विवेचन सारांश
श्री भगवान के द्वारा आत्मतत्व का वर्णन
2.13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे, कौमारं(य्ँ) यौवनं(ञ्) जरा।
तथा देहान्तरप्राप्ति:(र्), धीरस्तत्र न मुह्यति॥2.13॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय, शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्या:(स्), तांस्तितिक्षस्व भारत॥2.14॥
एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा कि वह कुछ ऐसा बताए जो हर परिस्थिति में लागू हो। बीरबल ने उत्तर दिया कि "महाराज यह समय बीत जाएगा।" अर्थात् कोई परिस्थिति सदा नहीं रहती बदलती रहती है।
सर्दियों में एक विद्यार्थी रजाई में बैठकर पढ़ नहीं सकता क्योंकि ठंड में रजाई में गरमाई देती है, सुख देती है जिसके कारण हो सकता है उसे नींद आ जाए। यदि ज्ञान प्राप्त करना है तो विद्यार्थी को पहले सर्दी-गर्मी को सहना सीखना होगा। जो नित्य है उस पर ध्यान दो, जो अनित्य है उसे भूलकर हमें उन सिद्धांतों को पढ़ना चाहिए जो कभी नहीं बदलते। शाश्वत ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए जो श्रीमद्भगवद्गीता जी के सिद्धांत हैं। कभी न बदलने वाले उस तत्व के बारे में भगवान आगे कहते हैं -
यं(म्) हि न व्यथयन्त्येते, पुरुषं(म्) पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं(न्) धीरं(म्), सोऽमृतत्वाय कल्पते॥2.15॥
विवेचन : जो सुख-दुख को समान मानता है। सुख आने पर आनंदित नहीं होता और दुःख आने पर विचलित नहीं होता - वह ज्ञानी है। वह यह जानने पर विचलित नहीं होता, सम रहने का प्रयास करता है। सुख में एक्साइट (उत्तेजित) नहीं होता और दुःख में डिप्रेस्ड (तनावग्रस्त) नहीं होता। जो व्यक्ति भारी से भारी दुःख में विचलित नहीं होता, व्याकुल नहीं होता वह व्यक्ति अमरत्व को प्राप्त कर लेता है अर्थात् अमर हो जाता है, मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। वह स्वयं के आत्मतत्व को जानता है। वह इस देह के भाव से स्वयं को बाँधकर नहीं रखता, सुख-दुख आने से विचलित नहीं होता। इसके आगे भगवान जो बताते हैं वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है -
नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्त:(स्), त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥2.16॥
विवेचन : भगवान महत्वपूर्ण ज्ञान देते हुए बताते हैं कि जो नित्य है, यदि हम उसे पकड़ लेंगे तो अमरत्व को प्राप्त हो जाएँगे। जो यह जान लेता है कि सत् और असत् में क्या अंतर है वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। वह भगवान को प्राप्त कर लेता है। भगवान जो बताते हैं वह सिद्धांत हो जाता है। भगवद् प्राप्ति होने पर असत् का भाव नहीं रहता अर्थात् असत्य कभी नहीं रहता और सत्य का अभाव नहीं रहता। सत्य सदैव परिपूर्ण रहता है। सत्य की व्याख्या करते हुए श्रीभगवान कहते हैं कि सनातन चिरंतन शाश्वत सत्य वह है जो स्थान और काल बदलने पर भी नहीं बदलता। जैसे ग्रह-नक्षत्र सत्य हैं। धरती परिवर्तनशील है। जीव-जंतु, पेड़-पौधे सब परिवर्तनशील हैं। जो भारत में रहते हैं उनके लिए "उत्तर दिशा में हिमालय है।" यह वाक्य सत्य है। किन्तु अन्य देशों में बैठे लोगों के लिए यह सत्य नहीं है क्योंकि उनके लिए स्थान और दिशा का परिवर्तन हो गया है। यह सापेक्ष सत्य है।
हिमालय भी परिवर्तनशील है, इसे सबसे तरुण पर्वत माना गया है। करोड़ों वर्ष पहले पृथ्वी भी नहीं थी यह सत्य है। असत्य का कोई अस्तित्व नहीं होता वह नष्ट हो जाता है। सारी दुनिया में हमें उस तत्व को ढूँढ़ना है जो सदा रहता है, बदलता नहीं, जो सत्य है। असत्य दिखाई देता है पर सत्य हमें दिखाई नहीं देता हमें असत्य में सत्य ढूँढ़ना है। जड़ के साथ चैतन्य भी छुपा है। हमारी जीवात्मा जो हमारा सत्य स्वरूप है वह हमें दिखाई नहीं देता पर हमें उसे ढूँढ़ना है। इन दोनों सत्य और असत्य तत्वों को तत्वदर्शी ही जानते हैं, देखते हैं। एक तत्व है जो सत्य है अपरिवर्तनशील है। दूसरा तत्व असत्य है जो परिवर्तनशील है। जैसे गंगा जी हैं। गंगा जी में हम उसी पानी में दोबारा स्नान नहीं कर सकते क्योंकि गंगा जी के पानी का प्रवाह चल रहा है। जिस पानी में स्नान किया था वह वहाँ से बह गया।किसी ग्रीक दार्शनिक ने कहा है
"You cannot wash your hands in same river again."
