विवेचन सारांश
सत्व - रज - तम गुणों से युक्त व्यक्तियों के लक्षण

ID: 912
Hindi - हिन्दी
शनिवार, 28 मई 2022
अध्याय 14: गुणत्रयविभागयोग
2/2 (श्लोक 11-27)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


गुरु वंदना एवं दीप प्रज्वलन के साथ गुणत्रयविभागयोग नामक ज्ञानमय अध्याय का प्रारंभ हुआ, भगवान की अतिशय कृपा एवं हमारे पूर्व जन्म के कर्म एवं हमारे भाग्योदय होने के कारण ही हमें गीता सुनने, समझने, पढ़ने एवं जीवन में उतारने का मौका मिला है, हम बहुत भाग्यशाली हैं, जो गीता ज्ञान में अपना समय बिता पा रहे हैं।यह जो अध्याय हैं इसमें तीन गुणों  का अर्थ है सत्व, रज और तम, इन गुणों से  मिलकर प्रकृति बनती है।  इन तीन गुणों से भी भिन्न एक स्थिति होती है जिसे गुणातीत बताया गया है। गुणातीत स्थिति में पहुँच कर साधक इन तीनों गुणों से बहुत ऊपर उठ जाता है, पर यह साधारण मनुष्य के लिए अत्यन्त दुष्कर है। साधारण व्यक्ति इन तीन गुणों के मध्य ही विचरण करते रहता है, समय समय पर प्रत्येक व्यक्ति के आचरण में इन तीनों गुणों में से एक का बाहुल्य हो जाता है पर अंततोगत्वा सभी मनुष्यों में ये तीन गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। जैसे  व्यक्ति होते हैं, वैसे ही उसके लक्षण होते हैं एवं जैसे लक्षण होते हैं वैसा ही व्यक्ति होता है, जैसे कि कोई हंसमुख होता है, कोई मस्त मौला होता है तो कोई गंभीर होता है। कोई भी मनुष्य न पूर्ण रूप से तामसिक होते हैं,  न राजसिक और न ही सात्विक। इस अध्याय में श्री भगवान ने गुणातीत व्यक्ति के आचार, व्यवहार, विचार के बारे में विस्तार से बताया है पर साधारण मनुष्य के लिए न तो इस गुणातीत स्थिति को प्राप्त करना सम्भव है न इस स्थिति का विवरण देने  की पर्याप्त क्षमता। अतः इस सत्र में गुणातीत के बारे में विस्तार न करते हुए गुणों की ही विस्तार से व्याख्या की गई है। होता यह है कि, किस समय पर कौन सा गुण  प्रकट होता है वह हमारे व्यवहार पर ही निर्भर करता है, इन  लक्षणों को मुख्य रूप से  ग्यारह भागों में बांटा जा सकता है
 
1)  व्यवहार:
व्यवहार के आधार पर
सत्व गुण वाले संतुष्ट होते हैं,
रजोगुण वाले असंतुष्ट होते  हैं ,
तमोगुण वाले  संतुष्ट और असंतुष्ट दोनों होते  हैं। 

संतुष्ट व्यक्ति हर परिस्थिति में संतुष्ट रहता है चाहे उसे कोई भी परिस्थिति मिले, चाहे उसे बासी रोटी मिले या थाल भर के बहुत अच्छा भोजन मिले, वह हर परिस्थिति में अपने आप में प्रसन्न रहता है। तुलसीदासजी  ने शबरी को नवधा भक्ति में जो आठवाँ गुण बताया, वह संतुष्टि है, संतुष्ट होना ही सबसे बड़ा सद्गुण का परिचायक है।दूसरा - रजोगुणी  - हमेशा असंतुष्ट रहता है एक मकान बन जाता है तो सोचता है दस  मकान बन जाएं,  जो भी काम करता है उसमें वह कभी भी संतुष्ट नहीं होता, सोचता है कि, जो भी मेरे पास है वह बढ़ता ही जाए और तीसरा गुण होता है तमोगुण ,तमोगुणी देखने में सतोगुणी जैसा ही दिखता है सतोगुणी जहाँ संतुष्टि के कारण शान्त रहता है, तमोगुणी आलस्य और प्रमाद के कारण शान्त बैठा रहता है।  उसे किसी बात की चिंता नहीं रहती है, दूसरों की तरक्की  देखकर उसे ईर्ष्या होती है, एवं उसे हमेशा दूसरों की खुशियों से समस्या होती है। 

