asked for brothels....
पोप ने वेश्यालयों के बारे में पूछा....
अब जब बात का सन्दर्भ जाने बिना इसको कोई भी पढ़ेगा या सुनेगा तो यह उसको कैसा लगने वाला है? ऐसा ही गीताजी के सन्दर्भ के सम्बन्ध में भी है कि जब तक हम उसे अच्छे से जानेंगे नहीं तो गीताजी का उपदेश भी अच्छे से समझ नहीं पाएँगे। सञ्जय और धृतराष्ट्र के माध्यम से हम गीताजी के सन्दर्भ को अच्छे से समझ पाते हैं। ‌