भगवान कहते हैं कि जो नहीं बदलता उसे जानो। हम वही हैं – सोहम्। दूध और पानी को मिलाया जाए तो वे एकाकार हो जाते हैं, फिर उनको अलग-अलग करना आसान नहीं होता है। लेकिन राजहंस दूध को पानी से अलग कर देता है। उसी प्रकार तत्वज्ञानी उन दोनों पक्षों में सत्य और असत्य को पहचानते हैं। हमें भी वही तत्वज्ञान प्राप्त करना है जिसके द्वारा जड़ और चेतन, सत् और असत् को अलग-अलग पहचान सकें। जड़ और चेतन आपस में ऐसे ही मिले है जैसे दूध और पानी। दूध है और दूध में मक्खन है। हमें दूध दिखाई देता है लेकिन मक्खन दिखाई नहीं देता पर वह अव्यक्त रूप में रहता है। दूध से मक्खन बनाने के लिए पहले दूध का दही जमाया जाता है फिर उसका मंथन करके मक्खन निकाला जाता है। मक्खन दूध से आया पर दूध में दिखाई नहीं देता स्थूल रूप से नहीं दिखाई देता पर विचार करने पर सूक्ष्म रूप से दूध में मक्खन का तत्व दिखाई देता है। दूध में उसका स्वाद भी नहीं आता। सत् ऐसा ही तत्व है जो हमारे शरीर में है पर हमें दिखाई नहीं देता, वह हमारा आत्मतत्व है। मात्र तत्वज्ञानी ही आत्म तत्व और शरीर दोनों को अलग करके देखते हैं।
अविनाशि तु तद्विद्धि, येन सर्वमिदं(न्) ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य, न कश्चित्कर्तुमर्हति॥2.17॥
अन्तवन्त इमे देहा, नित्यस्योक्ताः(श्) शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य, तस्माध्यस्व भारत॥2.18॥
य एनं(व्ँ) वेत्ति हन्तारं(य्ँ), यश्चैनं(म्) मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो, नायं(म्) हन्ति न हन्यते॥2.19॥
स्वयं में स्वयं के स्वरूप को देखना, "मैं कौन हूँ" यह जानना ही आत्मज्ञान है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्, नायं (म्) भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः(श्) शाश्वतोऽयं(म्) पुराणो,
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥1.20॥
विवेचन : आत्मा का कभी जन्म नहीं होता। जिसका जन्म नहीं होता है वह मरता भी नहीं। शरीर का जन्म होता है शरीर के साथ भाव जुड़ जाने पर हम यह मानने लगते हैं कि मेरा जन्म हुआ है। वास्तव में जीवात्मा अजन्मा है, आत्मा का जन्म नहीं हुआ यही भगवान का स्वरूप है। जो हो गया या फिर से बनने वाला है ऐसा नहीं हो सकता। वह नष्ट होगा फिर बनेगा ऐसा भी नहीं होगा। उसके लिए कोई काल नहीं – भूतकाल, भविष्य काल, वर्तमान काल - सभी कालों में वह उपस्थित था। वह करोड़ों वर्ष पूर्व भी था, अभी भी है और आगे भी रहेगा। क्योंकि वह अजन्मा है, नित्य है, सर्वदा है, शाश्वत है, सनातन है, पुरातन है, कब से है किसी को नहीं पता। शरीर नष्ट हो जाने पर भी यह नष्ट नहीं होता, यही सच्चा स्वरूप है।
ज्ञानेश्वर महाराज बहुत सुंदर उदाहरण देते हैं। जैसे बहुत से घटों में पानी भर कर रखने पर हर घट में सूर्य का प्रतिबिंब दिखता है। पानी समाप्त होने पर या घट के फूटने जाने पर प्रतिबिंब नहीं दिखाई देगा। प्रतिबिंब नष्ट हो जाने की स्थिति में भी सूर्य नष्ट नहीं होता। उसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाने पर आत्म-तत्व नष्ट नहीं होता। जैसे घट के अंदर आकाश है बाहर भी आकाश होता है। घट टूटने पर आकाश नष्ट नहीं होता अपितु घट के अंदर और बाहर का आकाश एकाकार हो जाता है।
वेदाविनाशिनं(न्) नित्यं(य्ँ), य एनमजमव्ययम्।
कथं(म्) स पुरुषः(फ्) पार्थ, कं(ङ्) घातयति हन्ति कम्॥2.21॥