2) वाणी -  दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण है वाणी - मनुष्य जिस प्रकार की वाणी बोलता है उसी सेे उस के व्यक्तित्व का निर्धारण होता है,  जो सतोगुण व्यक्ति होता है वह हमेशा प्रिय बोलेगा, सत्य बोलेगा। 

 "ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा  खोय, औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।"

        सत्यम ब्रूयात प्रियम ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियम। 


दूसरा जो रजोगुणी व्यक्ति होता है वह हमेशा दंभ युक्त वाणी बोलता है, उसमें दूसरो को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति होती है। उसमें यह समझ नहीं होती है कि क्या बोलना है क्या नहीं बोलना।
तमोगुण व्यक्ति  एकदम विवेकहीन होता है उसे यह नहीं पता होता कि उसके लिए क्या हितकर है क्या अहितकर ,वह खुद ही अपने हित कार्यों मैं भी अहित  ही करवा लेता है और बिना कुछ सोचे समझे  किसी को कुछ भी बोल देता है।

3) भोजन - अगला लक्षण है भोजन सतोगुण व्यक्ति जानता हैै कब खाना 

हैै,  कितना खाना है  एवं वह  भूख लगने पर ही खाता है, सदा सरल सात्विक भोजन करता है।रजोगुण व्यक्ति  स्वाद युक्त भोजन ही करता है, हर प्रकार के भोजन में त्रुटि ढूंढता है।  तमोगुण व्यक्ति मादक, बासी, अभक्ष्य भोजन पसन्द करता है उसको यह पता ही नही कि  वह क्या खा रहा हैै, उसके भोजन में मादकता एवं  अशुद्धताा होती।

4) वस्त्र- वस्त्र से भी मनुष्य के लक्षणों का पता लगता है, जो सतोगुण व्यक्ति होता है वह श्वेत रंग के  सुविधाजनक वस्त्र पहनता है वह अपनेे वस्त्र समाज के अनुसार पहनता है, रजोगुण व्यक्ति रंगीन सुंदर एवंं जो नई फैशन में चल रहेे हैं उस तरह के एवं तमोगुण व्यक्ति गंदे मैले  एवं असुविधाजनक व असभ्य कपड़े पहनता है। 

5) आवास -जो सत्व गुण से युक्त व्यक्ति होगा उसका आवास स्वच्छ शुद्ध, उसके हर कमरे में सूरज का प्रकाश आता होगा एवं बहुत ही साफ और सुंदर होगा। जो  रजोगुण युक्त व्यक्ति होगा उसका आवास विलासिता पूर्ण एवं सारे सुख सुविधाओं सेे युक्त होगा, किंतु तमोगुण व्यक्ति का आवास अव्यवस्थित अशुद्ध उसकेे घर में मकड़ी के जालेे होंगे एवं घर का सारा सामान कपड़े इत्यादि अव्यवस्थित फैले हुए होंगे। उसेे खुद ही विचार नहीं होगा कि उसने अपने घर को कितना गंदा रख रखा है और  वह किस तरह से रह रहा है।

6) निवेश -सतगुणी  से व्यक्ति दान पुण्य में  अपना निवेश करता वह अपना पैसा हमेशा सुरक्षित जगह निवेश करता है उसेेे ज्यादा - ज्यादा लाभ का लालच नहीं होता है. वह भविष्य निधि, जीवन बीमा इत्यादि सुरक्षित स्थानों पर निवेश करता है।   रजोगुणी व्यक्ति शेयर मार्केेेेेट म्यूचल फंड एवं  जिस भी निवेश में  ज्यादा मुनाफा मिल जाए वहां पर अपना निवेश करना उचित समझता है।  एवं तमोगुण व्यक्ति जुआ एवं दस लगाओ सौ मिल जाए इस तरह के निवेश करता है, बहुत अधिक जल्दी अमीर बनना चाहता है, इस प्रकार के भाव से  अपना निवेश करता है। उसे नहीं पता होता है कि उसका पैसा सही जगह  लगा है या गलत जगह लगा है।  

7)कर्तव्य- सात्विक व्यक्ति हर कर्म अपने कर्तव्य के अनुसार करता है।  रजोगुण व्यक्ति को पता तो होता है कि यह काम करना चाहिए किंतु उसका मन होगा तो ही वह काम करेगा अन्यथा नहीं।  तमोगुण व्यक्ति मात्र मजबूरी में काम करेगा, उसमें भी बहुत ज्यादा परेशान होगा, कोई भी काम कभी भी खुश होकर नहीं करेगा।

8) स्वभाव -सतयुग से युक्त गुण व्यक्ति का स्वभाव से ही  हमेशा दूसरों का हित करेगा जब अंगद रामचंद्र जी के दूत बन कर लंका जाते हैं तो जाने के पहले श्री राम से पूछते हैं कि वहाँ जा कर मुझे रावण से कहना क्या है ? राम चंद्र जी कहते हैं 

काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई। 


रावण श्री राम का शत्रु था फिर भी सतगुणी श्री राम अंगद से कहते हैं कि रावण से कहना कि मेरा काम हो जाये और उसका भी हित हो।  रज गुणी लक्षणों से युक्त व्यक्ति अपना काम बनता बाकी मैं नहीं जानता  अपना हित हो जाए दूसरों का उसमें अहित भी हो रहा हैै तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह सिर्फ अपना ही सोचता है और तमोगुण व्यक्ति  दूसरोंं का अहित करने के लिए अपना भी अहित करने में संकोच नहीं करता  जैसे  जब बारिश होती है तो ओले  गिरते हैं ओला फसलों  को नष्ट कर देता है पर  वह स्वयं  भी नष्ट हो  जाता है। 

 9) रुचि- सतोगुण व्यक्ति हमेशा अच्छा सोचने में रुचि दिखाएगा। रजोगुण से युक्त व्यक्ति होगा उसकी सिर्फ एक ही इच्छा होगी लोग मेरे बारे मेंं अच्छा सोचेें, चाहे मैं अच्छा हूँ या नहीं उससे मुझे कोई लेना देना नहीं है।  तमोगुण व्यक्ति हमेशा अधर्म एवं उलटी बातों में ही अपनी रुचि दिखाएगा ।

10) इच्छा- सत़ गुणों से युक्त व्यक्ति आवश्यकता को महत्व देता है उसकी ज्यादा इच्छा नहीं होती। वह अपनी सीमित  जरूरत के लिए ही इच्छा करता है।  उसमें भी वह  पूरी हो जाए तो ठीक नहीं हो तो ठीक, वह सदैव  संतुष्ट  रहता है। रजोगुण व्यक्ति की असीमित इच्छाएं होती हैं।  तमोगुण व्यक्ति किसी भी तरह दूसरों को दुखी करने लगा रहता है।

11) संग - सद्गुणों सेे युक्त व्यक्ति सज्जनों का संग करताा है, समाज में उन लोगों में उठता बैठता है जो कि नैतिक मूल्य के होते हैं।  साधु भी यदि गलत है किंतु साधु के वेश में हैै तो लोग उसकेे भी पैर पड़ते हैं।  रजोगुण से युक्त व्यक्ति उच्च कोटि के राजनेताओं का संग करेगा एवं उच्च लोगों के साथ फोटो खिंचवाने में अपने दंभ को महसूस करेगा। तमो गुण से युक्त व्यक्ति अच्छे लोगों से दूरी बना लेता है ,अच्छे लोगों के साथ उठना बैठना उसे पसंद नहीं होता वह हमेशा निम्न  नैतिक मूल्य वाले लोगों का  संग करता है। 