विवेचन : इस अविनाशी आत्म तत्व को - जो नित्य तत्व है, निरंतर रहता है, अजन्मा है, जिसका क्षरण नहीं होता, जैसा था वैसा ही रहता है - जो व्यक्ति इस बात को जानता है कि वह उस देख नहीं सकता फिर भी उसे मानता है, उसका अनुभव करता है वह ज्ञानी है। वह ज्ञान-चक्षु खुलने पर देखता है, उसे अनुभव कर सकता है। दूध में मक्खन है ऐसा हम मानते हैं पर उसे उस देख नहीं सकते। शरीर (देह) नाशवान है। शरीरी (देही या आत्मा) अविनाशी है। देह और देही दोनों महत्वपूर्ण हैं।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥2.22॥
विवेचन : जैसे मनुष्य अपने पुराने वस्त्र जीर्ण हो जाने पर उनका त्याग कर देते हैं और नए वस्त्र धारण कर लेते हैं, उसी प्रकार शरीर के जीर्ण हो जाने पर जीवात्मा उस जीर्ण शरीर का त्याग करके नए शरीर में चली जाती है।
नैनं(ञ्) छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं(न्) दहति पावकः।
न चैनं(ङ्) क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥2.23॥
विवेचन : शरीर को शस्त्र काट सकते हैं पर जीवात्मा को नहीं, अग्नि शरीर को जला सकती है पर जीवात्मा को नहीं, देहांत हो जाने पर शरीर को जलाते हैं पर जीवात्मा वैसी की वैसी रहती है इसे कोई जला नहीं सकता। जीवात्मा को जल गीला नहीं कर सकता, बिगाड़ नहीं सकता, वायु इसे सुखा नहीं सकती। जब यह आत्मज्ञान हो जाता है तो वह आत्मज्ञानी देह के साथ बँधा नहीं रहता। इसी भाव को रखकर अनेक हुतात्माओं ने अपना शरीर देश के लिए, भारत माता के लिए बलिदान कर दिया कि मरने के बाद हम नया शरीर धारण करके आएँगे और भारत माता को पुनः स्वतंत्र कराकर रहेंगे।
'शरीर मैं नहींं हूँ' यह अनुभूति महत्त्वपूर्ण है। एक प्रवचन चल रहा था। प्रवचन अच्छा हो गया। गजानंद महाराज जी ने कहा तो प्रवचन करने वाला व्यक्ति बोला कि यही सत्य है। महाराज जी ने जिस खटिया पर वक्ता बैठे थे उसके नीचे आग जला दी। जब खटिया जलने लगी तो प्रवचन करने वाला व्यक्ति भागने लगा। महाराज ने उसे हाथ पकड़ कर बैठा दिया कि तू अभी तो ज्ञान की बात कर रहा था, अब क्या हुआ। तुझे जब तक अनुभूति नहीं होगी तब तक यह ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। कर्मयोग का आचरण करने पर यथार्थ ज्ञान संभव है। केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं, अनुभूति प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम्, अक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः(स्) सर्वगतः(स्) स्थाणु:(र्), अचलोऽयं(म्) सनातनः॥2.24॥
विवेचन : जीवात्मा अछेद्य है - इसे काटा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, भिगोया नहीं जा सकता, सुखाया भी नहीं जा सकता। यह नित्य है, निरंतर है, सर्वगत है, सर्वदा है, सर्वत्र है। जो मुझमें है, तुझमें है, सबमें वही आत्म-तत्व है। वह स्थाई है - स्थिर है, इधर उधर नहीं भागता, अचल है। शरीर इधर-उधर जाता है पर जीवात्मा स्थिर रहती है। यह सनातन है। भगवान ने संक्षेप में बताया कि आत्मतत्व क्या है, कैसा है। इसको समझने के लिये आगे की गीता पढ़ना, पढ़ाना और आचरण में लाना है। इस त्रिसूत्री को अपनाना है। इससे शायद यह बात धीरे-धीरे हमारी समझ में आ जाए। ज्ञान प्राप्त करने प्रयास करना है, अभ्यास करना और उस प्रयास और अभ्यास को भी भगवद् अर्पण करते चलना है।
आज का अभ्यास भगवान को अर्पण करने के साथ सत्र का समापन हुआ।