तुलसीदास जी ने संग के प्रभाव की  अत्यन्त ही सौंदर्य युक्त उपमाओं व्याख्या की है। 
गगन चढ़ई रज पवन प्रसंगा। कीचहि मिलहि नीच जल संगा। 

रज अर्थात धूल के कण पवन का संग कर के आसमान को छू लेते हैं क्योंकि पवन ऊर्ध्व गामी है, और वही धूल के कण जल जो सदैव निम्न गामी होता है उसके सानिध्य में आकर कीचड़ में मिल जाते हैं। 
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।  संत हंस गुन गहहिं पय  परिहरि बारि बिकार। 

ईश्वर ने जड़ अर्थात प्रकृति और चेतन अर्थात पुरुष एवं गुण दोष युक्त विश्व का निर्माण किया है। साधू  इसमें से हंस की भाँति क्षीर नीर का विवेक कर के अपना मार्ग स्वयं ही निर्धारित कर लेते हैं। 

इन लक्षणों की संक्षिप्त सूची :-







 इन ग्यारह  गुणों के द्वारा  सत गुणी रजोगुणी, और  तमोगुण के  क्या-क्या लक्षण होतेे हैं उनको  दृश्य माध्यम से विस्तार से दर्शाया गया है जिसकी लिंक यहाँ उपलब्ध है। 


14.11

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्, प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं(म्) यदा तदा विद्याद्, विवृद्धं(म्) सत्त्वमित्युत॥14.11॥

जब इस मनुष्यशरीर में सब द्वारों (इन्द्रियों और अन्तःकरण) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है।

विवेचन : सत्व गुण का मूल मंत्र है "विवेक का बड़ा होना", जिसमें जितना ज्यादा विवेक होगा वह उतना ही ज्यादा सत़गुणी होगा। 

14.12

लोभः(फ्) प्रवृत्तिरारम्भः(ख्), कर्मणामशमः(स्) स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥

हे भरतवंशमें श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मोंका आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा -- ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं।

विवेचन : रजोगुण के बढ़ने पर स्वार्थ बुद्धि होगी, लोभ होगा उसे विषय भोगों की लालसा होगी उस में अशांति होगी एवं लोभो का चिंतन होगा वह कभी भी शांति से नहीं रह पाता होगा। वह हमेशा यह सोचता है कि मैं हर काम कर लूं उसके मन में असंतुष्टता होती है

14.13

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च, प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥

हे कुरुनन्दन! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह – ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं।

विवेचन : श्रीभगवान कहते हैं - अर्जुन अंतःकरण में जब अप्रकाश होगा, अप्रवृति होगी ,तब वहां तमोगुणी होगा। उसके मन में हमेशा उल्टी बातें आएंगी  .वह अपने कर्मों में हमेशा निंदा करेगा। आलस करेगा एवं  वह कोई भी काम करने लायक नहीं होता है।  कोई भी काम करेगा तो उसको ज्यादा बिगाड़ देगा क्योंकि उसके अंतःकरण में प्रकाश नहीं होता है। 

14.14

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु, प्रलयं(म्) याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां(म्) लोकान्, अमलान्प्रतिपद्यते॥14.14॥

जिस समय सत्त्वगुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है (तो वह) उत्तमवेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है।

विवेचन : अर्जुन सत्वगुणी व्यक्ति स्वर्ग में ऊंचे  लोको को प्राप्त हो  स्वर्ग के सुख भोगता है। 

14.15

रजसि प्रलयं(ङ्) गत्वा, कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि, मूढयोनिषु जायते॥14.15॥

रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्मसंगी मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।

विवेचन : तीनों कर्मों से ही मनुष्य को उसके  कर्मों का फल मिलता है रजोगुण से मरने वाला व्यक्ति बार-बार मनुष्य योनि में जन्म लेता है और तमोगुण बढ़ने वाला व्यक्ति बहुत ही विचित्र योनि भूत-प्रेत आदि बनता है एवं नरक भोगता है। 

14.16

कर्मणः(स्) सुकृतस्याहुः(स्), सात्त्विकं(न्) निर्मलं(म्) फलम्।
रजसस्तु फलं(न्) दुःखम्, अज्ञानं(न्) तमसः(फ्) फलम्॥14.16॥

विवेकी पुरुषों ने – शुभ कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख (कहा है और) तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।

विवेचन : सात्विक फल कर्म से सुख ज्ञान एवं निर्मल  होता है, रजोगुण से लोभ होता है एवं दुख को प्राप्त होता है क्योंकि वह लोगों की प्रगति में उलझा रहता है।  तामसिक व्यक्ति हमेशा अज्ञान में रहता है वह खुद की हानि कर लेता एवं उसे विचार भी नहीं होता कि वह खुद की हानि कर रहा है। 

14.17

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं(म्), रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो, भवतोऽज्ञानमेव च॥14.17॥

सत्त्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ (आदि) ही उत्पन्न होते हैं; तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं।

विवेचन : इसलिए व्यक्ति सत्व गुण में ज्ञान, रजोगुण में लोभ, एवं तमोगुण में मोह एवं अज्ञान को प्राप्त होते  हैं।

14.18

ऊर्ध्वं(ङ्) गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था, अधो गच्छन्ति तामसाः॥14.18॥

सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य ऊर्ध्वलोकों में जाते हैं, रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं (और) निन्दनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं।

विवेचन : सतगुण  में स्थित मनुष्य उर्ध्व लोको को जाते हैं ,रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं और  तमोगुण से युक्त मनुष्य नर्क को प्राप्त होते हैं। 

14.19

नान्यं(ङ्) गुणेभ्यः(ख्) कर्तारं(म्), यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं(म्) वेत्ति, मद्भावं(म्) सोऽधिगच्छति॥14.19॥

जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के (सिवाय) अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और (अपने को) गुणों से पर अनुभव करता है, (तब) वह मेरे सत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन : अर्जुन तीनों गुणों से अत्यंत ऊपर उठकर जो परमात्मा मानकर मेरे गुणों को ही जानता है मेरे गुणों को ही अनुभव करता है वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता है एवं वही सर्वश्रेष्ठ है। 

14.20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्, देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखै:(र्), विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥14.20॥

देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है।

विवेचन :  विवेकी मनुष्य इन तीनों गुणों का उल्लंघन करके तीनों प्रकार के दुखों से ऊपर उठकर अमरता का अनुभव करते हैं एवं भगवान को प्राप्त हो जाते हैं।

14.21

अर्जुन उवाच
कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणानेतान्, अतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः(ख्) कथं(ञ्) चैतांस्, त्रीन्गुणानतिवर्तते॥14.21॥

अर्जुन बोले – हे प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से (युक्त) होता है? उसके आचरण कैसे होते हैं? और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है?

विवेचन : अर्जुन पूछते हैं कि, हे पुरुषोत्तम किन किन लक्षणों से युक्त ऐसे  मनुष्य होते हैं ?क्या ऐसे मनुष्य भी होते हैं वह किस प्रकार आचरण करते हैं? इन तीनों गुणों पर अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है वह कौन सा व्यवहार है, जो इन तीनों गुणों से ऊपर उठा सकता है ? अर्जुन खुद आश्चर्यचकित है कि ऐसे भी मनुष्य होते भी  हैं। 

14.22

श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं(ञ्) च प्रवृत्तिं(ञ्) च, मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि, न निवृत्तानि काङ्क्षति॥14.22॥

श्री भगवान बोले – हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृति तथा मोह – (ये सभी) अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी (गुणातीत मनुष्य) इनसे द्वेष नहीं करता और (ये सभी) निवृत्त हो जायँ तो (इनकी) इच्छा नहीं करता।

विवेचन : श्री भगवान ने कहा -  हे अर्जुन प्रकाश और प्रवृति तथा मोह लोभ  सभी से जो अच्छी तरह से प्रवृत हो जाए वही गुणातीत है ,ना ही उसकी कोई इच्छा होती है और ना ही वह किसी से द्वेष करता है। 

14.23

उदासीनवदासीनो, गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव, योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥14.23॥

जो उदासीन की तरह स्थित है (और) (जो) गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता (तथा) गुण ही (गुणों में) बरत रहे हैं – इस भाव से जो (अपने स्वरूप में ही) स्थित रहता है (और स्वयं कोई भी) चेष्टा नहीं करता।

विवेचन : अर्जुन जो साक्षी भाव से  उदासीन की तरह स्थित हो जाता है जो किसी भी परिस्थिति में हिलता नहीं है,  मान और अपमान सब उसके लिए  समान है, वह इस  प्रकार का ज्ञानी है कि कोई उसके एक हाथ में चंदन का लेप करे और कोई उसके एक हाथ को कटार से छीले तब भी उसे चंदन का लेप करने वाले से प्रेम नहीं होता और कटार से छीनने वाले से घृणा नहीं होती ऐसा व्यक्ति ही गुणतीत होता है।

14.24

समदुःखसुखः(स्) स्वस्थः(स्), समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीर:(स्), तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥14.24॥

जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम (तथा) अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है, जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है। जो अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है (और) जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। (14.24-14.25)

विवेचन : जो मनुष्य सुख दुख में सामान जिसको मिट्टी के ढेले ,पत्थरों सोने में भी समानता दिखती है ,जिसको निंदा एवं प्रशंसा से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह प्रिय और अप्रिय दोनों में ही मित्र और शत्रु सभी में ही सम रहता है, सबको समान भाव से देखता है।  सब को  समान मान सम्मान देता है ,समभावी होता है एवं बहुत ही संतुष्ट  होता है ऐसा ही मनुष्य गुणातीत कहलाता  है। 

14.25

मानापमानयोस्तुल्य:(स्), तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः(स्) स उच्यते॥14.25॥

विवेचन :  मान और अपमान मित्र और शत्रु सभी परिस्थितियों का परित्याग कर जो हर परिस्थिति में समान रहता है  वहीं उच्च कोटि का गुणातीत होता है। 

14.26

मां(ञ्) च योऽव्यभिचारेण, भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥14.26॥

और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।

विवेचन : जो व्यक्ति सिर्फ मेरा ही आश्रित रहता है जो अपने हर गुणों का अतिक्रमण करके सिर्फ एक ही भाव कि "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई" इसी भावना से भगवान को ही अपना सबकुछ मान लेता है वही व्यक्ति ब्रह्म मुझे प्राप्त करने का अधिकारी होता है। 

14.27

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्, अमृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य, सुखस्यैकान्तिकस्य च॥14.27॥

क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं (ही हूँ)।

विवेचन :  हे अर्जुन उसके अमृत का तथा उसके धर्म का और उसके सुख का सब का एकमात्र आश्रय सिर्फ मैं ही हूं जो मेरे सिवाय कुछ नहीं जानता उसे मेरे सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं मिलता जिसके  कण-कण में ईश्वर समाए हैं वही गुणातीत है। 

इस प्रकार इन तीन गुणों की विस्तृत व्याख्या के संग इस ज्ञानमय सत्र एवं अध्याय का समापन हरी कीर्तन के साथ सम्पन्न हुआ। 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘गुणत्रयविभागयोग’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।